आभीर (अहीर) तथा गोप दौनों विशेषण केवल यादवों के हैं ।
यादवों के इतिहास को बिगाड़ने के षड्यन्त्र तो खूब किया गया परन्तु फिर भी सफल न हो पाए षड्यन्त्रकारी !
सत्य विकल्प रहित निर्भीक एक रूप होता है ।जबकि असत्य बहुरूप धारण करने वाला बहुरूपिया ।
आभीर (अहीर) तथा गोप दौनों विशेषण केवल यादवों के हैं ।
जाट और गुर्जर (गौश्चर) केवल यादवों की ही इतर शाखाऐं हैं
गोत्र भी तीनों के समान हैं ।
जाटों में हीर गोत्र अहीर शब्द का रूप है ।
गूज़रों को पहले अहीर कहते थे । व्रज भाषा के कवियों ने राधा को गुजरीया और बृषभानु को गूज़र कहा है ।
गूजर और गुर्जर शब्द अपने प्रारम्भिक काल में गो से सम्बन्धित थे।
गौश्चर: कज्जर, गोच: ,गोष: ,घोष ,गोर्सी, गोर्जी ,आदि शब्द परस्पर विकसित हुए हैं । __________________________________________
प्राय: कुछ रूढ़िवादी ब्राह्मण अथवा राजपूत समुदाय के लोग यादवों को आभीरों (गोपों) से पृथक बताने वाले महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय से यह प्रक्षिप्त (नकली) श्लोक उद्धृत करते हैं । ____________________________________
ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: । आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना: ।। 47।
अर्थात् वे पापकर्म करने वाले तथा लोभ से पतित चित्त वाले ! अशुभ -दर्शन अहीरों ने एकत्रित होकर वृष्णि वंशी यादवों को लूटने की सलाह की ।47।
ठीक यही श्लोक विष्णु पुराण में 38वें अध्याय के 14 वें श्लोक में इस प्रकार से है :-
ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: ।
आभीरा मन्त्रामासुस्समेत्यात्यन्तदुर्मदा:।।14।
यहाँ केवल महाभारत के अशुभ दर्शन के स्थान पर दुर्मदा शब्द भिन्न है।
इसी 38वें अध्याय के 24वें श्लोक में आभीर शब्द के स्थान पर गोपाल (गोप) शब्द आया है ।
वह्निना ये८क्षया दत्ताश्शरास्ते८पि क्षयं ययु :।
युद्ध्यतिस्सह गौपालैरर्जुनस्य भवक्षये ।।24।
अर्थात् अर्जुन का उद्भव क्षीण हो जाने के कारण अग्नि द्वारा दिये गये अक्षयवाण भी उन गोपों या अहीरों के साथ लड़ने में नष्ट हो गये।24।
अब इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् पुराण के प्रथम अध्याय में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द सम्बोधन द्वारा कहा गया है । इसे देखें--- _______________________________________
"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन ।
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।।
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०। _______________________________________
हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र ---नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ । कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था । परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया ।20।
विष्णु पुराण 38 वें अध्याय में यही श्लोक इस प्रकार से है।
यस्य प्रभावाद्भीष्माद्यैर्मय्यग्रौ शलभायितम् ।
विना तेनाद्य कृष्णेन गोपालैरस्मि निर्मित: ।।49।
और मैं अर्जुन उनकी गोपिकाओं तथा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका!
( श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय एक श्लोक संख्या २०(पृष्ट संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर देखें--- महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है कि गोप ही आभीर है। बारहवीं सदी में लिपिबद्ध ग्रन्थ श्रीमद्भागवत् पुराण में अहीरों को बाहर से आया बताया गया..... फिर महाभारत में मूसल पर्व में वर्णित अभीर कहाँ से आ गये....
