इंतज़ार की कीमत भाग 17
वह दिन भी आ गया जब उर्वशी अपनी मां और अपने गांव को छोड़कर अपने पी के घर जाने के लिए डोली में बैठ अपने पिया के नगर चल पड़ी। उर्वशी की आंखों में कोई सुनहरा सपना नहीं था उसकी आंखें भावहीन स्वप्न विहीन थीं वह शून्य में देख रहीं थीं।
हां आंखों में कोई रंगीन सपने तो नहीं थे पर होंठों पर दर्द भरी मुस्कुराहट ज़रूर फैलीं हुई थी।उसकी दर्द भरी मुस्कुराहट को उसकी जेठानी मालिनी और सास जानकी ने भी देख लिया था। उर्वशी की किस्मत पर उनके चेहरे पर भी दर्द सिमट आया था।
गांव के बाहर तक उर्वशी डोली में आई उसके बाद जानकी जी ने उसे कार में बैठने के लिए कहा डोली से उतरकर उर्वशी जब कार की ओर बढ़ रही थी तभी पार्वती जी ने उसे अपने गले लगा लिया और फूट-फूट कर रो पड़ी उर्वशी की आंखों में कोई आंसू नहीं थे। नंदनी भी उर्वशी से लिपटकर रो पड़ी फिर भी उर्वशी की आंखें सूखी हुई थी। उर्वशी को रोता न देखकर गांव की औरतें आपस में कानाफूसी करने लगी तभी मंथरा काकी ने कहा।
" घोर कलयुग आ गया है देखो तो जरा उर्वशी को यह तो रो ही नहीं रही है और इसकी मां रो-रोकर मरी जा रही है इसकी आंखों में एक बूंद आंसू नहीं है कैसी लड़की है जैसे इसे अपना मायका छोड़ने का कोई दुःख ही नहीं है"
उर्वशी, पार्वती और नंदनी उन औरतों की बातें सुन रही थीं उन्हें गुस्सा तो बहुत आया पर वह सब मौन रहीं।
तभी गांव की एक औरत ने कहा " अरे काकी अब उर्वशी क्यों रोएगी उसे अपने दुखों से छुटकारा जो मिल रहा है बड़े घर की बहू बनकर जा रही है वहां इसको किसी चीज की कमी तो होगी नहीं वहां रानी बनकर रहेगी तो अपने मायके को क्यों याद करे"
उर्वशी ने जब यह सुना तो उसके चेहरे पर दर्द भरी मुस्कुराहट फ़ैल गई वह मन-ही-मन कहने लगी, "आप ठीक कह रही हैं चाची मैं बहुत बड़े घर में बहू बनकर जा रही पर कितनी खुशी मुझे मिलेगी वह तो सिर्फ मैं जानती हूं। मैं बड़े घर में कितनी ख़ुश रहूंगी यह तो समय बताएगा" सभी को दूर के ढोल सुहावने लगते हैं" इतना मन ही मन सोचती हुई उर्वशी कार में बैठ गई और देखते ही देखते कार गांव वालों की आंखों के सामने से ओझल हो गई।
दो घंटे के सफ़र के बाद जानकी जी उर्वशी को लेकर अपने घर पहुंची श्यामा ने बहू के स्वागत की पूरी तैयारी कर रखी थी।कार के रूकते ही आरती का थाल लेकर श्यामा वहां पहुंच गई उसने आरती का थाल जानकी को दिया। जानकी जी ने उर्वशी की आरती उतारी फिर उर्वशी ने चावल के कलश को अपने पैरों की ठोकर से गिराया उसके बाद रोली घुले थाल में पैर रखकर खड़ी हुई और फिर रोली लगें पैरों की छाप बनाती हुई घर के अन्दर दाखिल हो गई। जानकी जी उर्वशी के पैरों के लाल निशान देख रही थी अचानक उन्हें लगा कि,वह खून के निशान हैं उनका मन विचलित होने लगा उन्हें लगा कहीं उर्वशी के जीवन में भी लहू की लाली न आ जाए वह मन-ही-मन ईश्वर से उर्वशी के जीवन की खुशियों की प्रार्थना करने लगी।
