आत्मा को वैदिक सन्दर्भों में स्वर् अथवा स्व: कह कर वर्णित किया है ।
परवर्ती तद्भव रूप में श्वस् धातु भी स्वर् धातु का ही रूप है ।
आद्य-जर्मनिक भाषाओं में यह रूप :- swḗsa( स्वेसा ) तथा swījēn( स्विजेन) शब्द के रूप में आत्मा का बोधक हैं ।
अर्थात् own, relation ।
प्राचीनत्तम जर्मन- गोथिक भाषा में:
1-swēs (a)
2-`own'; swēs (b) `property' पुरानी नॉर्स (Old Norse): svās-s `lieb(,जीव) traut'
3-Old Danish: Run. dat. sg. suasum
4-Old English: swǟs `lieb, eigen'
5-Old Frisian: swēs `verwandt'; sīa `Verwandter'
6-Old Saxon: swās `lieb'
7-Old High German: { swās `
8-Middle High German: swās in Indo-European Proto- se-, *sow[e] *swe- स्व
9-Old Indian: poss. svá-
10-Avestan: hva-हवा xva- जवा 'eigen, suus', hava- hvāvōya, xvāi Other Iranian:
11-OldPersian huva- 'eigen, suus'
12-Armenian: in-khn, gen. in-khean 'selbst', iur 'sui, sibi'
13-Latin: sibī, sē; sovos (OldLat), suus
14-Proto-Baltic: *sei-, *saw-, *seb- Meaning: self Indo-European etymology
15- Old Lithuanian: sawi, sau.
संस्कृत भाषाओं में तथा वैदिक भाषाओं में स्व: शब्द आत्म बोधक है। _________________________________________________
स्वेन स्वभावेन सुखेन, वा तिष्ठति स्था धातु विसर्गलोपः इति स्वस्थ स्वभावस्थे अर्थात् स्व आत्मनि तिष्ठति स्थायते इति स्वस्थ:
अर्थात् --जो स्वयं मे स्थित है 'वह सच्चे अर्थों में स्वस्थ है ।।
योग स्वास्थ्य का साधक है ।
पञ्चम् सदी में सम्पादित ग्रन्थिका श्रीमद्भगवत् गीता मे योग की उत्तम परिभाषा बतायी है ।
भगवद्गीता के अनुसार योग :–👇 "सिद्धासिद्धयो समोभूत्वा निष्काम कर्माणि कुरु समत्वं योग उच्चते ।।
श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय:-(2/48) अर्थात् दुःख-सुख, लाभ-अलाभ, शत्रु-मित्र, शीत और उष्ण आदि द्वन्द्व भावों में सर्वत्र सम होकर निष्काम कर्म कर ! क्यों कि समता ही योग है।
समता में ही समग्र सृष्टि के विकास और ह्रास की व्याख्या निहित है. इसलिए भगवद्गीता के अनुसार -👇
" तस्माद्दयोगाययुज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम् "
अर्थात् इसलिए योग से जुड़ यह योग ही कर्मों में कुशलता है ।
कर्त्तव्य कर्म बन्धक न हो, इसलिए निष्काम भावना से अनुप्रेरित होकर मनुष्य को कर्म करना चाहिए इस प्रकार का कर्म करने का कौशल ही योग है।
पूर्ण श्लोक इस प्रकार है 👇 ________________________________________________ बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते।
तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्।।2.50।।
बुद्धि(समता) से युक्त मनुष्य यहाँ जीवित अवस्था में ही पुण्य और पाप दोनोंका त्याग कर देता है।
तब यह समता योग है ।
अतः तू योग(समता) में लग जा क्योंकि योग ही कर्मोंमें कुशलता है।।।2.50।। 🌸
पाप और पुण्य मन की धारणायें हैं ; और उनकी प्रतिक्रियाएँ मन पर ही वासनाओं के रूप में अंकित होती हैं ; --जो जन्म- जन्म का संस्कार बनती हैं ।
मनरूपी विक्षुब्ध समुद्र के साथ जो व्यक्ति तादात्म्य नहीं करता वह वासनाओं की ऊँची-ऊँची तरंगों के द्वारा न तो ऊपर फेंका जायेगा और न नीचे ही डुबोया जायेगा।
यहाँ वर्णित मन का बुद्धि के साथ युक्त होना ही बुद्धियुक्त शब्द का अर्थ है।
जैसे चक्र के दो अरे होतें हैं ; जिनके क्रमश: ऊपर आने और जाने से ही चक्र घूर्णन करता है ।
और उसी प्रकार मन ही इस द्वन्द्व रूपी अरों वाले संसार चक्र में प्राणियों को घुमाता है ।
संसार या संसृति चक्र है तो द्वन्द्व रूपी अरे दु :ख -सुख हैं।
योग शब्द यूरोपीय भाषाओं में विशेषत: रोम की प्राचीनत्त भाषाओं लैटिन में यूज (use) के रूप में है ।
इसमें भी युति( युत्) इसका मूल रूप है --जो पुरानी लैटिन में उति (oeti) है ।👇 _________________________________________________
use," frequentative form of past participle stem of Latin uti "make use of, profit by, take advantage of, enjoy, apply, consume,"
पुरानी लैटिन में युति क्रिया है ; जिससे यूज शब्द का विकास हुआ; परन्तु अंग्रेज़ी का यूज (Use) संस्कृत की युज् धातु के अत्यधिक समीप है ।
जिससे (युज् घञ् ) धातु प्रत्यय के योग से योग शब्द बनता है । _______________________________________________
योग स्वास्थ्य की सम्यक् साधना है इसीलिए योग और स्वास्थ्य इन दौनों का पारस्परिक सातत्य समन्वय है ।
योग’ शब्द ‘युजँ समाधौ’ संयमने च आत्मनेपदीय धातु रूप चुरादिगणीय सेट् उभयपदीय धातु में ‘घञ् " प्रत्यय लगाने से निष्पन्न होता है।
इस प्रकार ‘योग’ शब्द का अर्थ हुआ- समाधि अर्थात् चित्त की वृत्तियों का निरोध।
और चित्त की वृत्ति क्या हैं ?
मन की चञ्चलता --जो उसके स्वाभाविक 'व्यापार' का स्वरूप है।
योग के अनुसार चित्त की अवस्था जो पाँच प्रकार की मानी गई हैं 👇 १-क्षिप्त, २-मूढ़ ३-विक्षिप्त, ४-एकाग्र और ५-निरुद्ध।
चित्त की वृत्ति का अर्थ चित्त के कार्य (व्यापार) से है ; जो स्वभाव जन्य हैं ।
साधारण रूप में चित्त ही हमारी चेतना का संवाहक है :--जो विचार (चिन्तन)और चित्रण (दर्शन) की शक्ति देता है ।
साँख्य-दर्शन के अनुसार चित्त अन्तःकरण की एक वृत्ति है।
स्वामी सदानन्द ने वेदान्तसार में अन्तःकरण की चार वृत्तियाँ वर्णित की हैं:—
👇1- मन, 2-बुद्धि, 3- चित्त और 5-अहंकार ।
१- संकल्प विकल्पात्मक वृत्ति को मन कहते हैं ।
२-निश्चयात्मक वृत्ति को बुद्धि कहते हैं ( -जब आत्मा का प्रकाश मन पर परावर्तित होता है तब निर्णय शक्ति उत्पन्न होती है; और वही बुद्धि है ।
और इन्हीं दोनों मन और बुद्धि के अन्तर्गत चिन्तनात्मक वृत्ति को चित्त और अस्मिता अथवा अहंता वृत्ति को अंहकार कहते हैं ।
ये ही शूक्ष्म शरीर के साथ सम्पृक्त (जुड़े)रहते हैं ।
योग के आचार्य पतञ्जलि चित्त को स्वप्रकाश नहीं स्वीकार करते । वे चित्त को दृश्य और जड़ पदार्थ मानकर उसको एक अलग प्रकाशक मानते हैं जिसे जीव कहते हैं।
वैसे जीव शब्द दिव् धातु का विकसित रूप है ।
उनके विचार में प्रकाश्य और प्रकाशक के संयोग से प्रकाश होता है, अतः कोई वस्तु अपने ही साथ संयोग नहीं कर सकती।
🌸🌸🌸 योगसूत्र के अनुसार चित्तवृत्ति पाँच प्रकार की है—
१-प्रमाण, २-विपर्यय, ३- विकल्प, ४-निद्रा और ५-स्मृति तथा ६-प्रत्यक्ष, ७-अनुमान और ८-शब्दप्रमाण; ये भी चित्त की संज्ञानात्मक वृत्तियाँ-हैं ।
चित्त की पाँच वृत्तियाँ इसकी पाँच अवस्थाऐं ही हैं ; नामकरण में भिन्नता होते हुए भी गुणों में समानताओं के स्तर हैं ।
१- एक में दूसरे का भ्रम–विपर्यय है ।
२-स्वरूपज्ञान के बिना कल्पना "विकल्प "है
३-सब विषयों के अभाव का बोध निद्रा है
४-और कालान्तरण में पूर्व अनुभव का आरोप स्मृति कहलाता है; यह जाग्रति का बोध है ।
पच-दशी तथा और अन्य दार्शनिक ग्रन्थों में मन या चित्त का स्थान हृदय या हृत्पक्षगोलक लिखा है।
परन्तु आधुनिक पाश्चात्य जीव-विज्ञान ने अंतःकरण के सारे व्यापारों का स्थान हृदय न मानकर मस्तिष्क में माना है; जो सब ज्ञानतन्तुओं का केंद्रस्थान है ।
खोपड़ी के अंदर जो टेढ़ी मेढ़ी गुरियों की सी बनावट होती है, जिसे मेण्डुला कहते है वहीं विचार और चेतना केन्द्रित है ।
वही अंतःकरण है और उसी के सूक्ष्म मज्जा-तन्तु-जाल और कोशों की क्रिया द्वारा सारे मानसिक व्यापारों के सम्पादन करते हैं ।
ये तन्तु और कोश प्राणी की कशेरुका या रीढरज्जु से सम्पृक्त हैं ।
भौतिकवादी वैज्ञानिकों के मत से चित्त, मन या आत्मा कोई पृथक् वस्तु नहीं है, केवल व्यापार- विशेष का नाम है।
जो छोटे जीवों में बहुत ही अल्प परिमाण में होता है और बड़े जीवों में क्रमशःबढ़ता जाता है ;इस व्यापार का प्राणरस/ जीवद्रव्य (प्रोटोप्लाज्म) के कुछ विकारों के साथ नित्य सम्बन्ध है।
जीव-विज्ञानी कोशिका को जीवन का इकाई मानते हैं ।
मस्तिष्क के ब्रह्म (Bragma) भाग में पीनियल ग्रन्थि ही आत्मा का स्थान है ।
👂👇👂👂
पीनियल ग्रन्थि (जिसे पीनियल पिण्ड, एपिफ़ीसिस सेरिब्रि, एपिफ़ीसिस या "तीसरा नेत्र" भी कहा जाता है।
यह पृष्ठवंशी मस्तिष्क में स्थित एक छोटी-सी अंतःस्रावी ग्रंथि है। यह सेरोटोनिन और मेलाटोनिन को सृजन करती है, जोकि जागने/सोने के ढर्रे तथा मौसमी गतिविधियों का नियमन करने वाला हार्मोन के रूप हैं।.
