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श्री रामचरितमानस में *कृपा* का विस्तृत विस्तार है ! कोई भी कार्य हो बिना *भगवत्कृपा* के नहीं संपन्न हो सकता ! किसी कार्य को संपन्न करने के लिए कोई रचना करने के लिए *मति का निर्मल होना* परम आवश्यक है !

सनातन धर्म के सभी धर्म शास्त्रों में *भगवान की कृपा* के दर्शन सर्वत्र होते हैं ! *भगवत्कृपा* कई रूपों में मानव मात्र के कल्याण के लिए निरंतर बरसती दिखाई पड़ती है ! भगवान को *कृपासागर , कृपामूर्ति आदि

एक गुरु आश्रम में शिष्य मंडली बैठी हुई थी गुरुदेव अपने शिष्यों को उपदेश कर रहे थे ! चर्चा *भगवत्कृपा* पर हो रही थी ! *शिष्य ने गुरु जी से पूछा* कि :- गुरुदेव जब *भगवत्कृपा* होगी और वह अनुकंपा करेंगे त

जीव को निरंतर *भगवत्कृपा* का अनुभव करते रहना चाहिए ! *भगवत्कृपा* पर विश्वास बनाए रखकर मनुष्य को सदैव अपना पुरुषार्थ करते रहना चाहिए ! ईश्वर जो भी करता है अच्छा ही करता है उसकी कृपा सदैव जीव के लिए सका

एक माता भगवान का स्वरूप कैसे है ? *भगवत्कृपा एवं मातृकृपा में क्या समानता है !* इसको समझने के लिए हमें विचार करना होगा ! जब घर बाहर सर्वत्र प्रलय की अग्नि ज्वाला धधकने लगती है , अपने पाप ताप की माया स

*भगवतकृपा* का अनुभव एवं दर्शन करने के लिए मनुष्य को *भगवत्कृपा* के विविध स्वरूपों के विषय में जानने की आवश्यकता है ! *भगवत्कृपा* के कई अंग हैं , मनुष्य के ऊपर *मातृकृपा* इसी *भगवत्कृपा* का एक विशेष अं

इस संसार में *भगवत्कृपा* सर्वत्र व्याप्त है ! अनेकानेक रूपों में *भगवत्कृपा* का आभास हमको होता रहता है परंतु माया के पर प्रपञ्चों में पड़े हुए हम उस *भगवत्कृपा* का अनुभव नहीं कर पाते ! जीव जब इस संसार

*भगवत्कृपा* का दर्शन संपूर्ण श्रीमद्भागवत में होता है परंतु कहीं-कहीं *विशेष भगवत्कृपा* देखने को मिलती है ! ऐसे ही एक प्रसंग में *विशेष भगवत्कृपा* तब देखने को मिलती है जब माता यशोदा भगवान श्री कृष्ण क

इस जीवन मनुष्य अनेकों प्रकार के प्रश्नोत्तर , समस्या एवं उनके समाधान में जीवन भर उलझा रहता है ! किसी भी प्रकार के प्रश्न का उत्तर या किसी समस्या का समाधान *भगवत्कृपा* से ही संभव है ! जब तक *भगवतकृपा*

मौन सबसे अच्छा उत्तर हैकिसी ऐसे व्यक्ति के लिएजो आपके शब्दों को महत्व नही देता.!!

भारत में प्राचीन समय से ही ऋषि-मुनियों का विशेष महत्व रहा है क्योंकि ये समाज के पथ प्रदर्शक माने जाते थे। ऋषि -मुनि अपने ज्ञान और तप के बल पर समाज कल्याण का कार्य करते थे और लोगों को समस्याओं से मुक्त

लोग पूछते रहते है कि श्रीराम ने धनुष उठा कर स्वयंवर की शर्त तो पूरी कर ही दी थी, फिर उस धनुष को भंग करने की क्या आवश्यकता थी ?देखिए उस धनुष की आयु उतनी ही थी। अपना औचित्य (देवी सीता हेतु श्रीराम का चु

माडी गुजराती का शब्द है, माडी का हिन्दी में अर्थ होता है माता। माता को ही माडी कहते हैं।सतयुग की समाप्ति के समय दैत्य अमरूवा महान प्रतापी मायावी और वरदानी था। उसके अत्याचार से सृष्टि में हाहाकार मच गय

भीष्म तो अपनी प्रतिज्ञा से हो गए, अन्यथा उनका नाम तो देवव्रत था। शांतनु और गंगा की आठवीं संतान और पिता के आज्ञाकारी। परशुराम शिष्य भीष्म साधारण नहीं थे, वे अजेय योद्धा थे। वे ऐसे वीर योद्धा थे कि उन्ह

कथा उस समय की है जब नन्दजी राजा कंस का कर चुकाने, वसुदेवजी की कुशल पूछने और उन्हें अपने यहाँ के पुत्रोत्सव का समाचार देने के लिये मथुरा चले गये। उसी समय कंस की भेजी हुई बालघातिनी दुष्टा राक्षसी प

ज्येष्ठ मास हिंदू वर्ष का तीसरा महीना है. इस महीने में सूर्यदेव अपने रौद्र रूप में होते हैं अर्थात इस महीने में गर्मी अपने चरम पर होती है. वैसे तो फागुन माह की विदाई के साथ ही गर्मी शुरू हो जाती है. च

जब श्रीदामा जी को श्राप लगा तो भगवान कृष्ण श्रीदामा जी से बोले- कि तुम एक अंश से असुर होगे और वैवत्सर मनमंतर में द्वापर में अवतार लूगाँ और मै गोपियों के साथ रास करूगाँ,तो तुम अवहेलना करोगे, तो मै वध

भगवान विष्णु ने पृथ्वी पर ऋषियों के रूप में अवतार लिया था जो नर नारायण के रूप में प्रसिद्ध हुए । भगवान विष्णु ने धर्म की पत्नी रूचि के माध्यम से नर और नारायण नाम के दो ऋषियों के रूप में अवतार लिया। वे

एक रोमांचकारी देवासुर संग्राम में भगवान् शंकर के प्रमथों की जब अत्यन्त विजय होने तब अन्धक घबरा कर शुक्राचार्य जी की शरण में गया और उसने गिड़गिड़ा कर मृतसंजीवनी विद्या के द्वारा मरे हुए असुरों को जीवित

भक्ति की धारा प्रवाहित हो और उसमें भगवान के परम भक्तों की चर्चा नहीं हो, संभव ही नहीं। भक्तों के निर्मल चरित्र से हमें काफी कुछ सीखने-समझने का अवसर प्राप्त होता है। अब मैं आपको नारायण के ऐसे ही भक्त प

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