सीएम की कुर्सी और वो कहानी... में आज हम पढ़ाएंगे मध्यप्रदेश के उस मुख्यमंत्री का किस्सा जिसकी राजनीतिक शैली में साम-दाम-दंड-भेद का मिश्रण इस कदर घुला था कि लोग उन्हें सियासत का चाणक्य भी कहते थे। पढ़िए मध्य प्रदेश के पूर्व सीएम द्वारका प्रसाद मिश्र (डीपी मिश्र) की राजनीतिक जिंदगी से जुड़े चर्चित किस्से...
सीएम की कुर्सी और वो कहानी... में आज हम पढ़ाएंगे मध्यप्रदेश के उस मुख्यमंत्री का किस्सा, जिसकी राजनीतिक शैली में साम-दाम-दंड-भेद का मिश्रण इस कदर घुला था कि लोग उन्हें सियासत का चाणक्य भी कहते थे। अक्खड़ मिजाज के चलते उनके करीबियों की संख्या काफी छोटी थी, लेकिन व्यक्तित्व का प्रभाव ऐसा था कि कोई भी उन्हें नजरअंदाज नहीं कर पाता था।
यूं तो मिलने आने वाली महिलाओं का खड़े होकर स्वागत करते थे, लेकिन राजमाता विजयाराजे सिंधिया के लिए खड़ा होना उन्हें पसंद नहीं था। बिना अपॉइंटमेंट वो किसी से मिलते नहीं थे। लग्जरी शौक के लिए चर्चा में रहे तो हसीना कांड का खामियाजा भी भुगतना पड़ा। लेकिन जब दुनिया को अलविदा कहा तो न आखिरी ख्वाहिश पूरी हुई और न कफन नसीब हुआ...
मध्य प्रदेश के पूर्व सीएम द्वारका प्रसाद मिश्र (डीपी मिश्र) की राजनीतिक जिंदगी से जुड़े चर्चित किस्से...
यह बात है साल 1962 की और नया नवेला बना राज्य मध्यप्रदेश अपने तीसरे विधानसभा तीसरा को देख चुका था। कांग्रेस पार्टी इस चुनाव में बहुमत हासिल नहीं कर सकी थी। तब के मुख्यमंत्री रहे कैलाश नाथ काटजू के नेतृत्व में चुनाव लड़ा गया था और हार का उपहार मिला था।
खंडवा के भगवंतराव मंडलोई को 18 महीनों के लिए दूसरी बार सूबे की कमान मिली। इससे पहले, राज्य के पहले सीएम रविशंकर शुक्ल के निधन पर उन्हें 20 दिन के लिए मुख्यमंत्री बनाया गया था।
अक्टूबर, 1963 में कांग्रेस का कामराज प्लान आया तो मंडलोई को कुर्सी छोड़नी पड़ी। एक बार फिर कैलाशनाथ काटजू को मुख्यमंत्री बनाने की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी थी। लेकिन राजनीति के चाणक्य डीपी मिश्र (द्वारका प्रसाद मिश्र) ने ऐसा इंतजाम किया कि काटजू का नाम कट गया और शपथ मिश्र जी ने उठाई। यह 12 साल बाद यह कांग्रेस में उनकी शानदार वापसी थी।
यहां आपको वापसी शब्द खटका या नहीं? खटकना चाहिए। दरअसल द्वारका प्रसाद मिश्र कट्टर कांग्रेसी थे। फिर भी साल 1951 में नेहरू की चीन और पाकिस्तान को लेकर बनाई नीतियों के विरोध में उन्होंने पार्टी छोड़ दी थी। लोक कांग्रेस नाम की पार्टी बनाकर चुनाव में उतरे, लेकिन वोट देना तो दूर जनता ने उनके भाषण को भी नहीं सुना। खैर, 1963 में इंदिरा गांधी के हस्तक्षेप से उनकी कांग्रेस पार्टी में वापसी हुई।
चार साल बाद जब डीपी मिश्र के नेतृत्व में चुनाव हुए तो कांग्रेस को 170 सीटें मिलीं। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के 24 विधायक दल-बदल कर कांग्रेस में शामिल हो गए। इस तरह से एक बार फिर 1967 में मिश्र मुख्यमंत्री बन गए।
रजवाड़े कभी कांग्रेस के नहीं हो सकते
डीपी मिश्र के अक्खड़ मिजाज के कई किस्से काफी चर्चित हैं। राजमाता विजयाराजे सिंधिया और उनके बीच का टशन का किस्सा। मिश्र ने ग्वालियर की राजमाता के सामने राज परिवारों को काफी खरी-खोटी भी सुनाई थी। ऐसा ही एक वाकया पहाड़ों की रानी कहे जाने वाले पचमढ़ी में युवा कांग्रेस का सम्मेलन के दौरान भी हुआ था।
मिश्र ने सम्मेलन को संबोधित करते हुए कहा था 'ये रजवाड़े कभी भी कांग्रेस के नहीं हो सकते, क्योंकि ये लोग लोकतंत्र के विरोधी हैं। लोकतंत्र में हम किसी को ना नहीं कह सकते, इसलिए हमें इनको पार्टी में लेना पड़ा, लेकिन जल्द ही हम इनको निपटा देंगे। इनका भरोसा नहीं किया जा सकता।'
