ज्ञान-प्रकाश के अनावरण का नाम ही दीपावली है जिसमें संसार में जड़ और चैतन्य के मिथ्या भेद को जानकर साधक को अपने अंदर ज्ञान का दीपक प्रज्वलित करना है। इसके पश्चात ही वह परम तत्व का साक्षात्कार कर आंतरिक और बाह्य ग्रंथियों को सुलझा सकता है। अखंड सुख शांति और आनंद को प्राप्त करना ही दीपावली का प्रकाश है इसीलिए इसे अमावस्या की घोर अंधकारमय रात्रि में मनाया जाता है।
सनातन संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्योहार है दीपावली।
अन्नमय कोष, प्राणमय कोष, मनोमय कोष, विज्ञानमय कोष के पश्चात प्रवेश होता है आनंदमय कोष में। अन्न से उत्पन्न यह शरीर त्वचा, मांस, चर्म और रुधिर युक्त है। यह आत्मा नहीं है। प्राणमय कोष भी आत्मा नहीं, क्योंकि प्राण वायु के रूप में शरीर में आता-जाता है। मनोमय कोष व्यक्ति को विषयों में आसक्त करता है और आत्मभाव में स्थित नहीं होने देता है, इसलिए यह भी आत्मा नहीं है।
जागृति, स्वप्न, सुषुप्ति, सुख-दुख, जन्म-मरण, लाभ-हानि विज्ञानमय कोष में रहते हैं, इसलिए यह भी आत्मारूप आनंदमय कोष नहीं हो सकता है। श्रीरामचरितमानस में मात्र श्रीभरत इन कोषों का उपादान रूप में उपयोग करते हुए भी आनंदमय कोष हैं, जिनका राम से सर्वथा ऐक्य है। सारा संसार भरत की इस महत् भूमिका के कारण ही दीपावली का प्रकाश पर्व मनाता है।
दीपावली सनातन संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्योहार है। पूरा कार्तिक माह घरों तथा व्यापारिक संस्थानों की स्वच्छता व सजावट में लग जाता है। दीपावली के इस दृष्ट बाह्य और लौकिक रूप में कौन-सा आंतरिक तत्व छिपा है, जिसे जानने के पश्चात दीपावली हमें हमारे मूल वैदिक परंपराओं की नींव से जोड़ देती है।
श्रीरामचरितमानस में भक्ति के सोपानों का वर्णन अरण्यकांड में है, जिसका विश्लेषण भगवान श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण की जिज्ञासा-समाधान में करते हैं। उसी तरह ज्ञान प्राप्ति के सोपानों का वर्णन मानस के अंतिम उत्तरकांड में काकभुशुंडि जी गरुड़ जी के समक्ष करते हैं।
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दीपावली सनातन संस्कृति का सर्वाधिक महत्वपूर्ण त्योहार है। पूरा कार्तिक माह घरों तथा व्यापारिक संस्थानों की स्वच्छता व सजावट में लग जाता है। दीपावली के इस दृष्ट बाह्य और लौकिक रूप में कौन-सा आंतरिक तत्व छिपा है, जिसे जानने के पश्चात दीपावली हमें हमारे मूल वैदिक परंपराओं की नींव से जोड़ देती है।
श्रीरामचरितमानस में भक्ति के सोपानों का वर्णन अरण्यकांड में है, जिसका विश्लेषण भगवान श्रीराम अपने अनुज लक्ष्मण की जिज्ञासा-समाधान में करते हैं। उसी तरह ज्ञान प्राप्ति के सोपानों का वर्णन मानस के अंतिम उत्तरकांड में काकभुशुंडि जी गरुड़ जी के समक्ष करते हैं।
वस्तुत: ज्ञान-प्रकाश के अनावरण का नाम ही दीपावली है, जिसमें संसार में जड़ और चैतन्य के मिथ्या भेद को जानकर साधक को अपने अंदर ज्ञान का दीपक प्रज्वलित करना है। इसके पश्चात ही वह परम तत्व का साक्षात्कार कर अपनी आंतरिक और बाह्य ग्रंथियों को सुलझा सकता है। अखंड सुख, शांति और आनंद को प्राप्त करना ही दीपावली का प्रकाश है, इसीलिए इसे अमावस्या की घोर अंधकारमय रात्रि में मनाया जाता है।
उस आनंदमय कोष की प्राप्ति के लिए महाराज मनु भगवान श्रीराम को पुत्र रूप में पाने के लिए अपनी पत्नी शतरूपा के साथ भगवत प्राप्ति की प्रबल इच्छा से वन में तपस्या करने चले जाते हैं। उन्हें सांसारिक भोगों में पूर्णता नहीं लगी और उन्हें लगा कि मैं तो इसी में लिप्त होता जा रहा हूं। मुझे वैराग्य तो नहीं हो रहा है।
