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व्यंग्य

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हाय, अलीगढ़! हाय, अलीगढ़! बोल, बोल, तू ये कैसे दंगे हैं हाय, अलीगढ़! हाय, अलीगढ़! शान्ति चाहते, सभी रहम के भिखमंगे हैं सच बतलाऊँ? मुझको तो लगता है, प्यारे, हुए इकट्ठे इत्तिफ़ाक से, सारे हो नंग

ख़ूब सज रहे आगे-आगे पंडे सरों पर लिए गैस के हंडे बड़े-बड़े रथ, बड़ी गाड़ियाँ, बड़े-बड़े हैं झंडे बाँहों में ताबीज़ें चमकीं, चमके काले गंडे सौ-सौ ग्राम वज़न है, कछुओं ने डाले हैं अण्डे बढ़े आ रहे,

हम कुछ नहीं हैं कुछ नहीं हैं हम हाँ, हम ढोंगी हैं प्रथम श्रेणी के आत्मवंचक... पर-प्रतारक... बगुला-धर्मी यानी धोखेबाज़ जी हाँ, हम धोखेबाज़ हैं जी हाँ, हम ठग हैं... झुट्ठे हैं न अहिंसा में हमारा

नए सिरे से घिरे-घिरे से हमने झेले तानाशाही के वे हमले आगे भी झेलें हम शायद तानाशाही के वे हमले... नए सिरे से घिरे-घिरे से "बदल-बदल कर चखा करे तू दुख-दर्दों का स्वाद" "शुद्ध स्वदेशी तानाशाही आए

तुनुक मिजाजी नहीं चलेगी नहीं चलेगा जी यह नाटक सुन लो जी भाई मुरार जी बन्द करो अब अपने त्राटक तुम पर बोझ न होगी जनता ख़ुद अपने दुख-दैन्य हरेगी हां, हां, तुम बूढी मशीन हो जनता तुमको ठीक करेगी

शासक बदले, झंडा बदला, तीस साल के बाद नेहरू-शास्त्री और इन्दिरा हमें रहेंगे याद जनता बदली, नेता बदले तीस साल के बाद बदला समर, विजेता बदले तीस साल के बाद कोटि-कोटि मतपत्र बन गए जादू वाले बाण मू

होते रहेंगे बहरे ये कान जाने कब तक ताम-झाम वाले नकली मेघों की दहाड़ में अभी तो करुणामय हमदर्द बादल दूर, बहुत दूर, छिपे हैं ऊपर आड़ में यों ही गुजरेंगे हमेशा नहीं दिन बेहोशी में, खीझ में, घुटन म

पीपल के पत्तों पर फिसल रही चाँदनी नालियों के भीगे हुए पेट पर, पास ही जम रही, घुल रही, पिघल रही चाँदनी पिछवाड़े बोतल के टुकड़ों पर-- चमक रही, दमक रही, मचल रही चाँदनी दूर उधर, बुर्जों पर उछल रही चा

इन सलाखों से टिकाकर भाल सोचता ही रहूँगा चिरकाल और भी तो पकेंगे कुछ बाल जाने किस की / जाने किस की और भी तो गलेगी कुछ दाल न टपकेगी कि उनकी राल चाँद पूछेगा न दिल का हाल सामने आकर करेगा वो न एक सवा

रंग-बिरंगी खिली-अधखिली किसिम-किसिम की गंधों-स्वादों वाली ये मंजरियाँ तरुण आम की डाल-डाल टहनी-टहनी पर झूम रही हैं... चूम रही हैं-- कुसुमाकर को! ऋतुओं के राजाधिराज को !! इनकी इठलाहट अर्पित है छुई-

सुबह-सुबह तालाब के दो फेरे लगाए सुबह-सुबह रात्रि शेष की भीगी दूबों पर नंगे पाँव चहलकदमी की सुबह-सुबह हाथ-पैर ठिठुरे, सुन्न हुए माघ की कड़ी सर्दी के मारे सुबह-सुबह अधसूखी पतइयों का कौड़ा

हाथ लगे आज पहली बार तीन सर्कुलर, साइक्लोस्टाइलवाले UNA द्वारा प्रचारित पहली बार आज लगे हाथ अहसास हुआ पहली बार आज... गत वर्ष की प्रज्वलित अग्निशिखा जल रही है कहीं-न-कहीं, देश के किसी कोने में सु

शोक विह्वल लालू साहू आपनी पत्नी की चिता में कूद गया लाख मना किया लोगों ने लाख-लाख मिन्नतें कीं अनुरोध किया लाख-लाख लालू ने एक न सुनी... 63 वर्षीय लालू 60 वर्षीया पत्नी की चिता में अपने को डालक

चंदू, मैंने सपना देखा, उछल रहे तुम ज्यों हिरनौटा चंदू, मैंने सपना देखा, अमुआ से हूँ पटना लौटा चंदू, मैंने सपना देखा, तुम्हें खोजते बद्री बाबू चंदू,मैंने सपना देखा, खेल-कूद में हो बेकाबू मैंने सप

105 साल की उम्र होगी उसकी जाने किस दुर्घटना में आधी-आधी कटी थीं बाँहें झुर्रियों भरा गन्दुमी सूरत का चेहरा धँसी-धँसी आँखें... राजघाट पर गाँधी समाधि के बाहर वह सबेरे-सबेरे नज़र आती है जाने कब कि

सत्य को लकवा मार गया है वह लंबे काठ की तरह पड़ा रहता है सारा दिन, सारी रात वह फटी–फटी आँखों से टुकुर–टुकुर ताकता रहता है सारा दिन, सारी रात कोई भी सामने से आए–जाए सत्य की सूनी निगाहों में जरा भी

इसके लेखे संसद=फंसद सब फ़िजूल है इसके लेखे संविधान काग़ज़ी फूल है इसके लेखे सत्य-अंहिसा-क्षमा-शांति-करुणा-मानवता बूढ़ों की बकवास मात्र है इसके लेखे गांधी-नेहरू-तिलक आदि परिहास-पात्र हैं इसके लेख

जाने, तुम कैसी डायन हो ! अपने ही वाहन को गुप-चुप लील गई हो ! शंका-कातर भक्तजनों के सौ-सौ मृदु उर छील गई हो ! क्या कसूर था बेचारे का ? नाम ललित था, काम ललित थे तन-मन-धन श्रद्धा-विगलित थे आह, तुम्

पीपल के पत्तों पर फिसल रही चाँदनी नालियों के भीगे हुए पेट पर, पास ही जम रही, घुल रही, पिघल रही चाँदनी पिछवाड़े बोतल के टुकड़ों पर-- चमक रही, दमक रही, मचल रही चाँदनी दूर उधर, बुर्जों पर उछल रही चा

लम्बी जिह्वा, मदमाते दृग झपक रहे हैं बूँद लहू के उन जबड़ों से टपक रहे हैं चबा चुकी है ताजे शिशुमुंडों को गिन-गिन गुर्राती है, टीले पर बैठी है बाघिन पकड़ो, पकड़ो, अपना ही मुँह आप न नोचे! पगलाई ह

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