(पीनियल ग्रन्थिका का स्वरूप) _____________________________________________
इसका आकार एक छोटे से पाइन शंकु से मिलता-जुलता है (इसलिए तदनुसार इसका नाम करण हुआ ) और यह मस्तिष्क के केंद्र में दोनों गोलार्धों के बीच, खांचे में सिमटी हुई स्थिति में रहती है, जहां दोनों गोलकार चेतकीय पिंड जुड़ते हैं।
उपस्थिति:- मानव में पीनियल ग्रन्थिका लाल-भूरे रंग की और लगभग चावल के दाने के बराबर आकार वाली (5-8 मिली-मीटर), ऊर्ध्व लघु उभार के ठीक पीछे, पार्श्विक चेतकीय पिण्डों के बीच, स्ट्रैया मेड्युलारिस के पीछे अवस्थित है।
यह अधिचेतक भाग का अवयव है।
पीनियल ग्रन्थि एक मध्यवर्ती संरचना है और अक्सर खोपड़ी के मध्य सामान्य एक्स-रे में देखी जा सकती है, क्योंकि प्रायः यह कैल्सीकृत होता है। पीनियल ग्रन्थि को आत्मा का आसन भी कहा जाता है ।
जो चेतनामय क्रियाओं की सञ्चालक है ।
वस्तुत चित्त ही जीवात्मा का सञ्चालक रूप है ;
और चित्त ही स्व है और स्व का अपने मूल रूप में स्थित होने का भाव ही स्वास्थ्य है ।
और यह केवल और केवल योग से ही सम्भव है ।
योग संसार में सदीयों से आध्यात्मिक साधना-पद्धति का सिद्धि-विधायक रूप रहा है ।
और योग से ही ज्ञान का प्रकाश होता है ; और ज्ञान ही जान है ।
अस्तित्व की पहिचान है ।
कठोपोपनिषद में एक सुन्दर उपमा के माध्यम से आत्मा, बुद्धि ,मन तथा इन्द्रीयों के सम्बन्ध का पारस्परिक वर्णन इस किया गया है ।
👇 ________________________________________________ आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मन: प्रग्रहमेव च।।
इन्द्रियाणि हयान् आहु: विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियं मनोयुक्तं भोक्ता इति आहुर्मनीषिणा ।।
( कठोपोपनिषद अध्याय १ वल्ली ३ मन्त्र ३-४ )
अर्थात् मनीषियों ने आत्मा को रथेष्ठा( रथ में बैठने वाला ) ही कहा है ; अर्थात् --जो (केवल प्रेरक है और जो केवल बुद्धि के द्वारा मन को प्रेरित ही करता है।
--जो स्वयं चालक नहीं है । यह शरीर रथ है । बुद्धि जिसमें सारथी तथा मन लगाम ( प्रग्रह)–पगाह इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े । और आगे तो आप समझ ही गये होंगे ।
एक विचारणीय तथ्य है कि आत्मा को प्रेरक सत्ता के रूप में स्वीकार किया जा सकती है ।
--जो वास्तविक रूप में कर्ता भाव से रहित है ।
भारोपीय भाषाओं में आत्मा के अतिरक्त रूप प्रचलित हैं ।
(प्रेत -Spirit ) शब्द आत्मा की प्रेरक सत्ता का ही बोधक है। आत्मा कर्म तो नहीं करता परन्तु प्रेरणा अवश्य करता है।
और प्रेरणा कोई कर्म नहीं एक निर्देशन है
! अत: आत्मा को प्रेत भी इसी कारण से कहा गया ; परन्तु कालान्तरण में अज्ञानता के प्रभाव से लोग के द्वारा प्रेत शब्द का अर्थ ही बदल गया !
इसीलिए आत्मा का विशेषण प्रेत शब्द सार्थक होना चाहिए।
प्रेत शब्द पर हम आगे यथास्थान व्याख्या करेंगे ।
कठोपोपनिषद का यह श्लोक श्रीमद्भगवत् गीता में है परन्तु शान्ति पर्व में समायोजित है कुछ शब्दों के अन्तर के साथ।
महाभारत के भीष्म पर्व में समायोजित श्रीमद्भगवत् गीता उपनिषद् कठोपोपनिषद का रूपान्तरण न सही
परन्तु 'बहुत से श्लोक दोनों के समान हैं।
निम्न गद्यांशों में महाभारत का 'वह श्लोक देखें
महाभारत के स्त्री पर्व के अन्तर्गत सातवें अध्याय के शलोक 13-14 में वर्णन है कि " विद्वान् पुरुष कहते हैं कि प्राणियों का शरीर रथ के समान है ; सत्व सारथी है इन्द्रिय घोड़े हैं ।
मन लगाम है और जो पुरुष स्वेच्छा पूर्वक दौड़ते हुए घोड़ों के वेग का अनुसरण करता है ।
वह तो इस संसार चक्र में पहिए के समान घूमता रहता है।13-14👇
रथ: शरीरं भूतानां सत्वामाहुस्तु सारिथिम् ।
इन्द्रियाणि हयानाहु:कर्मबुद्धिस्तु रश्मय:।13।
तेषां हयानां यो वेगं धावतामनुधावति।
स तु संसारचक्रे८स्मिंश्चक्रवत् परिवर्तते।14।
यस्तान् संयमते बुद्ध्या संयतो न नवर्तते ।
ये तु संसारचक्रे८स्मिंश्चक्रवत् परिवर्तिते।15।
भ्रममाणा न मुह्यन्ति संसारे न भ्रमन्ति ते।
किन्तु जो संयम शील होकर बुद्धि के द्वारा उन इन्द्रियरूपी अश्वों को नियन्त्रण में रखते हैं ।
वे फिर इस संसार में नहीं लौटते।
जो लोग चक्र की भांति घूमने वाले इस संसार चक्कर में घूमते हुए भी मोह के वशीभूत नहीं होते उन्हें फिर संसार में नहीं भटकना पड़ता।।15।
_________________________________________
यही बात कठोपोपनिषद में भी दो चार शब्दों के अन्तर से है 👇।
कठोपनिषद् में वाजश्रवापुत्र ऋषिकुमार नचिकेता और यम देवता के बीच प्रश्नोत्तरों की कथा का वर्णन है।
यम और नचिेता का संवाद हुआ था कि नहीं यह प्रमाणित तथ्य नहीं
तथ्य ज्ञान की प्रमाणिकता का है ।
बालक नचिकेता की शंकाओं का समाधान करते हुए यमराज उसे उपमाओं के माध्यम से सांसारिक भोगों में लिप्त आत्मा, अर्थात् जीवात्मा, और उसके शरीर के मध्य का सम्बन्ध स्पष्ट करते हैं ।
संबंधित आख्यान में यम देवता के निम्नांकित श्लोकनिबद्ध दो वचन हम्हें प्रभावित करते हैं ।
आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु ।
बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ३)
(आत्मानम् रथिनम् विद्धि, शरीरम् तु एव रथम्, बुद्धिम् तु सारथिम् विद्धि, मनः च एव प्रग्रहम् )
इस जीवात्मा को तुम रथी, रथ का स्वामी, समझो, शरीर को उसका रथ, बुद्धि को सारथी, रथ हांकने वाला,
और मन को लगाम समझो ।
(लगाम इंद्रियों पर नियंत्रण हेतु,
अगले मंत्र में उल्लेख )
इंद्रियाणि हयानाहुर्विषयांस्तेषु गोचरान् ।
आत्मेन्द्रियमनोयुक्तं भोक्तेत्याहुर्मनीषिणः ।।
(कठोपनिषद्, अध्याय १, वल्ली ३, मंत्र ४)
(मनीषिणः इंद्रियाणि हयान् आहुः, विषयान् तेषु गोचरान्, आत्मा-इन्द्रिय-मनस्-युक्तम् भोक्ता इति आहुः )
मनीषियों, विवेकी पुरुषों, ने इंद्रियों को इस शरीर-रथ को खींचने वाले घोड़े कहा है,
जिनके लिए इंद्रिय-विषय विचरण के मार्ग हैं,
इन्द्रियों तथा मन से युक्त इस आत्मा को उन्होंने शरीर-रूपी रथ के द्वारा काल पथ पर भोग करने वाला बताया है ।
