सम्मानित मंच के सम्मुख सादर प्रस्तुत है एक गज़ल..............
“गज़ल”
जिंदगी ख्वाब अपनी सजाती रही
वो इधर से उधर गुनगुनाती रही
पास आती गई मयकसी रात में
नींद जगती रही वो जागती रही॥
पास आने की जुर्रत न जेहन हुई
दूर दर घर दीपावली जलाती रही॥
शीलशिला साथ रह सुर्खुरु हो गई
सुर्ख लाली लबों पर लजाती रही॥
ना चाहत चली ना तमन्ना तरी
शहनाई अलग धुन बजाती रही॥
बैठ डोली मुहब्बत बिदा हो गई
आह भर-भरके आँसू बहाती रही॥
चुप छुप के दीवाना किनारे लगा
मौसम की अदा याद आती रही॥
अपाहिज नहीं प्यार बहरा नहीं
वो गैरा अमानत है जाती रही॥
ये तजुर्बा मुहब्बत को पैगाम है
प्यार शिकवा नहीं सखीसाथी रही॥
महातम मिश्रा, गौतम गोरखपुरी