स्त्री, कहने को भले ही एक छोटा सा नाम लेकिन मानो उसमें पूरा संसार समाया है। वह एक बेटी है, एक पत्नी, एक बहू और एक मां और न जाने कितने ही रूपों में वह अपने कत्र्तव्यों का निर्वहन चुपचाप करती है। फिर चाहे स्त्री गृहिणी हो या कामकाजी, वह दुनिया की एक ऐसी इंसान है, जिसके नसीब में कभी छुट्टी नहीं लिखी होती। पुरूष तो सप्ताहांत न सिर्फ आराम फरमाकर अपनी छुट्टी का आनंद लेते हैं, बल्कि पूरे सप्ताह के काम के बोझ और थकान का बखान भी करते हैं। लेकिन इसे माॅडर्न युग का तोहफा कहें या फिर विडंबना, आज स्त्री को दोहरी जिम्मेदारी का भी निर्वहन करना पड़ता है। वह सिर्फ घर ही नहीं संभालती, बल्कि बाहर जाकर पैसे कमाना और घर चलाने में पति से कंधे से कंधा मिलाना भी उसकी नियति बन चुका है। अगर वह ऐसा नहीं करती, तो समझा जाता है कि वह तो कुछ नहीं करती, बस घर में आराम ही फरमाती है। स्त्री भले ही घर-बाहर की जिम्मेदारियों को बिना किसी शिकायत के खुशी-खुशी निभाती हो लेकिन आज भी पुरूषप्रधान समाज में पुरूष घर-काम में स्त्री के कंधे से कंधा मिलाने को अपनी शान के खिलाफ समझता है। अगर गाहे-बगाहे वह कभी स्त्री की मदद कर भी दे, तो फिर ऐसा व्यवहार करता है, मानो उसने महिला के उपर कोई बहुत बड़ा अहसान कर दिया हो। यह कैसी विडंबना है कि स्त्री के साथ भेदभाव का सिलसिला सिर्फ विवाह के बाद ही नहीं होता, बल्कि यह तो जन्म से पूर्व ही शुरू हो जाता है। जब एक स्त्री गर्भवती होती है ता उससे यही उम्मीद की जाती है कि वह एक बेटे को जन्म दे ताकि वंश को आगे बढ़ाया जा सके। उसे गर्भावस्था के दौरान अक्सर यही जुमले सुनने को मिलते हैं कि जल्दी से एक पोता दे दे। देख लेना कि लड़का ही होगा। इस तरह उस पर पुत्र जन्म के लए एक मानसिक दबाव बनाया जाता है। अगर लड़की पैदा भी हो जाती है तो न तो उसके जन्म पर किसी तरह का उल्लास या जश्न मनाया जाता है, बल्कि लड़की पैदा होने के लिए भी स्त्री को ही दोष दिया जाता है। जबकि विज्ञान भी इस बात को साबित कर चुका है कि लड़का या लड़की होना एक स्त्री पर नहीं, बल्कि पुरूष पर निर्भर करता है। वहीं दूसरी ओर, समय के साथ जैसे-जैसे लड़की बड़ी होने लगती है तो उसे सिखाया जाता है कि वह क्या पहनें, किससे बोले, कैसे चले या फिर अपना करियर बनाए या नहीं। यहां तक कि वह किस क्षेत्र मंे जाॅब करेगी, उसकी शादी किससे होगी, इन सभी चीजों पर उसका नहीं, बल्कि किसी और का नियंत्रण होता है। इसे उसकी परवरिश का ही नतीजा कहा जा सकता है कि विवाहोपंरात वह एक सुपरवुमन बनने की जद्दोजहद करती हुई नजर आती है। उसके जेहन में यह बात भीतर तक होती है कि घर और बाहर की जिम्मेदारियों का निर्वहन करना उसका कत्र्तव्य है और अगर इसमें जरा-सी भी चूक होती है तो वह खुद को ही दोषी मानकर एक अपराधबोध के साथ जीती है। सुपरवुमन सिंडोम जैसी बीमारी भी इसी सोच की उपज है। इसके अतिरिक्त यह भी देखने में आता है कि महिलाएं अधिक अवसादग्रस्त होती हैं। आज विश्व महिला दिवस है और चारों ओर महिलाओं के सशक्तिकरण और कुछ महिलाओं द्वारा किए गए अच्छे कामों का बखान किया जा रहा है। इस बात में कोई दोराय नहीं है कि महिलाओं ने हर क्षेत्र में अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है, लेकिन यह महिला दिवस सिर्फ उन महिलाओं के लिए नहीं है, जिन्होंने देश को एक नई उंचाईयों पर पहुंचाया है। बल्कि यह हर उस महिला का भी दिवस है, जो जिन्दगी की दोहरी जिम्मेदारियों के बीच शायद कहीं पिसती जा रही है। वह भी चाहती हैं कि उसे घर-परिवार की जिम्मेदारी से मुक्त होकर एक दिन छुट्टी मिले और वह खुलकर जिए। हालांकि यह कहने की हिम्मत उसमें नहीं है। आज के दिन हमारी सभी पाठकों से सिर्फ इतनी गुजारिश है कि जिस तरह आप खुद के लिए जीते है। आपके घर की स्त्री को भी खुद के लिए जीने का मौका दें। सप्ताह मंे न सही लेकिन महीने में एक दिन तो आप उन्हें दे ही सकते हैं, जब स्त्री वो सब कर सके, जिसे करने की चाहत सालों से उसके मन में कहीं दबी हुई है और यह सब करके आप उस पर अहसान नहीं करेंगे। बल्कि एक इंसान के रूप में यह सब पाना उसका मूलभूत अधिकार है और इस तरह कहीं न कहीं यह आपके लिए ही लाभदायक होगा क्योंकि जब वह दोबारा उर्जावान होगी तो बेहतर काम करने के लिए तो प्रेरित होगी ही, साथ ही उसके प्रति आपका प्रेम और केयर रिश्तों को एक नई उर्जा व जीवंतता प्रदान करेगा।