मैं भौचक्का का जूता हूँ। मुझे याद है वो दिन जब भौचक्का दुकान में मुझे लेने आया था। उसके पैर में पुराने जूते थे जिसमें से उसका पैर का अँगूठा निकल कर बाहर झाँक रहा था। उसने इतने सारे जूतों में से मुझे ही पसंद किया था। करता भी क्यों न, आखिर मैं सस्ता व टिकाऊ जूता जो था, जो उसका कई साल तक साथ निभाता। मैं उसके लिए बहुत ज्यादा लक्की (भाग्यशाली) साबित हुआ और एक साल बाद ही उसकी बहुत अच्छी नोकरी लग गई। पर उसके लिए मेरा लक्की होना ही मेरे लिए अनलक्की साबित हो गया।
नई नोकरी लगने के कुछ महीनों बाद ही उसके पास बहुत सारे जूते हो गये। जिन्हें वो बदल-बदल कर पहनता रहता। 6 महीने हो गये भौचक्का ने मुझे अब तक हाथ भी नहीं लगाया है। पहले वो कहीं भी जाता तो हमेशा मुझे पहनता। हम दोनों साथ-साथ हर जगह जाते। सुबह पार्क में, ऑफिस में, उबड़-खाबड़ पगडंडी से लेकर चिकनी सड़कों तक। एक बार की बात है मैं मन्दिर के बाहर से कहीं खो गया। भौचक्का ने कई घण्टों तक मुझे ढूंढा। भगवान से मिन्नते की, प्रसाद चढ़ाया। सौभाग्य से पास की झाड़ियों में मैं उसे पड़ा मिल गया।
कभी मेरे न मिलने पर वह बहुत परेशान हो जाता था। मैं भी उसे राह की हर तकलीफ से बचाने की कोशिश करता। मेरे ऊपर कुछ गिर जाता तो भौचक्का बड़े प्यार से मुझ पर से उसे हटाता। अब मैं उस प्यार को तरस रहा हूँ। उसकी कई मीटिंग निकल गईं, वो कई शादियों व फंक्शन में गया पर उसने मुझे देखा तक नहीं। हर बार कोई नया जूता उसके हाथ में होता था और मैं अलमारी में पड़ा यही सोचता रहता वो अगली बार मुझे जरूर उठाएगा। कभी-कभी भौचक्का का बेटा मुझे उठाकर खेलता है तो मैं खुश हो लेता हूँ क्योंकि मैं उस बच्चे का दुःख जनता हूँ। अच्छी नोकरी लगने के बाद भौचक्का के पास हम दोनों के लिए समय ही नहीं बचा है। हम दोनों को यह उम्मीद है कि किसी दिन भौचक्का फिर से पहले की तरह हमारे साथ रहेगा।