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“भारत” जहाँ हिन्दू बहुसंख्यक हैं क्या कोई सोच सकता है कि यहाँ हिन्दू का केवल हिन्दू होना काफ़ी नहीं है.. उसे हिन्दू होने के साथ-साथ हिन्दू जैसा दिखना, बोलना, पहनना जरुरी है.
ये सुनने में थोडा अजीब है, पर ये सच है.. भारत के कई इलाकों में आज भी ऐसे परिवार रहते है जो अपनी संस्कृति-परम्परा लेकर भारत आये तो, मगर ये अपने पहनावे, अपनी बोली के साथ कभी भी घरों से बाहर नहीं निकले.. वो भारत आने के 70 सालों बाद भी लोगों की नज़रों से बचते फिरते है
कभी बलूचिस्तान के अलग-अलग हिस्सों में रहने वाले ये हिंदू “पश्तून” जिन्होंने ब्रिटिश हुकूमत (1893) के समय में अफ़गानिस्तान और पकिस्तान विभाजन में अपने घर को छोड़ा और पाकिस्तान में जाकर बस गए लेकिन, भारत की आज़ादी ने इन्हें फिर बेघर कर दिया..
भारत में इन्हें रहने की जगह तो मिली, लेकिन पश्तूनों और पठानों के बीच हुई परवरिश की वहज से इन हिन्दुओं की बोली और पहनावा पकिस्तान से आये हिन्दुओं से नहीं मिलता था.. लिहाज़ा इन्हें सर छुपाने के लिए अपनी भाषा, अपना पहनावा अपनी पहचान सब कुछ बदलनी पड़ी
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‘काकरी समुदाय’ की इन औरतों के चेहरों पर शीन ख़लाई (फेस टैटू) होती है जो उनकी परम्परा का हिस्सा था मगर वो जब भी बाहर निकलती तो लोग उन्हें घूरते, लोगों के हिसाब से उनका बोली और शक्ले पाकिस्तानी हिन्दुओं से बिलकुल अलग थीं, “तो कहीं तुम बहरूपिया तो नहीं हों?”.. लिहाज़ा उन औरतों ने भारत आकर घरों से बाहर निकलना तक छोड़ दिया.. अब तीन पीढ़ियों के बाद समय के साथ उनके चेहरे की वो आकृतियाँ, उनके चेहरे की झुर्रियों के पीछे छुप गयी.. आज इनकी बूढ़ी आंखों में सिर्फ और सिर्फ अपनी पहचान को खोने की उदासी नज़र आती है
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इनमें से एक महिला जिनका नाम ‘चन्द्रकला’ है, बँटवारे की उस रात के बारे में बताती है कि, “1893 में डूरंड लकीर ने हमारा मुल्क छीना और 1947 के बँटवारे ने हमारा घर.. हमारे माँ-बाप, पालतू जानवर तक नहीं ला सके. थाली में गुंथा आटा, किशमिश-बादाम की बोरियां सब वहीं रह गईं और रात के अँधेरे में हम जान बचा कर भागे.. उनकी बातों में पीछे छूटी यादें जिसमें उन्होंने दो बार अपनी गृहस्थी समेटी है और भविष्य में केवल ख़त्म हों जाने वाली उनकी परम्परा, उनकी संस्कृति का डर है, जिसे वो भारत की संस्कृति के साथ जी नहीं पाए.. उनके समुदाय के कुछ परिवार आज भी उसी कुनबे में रहते है जहाँ से उनका सफर शरू हुआ था पर इनसे अब सब कुछ छूट गया
उनके परिवार की तीसरी पीढ़ी से आने वाली शिल्पी 'शीन ख़लाई' नाम से एक डॉक्यूमेंट्री बना रही हैं
शिल्पी की कोशिश है कि, अपनी परम्परा की जिन चीज़ों के बारे में उन्होंने दादी, नानी से बचपन से सुना है जिसे लोगों से घुलने-मिलने की मजबूरी की वजह उन्हें छोड़ना पड़ा उसे फ़िर से ज़िन्दा किया जा सके
शिल्पी बतातीं हैं, ''बचपन में एक बार मैंने दादी से मेरे साथ नीचे खेल ने चलने के लिए कहा था. वो एकदम से डर गई थीं. कहने लगीं कि नहीं नहीं मैं नहीं जाएगा. ऐसा लगता है सब मुझे देखता है. मेरे मुंह पर इशारा करके घूरता है.''
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काकरी परिवारों की औरतों के मन में भारतीय लोगों का डर इस कदर है कि, उन्होंने अपनी ‘काकरी कमीज़’ जो उनकी मुख्य पोशाक हुआ करती थी, उसे सालों से संदूकों में बंद करके रखा है, वो आज साड़ी केवल इसलिए पहनती ही क्योंकि उनके आस-पास की मारवाड़ी औरतें भी साड़ी ही पहनती है लेकिन उनका अपनी पोशाक से लगाव अभी भी कम नहीं हुआ है वो कहती है साड़ी पहनना उनकी मजबूरी है, इसमें उनका हाथ खुला रहता है.. वो बताती है काकरी कमीज़ बनाने में उन्हें पूरा साल लग जाता था. इस कमीज़ पर सजावट के लिए वो रुपए सिलती थी. जिसकी कमीज़ पर जितने सिक्के वो उतना अमीर होता था और तंगी के समय कमीज़ पर लगे इन्हीं रुपयों ने इनका साथ दिया
भारत में अफ़गानी हिन्दू ज्यादातर पंजाब, राजस्थान, मध्य प्रदेश, बिहार और बंगाल में हैं, पर जहाँ भी है वहां की संस्कृति और परम्पराओं से साथ, उन्ही के रंग में रंगे.. बिलकुल शांत!
.(मूल लेख बीबीसी हिंदी में पहले प्रकाशित हो चूका है)