" मालकिन आप यहां क्यों खड़ी हुई हैं अन्दर चलिए बहू की मुंहदिखाई की रस्म अदा करनी है पहली मुंहदिखाई तो आपको ही करना है" तभी श्यामा ने जानकी के पास आते हुए कहा जानकी जी अपनी सोच से बाहर निकल आई और श्यामा के साथ घर के अंदर चली गई।
मालिनी ने उर्वशी को अंदर भगवान के कमरे में ले जाकर पूजा करवाई उस के बाद उर्वशी को मुंह दिखाई की रस्म के लिए लिए बैठा दिया गया।
आसपास के लोगों और नाते-रिश्तेदारों से घर भरा हुआ था सभी को दुल्हन देखने की उत्सुकता थी। सबसे पहले जानकी जी ने उर्वशी का घुंघट उठाया उर्वशी का घुंघट उठते ही लगा जैसे चांद सोलह श्रृंगार करके धरती पर उतर आया है।
सभी उर्वशी की सुन्दरता की तारीफ किए जा रहे थे तभी उनमें से एक बुजुर्ग औरत जिनका नाम सुशीला था ने कहा " हां यह तो हैं बहू बहुत सुन्दर है पर इसका भाग्य सुंदर नहीं है नहीं तो कैलाश जैसे लड़के से इसकी शादी न होती मुझे तो इस मासूम पर तरस आ रहा है यह कैसे कैलाश जैसे दरिंदें के साथ अपना पूरा जीवन बिताएंगी"
" चाचीजी आपको बहू के सामने यह सब नहीं कहना चाहिए बहू कैलाश के बारे में सुनकर और ज्यादा घबरा जाएगी हो सकता है कि कैलाश उर्वशी के आने से बदल जाए यह भी तो हो सकता है" मालिनी ने थोड़ी नाराजगी जाहिर करते हुए कहा।
" मुझे माफ़ कर दो बहू मुझसे गलती हो गई मुझे क्या पता था कि, यहां सच बोलने वालों के मुंह बंद कर दिए जाते हैं" चाचीजी ने माफ़ी मांगते हुए व्यंग्यात्मक लहजे में कहा।
" चाचीजी आप मेरे घर आई किस लिए हैं आपको बुलाया किसने था यहां से चली जाइए और किसी मंदिर में बैठकर सत्य का प्रवचन सुनाइए" कैलाश ने हाल में घुसते हुए गुस्से में कहा उसकी आवाज़ में लड़खडाहट साफ़ झलक रही थी वह ठीक से चल भी नहीं पा रहा था
कैलाश को देखकर सुशीला चाची ने व्यंग्यात्मक मुस्कुराहट के साथ कहा " तुम ठीक कह रहे हो बेटा मुझे यहां नहीं आना चाहिए था पर मैं बिन बुलाए यहां नहीं आई हूं तेरी मां ने बुलाया था पर मैंने गलती की यहां आकर और सच बोलकर मुझे रावण को रावण नहीं कहना चाहिए था राम कहना चाहिए जो मैंने कहा नहीं मैं तो ज़ुबान की कड़वी हूं पर सच ही बोलूंगी मैं पूछती हूं तू राम है तो राक्षसों की तरह दिन में भी शराब पीकर क्यों आया है। बड़ा आया उपदेश देने वाला मैं तो अब भी यही कहूंगी कि,बहू की किस्मत फूट गई है जो तेरे जैसा पति उसे मिला है मैं चलती हूं जानकी अब न आऊंगी तेरे घर तुमने बुलाया था तो आई थी तुम लोग अमीर हो तो अपने घर के हमारा अपमान करने का अधिकार तुम्हें नहीं है मैंने कुछ गलत नहीं कहा जो सच है और सभी को दिखाई दे रहा है वही मैंने कहा अब मुझे क्या पता था कि, कोई आईने में अपना घिनौना चेहरा देखकर आईने को ही गाली देने लगेगा" इतना कहकर वह उठकर वहां से जाने लगी उन्हें जाता देखकर जानकी जी ने उनका हाथ पकड़कर रोक लिया और कैलाश को डांटने लगी कैलाश की हालत देखकर जानकी जी का चेहरा क्रोध से लाल हो गया था। वह मेहमानों के बीच तमाशा नहीं खड़ा करना चाहतीं थीं इसलिए गुस्से में कहा "तुम यहां से जाओ औरतों के बीच आने और बोलने की तुम्हें जरूरत नहीं है"
