प्रत्येक मनुष्य *भगवतकृपा* तो चाहता है परंतु अपनी कोई भी संपत्ति भगवान को अर्पित नहीं करना चाहता ! वह सब को अपना मानता है ! जबकि मनुष्य यदि अपनी संपत्तियों को भगवान की सेवा में लगा देता है तो वह उन भोग पदार्थों का स्वामी कहा जा सकता है , परंतु आज मनुष्य सभी भोग पदार्थों का स्वामी होकर भी उसका गुलाम बना हुआ और जहां भोगों की गुलामी हो वहां *भगवत्कृपा* कैसे हो सकती है ! *भगवत्कृपा* तो वहां होती है जहां सारी गुलामी छोड़कर केवल भगवान की गुलामी होती है ! जहां समस्त परतंत्रता टूट जाती है वहां मात्र भगवान के चरणों का आश्रय रह जाता है , परंतु मनुष्य अपने भागों में नित्य वृद्धि करता है और नित्य नए-नए व पदार्थों की कामना करके *भगवत्कृपा* प्राप्त करना चाहता है ! सब कुछ पा जाने के बाद भी मनुष्य की इच्छाएं अपूर्ण ही रहती हैं क्योंकि उसे संतोष नहीं होता है और जब तक संतोष नहीं होगा तब तक कामनाएं भी नष्ट नहीं हो सकती ! गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज लिखते है:--
*बिनु संतोष न काम नसाहीं !*
*काम अछत सुख सपनेहुँ नाहीं !!*
*राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा !*
*थल बिहीन तरु कबहुँ कि जामा !!*
(मानस)
*अर्थात्:-* संतोष के बिना कामना का नाश नहीं होता और कामनाओं के रहते स्वप्न में भी सुख नहीं हो सकता और श्री राम के भजन बिना कामनाएँ कहीं मिट सकती हैं ? बिना धरती के भी कहीं पेड़ उग सकता है ? जब तक भगवान के चरणों का आश्रय नहीं लिया जाएगा , भगवान की शरण में नहीं जाया जाएगा तब तक *भगवत्कृपा* नहीं होगी ! *भगवत्कृपा* के बिना भगवद्भजन नहीं हो सकता और जब तक भगवद्भजन नहीं होगा तब तक कामनाओं का विनाश नहीं हो सकता ! अनेकों प्रकार के धन इकट्ठा करके भी मनुष्य सुख का अनुभव नहीं करता है क्योंकि उसने अपने संतोष रूपी धन को गवा दिया है ! जब तक ह्रदय में संतोष नहीं होगा तब तक मनुष्य को सुख का अनुभव नहीं हो सकता ! कहा गया है :-
*गोधन गजधन बाजिधन और रतन धन खान !*
*जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान !!*
कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य *भगवत्कृपा* तो चाहता है परंतु भगवदमार्ग का अनुसरण नहीं कर पाता ! जब तक भगवदमार्ग का अनुसरण नहीं किया जाएगा तब तक *भगवत्कृपा* की प्राप्ति असंभव ही है ! भोगबाहुल्य *भगवान की कृपा* का लक्षण नहीं है *भगवान की सच्ची कृपा* तो वहां मानी जाती है जहां भगवान का प्रेम है , भगवान के चरणों में अनुराग है ! कितने ही साधक भगवान से कहते हैं :- अमुक आदमी कितना सुखी हो गया है ,कितने पैसे वाला हो गया है , उसके व्यापार पर आपकी कृपा है परंतु हमारे साथ आपने दुर्भाव किया है ! भगवान किसी के साथ दुर्भाव नहीं करते हैं ! दुर्भाव तो मनुष्य करता है भगवान को भूल कर के ! जब संकट में आता है तो भगवान का सुमिरन करता है , भगवान को याद करता है परंतु जब भगवान उसको सुख दे देते हैं तो भगवान को भूल जाता है ! जब मनुष्य भोग बाहुल्य साधन प्राप्त करके अनर्गल कृत्य करने लगता है तब भगवान एक झटके में उसके सारे भोगों का हरण कर लेते हैं ! यह उनकी *विशेष भगवत्कृपा* होती है , परंतु मनुष्य इस रहस्य को नहीं जान पाता है ! यदि सुख एवं दुख दोनों में निरंतर *भगवत्कृपा* का अनुभव करना है तो भगवान को कभी भूलना नहीं चाहिए ! जब मनुष्य भगवान को भूलने लगता है तभी उसके दुर्दिन आते हैं यदि भगवान का सुमिरन सुख में भी होता रहे तो *भगवत्कृपा* मिलती रहे :--
*दुख में सुमिरन सब करें सुख में करे न कोय !*
*जो सुख में सुमिरन करे दुख काहे को होय !!*
*भगवत्कृपा* के इस रहस्य को जो जान जाता है उस पर निरंतर *भगवत्कृपा*;बरसती रहती है परंतु मनुष्य नित्य नए भोगपदार्थ की लालसा में भगवान को भी भुला देता है ! वास्तव में भोगों का प्रोत्साहन देना मनुष्य को बिगाड़ना है , उसे बुरे मार्ग में लगाना है ! ऐसे मार्ग में लगा देना तो उसके साथ शत्रुता करना है ! ऐसी कोई वस्तु किसी प्राणी को दे दे जो हम भगवान को भूल जाय ! अमृत को भूलकर विष खा ले तो वह मित्र नहीं हो सकता ! उसका मुख ऊपर से मीठा हो सकता है परंतु उसके भीतर हलाहल विष भरा हुआ है ! *मित्र वह है जो अंदर से मित्र है और जो हमें सुधार देता है विषय भोगों में लगाने वाले मित्र तो हैं पर मित्रता के योग्य नहीं होते हैं !* यदि हमारे भोगों का विनाश करके भगवान हमें विपत्ति देते हैं तो यह समझना चाहिए कि भगवान ने हमको पाप मार्ग में जाने से बचा दिया यह उनकी *विशेष कृपा* है भगवान ही हमारे सच्चे मित्र हैं |