मूल रूप से हिंदू देवता गणेश भारतीय व्यापारियों में व्यापक तौर से पूजे जाते हैं और उन्होंने वाणिज्यिक व्यापार नेटवर्क के माध्यम से व्यापारियों के साथ यात्रा की है। इस कारण 10वीं शताब्दी के बाद अष्टविनायक की पूजा पूरे एशिया में की जाने लगी और अन्य मतों में भी प्रवेश कर गई। बौद्ध मत के अंदर गणपति के चित्रों का प्रचार करने में थांगका ने अहम भूमिका निभाई।
तिब्बती बौद्ध करते हैं गणेश जी के इस स्वरूप की पूजा।
सनातन धर्म के साथ बौद्ध मत में भी पूजनीय देवता हैं गणेश, परंतु इनका स्वरूप है भिन्न। इन्हें दिया गया है उस विशिष्ट कलाकृति में स्थान, जिसे तिब्बती लामा मानते हैं ईश्वर का निवास, बता रही हैं मैप अकादमी की खुशमी मेहता...
इस आलेख के मध्य की कलाकृति को देखिए। इस रचना के बीचों-बीच 12 हाथ वाले लाल गणपति खड़े हैं। उनके शरीर को घेरे आग की लपटें आस-पास की चट्टानों के नीले रंग के विपरीत दिख रही हैं। यह बौद्ध थांगका पेंटिंग महारक्त गणपति को दर्शाती है-गणपति का एक अवतार, जो तिब्बती बौद्ध मत में पाया जाता है।
देवताओं का निवास
मूल रूप से हिंदू देवता गणेश भारतीय व्यापारियों में व्यापक तौर से पूजे जाते हैं और उन्होंने वाणिज्यिक व्यापार नेटवर्क के माध्यम से व्यापारियों के साथ यात्रा की है। इस कारण 10वीं शताब्दी के बाद अष्टविनायक की पूजा पूरे एशिया में की जाने लगी और अन्य मतों में भी प्रवेश कर गई। बौद्ध मत के अंदर गणपति के चित्रों का प्रचार करने में थांगका ने अहम भूमिका निभाई।
सातवीं से 12वीं शताब्दी ईस्वी के बीच विकसित हुई थांगका लपेटे जाने वाले कागजों पर की जाने वाली जटिल पेंटिंग हैं, जिनमें बौद्ध देवताओं, अध्यापकों, लामाओं, बोधिसत्व और मंडल, राशिफल एवं जीवन-चक्र जैसे अनुष्ठानिक चित्रों को दर्शाया जाता है। पारंपरिक तौर पर लामाओं द्वारा बनाई गई और पुण्य कमाने के लिए बनवाई गई इन पेंटिंग्स का व्यापक तौर पर दृश्य और ध्यान लगाने के उपकरणों की तरह इस्तेमाल किया जाता था। थांगका पेंटिंग के दो स्रोत थे, भारत की पट्टचित्र परंपरा और बौद्ध मत में जमीन पर मंडल बनाने की प्रथा। ऐसा माना जाता है कि जो देवता इन पेंटिंग में दर्शाए गए हैं, ये पेंटिंग उन देवताओं का घर हैं। बुद्ध के विचारों का प्रचार करने के लिए जाते मुनि इन्हें लपेटकर साथ ले जाते थे।
चूहे के मुंह में मोतियों की धारा
न्यूयॉर्क के रूबिन म्यूजियम के संग्रह में रखी इस थांगका पेंटिंग का काल तिब्बत के सांग प्रांत में सोलहवीं शताब्दी का माना जाता है। इसमें गणपति का दर्शाया गया अवतार तिब्बती बौद्ध मत के शाक्य संप्रदाय के तीन प्रभावशाली देवताओं में से एक है। गणेश, कुरुक्कुल और तक्किराजा के इस समूह को मार चेन कोर सम (तीन महान लाली वालों) के नाम से पहचाना जाता है। अपने इस रूप में गणपति ऐसे चूहे पर खड़े हैं, जिसके मुंह से हीरे-मोतियों की धारा बह रही है- गणपति का यह चित्रण तिब्बती बौद्ध धर्म में विशेष है। देवता के माथे पर तीसरी आंख है और उन्होंने मुकुट पहना हुआ है। अपने दाहिनी तरफ के छह हाथों में उन्होंने कुल्हाड़ी, तीर, अंकुश, वज्र, तलवार और भाला पकड़ा हुआ है, जबकि बाईं तरफ के हाथों में वे मूसल, धनुष, खटवंगा (डंडा), दो कपाल के प्याले और ढाल पकड़े हुए हैं।
जहां भक्त कहलाते देवता
थांगका के ऊपरी कोनों में दो शाक्य लामा हैं-उन्हें उनकी गोल तिब्बती बौद्ध टोपी से पहचाना जा सकता है, जो शाक्य संप्रदाय में विशेष है। मान्यता है कि वे इस विशिष्ट ध्यान की प्रथा की संचरण की वंशावली के भाग हो सकते हैं। थांगका के ऊपरी भाग में, गणपति के ठीक ऊपर राक्षसों को वश में करने वाले नीले देवता भूतडामर का चित्र बना हुआ है। यह चित्र उस बौद्ध प्रथा का हिस्सा है, जिसमें भक्त अपने आपको देवता के रूप में देखते हैं। वे गणपति को नीले वैदूर्य पत्थर से बनी पहाड़ी गुफा में अपने सामने देखते हैं। वैदूर्य (जिसको आमतौर पर बिल्लौरी के नाम से जाना जाता है) पेंटिंग को फ्रेम करने वाले शैलीबद्ध घूंघर के माध्यम से दर्शाया गया है। इस रचना की पृष्ठभूमि नेपाली चित्रकला शैलियों से प्रेरित कटावदार डिजाइन के साथ बनाई गई है। दक्षिण-पूर्व एशिया के अन्य इलाकों में विलुप्त होने के काफी समय बाद भी यह शैली शाक्य संप्रदाय में लोकप्रिय बनी रही। हिंदू देवता के चित्रण के साथ-साथ यह तथ्य इस थांगका को इस इलाके में सांस्कृतिक संगम का श्रेष्ठ उदाहरण बनाता है।