रुक जा बंदे निकल न घर से,
यही समय की मांग रे ।
हिम्मत और हौसला रख ले,
जान है तो जहान रे ।
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बाहर गर तू नहीं जा सकता,
अंदर क्यों नहीं जाता है।
शाम सबेरे ध्यान लगाकर,
हरी को क्यूँ नहीं मनाता है।
बैठ के बंदे सतसंग कर ले,
हो जाये कल्याण रे ।
रुक जा बंदे..............
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माना काशी, मथुरा सूनी,
नहीं सूना रे मन आंगन।
नहीं सूने हैं बाग बगीचे,
गूंज रहे हैं पक्षी गण।
हरी भरी ये देख धरा तू,
फेंक रही मुस्कान रे ।
रुक जा बंदे.............
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माना लक्ष्य बड़ा ही मुश्किल,
पाता काबू इंसान है।
मुश्किल से मुश्किल राहें भी,
हो जाती आसान हैं।
लगन तपस्या के आगे तो,
हारे स्वयं भगवान रे ।
रुक जा बंदे.............
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कोरोना काल में मेरे द्वारा लिखी गई कविता.
@ vineetakrishna