प्राचीन भारतीय विचारकों का चिंतन प्रमुखतया आध्यात्मिक प्रकृति का रहा है ।
ऐहिक सुखों के आकर्षण का ज्ञान उन्हें भी रहा ही होगा ।
किन्तु उनके प्रयास रहे थे ; कि वे उस आकर्षण पर विजय पायें । उनकी जीवन-पद्धति आधुनिक काल की पद्धति के विपरीत रही ।
स्वाभाविक भौतिक आकर्षण से लोग स्वयं को मुक्त करने का प्रयास करें ऐसा वे सोचते रहे होंगे और उपनिषद् आदि ग्रंथ उनकी इसी सोच को प्रदर्शित करते हैं ।
उनके दर्शन के अनुसार अमरणशील आत्मा शरीर के द्वारा इस भौतिक संसार से जुड़ी रहती है ;और यहां के सुख-दुःखों का अनुभव मन के द्वारा करती हैं ।
मन का संबंध बाह्य जगत् से इंद्रियों के माध्यम से होता है ।
दर्शन शास्त्र में दस इंद्रियों की व्याख्या की जाती हैः पांच ज्ञानेंद्रियां (आंख, कान, नाक, जीभ तथा त्वचा) और पांच कर्मेद्रियां (हाथ, पांव, मुख, मलद्वार तथा उपस्थ यानी जननेद्रिय, पुरुषों में लिंग एवं स्त्रियों में योनि) ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से मिलने वाले संवेदन-संकेत को मन अपने प्रकार से व्याख्या करता है, सुख या दुःख के तौर पर ।
इंद्रिय-संवेदना क्रमशः देखने, सुनने, सूंघने, चखने तथा स्पर्शानुभूति से संबंधित रहती हैं ।
किन विषयों में इंद्रियां विचरेंगी और कितना तत्संबंधित संवेदनाओं को बटोरेंगी यह मन के द्वारा उनके नियंत्रण पर निर्भर रहता है ।
इंद्रिय-विषयों की उपलब्धता होने पर भी मन उनके प्रति उदासीन हो सकता है ऐसा मत मनीषियों का सदैव से रहा है ।
परन्तु यह तथ्य कुछ सीमा तक मान्य है ।
क्योंकि कि इच्छा रूपी अग्नि में जितना तृप्ति रूपी घृत डाला जाएगा यह उतनी ही प्रज्वलित होगी ।
यह आत्मा रूपी रथेष्ठा ही निष्क्रिय रहकर केवल प्रेरक बना रहता है ।
वास्तव में रथेष्ठा की यह लौकिक उपमा बड़ी सार्थक बन पड़ी है । रथेष्ठा की केवल इतनी ही भूमिका है कि 'वह प्रेरित करता है ।
और यह शरीर वास्तव में एक रथ के समान ही है , तथा बुद्धि तो रथ हाँकने वाला सारथि जान लें ।
और मन केवल प्रग्रह ( पगाह)--या लगाम है।
अब आत्मा बुद्धि को निर्देशित करती है।
जिसका नियन्त्रण बुद्धिके हाथों में मन का नियन्त्रण होता है । विद्वान कहते हैं कि इन्द्रियाँ ही रथ में जुते हुए घोड़े हैं ।
और विषय ही मार्ग में आया हुआ ग्रास आदि ।
वस्तुत:-आत्मा ही मन और इन्द्रीयों से युक्त हो कर दु:ख और सुख उपभोग करने वाला भोक्ता है ।
जब इसमे अहं का भाव हो जाय ।
परन्तु यह सब अज्ञानता जनित प्रतीति है ;क्यों कि दु:ख और सुख मन के विकल्प और द्वन्द्व की अवस्थाऐं हैं ।
जो परस्पर विरोधाभासी व सापेक्ष हैं ; परन्तु आनन्द सुख से पूर्णत: भिन्न है ।
आत्मा का स्वरूप इसी लिए (सत्-चित्-(चेतनामय)-आनन्द ) मनीषियों ने कहा है अर्थात् सच्चिदानन्द। अब अज्ञानता से जीव सुख को ही आनन्द समझता है और सुख की सापेक्षिकता से दु:ख उसे मिलता है ।
और यह द्वन्द्व (परस्पर विरोधी दो भावों का रूप ) ही सृष्टि का मूलाधार है ।
यही हम्हें दु:ख और सुख के दो पाटों में पीसता है ।
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पाँचवीं सदी में कृष्ण के आध्यात्मिक सिद्धान्तों की संग्राहिका उपनिषद् श्रीमद्भगवत् गीता इसी द्वन्द्व से मुक्त करने वाले ज्ञान का प्रतिपादन करती है ।
वस्तुत द्वन्द्व से परे होने के लिए मध्यम अथवा जिसे दूसरे शब्दों में समता का मार्ग भी कह सकते हैं अपनाना ही पड़ेगा ।
क्यों कि संसार द्वन्द्व रूप है ।👇
अक्षराणामकारोऽस्मि द्वन्द्वः सामासिकस्य च।
अहमेवाक्षयः कालो धाताऽहं विश्वतोमुखः।।10.33।।
मैं अक्षरों (वर्णमाला) में अकार और समासों में द्वन्द्व (नामक समास) हूँ मैं अक्षय काल और विश्वतोमुख (विराट् स्वरूप) धाता हूँ।। अर्थात् ये मेरी विभूतियाँ हैं ।
भाषा में स्वरों की सहायता के बिना शब्दों का उच्चारण नहीं किया जा सकता और उसमें भी "अ"।
अ स्वर का ही उदात्त ऊर्ध्वगामी रूप "उ" तथा अनुदात्त निम्न गामी "इ" रूप है ।
और इन तीनों स्वरों से सम्पूर्ण स्वर विकसित हुए ।
"अ" वर्ण का ही घर्षण रूप "ह" हुआ ।
दौनों का पारस्परिक तादात्म्य-एकरूपता श्वाँस और धड़कन (हृत्स्पन्दन) के समान है ।
"ह" प्रत्येक वर्ण में महाप्राण केरूप मे गुम्फित है ।
और "अ" आत्मा के रूप में ।
अकार के इस महत्व को पहचान कर ही उपनिषदों में इसे समस्त वाणी का सार कहा गया है।
हिब्रू संस्कृतियों तथा फोएनशियन आदि सैमेटिक भाषाओं अलेफ है । मैं समासों में द्वन्द्व हूँ अर्थात् द्वन्द्व ईश्वर की समासीय विभूति है । संस्कृत व्याकरण में दो या अधिक (पदों) को संयुक्त करने वाला विधान विशेष समास कहलाता है?
जिसके अनेक प्रकार हैं। समास के दो पदों के संयोग का एक नया ही रूप होता है।
द्वन्द्व समास में दोनों ही पदों का समान महत्व होता है?
जबकि अन्य सभासों मे पूर्वपद अथवा उत्तरपद का।
यहाँ भगवान श्रीकृष्ण द्वन्द्व समास को अपनी विभूति बनाते हैं क्योंकि इसमें उभय पदों का समान महत्व है और इसकी रचना भी सरल है।
अध्यात्म ज्ञान के सन्दर्भ में यह कहा जा सकता है कि आत्मा और अनात्मा दोनों इस प्रकार मिले हैं कि हमें वे एक रूप में ही अनुभव में आते हैं और उनका भेद स्पष्ट ज्ञात नहीं होता?
-जैसे माया और ईश्वर ;परन्तु विवेकी पुरुष के लिए वे दोनों उतने ही विलग होते हैं जितने कि एक वैय्याकरण के लिए द्वन्द्व समास के दो पद। मैं अक्षय काल हूँ पहले भी यह उल्लेख किया जा चुका है कि गणना करने वालों में मैं काल हूँ।
वहाँ सापेक्षिक काल का निर्देश था ? जबकि यहाँ अनन्त पारमार्थिक काल को इंगित किया गया है।
अक्षय काल को ही महाकाल कहते हैं। संक्षेपत दोनों कथनों का तात्पर्य यह है कि मन के द्वारा परिच्छिन्न रूप में अनुभव किया जाने वाला काल तथा अनन्त काल इन दोनों का अधिष्ठान आत्मा है। प्रत्येक क्षणिक काल के भान के बिना सम्पूर्ण काल का ज्ञान असंभव है। अत मैं प्रत्येक काल खण्ड में हूँ?
