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भक्ति की धारा प्रवाहित हो और उसमें भगवान के परम भक्तों की चर्चा नहीं हो, संभव ही नहीं। भक्तों के निर्मल चरित्र से हमें काफी कुछ सीखने-समझने का अवसर प्राप्त होता है। अब मैं आपको नारायण के ऐसे ही भक्त प

श्रीराम भक्त हनुमान साक्षात एवं जाग्रत देव हैं। हनुमानजी की भक्ति जितनी सरल है उतनी ही कठिन भी। कठिन इसलिए की इसमें व्यक्ति को उत्तम चरित्र और मंदिर में पवित्रता रखना जरूरी है अन्यथा इसके दुष्परिणाम भ

1.माता सरस्वती (विद्या की देवी ब्रह्मा की पत्नी)।2.माता सरस्वती (ब्रह्मा-सावित्री की पुत्री)।3.सावित्री (ब्रह्मा की पत्नी)।4.गायत्री (ब्रह्मा की पत्नी)।5.श्रद्धा (ब्रह्मा की पत्नी)।6.मेधा (ब्रह्मा की

सनातन धर्म में अनेक देवताओं का उल्लेख है उन देवताओ को किसी नाम विशेष से जाना जाता है। देवताओं का यह नामकरण उनके कार्य और गुण-धर्म के आधार पर किया गया है। हम यहाँ कुछ प्रमुख देवताओं के विषय में जाकारी

अन्नपूर्णा देवी हिन्दू धर्म में मान्य देवी-देवताओं में विशेष रूप से पूजनीय हैं। इन्हें माँ जगदम्बा का ही एक रूप माना गया है, जिनसे सम्पूर्ण विश्व का संचालन होता है। इन्हीं जगदम्बा के अन्नपूर्णा स्वरूप

इस संस्कार में शिशु के सिर के बाल पहली बार उस्तरे से उतारे जाते हैं। जन्म के पश्चात् प्रथम वर्ष के अंत तथा तीसरे वर्ष की समाप्ति के पूर्व मुंडन संस्कार कराना आमतौर पर प्रचलित है, क्योंकि हिंदू मान्यता

जनक जी एक राजा थे| उनका राज मिथिला पुरी में था| वह एक सत्पुरुष थे| न्यायप्रिय और जीवों पर दया करते थे| उनके पास एक शिव धनुष था| वह उस धनुष की पूजा किया करते थे| आए हुए साधु-संतों को भोजन खिलाकर स्वयं

*भगवत्कृपा* बहुत ही अद्भुत है ! कभी कभी तो अनेकों जप - अनुष्ठान आदि उपाय करने पर भी *यह भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त होती और कभी कभी कोई अनुष्ठान किये बिना ही यह *भगवत्कृपा* सहज ही मिल जाती है ! *भगवत्कृपा

पंचकोशी काशी का अविमुक्त क्षेत्र ज्योतिर्लिंग स्वरूप स्वयं भगवान विश्वनाथ हैं । ब्रह्माजी ने भगवान की आज्ञा से ब्रह्माण्ड की रचना की । तब दयालु शिव जी ने विचार किया कि कर्म-बंधन में बंधे हुए प्राणी मु

जहां-जहां अभिमान है, वहां-वहां भगवान की विस्मृति हो जाती है। इसलिए भक्ति का पहला लक्षण है दैन्य अर्थात् अपने को सर्वथा अभावग्रस्त, अकिंचन पाना। भगवान ऐसे ही अकिंचन भक्त के कंधे पर हाथ रखे रहते हैं। भग

जीवन तो ईश्वर प्रदत्त है, परन्तु हम जगत के प्राणी इसको अपना समझ बैठे है। हम इस शरीर को अपना समझ बैठे है, जो नाशवान है। पता नहीं कि कब यह शून्य हो जाये, कब शिथिल हो जाए। जैसे ही इसमें से आत्मा निकल जात

माता के गर्भ में मलिन भोजन के जो दोष शिशु में आ जाते हैं, उनके निवारण और शिशु को शुद्ध भोजन कराने की प्रक्रिया को अन्नप्राशन संस्कार कहा जाता हैअन्नाशनान्मातृगर्भे मलाशायपि शुद्धघति।शिशु को जब 6-7 माह

*भगवत्कृपा* सभी प्राप्त करना चाहते हैं परंतु *भगवत्कृपा* की प्राप्ति अपने प्रयत्न से संभव नहीं है ! यह धारणा प्रगाढ़ भक्ति उत्पन्न करती है ! भक्ति में जहां केवल विश्वास और प्रेम की आवश्यकता होती है वह

भगवान को दयासिंधु , कृपासिंधु एवं करुणासिंधु आदि कहा जाता है ! अनेकों नामों से उनको पुकारा जाता है ! *दया एवं कृपा इन दोनों में क्या भेद है ?* क्या यह दोनों एक ही है या इनमें कोई भेद है ? यह समझने की

भगवान के *मंगलमय विधान* सभी मनुष्य ग्रहण नहीं कर पाते , कुछ लोग भगवान तो अन्यायकारी एवं क्रूर भी कह देते हैं ! भगवान के *मंगलमय विधान* में आस्था उन्हीं प्राणियों की नहीं होती जो बल के दुरुपयोग को ही ज

भगवान का विधान इतना मंगलमय है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता !  भगवान के *मंगलमय विधान* के अंतर्गत सारी सृष्टि कार्य कर रही है ! मनुष्य को जो स्वाधीनता मिली हुई है उसका कारण भगवान का *मंगलमय विधान* ही

मनुष्य को यह चाहिए कि वह सदैव प्रत्येक हाल में *भगवत्कृपा* का आश्रय लें ! जिस रूप में भी वह आए उसका स्वागत करें ! यदि वह कृपा हमारा मान भंग करने वाली हो , प्रतिष्ठा मिटाने वाली हो जगत से संपर्क हटाने

प्रत्येक मनुष्य *भगवतकृपा* तो चाहता है परंतु अपनी कोई भी संपत्ति भगवान को अर्पित नहीं करना चाहता ! वह सब को अपना मानता है ! जबकि मनुष्य यदि अपनी संपत्तियों को भगवान की सेवा में लगा देता है तो वह उन भो

मनुष्य का सारा जीवन संपत्ति एवं विपत्ति के मध्य होकर व्यतीत होता है !  यदि धन प्राप्त हो गया , ऐश्वर्य मिल गया , समाज में प्रतिष्ठा हो गई तो लोग इसको *भगवतकृपा* मानते हैं ! वहीं दूसरी ओर यदि निर्धनता

सबसे पहले तो मैं श्री गणेश की वंदना करता हूं। गौरी- महेश नंदन बिना विघ्न के मेरी इस रचना का पूर्ण करें। तत्पश्चात मैं वीणा धारनी शक्ति स्वरुपा जगदंबा शारदा की वंदना करता हूं। वे मुझे ज्ञान पुंज दे, जो

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