मनहर, पतन स्वीकार था
मुझको, पतन स्वीकार था!
हे हिमशिखर !
तुमको लगा जो निम्न पथ,
मेरे लिए हर-द्वार था।
मुझको, पतन स्वीकार था!
मेरा उतरना, दौड़ना, पथ-पत्थरों का तोड़ना
कर हरी-हरी वसुंधरा उदंड अंग हिलोरना!
ये राह, खोवे दाह, गीता में प्रलय, तरला चाह,
मैं चल पड़ी, मेरे चरणों पर जगत भर लाचार था !
मुझको, पतन स्वीकार था!
प्रभु की तरल प्राणद झड़ी बरसी तुम्हारे घर वृथा,
तुमने बना पत्थर, बढ़ा दी कोटि तृषितों की व्यथा,
तुम देवताओं के लोक हो मैं कृषक की करुणा कथा ।
मुझको, पतन स्वीकार था!
प्रभु ने बरसता वर दिया, तुमने उसे पत्थर किया,
माना कि पंकिलता बची माना कि जगमग जग किया,
तुमको चमक की चाह- मुझको, पंक-पथ-शृंगार था ।
मुझको, पतन स्वीकार था!
तुम जगमगा कर रह गये अपनी विवशता कह गये,
लाचार दीन अधीन तृषितों के इरादे ढह गये,
मैं उच्चता को शत्रु- सबल जगत की मनुहार था ।
मुझको, पतन स्वीकार था!
तुम रोकते हो धार को ? आश्रित जगत-व्यापार को ?
तुम प्रबल गति के शत्रु हो- क्यों रोकते हो ज्वार को ?
मैं चली मूर्छित छोड़; मेरा, प्रलय-घन हुंकार था ।
मुझको, पतन स्वीकार था!
तुम विमल ऊँचों की कथा, मैं करुण दलितों की व्यथा,
तुम कर्महीना 'देवता' मैं गतिमयी, बलि की प्रथा;
जड़ उच्चता में, जन्म मम विद्रोह का अवतार था ।
मुझको, पतन स्वीकार था!
हाँ ठीक, जग तुम पर चढ़े, यह उचित, नर तुम तक बढ़े;
पर यह तुम्हारी उच्चता क्यों शाप मानव पर मढ़े ?
तरलत्व को तरलत्व दूं मेरा कठिन निर्धार था ।
मुझको, पतन स्वीकार था!
रोती रही भू प्यास से, हरिया उठूं, इस आस से,
वह बनी रेगिस्तान 'शीतल-उच्चता' के त्रास से !
मेरा 'भगीरथ' क्रान्तिमय विद्रोह सा उपचार था ।
मुझको, पतन स्वीकार था!