मनुष्य को यह चाहिए कि वह सदैव प्रत्येक हाल में *भगवत्कृपा* का आश्रय लें ! जिस रूप में भी वह आए उसका स्वागत करें ! यदि वह कृपा हमारा मान भंग करने वाली हो , प्रतिष्ठा मिटाने वाली हो जगत से संपर्क हटाने वाली हो तो यह समझना चाहिए कि भगवान का सानिध्य बहुत जल्दी प्राप्त होने वाला है ! यह संसार तभी तक पकड़ता है जब तक उसे कुछ मिलता रहे ! बूढ़े माता-पिता को भी लोग कहते हैं :- भगवान अब तो आपकी सुन ली तो अच्छा है अर्थात यह चल बसें तो सुख रहे ! *जगत की भूख किसी को सुख नहीं प्रदान कर सकती* किसी का प्रेम यथार्थ नहीं है स्वार्थ बस सभी एक दूसरे से प्रेम करते हैं ! बाबाजी मानस में लिखते हैं :-
*सुर नर मुनि सब कर यह रीती !*
*स्वारथ लाइ करइं सब प्रीती !!*
परंतु यह यथार्थ प्रेम नहीं ! धन से प्रेम करना अपने मान - सम्मान , कीर्ति से प्रेम करना यह हमारा स्वार्थ है ! इसमें कहीं भी सुख नहीं मिल सकता ! यह एक निश्चित समय आने पर हमारा साथ छोड़ कर हम से अलग हो जाएंगे ! केवल जो आत्मा है , जो हमारा स्वरूप है वही हमारे साथ सदैव रहती हैं ! इस शरीर के नष्ट होने पर जहां सारे संबंध टूट जाते हैं वही आत्मा शरीर के नष्ट होने पर भी साथ नहीं छोड़ती ! आत्मा उस दिव्य परमात्मा का अंश है जिसे हम भूल जाते हैं ! *भगवत्कृपा* की कामना तो सभी करते हैं परंतु *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के साधन को भुला देते हैं:--
*भगवत्कृपा देह यह पाई !*
*जग महं आइ कृपा बिसराई !!*
*स्वारथ बस सम्बन्ध बिछोहा !*
*ग्रसेउ सबहिं मद मत्सर मोहा !!*
(स्वरचित)
जब किसी कामना का नाश हो , जब किसी प्रिय का बिछोह हो , जब आपके अहंकार का विनाश हो तब यह समझना चाहिए कि हम पर *भगवत्कृपा* हुई है ! भोगों को नाश होने पर दुखी ना होकर इसे परम सौभाग्य मानना चाहिए और उसी में *भगवत्कृपा* का अनुभव करना चाहिए ! भगवान तो कभी अकृपा करना जानते ही नहीं ! जिस प्रकार असाध्य रोग होने पर चिकित्सक के द्वारा हमें कड़वी दवा दी जाती है और अपने लाभ के लिए उस कड़वी दवा को हम पी लेते हैं ! उसी प्रकार आवश्यक होने पर भगवान भी हमको कड़वे अनुभव भोगों का हरण करके प्रदान करते हैं ! उसे भी अपने लाभ के लिए मानकर इसमें भी *विशेष भगवत्कृपा* का दर्शन करना चाहिए ! जो मानस रोग हमको लग गए हैं उनका निदान करने के लिए भगवान हमको तरह तरह के कष्ट देते हैं ! *भगवत्कृपा* निरंतर हम पर बरस रही है ऐसा समझना चाहिए *भगवत्कृपा* समझकर निरंतर भगवान का नाम लेते रहें और अपना जीवन भगवान की इच्छा के अनुकूल बनाएं ! भगवान हमारा सारा कार्य करते हैं ! वे हमारा हित ही करते रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे यह विश्वास यदि बना रहेगा तो निश्चय ही निरंतर *भगवत्कृपा* बरसती रहेगी !
जब किसी के प्रति हमारा मोह अधिक बढ़ने लगता है और वह मोह भगवदभजन में बाधक बनने लगता है तो भगवान उसी प्रकार उस मोह के कारक को हम से अलग कर देते हैं जैसे एक चिकित्सक हमारा जीवन बचाने के लिए शल्यचिकित्सा करके हमारे सड़े हुए अंग को हमारे शरीर से अलग कर देता है ! शरीर से वह अंग तो अलग हो जाता है लेकिन जीवन बचा रहता है ! उसी प्रकार भगवान मोह के कारक उस व्यक्ति या वस्तु को हम से अलग करके हमें मोह रूपी शोक समुद्र में जाने से बचा लेते हैं ! यह *विशेष भगवत्कृपा* है ! *भगवत्कृपा* प्राप्त करने के लिए विशेष कुछ नहीं करना है बस भगवान की शरण में जाकर एक ही बात कहना है की है भगवन:-
*राम कृपा करि होहुं दयाला !*
*दर्शन देहु करो प्रतिपाला !!*
*बालक दूध न देवै माता !*
*तौ वै क्यूँ फिर जिवै विधाता !!*
*गुण अवगुण हरि कुछ न विचारै !*
*अंतरि हेत प्रीति करि पालै !!*
*अपनौ जानि करैं प्रतिपाला !*
*नैन निकटि उर धरैं गोपाला !!*
*दादू कहैं नहीं बस मेरा !*
*तू माता मैं बालक तेरा !!*
(दादूबानी)
भगवान को अपनी माता और स्वयं को उनका पुत्र समझकर उन्हें पुकारना चाहिए जब इस भाव से हम भगवान को देखेंगे उन्हें पुकारेंगे तो हम पर *भगवत्कृपा* की असीम वर्षा होने लगेगी |