कभी देखता हूँ बुत को कभी खुद को देखता हूँ
यह शहर है हमारा मै इसके कद को देखता हूँ ||
अरमानों का गला घोंट जाती हैं रह-रह गलियां
उदास मंजर में हंसी मै इसके हद को देखता हूँ ||
कितना बाकी है सहना कोई तो बताये गिनती
डर डर कर जीना मै इस नियति को देखता हूँ ||
हर जुर्म का हिसाब भोली जनता के माथे पर
करेगा फैसला ईश्वरमै उसकी रहम को देखता हूँ ||
मर गयी कैसे नियति हर चौपाल पर रे शोहरत
इंशानी रूप में मै यह किसकी शकल को देखता हूँ ||
अच्छा होता हम पुराने विचारों में ही रहते
नए मिजाज में मै हर दिन कलह को देखता हूँ ||
महातम मिश्र