रघुकुल-पुंगव सब बातें हैं जानते।
इसीलिए हैं आप यहाँ भेजी गईं॥
कुलपति ने भी उस दिन था यह ही कहा।
देख रही हूँ आप अब यहीं की हुईं॥61॥
आप सती हैं, हैं कर्तव्य-परायणा।
सब सह लेंगी कृति से च्युत होंगी नहीं॥
किन्तु बहु-व्यथामयी है विरह-वेदना।
उससे आप यहाँ भी नहीं बची रहीं॥62॥
आजीवन जीवन-धन से बिछुड़ी न जो।
लंका के छ महीने जिसे छ युग बने॥
उसे क्यों न उसके दिन होंगे व्यथामय।
जिस वियोग के बरस न गिन पाये गिने॥63॥
आह! कहूँ क्या प्राय: जीवन आपका।
रहा आपदाओं के कर में ही पड़ा।
देख यहाँ के सुख में भी दुख आपका।
मेरा जी बन जाता है व्याकुल बड़ा॥64॥
पर विलोककर अनुपम-निग्रह आपका।
देखे धीर धुरंधर जैसी धीरता॥
पर दुख कातरता उदारता से भरी।
अवलोकन कर नयन-नीर की नीरता॥65॥
होता है विश्वास विरह-जनिता-व्यथा।
बनेगी न बाधिका पुनीत-प्रवृत्ति की॥
दूर करेगी उर-विरक्ति को सर्वदा।
ममता जनता-विविध-विपत्ति-निवृत्ति की॥66॥
पड़ विपत्तियों में भी कब पर-हित-रता।
पर का हित करने से है मँह मोड़ती॥
बँधती गिरती टकराती है शिला से।
है न सरसता को सुरसरिता छोड़ती॥67॥
महि में महिमामय अनेक हो गये हैं।
यथा समय कम हुई नहीं महिमामयी॥
पर प्राय: सब विविध-संकटों में पड़े।
किन्तु उसे उनपर स्व-आत्मबल से जयी॥68॥
मलिन-मानसों की मलीनता दूर कर।
भरती रहती है भूतल में भव्यता॥
है फूटती दिखाती संकट-तिमिर में।
दिव्य-जनों या देवी ही की दिव्यता॥69॥
आश्रम की कुछ ब्रह्मचारिणी-मूर्तियाँ।
ऐसी हैं जिनमें है भौतिकता भरी॥
किन्तु आपके लोकोत्तर-आदर्श ने।
उनकी कितनी बुरी-वृत्तियाँ हैं हरी॥70॥
इस विचार से भी पधारना आपका।
तपस्विनी-आश्रम का उपकारक हुआ॥
निज प्रभाव का वर-आलोक प्रदान कर।
कितने मानस-तम का संहारक हुआ॥71॥
है समाप्त हो गया यहाँ का अध्ययन।
अब अगस्त-आश्रम में मैं हूँ जा रही॥
विदा ग्रहण के लिए उपस्थित हुई हूँ।
यद्यपि मुझे पृथकता है कलपा रही॥72॥
है कामना अलौकिक दोनों लाड़िले।
पुण्य-पुंज के पूत-प्रतीक प्रतीत हों॥
तज अवैध-गति विधि-विधान-सर्वस्व बन।
आपके विरह-बासर शीघ्र व्यतीत हों॥73॥
जनक-नन्दिनी ने अन्याश्रम-गमन सुन।
कहा आप जायें मंगल हो आपका॥
अहह कहाँ पाऊँगी विदुषी आप सी।
आपका वचन पय था मम-संताप का॥74॥
अनसूया देवी सी वर-विद्यावती।
सदाचारिणी सर्व-शास्त्र-पारंगता॥
यदि मैंने देखी तो देखी आपको।
वैसी ही हैं आप सुधी पर-हित-रता॥75॥
जो उपदेश उन्होंने मुझको दिए हैं।
वे मेरे जीवन के प्रिय-अवलम्ब हैं॥
उपवन रूपी मेरे मानस के लिए।
सुरभित करनेवाले कुसुम-कदम्ब है॥76॥
कहूँ आपसे क्या सब कुछ हैं जानती।
पति-वियोग-दुख सा जग में है कौन दुख॥
तुच्छ सामने उसके भव-सम्पत्ति है।
पति-सुख पत्नी के निमित्त है स्वर्ग-सुख॥77॥
अन्तर का परदा रह जाता ही नहीं।
एक रंग ही में रँग जाते हैं उभय॥
जीवन का सुख तब हो जाता है द्विगुण।
बन जाते हैं एक जब मिलें दो हृदय॥78॥
रहे इसी पथ के मम जीवन-धन पथिक।
यही ध्येय मेरा भी आजीवन रहा॥
किन्तु करें संयोग के लिए यत्न क्या।
आकस्मिक-घटना दुख देती है महा॥79॥
कार्य-सिध्द के सारे-साधन मिल गए।
कृत्यों में त्रुटि-लेश भी न होते कहीं॥
आये विघ्न अचिन्तनीय यदि सामने।
तो नितान्त-चिन्तित चित क्यों होगा नहीं॥80॥