तथा उसी प्रकार? सम्पूर्ण काल का भी अधिष्ठान हूँ।
मैं धाता हूँ श्रीशंकराचार्य अपने भाष्य में इस शब्द की व्याख्या करते हुए लिखते हैं कि ईश्वर धाता अर्थात् कर्मफलविधाता है। द्वन्द्व को समझने का माध्यम योग है ।
उस तराजू को योग करते हैं जिसको दौनों पलड़े बराबर हों । _________________________________________________
अत: मन को ही आत्मा जब बुद्धि या ज्ञान शक्ति के द्वारा वशीभूत कर , इन्द्रीयों पर नियन्त्रण करती है ।
तब ही स्व की स्थति स्वास्थ्य है ;परन्तु कालान्तरण में -जब लोग अल्पज्ञानी हो गये तब अन्त्र (आँत) को ही आत्मा और उसकी क्रिया-विधि के सकारात्मक रूप को स्वास्थ्य कहने लगे ।
यानि शरीर की नीरोग अवस्था ।
परन्तु आधुनिक योग शास्त्र के अनुसार तन ,मन और सामाजिक पृष्ठभूमि पर आर्थिक, सांस्कृतिक एवं सभ्यता मूलक स्तर पर जो सन्तुष्ट है ; 'वह स्वस्थ है । _________________________________________________
आध्यात्मिक स्तर पर स्वास्थ्य से तात्पर्य है ;
आत्मा की मूल स्वाभाविक स्थिति"
बौद्धमतावलंबी भी जो पुष्य-मित्र सुंग कालीन ब्राह्मणों के द्वारा व्याख्यायित ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, परन्तु योग शब्द का व्यवहार करते और योग का समर्थन करते हैं।
क्यों कि योग द्रविड़ो की आध्यात्मिक साधना-पद्धति है ।
अत: योग पर केवल ब्राह्मणों का एकाधिकार नहीं ।
बौद्ध ,जैनों आदि सबने योग को स्वीकार किया ।
यही बात सांख्यवादियों के लिए भी कही जा सकती है जो ईश्वर की सत्ता को असिद्ध मानते हैं।
पतञ्जलि ने योगदर्शन में, जो परिभाषा दी है।
'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः', चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम योग है। इस वाक्य के दो अर्थ हो सकते हैं: चित्तवृत्तियों के निरोध की अवस्था का नाम योग है या इस अवस्था को लाने के उपाय को योग कहते हैं।
परन्तु इस परिभाषा पर कई विद्वानों को आपत्ति है।
उनका कहना है कि
चित्तवृत्तियों के प्रवाह का ही नाम चित्त है। पूर्ण निरोध का अर्थ होगा चित्त के अस्तित्व का पूर्ण लोप, चित्ताश्रय समस्त स्मृतियों और संस्कारों का नि:शेष हो जाना। यदि ऐसा हो जाए तो फिर समाधि से उठना संभव नहीं होगा।
क्योंकि उस अवस्था के सहारे के लिये कोई भी संस्कार बचा नहीं होगा, प्रारब्ध (फलित भाग्य) दहन हो गया होगा।
निरोध यदि सम्भव हो तो श्रीकृष्ण के इस वाक्य का क्या अर्थ होगा ? योगस्थ: कुरु कर्माणि, योग में स्थित होकर कर्म करो। विरुद्धावस्था में कर्म हो नहीं सकता और उस अवस्था में कोई संस्कार नहीं पड़ सकते, स्मृतियाँ नहीं बन सकतीं, जो समाधि से उठने के बाद कर्म करने में सहायक हों।
संक्षेप में आशय यह है कि योग के शास्त्रीय स्वरूप, उसके दार्शनिक आधार, को सम्यक् रूप से समझना बहुत सरल नहीं है।
क्यों जीवन ही कर्म मय है । 👇
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।3.5।।
कोई भी मनुष्य कभी किसी भी क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता क्योंकि सभी प्राणी प्रकृति से उत्पन्न सत्त्व रज और तम इन तीन गुणों द्वारा परवश हुए अवश्य ही कर्मों में प्रवृत्त कर दिये जाते हैं।
यहाँ सभी प्राणीके साथ अज्ञानी विशेषण ( शब्द )जोड़ना चाहिये क्योंकि आगे के प्रकरण में जो गुणों से विचलित नहीं किया जा सकता इस कथन से ज्ञानियों को अलग किया है ।
अतः अज्ञानियोंके लिये ही कर्मयोग है ज्ञानियों के लिये नहीं।
क्योंकि जो गुणों द्वारा विचलित या मोहित नहीं किये जा सकते उन ज्ञानियों में स्वतः क्रियाका अभाव होने से उनके लिये कर्मयोग सम्भव नहीं है।
केवल लीला सदृश्य वे निष्काम कर्म करते हैं ; लोक हित के लिए । परन्तु जब आत्मा से संयुक्त होकर कर्म और प्रारब्ध ही करते हैं जीवन की व्याख्या तब व्यक्ति संसार के चक्र में घूर्णन करता रहता है ।
कालान्तरण में जब बुद्ध के सिद्धान्तों को समझने वाले बुद्धत्व से हीन हुए दो बुद्ध का मार्ग दो रूपों में विभाजित हुआ ।
बौद्ध धर्म में प्रमुख सम्प्रदाय बन गये।
हीनयान, थेरवाद, महायान, वज्रयान और नवयान, परन्तु बौद्ध धर्म एक ही था एवं सभी बौद्ध सम्प्रदाय बुद्ध के सिद्धान्त को तो मानते परन्तु व्याख्या अपने स्वार्थों के अनुकूल करने लगे। हीनयान अथवा 'स्थविरवाद' रूढिवादी बौद्ध परम्पराओं का पालन करने वाला एक सम्प्रदाय बन गया ।
परिचय :-
प्रथम बौद्ध धर्म की दो ही शाखाएं थीं, हीनयान निम्न वर्ग(गरीबी) और महायान उच्च वर्ग (अमीरी), हीनयान एक व्यक्त वादी धर्म था इसका शाब्दिक अर्थ है निम्न मार्ग।
यह मार्ग केवल भिुक्षुओं के ही लिए ही सम्भव था।
हीनयान सम्प्रदाय के लोग परिवर्तन अथवा सुधार के विरोधी थे। यह बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों का ज्यों त्यों बनाए रखना चाहते थे। हीनयान सम्प्रदाय के सभी ग्रन्थ पाली भाषा मे लिखे गए हैं। हीनयान बुद्ध की पूजा भगवान के रूप मे न करके बुद्ध को केवल महापुरुष मानते थे।
हीनयान की साधना अत्यंत कठोर थी तथा वे भिक्षुु जीवन के हिमायती थे।
हीनयान सम्प्रदाय श्रीलंका, बर्मा, जावा आदि देशों मे फैला हुआ है। बाद मे यह संप्रदाय दो भागों मे विभाजित हो गया- १-वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक।
इनका वर्णन वादरायण के ब्रह्-सूत्र में है ।
वैभाषिक मत की उत्पत्ति कश्मीर में हुई थी तथा सौतान्त्रिक तन्त्र-मन्त्र से संबंधित था।
सौतांत्रिक संप्रदाय का सिद्धांत मंजूश्रीमूलकल्प एवं गुहा सामाज नामक ग्रंथ मे मिलता है।
थेरवाद' शब्द का अर्थ है 'बड़े-बुज़ुर्गों का कहना'।
बौद्ध धर्म की इस शाखा में पालि भाषा में लिखे हुए प्राचीन त्रिपिटक धार्मिक ग्रन्थों का पालन करने पर बल दिया जाता है। थेरवाद अनुयायियों का कहना है कि इस से वे बौद्ध धर्म को उसके मूल रूप में मानते हैं।
इनके लिए गौतम बुद्ध एक गुरू एवं महापुरुष अवश्य हैं लेकिन कोई अवतार या ईश्वर नहीं।
वे उन्हें पूजते नहीं और न ही उनके धार्मिक समारोहों में बुद्ध-पूजा होती है।
जहाँ महायान बौद्ध परम्पराओं में देवी-देवताओं जैसे बहुत से दिव्य जीवों को माना जाता है वहाँ थेरवाद बौद्ध परम्पराओं में ऐसी किसी हस्ती को नहीं पूजा जाता।
थेरवादियों का मानना है कि हर मनुष्य को स्वयं ही निर्वाण का मार्ग ढूंढना होता है।
इन समुदायों में युवकों के भिक्षु बनने को बहुत शुभ माना जाता है ; और यहाँ यह प्रथा भी है कि युवक कुछ दिनों के लिए भिक्षु बनकर फिर गृहस्थ में लौट जाता है।
थेरवाद शाखा दक्षिणी एशियाई क्षेत्रों में प्रचलित है, जैसे की श्रीलंका, बर्मा, कम्बोडिया, म्यान्मार, थाईलैंड और लाओस पहले ज़माने में 'थेरवाद' को 'हीनयान शाखा' कहा जाता था।
बौद्ध धर्म का सबसे विकृत रूप वज्रयान के रूप में वर्णित हुआ । वज्रयान को तांत्रिक बौद्ध धर्म, तंत्रयान मंत्रयान, गुप्त मंत्र, गूढ़ बौद्ध धर्म और विषमकोण शैली या वज्र रास्ता भी कहा जाता है। वज्रयान बौद्ध दर्शन और अभ्यास की एक जटिल और बहुमुखी प्रणाली है जिसका विकास कई सदियों में हुआ।
वज्रयान संस्कृत शब्द, अर्थात हीरा या तड़ित का वाहन है, जो तांत्रिक बौद्ध धर्म भी कहलाता है तथा भारत व पड़ोसी देशों में विशेषकर तिब्बत में बौद्ध धर्म का महत्त्वपूर्ण विकास समझा जाता है। बौद्ध धर्म के इतिहास में वज्रयान का उल्लेख महायान के आनुमानिक चिंतन से व्यक्तिगत जीवन में बौद्ध विचारों के पालन तक की यात्रा के लिये किया गया है।
‘वज्र’ शब्द का प्रयोग मनुष्य द्वारा स्वयं अपने व अपनी प्रकृति के बारे में की गई कल्पनाओं के विपरीत मनुष्य में निहित वास्तविक एवं अविनाशी स्वरूप के लिये किया जाता है।
यान( रास्ता) ‘यान’ वास्तव में अंतिम मोक्ष और अविनाशी तत्त्व को प्राप्त करने की आध्यात्मिक यात्रा है।
वज्रयानी ही कालान्तरण में सिद्ध कहलाए यह समय लगभग पाँचवीं-छठी शताब्दी है ।
सिद्धों की परम्परा में जो वस्तु ब्राह्मण धर्म में बुरी मानी जाती थी, उसे ये अच्छी मानते थे।
इनके मत में डोंबी, धोबिन, चांडाली या बालरंडा के साथ भोग करना विहित था।
सरहपा की उक्तियाँ कण्ह की अपेक्षा अधिक तीखी हैं। इन्होंने भस्मपोत आचार्यों, पूजा-पाठ करते पंडितों, जैन क्षपणकों आदि सभी की निंदा की है।
एक और परिचय सिद्ध सरहपा (आठवीं शती) हिन्दी के प्रथम कवि माने जाते हैं।
उनके जन्म-स्थान को लेकर विवाद है।
एक तिब्बती जनश्रुति के आधार पर उनका जन्म-स्थान उड़ीसा बताया गया है। एक जनश्रुति सहरसा जिले के पंचगछिया ग्राम को भी उनका जन्म-स्थान बताती है।
महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने उनका निवास स्थान नालंदा और प्राच्य देश की राज्ञीनगरी दोनों ही बताया है। उन्होंने दोहाकोश में राज्ञीनगरी के भंगल (भागलपुर) या पुंड्रवद्रधन प्रदेश में होने का अनुमान किया है।
अतः सरहपा को कोसी अंचल का कवि माना जा सकता है। सरहपा का चैरासी सिद्धों की प्रचलित तालिका में छठा स्थान है।
उनका मूल नाम ‘राहुलभद्र’ था और उनके ‘सरोजवज्र’, ‘शरोरुहवज्र’, ‘पद्म’ तथा ‘पद्मवज्र’ नाम भी मिलते हैं।
वे पालशासक धर्मपाल (770-810 ई.) के समकालीन थे।
उनको बौद्ध धर्म की वज्रयान और सहजयान शाखा का प्रवर्तक तथा आदि सिद्ध माना जाता है।
वे ब्राह्मणवादी वैदिक विचारधारा के विरोधी और विषमतामूलक समाज की जगह सहज मानवीय व्यवस्था के पक्षधर थे।
ये बुद्ध को मार्ग से पूर्ण रूपेण पृथक हो गये । योग को इन्होंने भोग का माध्यम बना लिया ।
दुनिया के करीब २ अरब (29%) लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी बन गये किंतु, अमेरिका के प्यु रिसर्च के अनुसार, विश्व में लगभग 54 करोड़ लोग बौद्ध धर्म के अनुयायी है, जो दुनिया की आबादी का 7% हिस्सा है।
प्यु रिसर्च ने चीन, जापान व वियतनाम देशों के बौद्धों की संख्या बहुत ही कम बताई हैं, हालांकि यह देश सर्वाधिक बौद्ध आबादी वाले शीर्ष के तीन देश हैं।
दुनिया के 200 से अधिक देशों में बौद्ध अनुयायी हैं।
किंतु चीन, जापान, वियतनाम, थाईलैण्ड, म्यान्मार, भूटान, श्रीलंका, कम्बोडिया, मंगोलिया, लाओस, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया एवं उत्तर कोरिया समेत कुल 13 देशों में बौद्ध धर्म 'प्रमुख धर्म' धर्म है।
भारत, नेपाल, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया, रूस, ब्रुनेई, मलेशिया आदि देशों में भी लाखों और करोडों बौद्ध अनुयायी हैं। योग को बुद्ध ने जाना इससे पूर्व कृष्ण ने योग को जाना जैनियों के त्रेसठ शलाका पुरुषों में कृष्ण और बलराम का भी वर्णन है । बुद्ध परम्परा में भी कृष्ण को माना । योग सृष्टि के रहस्य को जानने रा सम्यक् विज्ञान है ।
योग आत्म-साक्षात्कार की कुञ्जी है । _________________________________________________
यही सृष्टि -सञ्चालन का सिद्धान्त बडा़ अद्भुत कारण है।
जिसे मानवीय बुद्धि अहंत्ता पूर्ण विधि से कदापि नहीं समझ सकती है।
विश्वात्मा ही सम्पूर्ण चराचर जगत् की प्रेरक सत्ता है ।
और आत्मा प्राणी जीवन की , इसी सन्दर्भ में हम सर्व प्रथम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करते हैं!