किरात हूणान्ध्र पुलिन्द पुलकसा: आभीर शका यवना खशादय :।
येsन्यत्र पापा यदुपाश्रयाश्रया शुध्यन्ति तस्यै प्रभविष्णवे नम:। (श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८)
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अर्थात् किरात हूण पुलिन्द पुलकस तथा आभीर शक यवन ( यूनानी) खश आदि जन-जाति तथा अन्य जन-जाति यदुपति कृष्ण के आश्रय में आकर शुद्ध हो गयीं । उस प्रभाव शाली कृष्ण को नमस्कार है।
श्रीमद्भागवत् पुराण-- २/४/१८ अब महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप ही कहा गया है। और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर) जन-जाति में हुआ था। एेसा वर्णन है । प्रथम दृष्टवा तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है । ________________________________________
"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत । गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१
येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२
द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण: ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते। स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले । गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।
तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।
देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७। सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति। ________________________________________ अनुवादित रूप :----हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया। तथा कहा ।२१। कि कश्यप ने अपने जिस तेज से प्रभावित होकरउन गायों का अपहरण किया । उस पाप के प्रभाव-वश होकर भूमण्डल पर अहीरों (गोपों)का जन्म धारण करें ।२२। तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि उनकी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर उनके साथ जन्म धारण करेंगी ।२३।
इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे । हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में कश्यप के तेज स्वरूप वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं। मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है । उसी पर पापी कंस के अधीन होकर गोकुल पर राज्य कर रहे हैं। कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी
और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं ।२४-२७।
(उद्धृत सन्दर्भ --------) पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया है । _________________________________________
गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत ।।९। अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की रक्षा करनें में समर्थ है । वे ही इस भूतल पर आकर गोप (आभीर)के घर में क्यों हुए ।९। __________________________________________
हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४
(ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य ..
तथा विष्णु पुराण तेरहवें अध्याय के आठवें श्लोक में कृष्ण गोपों ( अहीरों) के बान्धव हैं ।
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देवो वा दानवो वा त्वं यक्षो गन्धर्व एव वा ।
किमास्माकं विचारेण बान्धवो८सि नमो८स्तुते ।।8।
अर्थात्:- हे कृष्ण तुम देवता हो , दानव हो, यक्ष हो अथवा गन्धर्व हो ! इन बातों का विचार करने से हम्हें क्या प्रयोजन ? हम्हें केवल इतना मतलब है कि आप हमारे बन्धु हैं ।8।
फिर इसी तेरहवें अध्याय के बारहवें श्लोक में कृष्ण स्वयं कहते हैं । अरे अहीरों ---मैं न देव हूँ , न गन्धर्व , न यक्ष , और न दानव ही हूँ मेैं तो आपका सजातीय बान्धव रूप में उत्पन्न हुआ हूँ ।
नाहं देवो न गन्धर्वो न यक्षो न च दानव: ।
अहं वो बान्धवो जातो न एतत् चिन्त्यमितो८न्यथा ।।12
अब निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं। यह शास्त्रीय पद्धति से प्रमाणित भी है ।
अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया
गया है। यह भी देखें--- व्यास -स्मृति )
तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है ------------------------------------------------------------- क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: ।
स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय: ----------------------------------------------------------------- अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है । और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं .... पाराशर स्मृति में वर्णित है कि.. __________________________________________ वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: । वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।। एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना: एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।। ----------------------------------------------------------------- वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं । चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं । और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।
