*भगवत्कृपा* सभी प्राप्त करना चाहते हैं परंतु *भगवत्कृपा* की प्राप्ति अपने प्रयत्न से संभव नहीं है ! यह धारणा प्रगाढ़ भक्ति उत्पन्न करती है ! भक्ति में जहां केवल विश्वास और प्रेम की आवश्यकता होती है वहां प्रपत्ति में हम केवल भगवान के प्रति समर्पित हो जाते हैं ! अपने आप को उनके हाथों में बिना शर्त साथ देते हैं और उन्हें अधिकार दे देते हैं कि वह इच्छानुसार हमारा उपयोग करें ! इसमें इसी बात का महत्व है कि हमारे समर्पण में निश्चल और पूर्ण पवित्रता हो वह विनम्र तथा सरल विश्वास से उत्प्रेरित हो ! इसमें भक्ति साधनों की तीव्रता की अपेक्षा समर्पण की पूर्णता को यथार्थ धर्म निष्ठा का स्वरूप माना गया है ! जब हम अपने अंतःकरण को शून्य कर देते हैं तब भगवान उस पर अपना अधिकार जमा लेते हैं ! हमारे गुण , अभिमान , ज्ञान , हमारी सूक्ष्म कामनाएं , हमारी अलक्षित मान्यताएं और बुरी धारणाएं ही भगवान को हम पर अधिकार जमाने से रोकती हैं ! हमें अपने को सर्व कामना विहीन बनाकर पूर्ण विश्वास के साथ भगवान पर निर्भर हो जाना चाहिए ! भगवान के सांचे में ढलने के लिए हमें अपने संपूर्ण अधिकारों को समर्पित कर देना चाहिए ! यही बात भगवान गीता में कहते हैं :--
*सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज !*
*अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः !!*
(गीता / १८/६६)
*अर्थात्:-* सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर !
ज्ञान और प्रपत्तिमयी भक्ति के अंतर को *मर्कट किशोर न्याय* और *मार्जर किशोर न्याय* से अभिव्यक्त किया गया है ! बंदर का बच्चा अपनी मां को स्वयं उछलकर पकड़ता है और जोर से पकड़े रहता है , अतः उसकी रक्षा हो जाती है ! इस प्रकार बंदर के बच्चे के लिए किंचित प्रयास अपेक्षित है ! बिल्ली अपने बच्चे को स्वयं उठाकर मुख में रख लेती है , अपनी रक्षा के लिए बिल्ली के बच्चे को कुछ भी नहीं करना पड़ता ! ज्ञान में कुछ सीमा तक *भगवत्कृपा* का अधिकार प्राप्त किया जाता है और प्रपत्ति में *भगवत्कृपा* का सर्वथा उन्मुक्त प्रदान होता है ! प्रपत्ति में प्रपन्न की योग्यता या कृत-सेवाओं पर ध्यान नहीं दिया जाता ! *प्रपत्ति क्या है ?* इसको जान लिया जाय ! प्रपत्ति के ६ सहायक भाव है :- *१- आनुकूल्यस्य संकल्प:* अनुकूल बनने का संकल्प , *२- प्रातिकूल्यस्य वर्जनम्* प्रतिकूलता का अभाव , *३- रक्षिष्यतीति विश्वास:* प्रभु से रक्षा प्राप्ति में विश्वास , *४- गोप्तृत्यवरणम्* रक्षक के रूप में उनका वरण करना , *५- कार्पण्यम्* अत्यन्त दैन्य की भावना , *६- आत्मनिक्षेप:* पूर्ण आत्मसमर्पण ! किस प्रकार प्रपत्ति से *भगवत्कृपा* प्राप्त की जा सकती है इस विचार का समर्थन पूर्व ग्रंथों में भी मिलता है ! जिस पर परमात्मा कृपा करते हैं उसी को परमात्मा की प्राप्ति होती है , उसी के समक्ष में अपने स्वरूप को अभिव्यक्त करते हैं ! यथा :---
*यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैव आत्मा विवृणुतेतनूस्वाभ्*
(कठोपनिषद / १/२/२३)
अर्जुन को भगवान ने भगवद्गीता का ज्ञान दिया और यह कहा कि उन्हें विश्वरूप का दर्शन *भगवत्कृपा* से ही हुआ है जैसा कि गीता में निर्देश मिलता है ! भगवान स्वयं अर्जुन से कहते हैं :--
*मया प्रसन्नेन तवार्जुनेदं ,*
*रूपं परं दर्शितमात्मयोगात् !*
*तेजोमयं विश्वमनन्तमाद्यं ,*
*यन्मे त्वदन्येन न दृष्टपूर्वम् !!*
(गीता / ११/४७)
*अर्थात्:-* भगवान् ने कहा - हे अर्जुन! मैंने प्रसन्न होकर अपनी अन्तरंगा शक्ति के बलपर तुम्हें इस संसार में अपने इस परम विश्र्वरूप का दर्शन कराया है | इसके पूर्व अन्य किसी ने इस असीम तथा तेजोमय आदि-रूप को कभी नहीं देखा था | *विशेष भगवत्कृपा* से ही अर्जुन को भी स्वरूप का दर्शन हुआ कि मैं हूं ! केवल भगवान के अनुग्रह से ही हमें मोक्ष प्राप्त हो सकती है ! *भगवत्कृपा* के बिना कुछ भी प्राप्त करना असंभव इसलिए मनुष्य को सदैव *भगवत्कृपा* प्राप्ति का अधिकारी बनने का प्रयास करना चाहिए |