तुम खड़े रहो अनहोनी चितवन के छलिया;
मैं उस दुकूल पर अपनी खीजें लिख डालूँ !
गंगा के तट अपना पनघट आबाद रहे,
वे रीतें, उनकी रीझें भी, कुछ लिख डालूं ।
ये किसने आँखें चार चुरा लीं अनजाने !
तुम लहरों पर लहरीले, लौ पर लाल-लाल,
कितना तुमको जी में कोई रक्खे संभाल !
कैसे माने कोई कि तुम्हारी गायें थीं,
गोपियाँ साथ थीं और नाचते ग्वाल-बाल ?
मैंने सपनों का मोट बाँधकर साथ लिया,
तुम खड़े रहो अनहोनी चितवन के छलिया !