सर्व प्रथम हम आत्मा शब्द पर विचार-विश्लेषण करें !
तो यह शब्द संसार की सम्पूर्ण सभ्य भाषाओं में विशेषत: भारोपीय भाषा परिवार में सदीयों से किन्हीं न किन्हीं रूपों में अवश्य विद्यमान रहा है। और मानव- जिज्ञासा का चरम लक्ष्य भी आत्मा की ही खोज है ; और होनी भी चाहिए ।
क्योंकि मानव जीवन का सर्वोपरि मूल्य इसी में निहित है।
..मैं यादव योगेश कुमार ''रोहि' इसी महान भाव से प्रेरित होकर उन तथ्यों को यहाँ उद् घाटित कर रहा हूँ।
जो स्व -जीवन की प्रयोग शाला में दीर्घ कालिक साधनाओं के प्रयोग के परिणाम स्वरूप प्राप्त किए हैं।
...इन तथ्यों के अनुमोदन हेतु भागवत धर्म के प्रतिनिधि ग्रन्थ एवं औपनिषदीय साहित्य के मूर्धन्य ग्रन्थ श्री-मद्भगवद् गीता तथा अन्य उपनिषदों को उद्धृत किया गया है।
यद्यपि श्रीमद्भगवद् गीता महाभारत के भीष्म पर्व का ही अंग है । परन्तु यह महाभारत भी बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में पुष्यमित्र सुंग के विचारों के अनुमोदक ब्राह्मण समुदाय द्वारा समायोजित किया गया। गीता में जो आध्यात्मिक तथ्य हैं ।
वह कृष्ण के मत के अनुमोदक अवश्य है ; कृष्ण की साक्षात् वाणी कदापि नहीं।
वस्तुत वर्तमान श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के बाद की रचना है । जिसमें -परोक्षत: -ब्रह्म-सूत्रपद के आश्रय से बौद्ध कालीन है । श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के वाद की रचना है ।👇🌸💐 _________________________________________________
दूसरा प्रमाण कि श्रीमद्भगवद् गीता में -ब्रह्म-सूत्रपदों का वर्णन है। जिसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदायों :- १-वैभाषिक २- सौत्रान्तिक ३-योगाचार ४- माध्यमिक का खण्डन है ।
योगाचार और माध्यमिक बौद्ध सम्प्रदायों का विकास 350 ईस्वी के समकक्ष "असंग " और वसुबन्धु नामक बौद्ध भाईयों ने किया ।
-ब्रह्म-सूत्रपदों की रचना बुद्ध के बाद पाँचवीं सदी में हुई ।
द्वन्द्व से मुक्त होने को श्रीमद्भगवत् गीता मे योग कहा ।
और प्रकृति द्वन्द्व मयी है ।👇 _________________________________________________
"त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मावान् ( 2-46)
यावानर्थ उदपाने सर्वत: संप्लुतोदके .
तावन्सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानत: (2-45)
----हे अर्जुुन सारे वेद सत्व, रज, और तम इन तीनों प्राकृतिक गुणों का ही प्रतिपादन करते हैं अर्थात् इन्हीं तीनों गुणों से युक्त हैं इसलिए तुम इन तीनों को त्याग कर दु:ख-दुख आदि द्वन्द्वों को परे होकर तथा नित्य सत्वगुण में स्थित योग-क्षेम को न चाहने वाले बनकर केवल आत्म-परायण बनो !
जैसे सब ओर से परिपूर्ण जलाशय को प्राप्त होकर छोटे गड्डों से कोई प्रयोजन नहीं रहता ; उसी प्रकार उपर्युक्त वर्णित तथ्यों को जानने वाले निर्द्वन्द्व व्यक्ति का वेदों से कोई प्रयोजन नहीं रहता !
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा यास्यति निश्चला।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ।।
(श्रीमद्भगवद् गीता 2/53) जब वेदों के सुनने से विचलित हुई तेरी बुद्धि है। समाधि में स्थिर होगी तब तू योग को प्राप्त कर सकेगा ! आशय यह कि वेदौं का अध्ययन व तदनुकूल आचरण करने से व्यक्ति की बुद्धि विचलित हो जाती है ; उसमें सत्य का निर्णय करने व किया उच्च तत्व को समझने की बुद्धि नहीं रहती है ।
अब बताऐं कि किस प्रकार गीता और वेद समान हैं कभी नहीं वस्तुत: गीता का प्रतिपाद्य विषय द्रविड़ो की योग पद्धति है ।
बुद्ध के मध्यम-मार्ग का अनुमोदन "समता योग उच्यते योग: कर्मसुु कौशलम्" तथ्य से पूर्ण रूपेण है ।
योगस्थ: कुरु कर्माणि संग त्यक्तवा धनञ्जय।
सिद्धय-असिद्धयो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते।।
योग: कर्मसुु कौशलम्" ईश्वर और आत्मा के विषय में बुद्ध के विचार स्पष्ट ही कृष्ण दर्शन के अनुरूप हैं।
विशेषत: मज्झ मग्ग ( मध्य मार्ग) महात्मा बुद्ध को उनके अनुयायी ईश्वर में विश्वास न रखने वाला कह कर बुद्ध को नास्तिक मानते हैं। इस सम्बन्ध में आजकल जो लोग अपने को बौद्धमत का अनुयायी कहते हैं उनमें बहुसंख्या ऐसे लोगों की ही भरमार है ।
जो ईश्वर और आत्मा की सत्ता को अस्वीकार करते हैं एक बड़ी कठिनाई महात्मा बुद्ध के यथार्थ विचार जानने में यह है कि उन्होंने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा अब दीर्घनिकाय, मज्झिनिकाय, विनयमपिटक आदि जो भी ग्रन्थ महात्मा बुद्ध के नाम से पाये जाते हैं ; उनका संकलन उनके निर्वाण की कई शताब्दियों के पश्चात् किया गया जिनमें से बहुत-सी उक्तियां किंवदन्ती के ही रूप में हैं। महात्मा बुद्ध परलोक और पुनर्जन्म को मानते थे । इससे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता।
इसलिये उन्हें सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण देना अनावश्यक है। प्रथम प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153) देखें--- अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस।
गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।’
महात्मा बुद्ध ने कहा है कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा।
गृह निर्माण करने वाले की खोज में बार-बार जन्म दुःखमय हुआ। श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है। दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है; जहां महात्मा बुद्ध ने अपने लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है। कृष्ण द्रविड संस्कृति के नायक थे ।
यह तथ्य अटपटा अवश्य लग सकता है परन्तु यही सत्य है; जिन्हें चतुर ब्राह्मणों ने कृष्ण के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें अपने -ग्रन्थों में युग-- पुरुष के रूप में प्रतिष्ठित किया ।
और ब्राह्मण हिल मूलक मत कृष्ण पर आरोपित करके इस प्रकार वर्णित किए हैं; कि उसमें कुछ भी कृत्रिम अनुभव न हो ।
कृष्ण चमत्कारी पुरुष थे और इनका जन्म गोप अथवा आभीर जाति में हुआ था । जैसा कि हरिवंश पुराण कहता है ; जो महाभारत का खिल-भाग है । ________________________________________________
गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९। _________________________________________________
अर्थात्:-जो भगवान् विष्णु भूतल के सब जीवों की रक्षा करनें में समर्थ है । वे ही इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ।९। __________________________________________
हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ ( संस्कृति संस्थान ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य .. तथा गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ और चालीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या (182) श्लोक संख्या (12) निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं। आभीर जन-जाति का सम्बन्ध द्रविडों से है।
जो पैलेस्टाइन अथवा इज़राएल में द्रुज़ (Druze) हैं । द्रुज़ जन-जाति का सम्बन्ध यहूदीयों से है ।
जिनमें कृष्ट Christ अर्थात् ईसा मसीह का जन्म हुआ। विश्व की प्राचीन संस्कृतियों से भी कुछ मुख्य तथ्य उद्धृत किए हैं ;जो समीचीन और प्राचीन भी हैं । विशेषत: ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों से तथा यूनानी संस्कृति से प्राचीन दार्शनिकों के मत विदित हो कि कैल्टिक संस्कृति के सूत्रधार ड्रयूड (Druids) समुदाय की एक शाखा भारतीय धरा पर द्रविड कहलाती है । आत्म तत्व के विश्लेषण में कृष्ण का दर्शन अद्भुत है । आत्मा शाश्वत तत्व है ..श्रीमद्भगवत् गीता तथा कठोपोनिषद कुछ साम्य के साथ यह उद्घोष हैं
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न जायते म्रियते वा कदाचित् न अयम् भूत्वा भविता वा न भूयः |
अजो नित्यः शाश्वतोSयम् पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे || -------------------------------------------------------------
