मंच को सादर निवेदित है एक कहानी..........
"झगडू काका का सत्य और उनकी झगड़ैल गाय"
यूँ तो एक भले आदमी थे झगडूं काका पर थोड़े जिद्दी थे ऊपर से सत्य बोलने का भूत उनके शर पर सवार था। अपने मन ही अपने आप को सत्यवादी मानते थे और हर बात पर, हर जगह पंहुचकर अपने सत्य को उगल देते थे। उमर का लिहाज कोई कबतक करेगा, न इनकी आदत छूटने वाली थी न ही इनका सत्य कोई मानता था। हर दलील पर फटकार दिए जाते थे पर अपने आप को बदलने में असमर्थ थे लिहाजा सत्य को सराहते सराहते सनकी हो गए थे। देखा जाय तो सत्य से बड़ी कोई चीज नहीं पर कटुसत्य और नासमझ सत्य से इनका जीवन नीरस हो गया था। हर लोगों से अपमानित होने के बावजूद भी अपनी आदत से बाज न आने वाले झगड़ू काका आदमी कम जानवर ज्यादा नजर आते थे। बिना बुलाए हर पंचायत में पंहुच जाते थे और बिना कुछ जाने समझे अपना फैसला सुना देते थे। फिर क्या, झिड़क दिए जाते थे और गाली सुनकर सत्य को शर्मसार करते हुए वापस घर आ जाते थे। बड़बड़ाते हुए रास्ते भर, खिसियानी बिल्ली खम्भा तोड़े वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए, अपनी पुराने बक्से से नई नई गलियों से सबको परास्त करते हुए। तोरे गोदाम में लहसुन का छौका लगावों, तोरे कियारी में मरचा लगावों, इत्यादि इत्यादि, बच्चों को गालियों का साहित्य सुनाते हुए किसी तरह काकी के पास पहुंचते और उनकी रोटी पर फायर हो जाते। गरीबी की सब्जी या दाल पर तीखे लाल मिर्च का तड़का लगाकर काकी के ऊपर खींझ निकाल कर विजय का पताका फहराते। बदले में काकी उन्हें विजय का तिलक लगाती, जाओ तुम्हारे मुंह में कीड़े पड़ेंगे, लार टपकाओगे, कोई सूखी घास भी न डालेगा और रात सुनसान हो गुजर जाती। फिर नया सवेरा और नया मरहला, किसी नए सत्य पर आफरीन हो जाता था।
कहते हैं न कि जैसी माई वैसी धिया, जैसी ककड़ी वैसी बिया......झगडू काका की मरकही गाय ने इसे हूबहू सिद्ध कर दिया। न खूंटे पर चैन से रहती थी नाही चरने वाली अन्य गायों के साथ ही समझौता कर पाती थी। अपनी नुकीली टेढ़ी सिंग लिए गाँव की हर गायों के नथुने में दम किए हुए थी न किसी को चरने देती न खुद ही हरी हरी मुलायम घास का मजा ले पाती, खरगही मारते हुए सिंग से सिंग लड़ाते रहती थी। आदमी जन पर भी रहम नहीं खाती, दुलत्ती सनसनाते रहती थी। क्या मजाल है कोई उसके नजदीक से गुजर जाय, पगहे से छूटी नहीं कि आतंक शुरू। कर्म का फल उसे मिला, एक बार किसी तगड़ी गाय से उलझ गई और अपने पूँछ से हाथ धो बैठी। झगडू काका बहुत दवा किए पर वह झगड़ैल बाँडी होकर अपने सृंगार से बंचित हो गई। प्रकृत्ति प्रद्दत सुरक्षा के शारीरिक अंग जब साथ छोड़ देते है तो क्या जानवर क्या इंशान, जीवन दूभर हो जाता है। उस बिन पूँछ की गाय को अब सब चूसने लगे, माछी, मच्छर, डस इत्यादि और वह पीड़ा से ब्याकुल होती रही। तड़फती रही, छटपटाती रही पर मदत को किसी का सहारा न मिला, न दूध काम आया न पूत, अपनी दशा पर लरझती रही। दुर्भाग्य देखिये उसके पीठ पर एक जख्म हो गया जिस पर मक्खियों का झुण्दिन में छाया ही रहता था। काकी से न देखा जाता तो नीम का पत्ता पीस कर चोपड़ देती पर नासूर तो नासूर है दरक उठता। खुदा न खास्ता एक कौवे को इसकी भनक लग गई और उसका झपट्टा शरू हो गया। कौवा उसकी पीठ पर निडर हो बैठ जाता और उसका चोंच जख्म से मखौल करता, बेचारी निरीह गाय छटपटा कर चिग्घड़ाने लगती और कौवा स्वाद लेकर उड़ जाता, फिर बैठता और उड़ जाता। दिन भर यही खेल चलता रहता, सूरज डूबने के बाद गाय को निजात मिलती उस जालिम कौवे से। एक दिन गाय अधमरी होकर जमीन पर पड़ गई और मानों कौवे से अंतिम सन्देश कह रही हो.......नहीं है खा लो, होती तो क्या खाते (पूँछ)........ और अपने पूँछ के आभाव में दम तोड़ देती है। उधर झगडू काका की सेहत भी रोज रोज के कचकच से कचकचा गई और खटिया पकड़ लिए, न उनका सत्य ही साथ दिया न गाय की मरकनी सिंग और तनी हुई पूँछ ही समय पर काम आई। काकी ने अपना फर्ज पूरा किया, गाय का लात खाकर भी उसे दवा लगाती रही और अब काका की हिफाजत में सत्यता से लगी हुई हैं........
महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी