दे प्यारे, अपनी आँखों में
आमेजान वहाँ पाऊँ,
विमल-धर्म-जयगढ़ पर
तेरे उसे समुद्र टकरा पाऊँ
भाव-पोत पर लाद, प्रेम के
पुष्प-पत्र पहुँचा पाऊँ;
अपनी क्षीण धार, उस निधि से
किसी प्रकार मिला पाऊँ;
उद्गम पर इस ओर खड़ा है
बल, विचार-गुणहीन फकीर
मजलिस सुनी देख, विकल है,
उसे मिला दे उसका मीर ।
(1927; मीर=हिन्दी के सुकवि स्वर्गीय
सैयद अमीर अली मीर, जिन्हें लेखक
जीवन भर 'पूज्य' और 'पंडित' अमीर
अली मीर लिखता रहा । लेखक के
(सन 1921 की 5 जुलाई को) जेल
जाने पर, धर्मजयगढ़ के दीवान होते
हुए, मीर साहब ने बधाई का पत्र
बिलासपुर जेल के पते पर अपने कैदी
मित्र को भेजा । उस समय 'मीर'
साहब को भेजी गई यह श्रद्धांजलि है।
जेल से लौटने पर पता चला कि मीर
साहब अपने राष्ट्रीय मनोभावों के
कारण उस राज के दीवान पद से हटा
दिये गये)