चाँदी की बाँहों, निशि के घूँघट पट पर !
पाषाण बोलता देखा, यमुना तट पर !
माना वंशी की टेर नहीं थी उसमें
गायों की हेरा-फेर नहीं थी उसमें
गोपियाँ, गोप गोविन्द न दीख रहे थे
पर प्रस्तर प्रिय-पथ चढ़ना सीख रहे थे!
लेना विष था, उस प्रभुता के पनघट पर
पाषाण बोलता देखा, यमुना तट पर !
चाँदनी रात, वह हरा दुपट्टा धानी
वीणा पर अपने सरबस की अगमानी
कैसा रिश्ता है, यह पत्थर, वह पानी;
तारों से बातें करती नयी जवानी !
चाँदनी लिपट-सी गयी, बिखरती लट पर
मुमताज महल के घर, उस यमुना तट पर !
चाँदी की बाँहों, निशि के घूँघट पट पर !