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अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।। शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति । धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।।
(व्यास-स्मृति) नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं । तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।। जिनके वंश का ज्ञान है ;एेसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। ________________________________________
(व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२) --------------------------------------------------------------
स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे । देखें--- निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में.. _________________________________________ " वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् । पप्रच्छुमुर्नयोSभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।। __________________________________________
अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा । --------------------------------------------------------------
निश्चित रूप इन विरोधाभासी तथ्यों से ब्राह्मणों के विद्वत्व की पोल खुल गयी है । जिन्होंने योजना बद्ध विधि से समाज में ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित कर के लिए सारे -ग्रन्थों पर व्यास की मौहर लगाकर अपना ही स्वार्थ सिद्ध किया है । ये सारी हास्यास्पद व विकृतिपूर्ण अभिव्यञ्जनाऐं पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मणों की हैं। समाज में अव्यवस्था उत्पन्न करने में इनके आडम्बरीय रूप का ही योगदान है
तुलसी दास जी भी इसी पुष्य मित्र सुंग की परम्पराओं का अनुसरण करते हुए लिखते हैं । राम चरित मानस के युद्ध काण्ड में राम और समुद्र के सम्वाद रूप में अहीरों के वध करने के लिए राम को दिया गया समुद्र सुझाव - तुलसी दास ने वाल्मीकि-रामायण को उपजीव्य मान कर ही राम चरित मानस की रचना की है । रामचरितमानस में भी तुलसीदास ने उत्तर कांड के 129 (1) में लिखा है कि " आभीर, यवन, । किरात ,खस, स्वपचादि अति अधरुपजे। अर्थात् अहीर, यूनानी बहेलिया, खटिक, भंगी आदि पापयो को हे प्रभु तुम मार दो वाल्मीकि-रामायण में राम और समुद्र के सम्वाद रूप में वर्णित युद्ध-काण्ड सर्ग २२ श्लोक ३३पर इसी का मूल विद्यमान है देखें--- महाभारत यद्यपि किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं है।
जिन ब्राह्मणों ने महाभारत का लेखन किया निश्चित रूप से वे यादव विरोधी थे।
उन्होंने यादवों के प्रधान विशेषण आभीर शब्द की प्रस्तुति दस्यु अथवा शूद्र रूप में की परन्तु नकारात्मक रूप में शूद्राभीरगणाश्चैव ये चाश्रित्य सरस्वतीम् । वर्तयन्ति च ये मत्स्यैर्ये च पर्वतवासिन: ।।१०। महाभारत सभा पर्व के अन्तर्गत दिग्विजय पर्व 32वाँ अध्याय में वर्णित किया गया है कि सरस्वती नदी के किनारे निवास करने वाले जो शूद्र आभीर गण थे और उनके साथ मत्स्यजीवी धीवर जाति के लोग भी रहते थेे। तथा पर्वतों पर निवास करने वाले जो दूसरे दूसरे मनुष्य थे सब नकुल ने जीत लिए।
इन्द्र कृष्टैर्वर्तयन्ति धान्यैर्ये च नदीमुखै: ।
समुद्रनिष्कुटे जाता: पारेसिन्धु च मानवा:।११।
तो वैरामा : पारदाश्च आभीरा : कितवै: सह ।
विविधं बलिमादाय रत्नानि विधानि च।१२।
महाभारत के सभा पर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व ५१वाँ अध्याय में वर्णित है कि - अर्थात् जो समु्द्र तटवर्ती गृहोद्यान में तथा सिन्धु के उस पार रहते हैं। वर्षा द्वारा इन्द्र के पैंदा किये हुए तथा नदी के जल से उत्पन्न धान्यों द्वारा निर्वाह करते हैं । वे वैराम ,पारद, आभीर ,तथा कितव जाति के लोग नाना प्रकार के रत्न एवं भेंट सामग्री बकरी भेड़ गाय सुवर्ण ऊँट फल तैयार किया हुआ मधु लि बाहर खड़े हुए हैं । __________________________________________ चीनञ्छकांस्तथा चौड्रान् बर्बरान् वनवासिन: ।२३ वार्ष्णेयान् हार हूणांश्च कृष्णान् हैमवतांस्तथा । नीपानूपानधिगतान्विविधान् द्वारा वारितान् ।२४। अर्थात् चीन शक ओड्र वनवासी बर्बर तथा वृष्णि वंशी वार्ष्णेय, हार, हूण , और कृष्ण भी हिमालय प्रदेशों के समीप और अनूप देशों से अनेक राजा भेंट देने के लिए आये । वस्तुत यहाँ वार्ष्णेय शब्द यदुवंशी वृष्णि की सन्तानों के लिए है । __________________________________________
समुद्र राम से निवेदन करता है ! हे प्रभु आप अपने अमोघ वाण उत्तर दिशा में रहने वाले अहीरों पर छोड़ दे-- और उन अहीरों को नष्ट कर दें.. जड़ समुद्र भी राम से बाते करता है । और राम समु्द्र के कहने पर सम्पूर्ण अहीरों को अपने अमोघ वाण से त्रेता युग-- में ही मार देते हैं ।
परन्तु अहीर आज भी कलियुग में जिन्दा होकर ब्राह्मण और राजपूतों की नाक में दम किये हुए हैं । उनके मारने में रामबाण भी चूक गया । निश्चित रूप से यादवों (अहीरों) विरुद्ध इस प्रकार से लिखने में ब्राह्मणों की धूर्त बुद्धि ही दिखाई देती है। कितना अवैज्ञानिक व मिथ्या वर्णन है ................ जड़ समुद्र भी अहीरों का शत्रु बना हुआ है जिनमें चेतना नहीं हैं फिर भी । ब्राह्मणों ने राम को भी अहीरों का हत्यारा' बना दिया । और हिन्दू धर्म के अनुयायी बने हम हाथ जोड़ कर इन काल्पनिक तथ्यों को सही मान रहे हैं। भला हो हमारी बुद्धि का जिसको मनन रहित श्रृद्धा (आस्था) ने दबा दिया और मन गुलाम हो गया पूर्ण रूपेण अन्धभक्ति का ! आश्चर्य ! घोर आश्चर्य !