(श्रीमद्भागवत् गीता .).. वास्तव में सृष्टि का 1/4भाग ही दृश्यमान् 3/4 पौन भाग तो अदृश्य है । परिवर्तन शरीर और मन के स्तर पर निरन्तर होते रहते हैं, परन्तु आत्मा सर्व - व्यापक व अपरिवर्तनीय है ।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृहणाति नरोsपराणि |
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही || _______________________________________________
अर्थात् पुराने वस्त्रों को त्याग कर नर जिस प्रकार नये वस्त्र धारण करता है । .ठीक उसी प्रकार यह जीव -आत्मा भी पुराने शरीर को त्याग कर कर्म संस्कार और प्रवृत्तियों के अनुसार नया शरीर धारण करता है । ________________________________________________
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।4।।
मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किये बिना निष्कर्मता को यानि योगनिष्ठा को प्राप्त होता है ,और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि यानि सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है |
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः।।5।।
नि:सन्देह कोई भी मनुष्य किसी काल में क्षणमात्र भी बिना कर्म किये नहीं रहता, क्योंकि सारा मनुष्य समुदाय प्रकृति जनित गुणों द्वारा परवश हुआ कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है |
प्राणी की श्वाँसों का चलना हृदय का धड़कना एक सतत् कर्मों का रूप ही तो है ।________________________________________________ कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।।
जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |
यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।।
किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।।
उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता | -------------------------------------------------------------------- आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं ।
जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids) कहते थे ।
जो यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ,कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे ।
पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी इतिहास कारों की कुछ एैसी ही मान्यताऐं हैं । --------------------------------------------------------------------
प्राचीन ग्रीक के आर्य दार्शनिकों की ई०पू०1200 के समकक्ष यह प्रबल अवधारणा थी कि आत्मा अविनाशी और शाश्वत् सत्ता है। विशेषत होमर ई०पू० 800 के समकालिक महाकाव्यों इलियड और ऑडेसी में वर्णित तथ्यों में ; और आज भी भौतिकी की सैद्धान्तिक कषौटी पर यह तथ्य प्रमाणित भी हो गया है, कि परमाणु अविनाशी है ,और संसार की निर्माण इकाई है परमाणु सृष्टि की पूर्ण इकाई अर्थात् व्यष्टि रूप है।
संस्कृत साहित्य में अणु शब्द जीव का वाचक है।
अन् धातु से व्युत्पन्न है।
"अण्यते येन असौ अणु कथ्यते " अण् :- शब्दे प्राणने च आत्मने पदीय क्रिया रूप (अण--उन् )
क्षुद्रे, सूक्ष्मपरिमाणवति, द्रव्ये, लेशे च ।
(चिना, काङनी, श्यामा) प्रभृति सूक्ष्मधान्ये पुल्लिङ्गः।
“अनणुषु दशमांशोऽणुष्वथैकादशांश” इति लीलावती । अणुशब्दोहि परिमाणविशेषवाची ।
ग्रीक भाषा में भी ऐटम {Atom} शब्द का अभिधेय अर्थ है----×----अकाट्य तत्व ---अर्थात् जिसे काटा नहीं जा सकता है वही ऐटम है ----- ✳⛔. Atom--a particle of matter so small that so far as the older chemistry goes..Cannot be Cut (Temnein) or divided...
अर्थात् पदार्थ का सबसे शूक्ष्मत्तम कण जिसे और काटा नहीं जा सकता है , वही एटम atom है।
संस्कृत भाषा में ऐटम शब्द का भाषान्तरण परमाणु शब्द के रूप में किया है, परमाणु शब्द का संस्कृत भाषा में अभिधात्मक अर्थ होता है।
.. सबसे शूक्ष्म जीव (अणुः) ...ऐटम शब्द A नकारात्मक उपसर्ग तथा Tomos क्रियात्मक विशेषण से बना हुआ रूप है ..Tomos का भी धातु रूप (क्रिया का मूल रूप) Temnein =to cut अर्थात् काटना है ।
....Atoms -A priv.and tomos----Verbal adjective form of Temnein Rootword ...A=-privation of tomos..A tomos ... इस शब्द के अतिरिक्त ग्रीक भाषा में सत्तावान् तत्व का वाचक ऐटिमॉन Etymon..शब्द भी है, जिसका मूल रूप (Etymos) है ..इसी सन्दर्भ में हम यह भी स्पष्ट कर दें की ग्रीक भाषा में ऐटमॉस (Atmos) शब्द का मूल अर्थ वायु तथा बाष्प और शूक्ष्म तत्व भी है।
और तो अॉटोस् (Autos) शब्द भी आत्मा का वाचक है । जिसका तादात्म्य संस्कृत स्वत: शब्द से प्रस्तावित है । ________________________________________________
अवेस्ता ए झन्द में संस्कृत शब्द स्वयं ( स्वत:) ख़ुद बन गया और इसी से आगेे चल कर ख़ुदा शब्द का भी विकास हुआ है।
... अब हम यह प्रतिपादित करेंगे कि आत्मा और एटम वास्तव में क्या है? (सबसे छोटा आत्मा ) सृष्टि की हर वस्तु की निर्माण की शूक्षत्त्तम इकाई परमाणु है।
जो काटा नहीं जा सकता है - संस्कृत भाषा में प्राचीन काल से आत्मा का वाचक प्रेत शब्द है।
जो भारोपीय भाषा परिवार से सम्बद्ध है।
(Etymology and meaning) "Ātman" (Atma, आत्मा, आत्मन्) is a Sanskrit word which means "essence, breath, soul.
"It is related to the PIE *etmen (a root meaning "breath"; cognates: Dutch adem, Old High German atum "breath," Modern German atmen "to breathe" and Atem "respiration, breath", Old English eþian). _______________________________________________
Ātman, sometimes spelled without a diacritic as atman in scholarly literature, means "real self" of the individual,"innermost essence"and soul. Atman, in Hinduism, is considered as eternal, imperishable, beyond time, states Roshen Dalal, "not the same as body or mind or consciousness, but is something beyond which permeates all these"
Atman is a metaphysical and spiritual concept for the Hindus, often discussed in their scriptures with the concept of Brahman. Development of the concept Schools of thought Influence of Atman theory on Hindu Ethics Atman – the difference between Hinduism and Buddhism... _________________________________________________
अर्थात् (व्युत्पत्ति और अर्थ) "Ātman" (आत्मा, आत्म, आत्मन्) एक संस्कृत शब्द है ।
जिसका अर्थ है "सार, श्वाँस, आत्मा।
" यह मूल भारोपीय एटमेन से संबंधित है (जिसका मूल अर्थ है "श्वाँस"; cognates: Dutch adem , पुरानी उच्च जर्मन एटम "सांस," आधुनिक जर्मन एटमेन "साँस लेने" और एटेम "श्वसन, सांस", पुरानी अंग्रेज़ी एडियन)। ________________________________________________
Ātman, कभी-कभी विद्वानों के साहित्य में एटमन के रूप में एक डाइकाट्रिक के बिना वर्तनी, का अर्थ "वास्तविक स्व" है।
"सबसे सरल तत्व" और आत्मा।
आत्मा, हिन्दू धर्म में, अनन्त, अविनाशी, समय से परे, कहलाता है। "शरीर या मन या चेतना के समान नहीं है, परन्तु कुछ भी परे जो इन सब में व्याप्त है"आत्मा है ।
आत्मा हिन्दूओं के लिए एक आध्यात्मिक और दार्शिनिक अवधारणा है, जिन्हें अक्सर ब्राह्मणों की अवधारणा के साथ अपने धर्मग्रंथों में चर्चा की जाती है। श्रीमद्भगवद् गीता का यह श्लोक प्रमाण रूप में है 👇
नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक ।
चैनं क्लेदयन्ति आपो न शोषयति मारुत:।।
अर्थात् शस्त्राणि जिसे काट नहीं सकता , अग्नि जला नहीं सकती और जल भिगोय नहीं सकता, और न वायु जिसे सुखा सकती है , वह आत्मा है । ________________________________________________
यह परमाणु भी त्रिगुणात्मक है --सत् धनात्मक तथा तमस् ऋणात्मक तथा रजो गुण न्यूट्रॉन के रूप में मध्यस्थ होने से न्यूट्रल Neutral है।
परमाणु को जब और शूक्ष्मत्तम रूप में देखा तो अल्फा बीटा गामा कण भी त्रिगुणात्मक ही सिद्ध है।