उस सम्मेलन में ग्वालियर रियासत की पूर्व राजमाता विजयाराजे सिंधिया पहली पंक्ति में ही बैठी थीं। सब उनकी तरफ देखने लगे। राजमाता को यह बेहद अपमानजनक लगा। विजयाराजे में अपनी आत्मकथा में लिखा था, 'मैंने तभी तय कर लिया था कि मैं ये टिप्पणी हवा में नहीं जाने दूंगी।'
राजमाता के सामने कभी खड़े नहीं हुए
द्वारका प्रसाद मिश्र मिलने आनी वाली महिलाओं के सम्मान में हमेशा खड़े हो जाते थे। लेकिन राजमाता के लिए खड़ा होना उन्हें पसंद नहीं था। तो उन्होंने इसका भी एक तोड़ निकाल लिया था। उन्होंने अपने कार्यालय में एक चेंबर भी बनवा रखा था। जब भी उन्हें पता चलता कि विजयाराजे मिलने आई हैं तो वो अपनी कुर्सी से उठकर चेंबर में चले जाते थे।
ऐसा ही एक किस्सा था कि राजमाता मिश्र जी से मिलने पहुंचीं तो वो अपने चेंबर में चले गए। मुख्यमंत्री की कुर्सी खाली देख राजमाता आगंतुक कुर्सी पर बैठ गईं। उनके बैठने के बाद डीपी मिश्र चेंबर से बाहर आए, तो सम्मान के नाते राजमाता को उनके सामने खड़ा होना पड़ता था। जब भी विजयाराजे आतीं तो वो ऐसा ही करते थे।
महारानी को कराया इंतजार
डीपी मिश्र और राजमाता के बीच खटपट कभी कम नहीं हुई, बल्कि बढ़ती ही गई। सितंबर 1966 में ग्वालियर में एक छात्र आंदोलन हुआ। पुलिस ने आंदोलनकारियों पर गोलियां चला दीं। राजमाता (उस वक्त की ग्वालियर की सांसद) जब इस मसले पर मिश्र से मिलने भोपाल पहुंची।
यहां डीपी मिश्र ने उन्हें लंबे इंतजार के बाद अपने ऑफिस में बुलाया। डीपी मिश्र भीतर के कमरे से आए और बिना अभिवादन किए ही बोले- 'छात्र आंदोलन के अलावा कुछ चर्चा करनी हो तो बताइए।' राजमाता समझ गईं थी कि दिखावे का वक्त जा चुका है, लेकिन चुनाव सिर पर थे। इसलिए वह चुप रहीं।
साल 1967 में विधानसभा चुनाव हुए तो टिकट बंटवारे को लेकर दोनों के बीच ठन गई। राजमाता अपने लोगों को टिकट दिलाना चाहती थीं। इस पर तंज कसते हुए मिश्र ने कहा कि आपकी रियासत तो जा चुकी है। इससे नाराज विजयाराजे सिंधिया ने बगावत कर दी।
अधूरी रही अंतिम इच्छा
पचमढ़ी शहर कभी मध्यप्रदेश की राजधानी हुआ करता था। गर्मियों में डीपी मिश्र कामकाज यहीं से चलाया करते थे। उनको पचमढ़ी बेहद प्रिय था। वह अपने जीवन के आखिरी दिन यहीं बिताना चाहते थे। उन्होंने पचमढ़ी में ही अपने अंतिम संस्कार की इच्छा जताई थी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। उनका अंतिम संस्कार जबलपुर में हुआ था।
अधूरी रही अंतिम इच्छा
पचमढ़ी शहर कभी मध्यप्रदेश की राजधानी हुआ करता था। गर्मियों में डीपी मिश्र कामकाज यहीं से चलाया करते थे। उनको पचमढ़ी बेहद प्रिय था। वह अपने जीवन के आखिरी दिन यहीं बिताना चाहते थे। उन्होंने पचमढ़ी में ही अपने अंतिम संस्कार की इच्छा जताई थी, लेकिन ऐसा नहीं हो सका। उनका अंतिम संस्कार जबलपुर में हुआ था।रजवाड़े कभी कांग्रेस के नहीं हो सकते
डीपी मिश्र के अक्खड़ मिजाज के कई किस्से काफी चर्चित हैं। राजमाता विजयाराजे सिंधिया और उनके बीच का टशन का किस्सा। मिश्र ने ग्वालियर की राजमाता के सामने राज परिवारों को काफी खरी-खोटी भी सुनाई थी। ऐसा ही एक वाकया पहाड़ों की रानी कहे जाने वाले पचमढ़ी में युवा कांग्रेस का सम्मेलन के दौरान भी हुआ था।चार साल बाद जब डीपी मिश्र के नेतृत्व में चुनाव हुए तो कांग्रेस को 170 सीटें मिलीं। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के 24 विधायक दल-बदल कर कांग्रेस में शामिल हो गए। इस तरह से एक बार फिर 1967 में मिश्र मुख्यमंत्री बन गए।अक्टूबर, 1963 में कांग्रेस का कामराज प्लान आया तो मंडलोई को कुर्सी छोड़नी पड़ी। एक बार फिर कैलाशनाथ काटजू को मुख्यमंत्री बनाने की तैयारी लगभग पूरी हो चुकी थी। लेकिन राजनीति के चाणक्य डीपी मिश्र (द्वारका प्रसाद मिश्र) ने ऐसा इंतजाम किया कि काटजू का नाम कट गया और शपथ मिश्र जी ने उठाई। यह 12 साल बाद यह कांग्रेस में उनकी शानदार वापसी थी।