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" उत्तरेणावकाशो$स्ति कश्चित् पुण्यतरो मम । द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान् ।।३२।। उग्रदर्शनं कर्माणो बहवस्तत्र दस्यव: । आभीर प्रमुखा: पापा: पिवन्ति सलिलम् मम ।।३३।। तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पाप कर्मभि: । अमोघ क्रियतां रामो$यं तत्र शरोत्तम: ।।३४।। तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मन: । मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागर दर्शनात् ।।३५।। (वाल्मीकि-रामायण युद्ध-काण्ड २२वाँ सर्ग) __________________________________________
अर्थात् समुद्र राम से बोल प्रभो ! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवम् पुण्यात्मा हैं । उसी प्रकार मेरे उत्तर की ओर द्रुमकुल्य नामका बड़ा ही प्रसिद्ध देश है ।३२। वहाँ अाभीर आदि जातियों के बहुत सेमनुष्य निवास करते हैं । जिनके कर्म तथा रूप बड़े भयानक हैं ।सबके सब पापी और लुटेरे हैं । वे लोग मेरा जल पीते हैं ।३३। उन पापाचारियों का मेरे जल से स्पर्श होता रहता है । इस पाप को मैं नहीं यह सकता हूँ । हे राम आप अपने इस उत्तम वाण को वहीं सफल कीजिए ।३४। महामना समुद्र का यह वचन सुनकर समुद्र के दिखाए मार्ग के अनुसार उसी अहीरों के देश द्रुमकुल्य की दिशा में राम ने वह वाण छोड़ दिया ।३। ________________________________________
निश्चित रूप से ब्राह्मण समाज ने राम को आधार बनाकर ऐसी मनगढ़न्त कथाओं का सृजन किया है । ताकि इन पर सत्य का आवरण चढ़ा कर अपनी काल्पनिक बातें को सत्य व प्रभावोत्पादक बनाया जा सके । इन ब्राह्मणों का जैनेटिक सिष्टम ही कपट से मय है । जो अवैज्ञानिक ही नहीं अपितु मूर्खता पूर्ण भी है । क्योंकि चालाकी कभी बुद्धिमानी नहीं हो सकती है ; चालाकी में चाल ( छल) सक्रिय रहता है । कपट सक्रिय रहता है और बुद्धि मानी में निश्छलता का भाव प्रधान है।आइए अब पद्म पुराण में अहीरों के विषय में क्या लिखा है देखें--- __________________________________________
पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय १६ में गायत्री माता को नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या 'गायत्री' के रूप में वर्णित किया गया है । _________________________________________
" स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व , सर्वास्ता: सपरिग्रहा : |
आभीरः कन्या रूपाद्या शुभास्यां चारू लोचना ।७।
न देवी न च गन्धर्वीं , नासुरी न च पन्नगी ।
वन चास्ति तादृशी कन्या , यादृशी सा वराँगना ।८। _________________________________________
अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके परन्तु एक नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर दंग रह गये ।७। उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर असुर की स्त्री और न कोई पन्नगी ही थी। इन्द्र ने तब ने उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो ? और किस की पुत्री हो ८। _________________________________________
गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:। एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९ ।।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ा रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो इस प्रकार की गौर वर्ण महातेजस्वी कन्या को देखकर इन्द्र भी चकित रह गया कि यह गोप कन्या इतनी सुन्दर है ।
अध्याय १७ के ४८३ में प्रभु ने कहा कि यह गोप कन्या पराधीन चिन्ता से व्याकुल है
।९। देवी चैव महाभागा , गायत्री नामत: प्रभु । गान्धर्वेण विवाहेन ,विकल्प मा कथाश्चिरम्।९। १८४ श्लोक में विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो इस कन्या का नाम गायत्री है । अब यहाँ भी भागवत पुराण :-- १०/१/२२ में स्पष्टत: आभीरों गायत्री आभीर अथवा गोपों की कन्या है ।
और गोपों को भागवतपुराण तथा महाभारत हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है । ________________________________________
" अंशेन त्वं पृथिव्या वै ,प्राप्य जन्म यदो:कुले । भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र ,गोपालत्वं करिष्यसि ।१४। ________________________________________
वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं पद्म पुराण में पहले आभीर- कन्या शब्द आया है फिर गोप -कन्या भी गायत्री के लिए .. तथा अग्नि पुराण मे भी आभीरों (गोपों) की कन्या गायत्री का है ।
आभीरा स्तच्च कुर्वन्ति तत् किमेतत्त्वया कृतम् अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे ४० एतत्पुनर्महादुःखं यदाभीरा विगर्दिता वंशे वनचराणां च स्ववोडा बहुभर्तृका ५४
आभीरीति सपत्नीति प्रोक्तवंत्यः हर्षिताः इति श्रीवह्निपुराणे नांदीमुखोत्पत्तौ ब्रह्मयज्ञ समारंभे प्रथमोदिवसो नाम षोडशोऽध्यायः संपूर्णः।
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यादव योगेश कुमार''रोहि'
ग्राम-आज़ादपुर पत्रालय-पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़---उ०प्र०
सम्पर्क सूत्र:- 8077160219