भगवान को दयासिंधु , कृपासिंधु एवं करुणासिंधु आदि कहा जाता है ! अनेकों नामों से उनको पुकारा जाता है ! *दया एवं कृपा इन दोनों में क्या भेद है ?* क्या यह दोनों एक ही है या इनमें कोई भेद है ? यह समझने की आवश्यकता है ! *दया , कृपा , अनुकंपा , करुणा अनुग्रह यह सब प्राय: समान अर्थवाची है !* फिर भी *दया और कृपा में थोड़ा सा अंतर है* दया प्राणी मात्र पर समान रूप से की जाती है ! *दया सर्वभूतेषु* दया में भेदभाव पक्षपात नहीं होता ! दया के लक्षण हमारे धर्मग्रन्थों में बताए गए हैं ! जो संपूर्ण भूतों में अपने आत्मा के ही समान हित के लिए शुभ कल्याण के लिए बरतता है निरंतर समान भाव से आचरण करता हुआ प्रसन्न होता है , *उसकी उस क्रिया का नाम दया है* ! चाहे दूसरा पुरुष हो तो या अपना बंधुवर्ग , चाहे मित्र हो अथवा अपने से द्वेष करने वाला शत्रु ही क्यों ना हो इन सब में अपने आत्मा के ही समान बर्ताव किया जाता है *उसी को दया कहते हैं !* यथा :--
*आत्मवत् सर्वभूतेषु यो हिताय शुभाय च !*
*वर्तते सततं दृष्टं क्रिया ह्येषा दया स्मृता !!*
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*परस्मिन बन्धुवर्गे वा मित्रे द्वेष्टरि वा सदा !*
*आत्मवद् वर्तितव्यं हि दयैषा परिकीर्तिता !!*
(अत्रिसंहिता/४१)
दया सर्वसाधारण पर एक समान की जाती है ! *किंतु कृपा अपने प्रिय जन पर ही की जाती है !* अपना आज्ञाकारी व वशवर्ती दास हो , अपना अभिन्न मित्र हो , अपना पुत्र हो इन पर कृपा की जाती है ! *जैसे एक तो सामान्य धर्म होता है दूसरा विशेष धर्म* ! गंगा स्नान करना , भगवान का नाम स्मरण करना , स्वधर्म का पालन करना *यह सामान्य धर्म है* इन्हें सब कर सकते हैं ! किंतु विशेष रूप से किसी को कोई अनुष्ठान बताना , विशिष्ट मंत्र की दीक्षा देना , *यह विशेष कर्म है* इसी प्रकार सामान्य रूप से सब पर द्रवित होने की वृत्ति दया तथा विशेष स्नेह से किसी के प्रति करुणार्द्र हो जाना कृपा कहलाती है ! *सिद्धांतत: सामान्य धर्म से विशेष धर्म बलवान होता है अतः दया से कृपा अधिक बलवती कही जा सकती है !* कृपा और दया के भेद को स्पष्ट समझने के लिए *अम्बरीश और दुर्वासा* का ही दृष्टांत ले लीजिए ! वैसे भगवान की दया अम्बरीश और दुर्वासा दोनों पर समान थी किंतु अमरीश पर *विशेष भगवत्कृपा* थी ! क्यों थी ? इसलिए कि उन्होंने अपना सब कुछ भगवान को ही अर्पण कर रखा था ! वह अपने लिए कुछ भी पुरुषार्थ नहीं करते थे ! उन्होंने अपना तन - मन , प्राण तथा समस्त कर्म भगवान को ही अर्पण कर रखे थे ! उनके पैर चलते तो केवल भगवान के क्षेत्रों की यात्रा करने के लिए , उनका हाथ सदा भगवान की वंदना में रहता था , उन्होंने माला चंदन आदि समस्त भोग सामग्रियों को भगवान की सेवा में ही समर्पित कर रखा था ! भोगों की भोगने की इच्छा से नहीं अपितु इन वस्तुओं को भगवत समर्पण करने से मुझे भगवान का प्रेम प्राप्त हो , जो प्रेम सर्वसाधारण जनों को नहीं ! भगवान के प्रेमीजनों को ही प्राप्त होता है ! इस इच्छा से ही वे समस्त कर्तव्य कर्मों में प्रवृत्त होते थे ! इस प्रकार उन्होंने अपना समस्त कर्म यज्ञपुरुष इंद्रियातीत भगवान की ही प्रति सर्वात्मभाव से समर्पित कर दिया था ! वह भगवद्भक्त ब्राह्मणों की आज्ञा अनुसार ही पृथ्वी का पालन करते थे ! उन्होंने अपनी कोई इच्छा ही नहीं रखी थी ! उनके भाव का वर्णन करते हुए वेदव्यास भगवान लिखते हैं :--
*पादौ हरे: क्षेत्रपदानुसर्पणे ,*
*शिरो हृषकेशपदाभिवन्दने !*
*कामं च दास्ये न तु कामकाम्यया ,*
*यथोत्तमश्लोकजनाश्रया रति: !!*
*एवं सदा कर्मफलापमात्मन: ,*
*परे$धियज्ञे भगवत्यधोक्षजे !*
*सर्वात्मभावं विदधन्महीमिमां ,*
*तन्निष्ठविप्राभिहित: शशास ह !!*
(श्रीमद्भा०/९/४/२०-२१)
सब कुछ भगवान को ही समर्पित करने पर ही राजा अम्बरीश पर *विशेष भगवत्कृपा* हुई ! दूसरी ओर श्राप की पोटली सदा सिर पर लादे हुए अपने को ही सर्वसमर्थ समझने वाले महर्षि दुर्वासा थे ! वह *भगवत्कृपा* के नहीं बल्कि *भगवत दया* के पात्र थे ! *भगवत्कृपा* अम्बरीश पर थी इसलिए दुर्वासा जी के द्वारा छोड़ी गई कृत्या उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाई और जब वही कृत्या दुर्वासा की ओर चली तो *भगवान की दया* से उनके प्राण बचे *दया एवं कृपा में यही अंतर है !* वैष्णव शास्त्रों में *भगवतकृपा* के लिए कोई संबंध स्थापित करना परम आवश्यक माना गया है ! *दास्य , सख्य , वात्सल्य और मधुर इन चार भावों से भगवान के साथ संबंध स्थापित किया जाता है !* भगवान की दया तो चराचर प्राणिमात्र पर है किंतु उनकी कृपा की उपलब्धि के लिए उनसे संबंध स्थापित करना पड़ेगा ! भगवान से भी यही कहना चाहिए :--
*अति अगनित अपराध पात्र हौं नाथ कहाऊँ !*
*भव सागर अति भीम परयो तामें बिललाऊँ !!*
*शरणागत हौं अगति हरे मोकूँ अपनाओ !*
*सब साधन से हीन दीन कूँ दरस दिखाओ !!*
इस प्रकार निरंतर भगवान से प्रार्थना करके *भगवत्कृपा* का पात्र बना जा सकता है ! *भगवत्कृपा* का पात्र बनने के लिए भगवान से किसी न किसी प्रकार से संबंध स्थापित करना ही होगा अन्यथा कृपा नहीं दया पर ही जीवन यापन करना पड़ेगा !