मनुष्य का सारा जीवन संपत्ति एवं विपत्ति के मध्य होकर व्यतीत होता है ! यदि धन प्राप्त हो गया , ऐश्वर्य मिल गया , समाज में प्रतिष्ठा हो गई तो लोग इसको *भगवतकृपा* मानते हैं ! वहीं दूसरी ओर यदि निर्धनता हो गयी , प्रतिष्ठा चली जाए या कोई ऐसा कार्य हो जाए जो आपके अनुकूल ना हो तो मनुष्य उसको विपत्ति का नाम देता है ! संपत्ति और विपत्ति वास्तव में क्या है इसका आंकलन कोई नहीं करना चाहता हमारे शास्त्रों में लिखा है:--
*विपदो नैव विपद: सम्पदो नैव सम्पद: !*
*विपद् विस्मरणं विष्णो: सम्पन्नारायणस्मृति: !!*
*अर्थात:-* वास्तव में संसार की विपत्तियों को विपत्ति नहीं कहना चाहिए हम जिसको संपत्ति मानते हैं वह संपत्ति भी नहीं है , बल्कि जब हम भगवान को भूल जाते हैं तब हमको यह मानना चाहिए कि हमारे ऊपर विपत्ति आ गई है ! भगवान को याद रखना ही सबसे बड़ी संपत्ति है क्योंकि भगवान को याद रखने पर ही *भगवतकृपा* बनी रहती है ! हनुमान जी महाराज स्वयं राघवेंद्र सरकार से कहते हैं :--
*कह हनुमंत बिपति प्रभु सोई !*
*जब तव सुमिरन भजन न होई !!*
(मानस)
*अर्थात:-* जिस काल में भगवान का साधन , भजन उनका मधुर स्मरण नहीं होता वह काल भले ही सौभाग्य का माना जाय , उस समय चाहे चारों और यह कीर्ति , मान , पूजा होती हो सब प्रकार के भोग उपस्थित हों समस्त सुख उपलब्ध होने पर जो भगवान को भूला हुआ है , भगवान की ओर से उदासीन है वह तो विपत्ति में ही है ! असली विपत्ति यही है ! इस विपत्ति को भगवान हरण करते हैं अपने स्मरण की संपत्ति देकर ! तभी *भगवत्कृपा* अधिक होती है ! जब मनुष्य धन - पुत्र की प्राप्ति , व्यापार की उन्नति , आमदनी , प्रशंसा , शरीर की सुंदरता , अच्छे घर , कीर्ति , अधिकार आदि को *भगवत्कृपा* मान लेता है तो वह *भगवतकृपा* को बहुत संकुचित दायरे में ले आता है ! यद्यपि यह *भगवत्कृपा* है परंतु यह समस्त सामग्रियां भगवान की पूजा के उपकरण बनी हुई हो तो ! और यदि भोग सामग्रियां , सारी की सारी वस्तुएं भगवान के पूजन का उपकरण ना बनकर अपने ही पूजन में मनुष्य लगाता है तो यहां भगवान का तिरस्कार होता है , अपमान होता है ! वस्तुतः इन भोग सामग्रियों को भगवान इसलिए प्रदान करते हैं कि इनके द्वारा उनकी पूजा करके मनुष्य कृतार्थ हो जाय ! इसे अपना न मान कर के भगवान का माने , परंतु मनुष्य इसे अपना मान लेता है और भगवान को भूल जाता है ! वह यह भूल जाता है कि वह स्वामी नहीं बल्कि सेवक है ! यही संसार के भोग उसे धर्म से पतित कर देते हैं , वह भोगों का गुलाम बन जाता है ! इन भोगों को ही दु:खयोनि कहा गया है !
*मानव योनि दई प्रभु ने ,*
*पुनि सुंदर रूप प्रदान कियो है !*
*मात पिता सुत बंधु दियो ,*
*संसार में पुनि सम्मान दियो है !!*
*सुख भोग के साधन बहुत दिये ,*
*ऐश्वर्य समस्त महान दियो है !*
*"अर्जुन" बिसराइ कृपा प्रभु की ,*
*मति मूढ़ मनुज अभिमान कियो है !!*
(स्वरचित)
किसी संपत्ति के नष्ट होने पर मनुष्य को कष्ट क्यों होता है ? क्योंकि उसे यह लगता है यह सारी संपत्ति हमारी बनाई हुई है ! संपत्ति बनने में उसको *भगवत्कृपा* नहीं दिखाई पड़ती ! जब मनुष्य को यह लगता है कि यह सब कुछ हमारा है तब वह *भगवत्कृपा* नहीं मानता परंतु जब संपत्ति नष्ट हो जाती है तब अनेकों प्रकार के बिलाप करता हुआ भगवान को अनेकों प्रकार के दोष लगाता है ! *संपत्ति का विनाश क्यों होता है ? भगवान कष्ट क्यों देते हैं ?* इसका सीधा सा कारण है कि *भगवान का भोजन अहंकार है* ! जब मनुष्य को अपने पद का , अपने धन का , अपने ऐश्वर्य का अहंकार होने लगता है तो भगवान अहंकार को भोजन समझकर स्वीकार कर लेते हैं और मनुष्य की संपत्तियां नष्ट हो जाती हैं ! ईश्वर ने जो भी संपत्ति दी है , या जो हमने अपनी मेहनत से बनाया है उसमें सब में *भगवत्कृपा* निहित है ! बिना *भगवत्कृपा* के संसार में कुछ भी नहीं हो सकता है ! मनुष्य के दुख का कारण यही है कि वह अपने किए हुए कर्मों से बनाई हुई संपत्तियों में *भगवत्कृपा* नहीं मानता जबकि बिना *भगवत्कृपा* के इस संसार में पत्ता भी नहीं हिल सकता ! *भगवत्कृपा* के इस रहस्य को जाने बिना *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त की जा सकती |