कभी व्यथित हो कभी वारि दृग में भरे।
कभी हृदय के उद्वेगों का कर दमन॥
बातें रघुकुल-रवि की गुरुवर ने सुनीं।
कभी धीर गंभीर नितान्त-अधीर बन॥31॥
कभी मलिन-तम मुख-मण्डल था दीखता।
उर में बहते थे अशान्ति सोते कभी॥
कभी संकुचित होता भाल विशाल था।
युगल-नयन विस्फारित होते थे कभी॥32॥
कुछ क्षण रह कर मौन कहा गुरुदेव ने।
नृपवर यह संसार स्वार्थ-सर्वस्व है॥
आत्म-परायणता ही भव में है भरी।
प्राणी को प्रिय प्राण समान निजस्व है॥33॥
अपने हित साधन की ललकों में पड़े।
अहित लोक लालों के लोगों ने किए॥
प्राणिमात्र के दुख को भव-परिताप को।
तृण गिनता है मानव निज सुख के लिए॥34॥
सभी साँसतें सहें बलाओं में फँसें।
करें लोग विकराल काल का सामना॥
तो भी होगी नहीं अल्प भी कुण्ठिता।
मानव की ममतानुगामिनी कामना॥35॥
किसे अनिच्छा प्रिय इच्छाओं से हुई।
वांछाओं के बन्धन में हैं बध्द सब॥
अर्थ लोभ से कहाँ अनर्थ हुआ नहीं।
इष्ट सिध्दि के लिए अनिष्ट हुए न कब॥36॥
ममता की प्रिय-रुचियाँ बाधायें पडे।
बन जाती जनता निमित्त हैं ईतियाँ॥
विबुध-वृन्द की भी गत देती हैं बना।
गौरव-गर्वित-गौरवितों की वृत्तियाँ॥37॥
तम-परि-पूरित अमा-यामिनी-अंक में।
नहीं विलसती मिलती है राका-सिता॥
होती है मति, रहित सात्तिवकी-नीति से।
स्वत्व-ममत्व महत्ता-सत्ता मोहिता॥38॥
किन्तु हुए हैं महि में ऐसे नृमणि भी।
मिली देवतों जैसी जिनमें दिव्यता॥
जो मानवता तथा महत्ता मूर्ति थे।
भरी जिन्होंने भव-भावों में भव्यता॥39॥
वैसे ही हैं आप भूतियाँ आप की।
हैं तम-भरिता-भूमि की अलौकिक-विभा॥
लोक-रंजिनी पूत-कीर्ति-कमनीयता।
है सज्जन सरसिज निमित्त प्रात:-प्रभा॥40॥
बात मुझे लोकापवाद की ज्ञात है।
वह केवल कलुषित चित का उद्गार है॥
या प्रलाप है ऐसे पामर-पुंज का।
अपने उर पर जिन्हें नहीं अधिकार है॥41॥
होती है सुर-सरिता अपुनीता नहीं।
पाप-परायण के कुत्सित आरोप से॥
होंगी कभी अगौरविता गौरी नहीं।
किन्हीं अन्यथा कुपित जनों के कोप से॥42॥
रजकण तक को जो करती है दिव्य तम।
वह दिनकर की विश्व-व्यापिनी-दिव्यता॥
हो पाएगी बुरी न अंधों के बके।
कहे उलूकों के न बनेगी निन्दिता॥43॥
ज्योतिमयी की परम-समुज्ज्वल ज्योति को।
नहीं कलंकित कर पाएगी कालिमा॥
मलिना होगी किसी मलिनता से नहीं।
ऊषादेवी की लोकोत्तर-लालिमा॥44॥
जो सुकीर्ति जन-जन-मानस में है लसी।
जिसके द्वारा धरा हुई है धावलिता॥
सिता-समा जो है दिगंत में व्यापिता।
क्यों होगी वह खल कुत्सा से कलुषिता॥45॥