कुसुम झूले, कुसुमाकर मिले
हृदय फूले, सखि तृण-तरु खिले !
मिल गयी दिशि-दिशि, दृगंचल में सजल
श्रुत, सुगंधित, श्रमित, घबरायी नजर
वृक्ष वल्लरियों उठाता गुदगुदी
वायु की लहरों संजोता बेसुधी
कली है कुछ-कुछ खुली कुछ-कुछ मुँदी
भेद कविता का बनी कलिका खड़ी
सुरुचि और सुगंध ले मग में अड़ी
खिल खिल उट्ठी महक छोटी-बड़ी ।
क्यों समर्पण की इन्हें जल्दी पड़ी
तोड़ कर अनुभूति के सौ-सौ किले !
कुसुम झूले, कुसुमाकर मिले !
हदय फूले, सखि तृण-तरु खिले !