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*भगवत्कृपा* प्राप्त करने का सबसे सरल साधन भगवान से प्रेम ! जो भगवान से प्रेम करता है वह यह नहीं देखता कि हमको सुख मिल रहा है कि दुख ! कैसी भी परिस्थिति हो उसके प्रेम में कमी नहीं आती ! जो ऐसा करता है

प्रायः लोग दैनिक पूजा पाठ करके , कुछ अनुष्ठान करके , भगवान का नामजप करके स्वयं को भगवान का भक्त मानने लगते हैं और जब उन पर कोई संकट आता है , कोई कष्ट आता है तो वह संसार में यही कहने लगते हैं कि जब संक

इस जगत में आ करके भगवान के विषय में सुनकर प्रत्येक व्यक्ति भगवान का दर्शन करना चाहता है जबकि भगवान अनेक रूपों में संसार में व्याप्त हैं ! माता ,  पिता , गुरु के अतिरिक्त भगवान का एक रूप भी है *जिसे डॉ

जब मनुष्य पर दु:ख आ जाय तब यह समझना चाहिए कि यह *भगवत्कृपा* है ! क्योंकि सुख और दु:ख दोनों में *भगवत्कृपा* बराबर मिलती है ! परंतु लोग अपने अनुसार ही *भगवत्कृपा* का भी आंकलन करते है ! आज देखने को मिल र

भगवान सदेव भक्तों की रक्षा के लिए ,  उनको अनेकों ताप ताप एवं रोगों से बचाने के लिए कष्ट दिया करते हैं ! यह उनकी *विशेष भगवत्कृपा* है जैसे किसी अबोध बालक के एक जहरीला फोड़ा हो जाय वह असहनीय वेदना में त

बहुत से लोगों का ऐसा मानना है कि जब *भगवान की कृपा* होती है तब धन ,  ऐश्वर्य , स्त्री - पुत्र , मान - कीर्ति और शरीर संबंधी अनेकानेक भोगों की प्राप्ति होती है ! जिन लोगों के पास भोगों का बाहुल्य है बस

*भगवत्कृपा* कई रूपों में मनुष्य को प्राप्त होती है ! *गुरुकृपा , संत कृपा  हनुमत्कृपा आदि अनेक रूपों में यह मानव मात्र का कल्याण करती है !* सकल सद्गुण के आगार अंजनानंदन श्री हनुमान जी दया के धाम हैं !

असीम *भगवत्कृपा* होने पर यह मानव शरीर मिला है ! इस मानव शरीर को पाने के बाद भी मनुष्य को इसकी उपयोगिता नहीं समझ में आती और मनुष्य विषय वासनाओं में फंसकर सब कुछ भूल जाता है ! यह शरीर मिलने के बाद ईश्वर

इस संसार में जन्म लेने के बाद प्रत्येक मनुष्य *भगवत्कृपा* प्राप्त करना चाहता है | *भगवत्कृपा* तो सब पर निरंतर है , सभी अवस्थाओं में है , सभी स्थान पर है |  इस *भगवत्कृपा* का अनुभव हमारे पूर्वजों ने बह

सकल सृष्टि में चौरासी लाख योनियाँ हैं सब पर ही *भगवत्कृपा* बरसती रहती है ! परंतु मानव योनि पर तो *विशेष भगवत्कृपा* है ! विचार कीजिए कि यदि हम पर *विशेष भगवत्कृपा* न होती तो  पेड़ - पौधे या घोड़े - गधे य

*भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि मनुष्य उच्च कुल में जन्म लेकर के सुंदर आकृति वाला हो ,  गुणवान हो , धनवान हो , बलवान हो या फिर बुद्धिमान हो *भगवत्कृपा* कभी गुणों का अर्थ नहीं ग्रह

जीवन में हम अनेक प्रकार की प्रतियोगिताओं एवं परीक्षाओं से दो-चार होते रहते हैं प्रत्येक प्रतियोगिता एवं परीक्षा का सबसे पहले हमें नियम समझाया जाता है क्योंकि प्रत्येक प्रतियोगिता का नियम विशेष होता है

*भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए भगवान की शरण में जाना पड़ेगा ! बिना भगवान की शरण ग्रहण किये *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त हो सकती ! अनेकों लोग लक्ष्मी जी (धन)  को प्राप्त करने के लिए अनेक व्रत , अनुष्ठान ए

समस्त सृष्टि में ब्रह्म एवं माया का ही विस्तार है ! ब्रह्म की अनुगामिनी माया सबको अपने वश में करके नचाती रहती हैं ! जहां ब्रह्म चराचर जगत में व्याप्त है वहीं माया के लिए भी लिखा गया है कि :-  *गो ग

*भगवत्कृपा* बहुत ही गूढ़ है इसे प्राप्त करने के लिए किसी भी मार्ग से भगवान की भक्ति करने की आवश्यकता होती है ! भगवान ने अपनी *कृपा* से अनेकों पापियों का उद्धार किया है परंतु इन पापियों ने भी जाने अनजा

इस संसार में जन्म लेने के बाद प्राय: मनुष्य को शिकायत होती है कि हमने जीवन भर पुण्य किया , धर्म किया , कर्म किया परंतु हमें *भगवतकृपा* नहीं प्राप्त हुई , न तो भगवान की झलक ही दिखाई पड़ी ! ऐसे अनेक लोग

*भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए किसी विशेष साधन की आवश्यकता नहीं होती , क्योंकि *भगवत्कृपा* साधन साध्य नहीं होती बल्कि:-- *यमेषैव वृणुते तेन लभ्य:* जिन पर सर्वेश्वर श्यामसुंदर स्वयं *कृपाकटाक्ष*

भगवान कितने *कृपालु* हैं उनकी *कृपा* कैसी है ! यह कोई कैसे बतला सकता है ! वह तो *कृपामूर्ति* हैं !  *उनमें कृपा ही कृपा है* वहां न्याय नहीं है , इंसाफ नहीं है यही कहना पड़ता है !  उनकी *कृपाशक्ति* इतन

*भगवत्कृपा* इस संसार में सबके लिए समान रूप से होती है परंतु इस दिव्य *भगवत्कृपा* की अनुभूति सबको नहीं हो पाती ! *कृपा की अनुभूति किसको होती है ?* इसके विषय में यदि विचार किया जाए तो यह समझ में आता है

बिना *भगवतकृपा* के इस संसार में कुछ भी नहीं हो सकता , कोई भी सिद्धि करनी हो , कुछ प्राप्त करना तो उसके लिए *भगवत्कृपा* का होना बहुत आवश्यक है क्योंकि *भगवतकृपा* के बिना इस संसार में पत्ता तक नहीं हिलत

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