भौतिक शास्त्री लेप्टॉन क्वार्क तथा गेज बोसॉन नामक मूल कणों को भी परमाणु के ही मूल में भी स्वीकार करते हैं ।
परन्तु ये सभी पूर्ण नहीं हैं; केवल उसके अवयव रूप हैं परमाणु का मध्य भाग जिसे नाभिक Nucleusभी कहते हैं ,उसी में प्रोटॉन और न्यूट्रॉन उसी प्रकार समायोजित हैं , जैसे सत्य का समायोजन ब्रह्म से हो।
.क्यों कि ब्रह्म द्वन्द्व भाव से सर्वथा परे है।
परन्तु उसका साक्षात्कार सत्याचरण से ही सम्भव है । अत: सत्य और ब्रह्म का इतना सम्बन्ध अवश्य है ।
विदित हो कि परमाणु के केन्द्र में प्रतिष्ठित प्रोटॉन (Protons) पूर्णतः घन आवेशित कण है और इसी केन्द्र के चारो ओर भिक्षुक के सदृश्य प्रोटॉन के विपरीत ऋण-आवेशित कण इलैक्ट्रॉन हैं। जो कक्षाओं में चक्कर काटते रहते हैं ।
इलैक्ट्रान पर भी प्रोटॉन के धन आवेश के बराबर ही ऋण आवेश की संख्या होती है ।
अर्थात् परमाणु में इलैक्ट्रॉन की संख्या भी प्रोटॉन की संख्या के बराबर होती है इलेक्ट्रॉन ही वस्तु के विद्युतीयकरण के लिए उत्तर दायी है। ----------------------------------------------------------------------
परमाणु के द्रव्यमान का 99.94% से अधिक भाग नाभिक में होता है ।
प्रॉटॉन पर सकारात्मक विद्युत आवेश होता है ।
तथा इलेक्ट्रॉन पर नकारात्मक आवेश होता है ।
और न्यूट्रॉन पर कोई विद्युत आवेश नहीं होता तथा परमाणु का इलेक्ट्रॉन इस विद्युतीय बल द्वारा एक परमाणु के नाभिक में प्रॉटॉन की ओरआकर्षित होता है तथा परमाणु में प्रॉटॉन और न्यूट्रॉन एक अलग बल अर्थात् परमाणु बल के द्वारा एक दूसरे को आकर्षित करते हैं ।
एैसा ही आकर्षण स्त्री और पुरुष का पारस्परिक रूप से है ।
परमाणु किसी पदार्थ की सबसे पूर्ण सूक्षत्तम इकाई है _______________________________________________ यूरोपीय पुरातन भाषाओं में विशेषत: जर्मनिक भाषाओं में आत्मा शब्द अनेक वर्ण--विन्यास के रूप विद्यमान है 👇
जैसे - 1-पुरानी अंगेजी में--Aedm 2-डच( Dutch) भाषा में Adem रूप 3-प्राचीन उच्च जर्मन में Atum = breath अर्थात् प्राण अथवा श्वाँस-- 4-डच भाषा में इसका एक क्रियात्मक रूप (Ademen )--to breathe श्वाँसों लेना परन्तु Auto शब्द ग्रीक भाषा का प्राचीन रूप है । जो की Hotos रूप में था । जो संस्कृत भाषा में स्वत: से समरूपित है । श्री मद् भगवद्गीता में कृष्ण के इस विचार को👇
नैनं छिदन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न च एनं क्लेदयन्ति आपो न शोषयति मारुत:।।
कृष्ण का यह विचार ड्रयूड Druids अथवा द्रविड दर्शन से प्रेरित है । आत्मा नि:सन्देह अजर ( जीर्ण न होने वाला) और अमर (न मरने वाला ) है आत्मा में मूलत: अनन्त ज्ञान अनन्त शक्ति अौर यह स्वयं अनन्त आनन्द स्वरूप है। क्योंकि ज्ञान इसका परम स्वभाव है । ज्ञान ही शक्ति है और ज्ञान ही आनन्द परन्तु ज्ञान से तात्पर्य सत्य से अन्वय अथवा योग है । __________________________________________
ज्ञा धातु जन् धातु का ही विपर्यय अथवा सम्प्रसारण रूप है ।
सत्य ज्ञान का गुण है और चेतना भी ज्ञान एक गुण है सत्य और ज्ञान दौनों मिलकर ही आनन्द का स्वरूप धारण करते हैं।
जैसे सत्य पुष्प के रूप में हो तो ज्ञान इसकी सुगन्ध और चेतना इसका पराग और आनन्द स्वयं मकरन्द (पुष्प -रस )है ; आत्मा सत्य है ।
क्योंकि इसकी सत्ता शाश्वत है । एक दीपक से अनेक दीपक जैसे जलते हैं ; ठीक उसी प्रकार उस अनन्त सच्चिदानन्द ब्रह्म अनेक आत्माऐं उद्भासित हैं । परन्तु अनादि काल से वह सच्चिदानन्द ब्रह्म लीला रत है ;यह संसार लीला है ।
और अज्ञानता ही इस समग्र लीला का कारण है । अज्ञानता सृष्टि का स्वरूप है ; उसका स्वभाव है यह सृष्टि स्वभाव से ही अन्धकार उन्मुख है।
क्यों कि अन्धकार का तो कोई दृश्य श्रोत नहीं है, परन्तु प्रकाश का प्रत्येक श्रोत दृश्य है।
अन्धकार तमोगुणात्मक है ,तथा प्रकाश सतो गुणात्मक है यही दौनो गुण द्वन्द्व के प्रतिक्रिया रूप में रजो गुण के कारक हैं यही द्वन्द्व सृष्टि में पुरुष और स्त्री के रूप में विद्यमान है।
स्त्री स्वभाव से ही वस्तुत: कहना चाहिए प्रवृत्ति गत रूप से भावनात्मक रूप से प्रबल होती हैं ; और पुरुष विचारात्मक रूप से प्रबल होता है।
इसके परोक्ष में सृष्टा सृष्टा का एक सिद्धान्त निहित है । वह भी विज्ञान - संगत क्योंकि व्यक्ति इन्हीं दौनों विचार भावनाओं से पुष्ट होकर ही ज्ञान से संयोजित होता है ।
अन्यथा नहीं , वास्तव में इलैक्ट्रॉन के समान सृष्टि सञ्चालन में स्त्री की ही प्रधानता है।
..और संस्कृत भाषा में आत्मा शब्द का व्यापक अर्थ है :--जो सर्वत्र चराचर में व्याप्त है ।
---आत्मा शब्द द्वन्द्व से रहित ब्रह्म का वाचक भी और द्वन्द्व से संयोजित जीव का वाचक भी है।
जैसे समुद्र में लहरें उद्वेलित हैं वैसे ही आत्मा में जीव उद्वेलित है ,वास्तव में लहरें समुद्र जल से पृथक् नहीं हैं ,लहरों का कारक तो मात्र एक आवेश या वेग है ।
ब्रह्म रूपी दीपक से जीवात्मा रूपी अनेक दीपकों में जैसे एक दीपक की अग्नि का रूप अनेक रूपों भी प्रकट हो जा है । परन्तु इन सब के मूल में आवेश अथवा इच्छा ही होती है ।
और आवेश द्वन्द्व के परस्पर घर्षण का परिणाम है !
जीव अपने में अपूर्णत्व का अनुभव करता है ।
कपरन्तु यह अपूर्णत्व किसका अनुभव करता है उसे ज्ञाति नहीं :- ******************************************* ज्ञान दूर है और क्रिया भिन्न !
श्वाँसें क्षण क्षण होती विच्छिन्न ।
पर खोज अभी तक जारी है ।
अपने स्वरूप से मिलने की ।
हम सबकी अपनी तैयारी है ।
आशा के पढ़ाबों से दूर निकर
संसार में किसी पर मोह न कर
ये हार का हार स्वीकार न कर
मञ्जिल बहुत दूर तुम्हारी है ।
शोक मोह में तू क्यों खिन्न है ।
कुछ पल के रिश्ते सब भिन्न है ।
'रोहि' मतलब की दुनियाँ सारी है । ******************************************
शक्ति , ज्ञान और आनन्द के अभाव में व्यक्ति अनुभव करता है कि उसका कुछ तो खो गया है ।
जिसे वह जन्म जन्म से प्राप्त करने में संलग्न है ।
परन्तु परछाँईयों में ,परन्तु सबकी समाधान और निदान आत्मा का ज्ञान अथवा साक्षात्कार ही है ।
और यह केवल मन के शुद्धिकरण से ही सम्भव है ।
और एक संकीर्ण वृत्त (दायरा)भी । यह एक बिन्दुत्व का भाव ( बूँद होने का भाव )है ।
जबकि स्व: मे अात्म सत्ता का बोध सम्पूर्णत्व के साथ है ; यह सिन्धुत्व का भाव (समु्द्र होने का भाव )है ।
व्यक्ति के अन्त: करण में स्व: का भाव तो उसका स्वयं के अस्तित्व का बोधक है ।
परन्तु अहं का भाव केवल मैं ही हूँ ;
इस भाव का बोधक है। इसमें अति का भाव ,अज्ञानता है । _________________________________________
अल्पज्ञानी अहं भाव से प्रेरित होकर कार्य करते हैं ;
तो ज्ञानी सर्वस्व: के भाव से प्रेरित होकर , इनकी कार्य शैली में यही बड़ा अन्तर है। संस्कृत भाषा में आत्मा शब्द के अनेक प्रासंगिक अर्थ भी हैं जैसे :---- १--वायु २--अग्नि ३---सूर्य ४--- व्यक्ति --स्त्री पुरुष दौनो का सम्यक् (पूर्ण) रूप ५---ब्रह्म जो कि द्वन्द्व से सर्वथा परे है। मिश्र की प्राचीन संस्कृति में आत्मा एटुम (Atum )के रूप में सृष्टि का सृजन करने वाले प्रथम देवता के रूप में मान्य है ।
कालान्तरण में मिश्र की संस्कृति में यह रूप "Aten" या "Aton"के रूप में सूर्य देव को दे दिया गया , प्राचीन मिश्र के लोग भारतीयों के समान सूर्य को विश्व की आत्मा मानते थे ।
मिश्र की संस्कृति में अातुम Atum का स्वरूप स्त्री और पुरुष दौनो के समान रूप में था । 👇 और यही (एतुम )वास्तव में सुमेर और बैबीलॉन की संस्कृतियों में आदम के रूप उदित हुआ , जो स्त्री और पुरुष दौनो का वाचक है- और यही से आदम शब्द हिब्रू परम्पराओं में उदय हुआ जिसका समायोजन कुछ अल्पान्तरण के साथ यहूदी.ईसाई तथा इस्लामी शरीयत ने किया है । मिश्र वालों की अवधारणा थी; की आतुम( Atum) पूर्ण तथा अनादि देव है । जिसने समग्र सृष्टि का सृजन कर दिया है । इसी सन्दर्भ में भारतीय उपनिषदों ने कहा है आत्मा के विषय में जो ब्रह्म के अर्थ में है-- _______________________________________________
पूर्णम् अदः पूर्णम् इदम् पूर्णात् पूर्णम् उद्च्यते । .
