*भगवत्कृपा* बहुत ही अद्भुत है ! कभी कभी तो अनेकों जप - अनुष्ठान आदि उपाय करने पर भी *यह भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त होती और कभी कभी कोई अनुष्ठान किये बिना ही यह *भगवत्कृपा* सहज ही मिल जाती है ! *भगवत्कृपा* का मूल है प्रेम ! जहां तक पर सृष्टि है वहां तक की मान्यता है कि ईश्वर सर्वत्र , सर्वशक्तिमान , अपराधीन , परमप्रेमास्पद एवं परम कृपालु है ! संसार में अनेकों धर्म , संप्रदाय एवं पंथ माने जाते हैं , परंतु प्रायः सभी संप्रदायों में यह मान्यता अटल है कि ईश्वर सर्वत्र एवं स्वतंत्र है ! सनातन धर्म की भी मान्यता है कि ईश्वर सर्वत्र व्याप्त है ! यथा :--
*देश काल दिसि विदिसिहुँ माहीं !*
*कहहुँ सो कहाँ जहाँ प्रभु नाहीं !!*
*हरि व्यापक सर्वत्र समाना*
(मानस)
अब प्रश्न यह उठता है कि जब ईश्वर सर्वत्र है , कोई ऐसा स्थान नहीं जहां पर ईश्वर का वास ना हो तो ईश्वर दिखाई क्यों नहीं पड़ता ? तो इसका सीधा सा उत्तर है कि ईश्वर को देखने के लिए , ईश्वर का अनुभव करने के लिए अपने हृदय में प्रेम को प्रकट करना होगा ! क्योंकि बाबा जी बताते हैं कि:-
*अग जगमय सब रहित बिरागी !*
*प्रेम ते प्रभु प्रकटइं जिमि आगी !!*
*प्रेम ते प्रकट होइं मैं जाना !!*
(मानस)
जब तक हृदय में प्रेम का प्राकट्य नहीं होगा तब तक ईश्वर का अनुभव नहीं हो सकता ! अब एक प्रश्न और हृदय में उठ सकता है कि ईश्वर जब प्रेम के परतंत्र हैं तो *वह किस प्रेम के परतन्त्र हैं ?* जीव के हृदय में रहने वाले प्रेम के परतंत्र हैं या अपने हृदय में रहने वाले प्रेम के ? जिस प्रकार जीव भगवान के सौंदर्य , औदार्य , सौशील्य , माधुर्य आदि सद्गुणों को देखकर उन पर मुग्ध हो जाता है उसी प्रकार ईश्वर जीव के किन गुणों को देखकर उसके प्रति मुग्ध होते हैं ? वस्तुतः ईश्वर किसी अन्य के गुणों को देखकर मुग्ध नहीं होते , उनमें ही उनका स्वरूप सिद्ध कोई सहज स्वाभाविक गुण है कि वे स्वयं अपनी कृपा बरसाने लगते हैं :-
*यही हर भक्त कहते हैं यही सद्ग्रन्थ गाते हैं !*
*न जाने कौन से गुण पर दयानिधि रीझ जाते हैं !,*
कृपा करना भगवान का सहज स्वभाव जैंसे *मेघ जलमय है वैसे ही प्रभु कृपामय हैं*
*कृपैव प्रभुतां गता*
अर्थात्:- *प्रभु मूरति कृपामई है*
लगभग सभी धर्म ग्रंथों में कारुण्य , कृपा , अनुकंपा , अनुग्रह , पुष्टि , दया आदि के नाम से एक ही वस्तु प्रसिद्ध है और *वह है भगवान का सहज स्वभाव* वह नैमित्तिक नहीं है प्रत्युत भागवत आनंद का सरल सरल सरल तरल पावन प्रवाह है ! *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए भगवान के प्रति प्रेम का होना बहुत आवश्यक है ! क्योंकि :--
*ईश्वर प्रेम बिना नहीं मिलता चाहे कर लो कोटि उपाय*
अनेकों जप अनुष्ठान कर लिए जायं और हृदय में प्रेम ना हो तो , *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त हो सकती ! अनेकों प्रकार की पूजन सामग्री एकत्र करके षोडशोपचार , दशोपचार , पंचोपचार विधि से पूजन किया जाय और हृदय में प्रेम , श्रद्धा , विश्वास ना हो तो उस पूजन का फल नहीं मिलता है , *भगवतंकृपा* नहीं प्राप्त होती है ! वहीं दूसरी ओर यदि हृदय में प्रेम है , श्रद्धा है , भक्ति है तो पूजन सामग्री हो चाहे ना हो मानसिक पूजन करने से भी *भगवत्कृपा* सहज ही प्राप्त हो जाती है ! ईश्वर को अपने वश में करने के लिए , *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए प्रेम का होना बहुत आवश्यक है ! क्योंकि ईश्वर प्रेम स्वरूप ही है जिस दिन हृदय में ईश्वर के प्रति प्रगाढ़ प्रेम उत्पन्न हो जाएगा उसी दिन सहज ही *भगवत्कृपा* की प्राप्ति होने का अनुभव होने लगेगा |