यद्यपि उस समय उनके पुत्र और प्रजा सब अनुकूल थे, पर वे जिस आनंद की प्राप्ति के लिए व्याकुल थे, अभी तक वे उससे वंचित थे। क्योंकि प्राकृत साधनों के द्वारा प्राप्त अन्नमय और प्राणमय कोष के आगे ज्यों ही साधक मनोमय कोष में प्रवेश करता है, तत्काल उसका प्रवेश मय अरु तोर-माया में हो जाता है।
परिणाम होता है कि भगवान को ही अयोध्या से वनवास दे दिया जाता है, जो आनंदमय कोष का अधिष्ठान हैं। तब श्रीभरत जैसे साधक चित्त की भूमि चित्रकूट में जाकर भगवान के हृदय से मिलकर राज्यसिंहासन के उपादान छत्र, मुकुट, सिंहासन पादुका, तीर्थों के जल को उपादान के रूप में भगवान के चरणों में अर्पित कर देते हैं।
श्रीभरत को चित्रकूट में जिस धन्यता का अनुभव होता है, वही था आनंदमय कोष।
जो 'आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर ते त्रैलोक्य सुपासी।।' का वास्तविक स्वरूप श्रीराम को प्राप्त करके भरत को हुआ, जिसमें न कोई पिता, न भाई, न कोई गुरु, न शिष्य, न दाता न प्रतिग्रहीता, न राजा, न प्रजा। शुद्ध आनंद, आनंद और आनंद। यही स्थिति मैं मेरा और तू तेरा की स्थूल और मिथ्या स्थिति से ऊपर उठकर चित्त के उस प्रांजल शिखर पर स्थित हो जाना है, जहां पर प्रवृत्ति और निवृत्ति का भेद समाप्त होकर केवल राम तत्व ही शेष रह जाता है।
जिस प्राप्ति में मन में संकल्प-विकल्प बने रहें, वह आनंद नहीं हो सकता। जो बुद्धि भरत और राम में भेद करे, उसमें आनंद संभव नहीं है। जिस चित्त में श्रीराम से प्रेम, आदर प्राप्त कर लेने पर भी कौशल्या से द्वैत भाव के कारण अपने ही अहं को सिंहासनासीन करने की इच्छा (मेरे पुत्र भरत को राज्य मिले) हो, उन कैकई के चित्त को आनंदमय कोष में प्रवेश नहीं मिल सकता है। जिन महाराज दशरथ को परब्रह्म परमात्मा श्रीराम में भी केवल सुपुत्र की योग्यता के गुण दिखाई देने के कारण श्रीराम को युवराज बनाने की इच्छा है, वहां आनंदमय कोष में प्रवेश कहां संभव है।
अयोध्या में श्रीराम के वनवास से पूर्व अन्नमय कोष, प्राणमय कोश, मनोमय और विज्ञानमय कोषों की अपूर्णता के कारण पूर्ण आनंद के स्वरूप श्री राम के अवतरित होने पर भी अयोध्या में बधाइयां तो बज गईं, लोगों को तात्कालिक ब्रह्मानंद का अनुभव भी हुआ, पर वह चित्त की भीति में प्रवेश नहीं कर सका।
महत्व तो चित्त का ही है। अंत में जब तक भरत, जिनका मन, बुद्धि, अहं और चित्त का विसर्जन केवल श्रीराम के प्रति था, चित्रकूट नहीं पहुंच गए, तब तक मन, बुद्धि, अहं और चित्त की सत्ता बनी रही :
परम प्रेम पूरन दोउ भाई।
मन बुधि चित अहमिति बिसराई
कोउ किछु कहई न कोउ किछु पूंछा।
प्रेम भरा मन निज गति छूंछा।
प्रेम से भर जाने में ही तो आनंद है। जो भर गया उसकी क्या इच्छा? क्या वाणी और क्या लक्ष्य? प्रेमी तो प्रेमास्पद के भाव की परिपूर्णता को ही अपना सर्वस्व मानता है। भरत ने एक बार भी श्रीराम को बाध्य नहीं किया कि आप अयोध्या लौटकर चलिए।
श्रीराम को चित्रकूट से अयोध्या लौट कर ले जाने में भरत यदि सफल होते तो राम तो लौट जाते, पर भरत का अहं शेष रह जाता कि वे राम को लौटा कर ले आए। भारतीय सनातन संस्कृति में हम अपने अहं का विसर्जन करते हैं। भरत तो चित्रकूट में कह देते हैं कि प्रभु, जिससे आपके हृदय को प्रसन्नता हो आप वही कीजिए, वही, मेरी प्रसन्नता है :