प्रकृति में सब कुछ नाच रहा है गा रहा है, अपनी जगह खुश है संतुष्ट है , तृप्त है ।
पंछी गा रहे है , नदियां लहरा रहीं है , पेड़ पौधे झूम रहे है , तारे आंखे झपका रहे हैं जानवर खेल रहे हैं ; सब खुश हैं।
पर इंसान खुश नहीं है उसको तो कुछ न कुछ चाहिए , पैसा चाहिए ऊंचा पद चाहिए किसी को शासन करना है , सब के सब व्यर्थ की चिंताओं और लालसाओं में डूबे हुए हैं ।
प्रकृति की हर चीज खुश है , पर इंसान नहीं क्योंकि वो अपने मन का गुलाम है ,
इंसान व्यर्थ की संपदाएं एकत्र करता रहेगा इसके लिए लाख तरह के बुरे भले काम करेगा और अंत में मर जाने के बाद सब कुछ यहीं छूट जायेगा ।
इंसान संपदाओं से कभी तृप्त न हो सकेगा , अगर हो सकेगा तो केवल प्रेम से , ईश्वर से ।
जैसा की तुलसीदास जी कवितावली में कहते है :
ऊंचे- नीचे करम, धरम अधरम करि पेट को ही पचत, बेचत बेटा- बेटकी ।
'तुलसी' बुझाई एक राम घनश्याम ही तें, आगि बड़वागितें बड़ी है आगि पेटकी ||
[ मनुष्य अपने पेट की अग्नि को बूझाने के लिए ऊंचे नीचे कर्म,धर्म -अधर्म करता रहता है यहां तक की अपने बेटों और बेटियों को भी बेच देता है पर कभी तृप्त नहीं हो पाता ; केवल एक श्रीराम रूपी बादल ही इस अग्नि को बूझा सकते हैं । ]
हमारी हृदय की प्यास अनंत है इस संसार की कोई भी चीज इसे भर न सकेगी ।
अनंत है प्रेम , अनंत है परमात्मा अनंत ( हृदय ) को अनंत ही भर सकेगा ।
पर जब तक इंसान अपने मन का गुलाम है तब तक ये काम बहुत कठिन है ।