मैंने वे चरण निहार लिये,
अब देखा क्या, अनदेखा क्या ?
दो बाँहों की कोमल धारा,
दो नयनों की शीतल छाया,
मैं ब्रह्म रूप समझा, मानो-
तुम कहते रहे जिसे माया ।
इस सनेह-धारा के तट पर,
आँसू भरे अलख पनघट पर,
छवि के नित नव जीवन-मट पर
बलिदानों की कैसी यादें, उस सांध्या गगन का लेखा क्या ?
मैंने वे चरण निहार लिये, अब देखा क्या अनदेखा क्या ?
तुमने सोचा, मैंने गाया
तुमने ढूंढ़ा, मैंने पाया,
मैं स्वयं रुप में, आज नेह की
झांक उठा कोमल काया ।
वे सहमे, लाचार हो गये
स्वप्न कि यों साकार हो गये
आंसू छवि के भार हो गये;
विजया के सीमोल्लंन में री हद-बन्दी की रेखा क्या ?
मैंने वे चरण निहार लिये, अब देखा क्या अनदेखा क्या?