कैलाश जानकी जी की बात सुनकर चुप हो गया और लड़खड़ाते हुए वहां से चला गया।
कैलाश और सुशीला चाची की बात सुनकर उर्वशी का दिल दर्द से तड़प उठा अपने पति के विषय में लोगों का विचार जानकर उसका मन आहत हो उठा था पर यह सब तो अब उसे सुनना ही था क्योंकि जो सच था उसको झूठलाया नहीं जा सकता कैलाश की आवाज यह गवाही दे रही थी कि वह इस समय नशे में चूर है यह देखकर लोग तो बातें बनाएंगे ही, यह तो दुनिया की रीत है इसका क्या बुरा मानना जब अपना सिक्का ही खोटा है तो परखने वाले का क्या दोष उर्वशी मन-ही-मन यही सोच रही थी।
" बहू उठो थोड़ी देर चलकर आराम कर लो शाम को पार्टी में भी बैठना है नहीं तो आराम का समय नहीं मिलेगा"तभी उर्वशी को अपनी जेठानी मालिनी की आवाज सुनाई दी उर्वशी उनकी आवाज सुनकर यादों के भंवर से बाहर निकल आई।
उर्वशी मालिनी के साथ ऊपर कमरे में चली गई कमरे में पहुंचने के बाद मालिनी ने कहा " उर्वशी तुम यहां आराम करो मैं तुम्हारे लिए कुछ खाने को लेकर आतीं हूं"
" नहीं दीदी मुझे भूख नहीं है" उर्वशी ने उदास लहज़े में धीरे से कहा
" भूख कैसे नहीं है मैं जानती हूं सुशीला चाची की बातों ने तुम्हें उदास कर दिया है उनकी तो आदत है बात का बतंगड़ बनाने की तुम उनकी बातों पर ध्यान न दो" मालिनी ने प्यार से समझाते हुए कहा।
" नहीं दीदी चाचीजी सच ही कह रहीं थीं फिर उनकी बातों को दिल से लगाने का कोई मतलब ही नहीं है कैलाश जी के विषय में तो मां जी ने पहले ही बता दिया है मुझे लोगों की बातें सुननी पड़ेगी इससे मैं भाग नहीं सकती" उर्वशी ने गम्भीर लहज़े में जवाब दिया।
मालिनी ने कोई जवाब नहीं दिया और कमरे से बाहर निकल गई थोड़ी देर बाद जब वह आई तो उसके हाथ में खाने की थाली थी मालिनी ने जबरदस्ती उर्वशी को थोड़ा सा खाना खिलाया फिर उर्वशी को आराम करने के लिए कहकर कमरे से बाहर चली गई।
मालिनी के जाने के बाद उर्वशी ने कमरे को ध्यान से देखा कमरा अपनी रईसी की कहानी कह रहा था कमरे को देखकर उर्वशी के चेहरे पर फिकी सी मुस्कराहट फ़ैल गई।
उर्वशी मन-ही-मन सोच रही थी कि, मैं दुल्हन बनकर आई हूं फिर भी मेरे मन में प्यार का कोई अहसान नहीं है ऐसा क्यों है जब मुझे कैलाश के बारे में कुछ पता नहीं था तो मेरे मन में कितने रंगीन ख़्याल आते थे मैं कल्पना में अपने साथ कैलाश को देखती थी। सपने में मैं देखती थी कि वह मेरे चेहरे को अपने हाथों में लेकर बहुत प्यार से देख रहें हैं फिर कहते हैं कि, उर्वशी तुम बहुत सुन्दर हो मैं तुम्हारे सौंदर्य का दीवना हो गया हूं। मैं जीवन भर तुम्हें प्यार करता रहूंगा तुम्हें कभी भी अपने से दूर नहीं करूंगा। कभी वह मेरी जुल्फ़ों से खेलते थे कभी मेरा आंचल पकड़कर अपने पास खिंच लेते थे और मैं शरमा कर उनकी बाहों में सिमट जाती थी लेकिन अब जबकि मैं उनकी दुल्हन बनकर उनके घर आ गई हूं मेरे आंखों में कोई रंगीन ख्वाब नहीं हैं।
यही सब सोचते हुए उर्वशी नींद की आगोश में समा गई•••
क्रमशः
डॉ कंचन शुक्ला
स्वरचित मौलिक
24/7/2021