भगवान के *मंगलमय विधान* सभी मनुष्य ग्रहण नहीं कर पाते , कुछ लोग भगवान तो अन्यायकारी एवं क्रूर भी कह देते हैं ! भगवान के *मंगलमय विधान* में आस्था उन्हीं प्राणियों की नहीं होती जो बल के दुरुपयोग को ही जीवन मान लेते हैं ! यद्यपि सबल से सभी रक्षा की आशा करते हैं किंतु वे स्वयं निर्बल के प्रति बल का दुरुपयोग कर बैठते हैं उसका परिणाम यह होता है कि सबल निर्बल हो जाता है और निर्बल सबल ! जिस का अधिकार किसी की उत्पत्ति में नहीं है वह किसी का विनाश भी नहीं कर सकता ! अपितु बल के दुरुपयोग से वह निर्बलता का आवाहन करता है , जो मनुष्य की बहुत बड़ी भूल है | *मंगलमय विधान* किसी को निर्बल नहीं देखना चाहता पर जब मानव मिली हुई स्वाधीनता का दुरुपयोग करता है तब दुरुपयोग से बचाने के लिए भगवान उसे निर्बल करते हैं ! इसमें भी कितनी *भगवत्कृपा* है , पर उसे वही देख पाते हैं जिन्होंने विधान का आदर किया है ! जो हो रहा है वह सभी के लिए हितकर है पर जो कर रहे हैं उसी पर विचार करना है ! विवेक विरोधी संबंध , विश्वास तथा कर्म विधान का अनादर है ! उसी का परिणाम है - अकर्तव्य , आसक्ति , असाधन आदि की उत्पत्ति जो विनाश का मूल है ! विचार कीजिए कि :---
*सुंदर मानव देह मिली ,*
*पुनि बुद्धि मिली प्रभु की करुना से !*
*दाँत के पाँत में जीभ दिहेव ,*
*मृदु बात कहो सुंदर रसना से !!*
*सुंदर प्रकृति प्रदान किहेव ,*
*सुख लाभ करो प्रभु की रचना से !*
*सुंदर सुंदर कर्म करो ,*
*मंगल बरसाओ मधुर बचना से !!*
(स्वरचित)
भगवान ने कृपा करके हमको सब कुछ प्रदान किया हम उसके *मंगलमय विधान* को समझ नहीं पाते हैं तो यह हमारी भूल है ! *भगवत्कृपा* हमारे चारों ओर बरस रही है परंतु हम उसको नहीं जानते ! एक परिवार चलाने में मनुष्य परेशान हो जाता है क्योंकि वह सारे नियम अपने अनुसार चलाना चाहता है जबकि भगवान का विधान इतना मंगलमय है कि समस्त सृष्टि बड़े प्रेम से चल रही है ! *विचार कीजिए कि* जो विधान का निर्माता है ना जाने उसमें कितनी करुणा है ! भिन्नता में साक्षात एकता का दर्शन होने से भिन्नता एकमात्र सृष्टि की शोभा है , अन्य कुछ भी नहीं ! अनेकता में एकता का दर्शन होने से रस की वृद्धि होती है और एकता में एकता का अनुभव करने से दुख की निवृत्ति होती है ! दुख की निवृत्ति वास्तविक मांग का एक अंगमात्र है सर्वांग नहीं ! दुख निवृत्ति के साथ-साथ अनंत नित्य चिन्मय तथा नित्य नवरस की भी मांग है ! असंगता प्राप्त होने पर दुख की निवृत्ति शांति तथा स्वाधीनता की प्राप्ति होती है , किंतु स्वाधीनता का आश्रय पाकर अहंभाव जीवित रहता है ! कारण कि जो दुख , अशांति , पराधीनता का अनुभव करता था वही दुख निवृत्ति , शांति एवं स्वाधीनता अनुभव करता है ! इस दृष्टि से असंगताअपने लिए उपयोगी है , पर जिस के *मंगलमय विधान* से विवेक विरोधी संबंध के त्याग की सामर्थ्य मिलती है उसके लिए जीवन शरणागति से ही उपयोगी होता है , क्योंकि शरणागति अहंकार को समाप्त कर देती है ! जब तक अहंकार की समाप्ति नहीं होगी तब तक *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त होती ! ईश्वर ने विवेक दिया है यह उनकी कृपा है परंतु मनुष्य विवेक विरोधी कृत्य करने लगता है जबकि विवेक विरोधी कर्म के त्याग से ही कर्तव्य परायणता की अभिव्यक्ति होती है ! जिससे जीवन जगत के लिए उपयोगी होता है ! विवेक रूप प्रकाश अनंत के *मंगलमय विधान* का प्रतीक है ! विधान का आदर करने पर विवेक विरोधी कर्म संबंध और विश्वास का अंत स्वत: हो जाता है , तथा कर्तव्य परायणता , असंगता एवं शरणागति की अभिव्यक्ति अपने आप होती है ! जिसमें मानव का लेश मात्र भी प्रयास अपेक्षित नहीं है ! मानव का प्रयास केवल प्राप्त विवेक के आदर में है अर्थात जाने हुए असत के त्याग में है ! सत् के संग और सर्बतोमुखी विकास के लिए साधन की अभिव्यक्ति *मंगलमय विधान* से स्वत: होती है ! इस दृष्टि से विधान के आदर में ही मानव जीवन की पूर्णता निहित है ! भगवान के *मंगलमय विधान* को समझकर निरंतर स्वयं पर *भगवत्कृपा* जानकर मनुष्य को अपने विवेक से सुंदर कर्मों का चयन करना चाहिए जिससे कि वह संसार के साथ-साथ भगवान का भी प्रिय हो जाय ! भगवान के *मंगलमय विधान* में कुछ भी अमंगल नहीं है ! भगवान तो अमंगल का नाश कर देते हैं भगवान के लिए कहा गया है :--
*मंगल भवन अमंगल हारी*
(मानस)
जो मंगल के ही भवन एवं अमंगल का हरण करने वाले हैं ऐसे परमात्मा का *विधान मंगलमय* ही होता है इसलिए भगवान के *मंगलमय विधान* से समस्त सृष्टि *विशेष भगवत्कृपा* से निरंतर चलायमान है |