भगवान का विधान इतना मंगलमय है जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता ! भगवान के *मंगलमय विधान* के अंतर्गत सारी सृष्टि कार्य कर रही है ! मनुष्य को जो स्वाधीनता मिली हुई है उसका कारण भगवान का *मंगलमय विधान* ही है ! *भगवान के मंगलमय विधान* के अंतर्गत मिली हुई इस स्वाधीनता से मनुष्य वस्तु , योग्यता , सामर्थ्य का विवेक के द्वारा आदर्श सदुपयोग कर सकता है और विवेक का अनादर कर दुरुपयोग भी कर सकता है ! मनुष्य कुछ भी करें परंतु सब पर *भागवत्कृपा* बनी रहती है ! यह *भगवान का मंगलमय विधान एवं भागवत्कृपा* ही है कि वाणी का दुरुपयोग करने पर भी बोलने की शक्ति मिलती है ! वाणी देने का अर्थ यह नहीं हुआ कि मानव को मिथ्या बोलने का आदेश परमात्मा ने दे दिया है यदि ऐसा होता तो वह विवेक कि हमसे कोई मिथ्या ना बोले कैसे प्राप्त होता ? यह जानते हुए भी कि हमसे कोई मिथ्या ना बोले हम दूसरों के लिए मिथ्या बोलते हैं अर्थात अपने प्रति बुराई ना चाहते हुए भी दूसरे के प्रति बुराई कर बैठते हैं ! यह स्वाधीनता अर्थात् *विशेष भगवत्कृपा* मनुष्य के अतिरिक्त अन्य किसी प्राणी को नहीं है ! प्राप्त विवेक के अनुसार कार्य करने - धरने , रहने आदि की प्रेरणा *मंगलमय विधान* से मानव को मिली है , पर स्वतंत्रता के कारण मनुष्य उस विधान का अनादर करता है इसी कारण से वह अनेक प्रकार की पराधीनता , जड़ता , अभाव , आदि में आबद्ध हो जाता है ! भगवान का प्रत्येक *विधान मंगलमय* इसलिए है क्योंकि भगवान स्वयं *मंगलमय* हैं भगवान के लिए लिखा गया है :--
*मंगलम् भगवान विष्णु: मंगलम् गरुड़ध्वज: !*
*मंगलम् पुंडरीकाक्ष मंगलम तनो हरि: !!*
भगवान सदैव मंगल ही मंगल करते हैं अमंगल करना वह जानते ही नहीं है ! यह भगवान का *मंगलमय विधान* ही है कि स्वयं सर्वसमर्थ होते हुए मनुष्य को सामर्थ्यवान बनाया है परंतु समर्थ होकर भी जब मनुष्य स्वयं को असमर्थ पाता है तो उसे सर्वसमर्थ हो अर्थात भगवान की याद आती है ! जब मनुष्य सर्व समर्थ भगवान को याद करता है तब *भगवत्कृपा* उस पर होने लगती है क्योंकि भगवान का प्रत्येक विधान मंगलमय ही है ! समस्त अमंगल का विनाश कर देने वाले भगवान मंगल की जड़ हैं ! बाबा जी लिखते हैं :-
*मंगल मूल अमंगल दमनू*
(मानस)
यह भगवान का स्वरूप है ! प्रत्येक मनुष्य के लिए कर्तव्य एवं अकर्तव्य का विधान भी बनाया गया अपने सामर्थ्य का जब मनुष्य दुरुपयोग करता है तब वह कर्तव्य नहीं बल्कि अकर्तव्य करता है परंतु सामर्थ्य का दुरुपयोग करने पर भी उसको *भगवत्कृपा* प्राप्त होती रहती है ! कर्मवश होकर भले ही यह विधान मानव को रोग , शोक आदि में आबद्ध करें परंतु उसमें भी *विशेष भगवत्कृपा* है ! परंतु यह रहस्य तभी स्पष्ट होता है जब दुखी पर वैधानिक दृष्टि से आए हुए दुख का प्रभाव हो जाता है ! जो स्वभाव से ही प्रिय नहीं होता है , जिसकी कोई आवश्यकता अनुभव नहीं करता , उसका निर्माण एकमात्र मंगलमय विधान से ही होता है ! सुख का चला जाना और दुख का आ जाना इस विधान से भलीभाँति सभी परिचित हैं पर विधान का आदर न करने से सुख का जाना और दुख का आना मानव को रुचिकर नहीं होता पर जिन्होंने भगवान के **मंगलमय विधान* का आदर किया वह मनुष्य भली-भांति इसका अनुभव करते हैं कि सर्वतोमुखी विकास के लिए सुख का जाना और दुख का आना अनिवार्य है ! सामर्थ्य का सदुपयोग करने पर जो विकास होता है असमर्थ होने पर भी वही विकास होता है यह कैसा विचित्र विधान है जिसमें समर्थ और असमर्थ दोनों पर ही *भगवत्कृपा* बरसती रहती है ! ऐसा कृपालु और दयालु *मंगलमय विधान* और कहीं देखने को नहीं मिलता यह भगवान के मंगलमय विधान एवं *भगवत्कृपा* का विशेष रहस्य है ! मनुष्य को रोग , शोक आदि जो भी दुख रूप प्राप्त होता है उसमें भी *भगवत्कृपा* निहित होती है | विचार कीजिए यदि सामर्थ्य के दुरुपयोग पर मनुष्य को ईश्वर के द्वारा दंड मिलता तो इसका परिणाम कितना भयंकर हो जाता ! प्रकृति के अंत में यदि समर्थ के विनाश का विधान ना होता तो मानव ना जाने कब तक के लिए प्रकृति में ही आबद्ध रहता ! यदि जन्म के बाद मृत्यु , संयोग के बाद वियोग , उत्पत्ति के साथ विनाश ना होता तो ना जाने कितनी भयंकर दुर्दशा मानव समाज की हो जाती ! यह भले ही मनुष्य को अच्छा नहीं लगता परंतु भगवान का *मंगलमय विधान* ही है कि यथा समय सब कुछ प्राप्त होता रहता है ! यह मानव जाति पर *भगवान की कृपा* है ! इतनी गूढ़ *भगवत्कृपा* के रहस्य को समझ कर मनुष्य को भगवान के प्रत्येक विधान को *मंगलमय* समझते हुए उसका स्वागत करना चाहिए |