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श्री गुरु चरण सरोज रज,निज मनु मुकुर सुधारि।बरनऊं रघुवर बिमल जसुं, जो दयाकु फल चारि।।बुद्धिहीन  तनु    जानिके , सुमिरौं  पवन   कुमार।बल बुद्धि विद्या देहु मोहि, हरहु 

जो लोग केवल भोग वस्तुओं की रक्षा और प्राप्ति में ही *भगवत्कृपा* समझते हैं वह बड़ी भूल करते हैं ! यह वस्तुएं तो हमें संसार सागर में डूबाने वाली हैं ! दयालु भगवान हमें संसार समुद्र में धकेलने के लिए इनक

*भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए भगवान को लोग अनेकों रूप में मानते हैं , उनकी पूजा करते हैं , परंतु सत्य तो यह है की *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए मनुष्य को भगवान को अपनी वात्सल्यमयी माता मानकर उनका

मनुष्य का स्वभाव होता है कि वह बड़ा उतावला होता है ! कोई भी कर्म करने के बाद तुरंत उसका फल प्राप्त करने की आशा मनुष्य करता रहता है ! *भगवत्कृपा* तुरंत नहीं प्राप्त हो जाती !  लंबे समय तक साधना करने के

*भगवत्कृपा* प्राप्त करने का एक साधन और शरणागति को कहा गया है !  शरणागति की व्याख्या नहीं हो सकती !  शरणागति एक प्रकार की ही नहीं होती ,  बल्कि अधिकारी के अनुसार शरणागति में भी भेद होता है ! जहां *भगवत

*भगवत्कृपा* और विश्वास यह दोनों ही एक दूसरे के पूरक हैं ! भगवान एवं *भगवत्कृपा* पर विश्वास करने से ही मनुष्य को इसका अनुभव हो पाता है !  यदि मनुष्य को *भगवत्कृपा* पर भरोसा है तो उसे भगवान का दर्शन करन

*भगवत्कृपा*;प्राप्त करने के लिए कुछ अधिक करने की आवश्यकता नहीं है बस भगवान पर एवं उनकी कृपा पर विश्वास तो होना ही *भगवत्कृपा* प्राप्त करने का सबसे सरल साधन है ! मनुष्य को सदैव यह विश्वास होना चाहिए कि

जब तक साधक को पूर्ण विश्वास नहीं होगा तब तक ना तो *भगवत्कृपा*  प्राप्त होगी और ना ही भगवान का दर्शन ! अनेकों साधक पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं परंतु उनको ना तो *भगवत्कृपा* का अनुभव हो पाता है और ना ही

भगवान सदैव मनुष्य के आस-पास ही रहते हैं  मनुष्य के हृदय में भगवान का निवास है , परंतु वह इस बात को भूल जाता है , उसको विश्वास ही नहीं होता ! मनुष्य भगवान को याद नहीं कर पाता और *जब तक याद नहीं करोगे त

जो *भगवत्कृपा* पर विश्वास करके उसी पर निर्भर रहता है वह किसी काल में दुखी नहीं हो सकता ! वह तो प्रत्येक बात में भगवान का विधान समझता है और भगवान के विधान को उनकी दया से ओतप्रोत देखकर प्रफुल्लित होता र

*भगवत्कृपा* तो निरन्तर प्रवाहमान है परंतु इसका अनुभव उसी को होता है जो भगवान का भक्त होता है , जिसका भगवान पर पूर्ण विश्वास होता है , भगवान तो स्वयं घोषणा करते हैं :-- *हम भगतनि के भगत हमारे !*

*भगवत्कृपा* का पात्र बनने के लिए भगवान एवं उनकी कृपा पर विश्वास का होना बहुत आवश्यक है ! जब तक विश्वास नहीं होता है तब तक *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त हो सकती ! जैसे अरुणोदय मात्र से अमावस्या की घोर निशा

चौरासी लाख योनियों में दिव्य मानव योनि पाकर के जीव कृतार्थ हो जाता है ,  और उसको मानव जीवन में अनेकों पुरुषार्थ करने को मिलते हैं ! अपने पुरुषार्थ के द्वारा वह अनेकों सफलताएं प्राप्त करता है *परंतु यह

*भगवतकृपा* प्राप्त करने के लिए प्रत्येक मनुष्य निरंतर प्रयास करता है !  कुछ लोग तो नित्य जप , तप , संध्या वंदन एवं अनुष्ठान आदि करके *भगवत्कृपा* प्राप्त करने का प्रयास करते हैं ! मनुष्य *भगवत्कृपा* का

सनातन धर्म में *भगवत्कृपा* प्राप्ति के कई साधन बताये गये हैं ! जैसे कि :- जप , तप , पूजा , पाठ , सतसंग आदि | कभी कभी मनुष्य दिग्भ्रमित हो जाता है कि वह *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए कौन सा मार्ग चुन

इस संसार में आर्त्त प्रपन्न भक्त तो तत्क्षण ही अजर अमर , प्रशांत , बैकुंठ में अपने भावनुकूल सारुप्य , सायुज्य , सामीप्य , सालोक्य मुक्तिरूपा *भगवत्कृपा* प्राप्त कर लेते हैं परंतु दृप्त प्रपन्न भक्त शर

*संतकृपा* अर्थात सत्संग *भगवत्कृपा* से ही प्राप्त होता है ! बिना *भगवत्कृपा* के सत्संग नहीं मिल सकता और जब तक सत्संग नहीं होगा तब तक हृदय में भक्ति का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता और भक्ति का प्रादुर्भाव

जब तक मनुष्य का *संतकृपा* नहीं होगी तब तक *भगवत्कृपा* नहीं प्राप्त की जा सकती ! सत्संग के माध्यम से *संतकृपा* को प्राप्त करके ही *भगवत्कृपा* की प्राप्ति की जा सकती है ! संतो की महिमा सर्वत्र गाई गई है

कुछ लोग कहते हैं सत्संग *भगवत्कृपा* से प्राप्त होता है तो कुछ लोग यह कहते हैं सत्संग से *भगवत्कृपा* की प्राप्ति होती है ! इस विषय पर विचार किया जाए कि *सत्संग से भगवत्कृपा मिलती है कि भागवत्कृपा से सत

अपने कर्मानुसार अनेक योनियों में भ्रमण करता हुआ जीव मानवयोनि प्राप्त करता है | मानव योनि में आकर जीव का उद्देश्य होता है जन्म - जन्मातर के आवागमन से मुक्ति पाना अर्थात मोक्ष प्राप्त करना | जीव को मोक्

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