पूर्णस्य पूर्णम् आदाय पूर्णम् इव अवशिष्यते .।। ________________________________________
..ईशावास्योपनिषदअर्थात् यह आत्मा पूर्ण है और इस पूर्ण से पूर्ण निकालने पर भी पूर्ण ही अवशेष बचता है । ..इधर श्रीमद भगवद् गीता उद्घोष करती है.. 🌷🌷🌷 नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः | नैनं क्लेदयन्ति आपो न शोषयति मारुतः ||
.. भारतीयों की धारणा के समान जर्मन देव संस्कृतियों के अनुयायीयों की अवधारणा भी यही थी। ..जर्मन वर्ग की प्राचीन भाषाओं में आज भी आत्मा को एटुम (Atum) कहते हैं । पुरानी उच्च जर्मन O.H.G. भाषा में (Atum) शब्द प्रेत एवम् प्राण का वाचक है । अर्थात् (Breath & Ghost )यही आत्मा शब्द मध्य उच्च जर्मन M.H.G. भाषा में Atem शब्द के रूप में हुआ ।
जर्मन आर्यों की सांस्कृतिक भाषा डच में यह शब्द (Adem )के रूप में प्रतिष्ठित है । और पुरानी अंग्रेजी (ऐंग्लो-सेक्शन)में यह शब्द ईड्म (Aedm) कहीं कहीं यही आत्मा शब्द आल्मा Alma के रूप में भी परवर्तित हुआ है ।
Atum (संस्कृत आत्मा शब्द से साम्य परिलक्षित है) प्राचीन मिश्र में आत्मा की अवधारणा एक देवता के रूप में की गयी ---जो स्त्री और पुरुष दौनों रूपों में था ।
परम (संस्कृत आत्मा शब्द से साम्य परिलक्षित है) अतूम (जिसे टेम या तेमू के नाम से भी जाना जाता है) पहली और सबसे महत्वपूर्ण प्राचीन मिस्र के देवता, जिनकी उपासना आयनू (हेलिपोलिस, लोअर मिस्र) में हुई थी, हालांकि बाद के दिनों में रा शहर में महत्व बढ़ गया और उसे कुछ हद तक ग्रहण किया।
वह पूर्वी डेल्टा में पिथॉम में प्रति-मंदिर ("अतात का घर") का मुख्य देवता था।
हालांकि वह लोअर मिस्र के पुराने राज्य में अपने सबसे लोकप्रिय में था, लेकिन वह अक्सर मिस्र में फिरौन के साथ निकटता से जुड़ा हुआ है। नई साम्राज्य के दौरान, अट्टम और थबर्न देव मोंटू (मोंटजू) को राजा के साथ कर्नाक में अमीन के मंदिर में दर्शाया गया है। स्वर्गीय काल में, भगवान के चिन्ह के रूप में छिपकलियों के ताबीज पहनाए जाते थे।
ओतम हेलीओपॉलिटन एननेड में क्रिएटर देवता था।
Atum का सबसे पहला रिकॉर्ड पिरामिड ग्रंथों (राजवंश के पांचों और छह के फायरोउस के कुछ पिरामिड में लिखा गया है) और कॉफ़ीन ग्रन्थ (अभिरुचि के कब्रों के लिए शीघ्र ही बनाया गया)। शुरुआत में कुछ भी नहीं था । (नन)।
धरती का एक टहनी नून से बढ़ी और उस पर अतूम ने खुद को बनाया।
वह अपने मुंह से शू (वायु) और टेफनट (नमी) को फैलता है अतूम के दो संतान उसके से अलग हो गये और अंधेरे में कोई कमी नहीं हुई, अतुल ने "आंख" को भेजा ("रा के आँख" के पूर्ववर्ती, विभिन्न समय में कई देवताओं को दिया गया एक उपन्यास)।
जब वे पाए गए, उन्होंने शू को "जीवन" और टेफनट को "आदेश" के रूप में रखा और उन्हें एक साथ जोड़ दिया। अतूल थके हुए थे और आराम करने की जगह चाहते थे, इसलिए उसने अपने दागुदर टेफनट को चूमा, और नून के जल से उगने के लिए पहली बाघ (ऊनु) बनाया।
शू और टेफनट ने पृथ्वी (गेब) और आकाश (अखरोट) को जन्म दिया, जो बदले में ओसीरिस, आईिस, सेट, नेफथिस और हॉरस को बड़े जन्म देते हैं।
मिथक के बाद के संस्करणों में, अत्तुम शू और टेफनट को हस्तमैथुन के द्वारा पैदा करता है और गीब और नट का विभाजन करता है क्योंकि वह अपने निरन्तर सम्भोग से ईर्ष्या करते हैं।
हालांकि, उनकी रचनात्मक प्रकृति के दो पक्ष हैं मृतक की किताब में, ओतम ओसीरिस को बताता है कि अंततः वह दुनिया को नष्ट कर देगा, सबकुछ सब कुछ जलमग्न (नन) में वापस कर देगा, जो कि समय की शुरुआत में मौजूद थे।
इस अस्तित्व में, एटम और ओसीरिस साँप के रूप में जीवित रहेंगे। ओतम, रा, होरखटी और खेपी ने सूर्य के विभिन्न पहलुओं को बना दिया। अतूम सेटिंग सूर्य था जो हर रात अंडरवर्ल्ड के माध्यम से यात्रा करता था वह सौर धर्मशास्त्र के साथ भी जुड़ा हुआ था, जैसे स्वयं-विकासशील स्कार्ब जो नव निर्मित सूरज का प्रतिनिधित्व करता था।
नतीजतन, वह रे (उगते सूरज) के साथ दोनों पिरामिड और कॉफ़ीन ग्रंथों में रे-अतातम के रूप में मिला है जो "पूर्वी क्षितिज से उभर आता है" और "पश्चिमी क्षितिज में टिकी हुई है"। दूसरे शब्दों में री-अतातम के रूप में वे सुबह रात को खुद को पुनर्जन्म करने से पहले हर रात शाम को मर गए देवताओं के शासक के साथ संयुक्त इस रूप में, अट्टम ने सूरज की स्थापना और अंडरवर्ल्ड के माध्यम से अपनी यात्रा को पूर्व में बढ़ते हुए चिन्हित किया।
अातुम देवताओं का पिता था, पहला दैवीय युगल, शू और टेफनट, जिससे अन्य सभी देवताओं का वंशज है, पैदा करता है। उन्हें फिरौन के पिता के रूप में भी माना जाता था।
राजा के साथ आतुम का घनिष्ठ संबंध कई पंथीय अनुष्ठानों में और राज्याभिषेक संस्कार में देखा जाता है। स्वर्गीय काल से डेटिंग एक पपीरस से पता चलता है कि ईश्वर नए साल के त्यौहार के लिए केंद्रीय महत्व का था जिसमें राजा की भूमिका को पुन: पुष्टि किया गया था। नए साम्राज्य के बाद से, उन्होंने अक्सर पवित्र छत के पेड़ की पत्तियों पर शाही नामों का विवरण प्रस्तुत किया और कुछ निचले मिस्र के शिलालेखों में आदम को फिरौन (उदाहरण के लिए पिथौम में रामेसेस द्वितीय के मंदिर) पर मुकुट दिखाया गया। थेब्स के पास किंग की घाटी की नई किंगडम कब्रों में ग्रंथों में वृद्ध व्यक्ति के रूप में आदम को वृद्ध व्यक्ति के रूप में दर्शाया गया है जो दुष्टों की सजा और सूर्य देवता के दुश्मनों की निगरानी करता है।
वह नेदरहॉर्ल्ड में कुछ बुरी ताकतों को भी पीछे हटाना है जैसे साहेप नेहेबु-काऊ और एपीपी (अपोफिस)आदि - आत्म तत्व के विषय कृष्ण की व्याख्याऐं समीचीन और प्राचीनत्तम हैं। आत्मा शाश्वत तत्व है ..श्रीमद्भगवत् गीता तथा कठोपोनिषद कुछ साम्य के साथ यह उद्घोष है _______________________________________________
न जायते म्रियते वा कदाचित् न अयम् भूत्वा भविता वा न भूयः | अजो नित्यः शाश्वतोSयम् पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे || ------------------------------------------------------------------ आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं ।
जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids) कहते थे ।
जो यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ,कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे ।
पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी ... इतिहास कारों की कुछ एैसी ही मान्यताऐं हैं ।
आत्मा के विषय में ही इसी तरह की मान्यता प्राचीन वेल्स और कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं जिन लोगों को वेल्स लोग डरविद और रोमन ड्राइड (ड्रूड्स) कहा था। जो ज्यूडिओं के सहवर्ती द्रुज और भारतीय द्रविड ही थे। यूनानी और रोमन इतिहास कार लिखते हैं, कि ड्रेयड पुरोहित ही आत्मा के अमरत्व और पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे। पश्चिमी एशिया में और यूरोप में भी ... इतिहास कारों के कुछ एसी ही मान्यताएं हैं ------------------------------------------------------------------ अलेक्जेंडर कुरनेलियस पॉलिहाइस्टर के द्वारा ड्रयूडों (Druids) को दार्शनिक के रूप में सन्दर्भित किया जाता है और आत्मा और पुनर्जन्म या मेटाफिकोसिस की अमरता के सिद्धान्तों को "पायथागोरियन" कहा जाता है । ________________________________________________ पथ्यागोरियन सिद्धान्तके अन्तर्गत प्रचलित है कि पुरुषों की आत्माएं अमर हैं , और एक निश्चित वर्ष संख्या के बाद वे एक और नवीन शरीर में प्रवेश करेंगीं " ज्युलियस सीज़र आगे लिखता है, ------------------------------------------------------------------- जूलियस सीज़र, डी बेल्लो ग्लॉलिक, Vl 13 .. _______________________________________________ कि ड्रयूड पुरोहितों की सिद्धान्तों का मुख्य बिंदु है, कि आत्मा मरती नहीं है ।
(आत्मा के बारे में द्रुज़ अथवा द्रविडों का दर्शन) अलेक्जेंडर कर्नेलियस पॉलीफास्टर ने द्रुड्स को दार्शनिकों के रूप में सन्दर्भित किया और आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म या मेटाम्प्सीकोसिस को "पायथागोरस" कहा।
प्राचीन फ्रॉन्स के निवासी "गौल्स (कौल) जन-जाति के बीच पाइथोगोरियन सिद्धान्त प्रचलित हैं कि मानव की आत्माएं अमर हैं, और निश्चित अवधि के बाद वे दूसरे शरीर में प्रवेश करेंगीं।
" सीज़र टिप्पणी: "उनके सिद्धांत का मुख्य बिंदु यह है कि आत्मा मर नहीं जाती है और मृत्यु के बाद यह एक शरीर से दूसरे में गुज़रता है" (देखिए मेटेमस्पर्शिसिस)। सीज़र ने लिखा: है ।
अध्ययन के अपने वास्तविक पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में, सभी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य उनकी राय में, मानव आत्मा की अविनाशिता में दृढ़ विश्वास के साथ अपने विद्वानों को आत्मसात करने के लिए है।
जो उनकी धारणा के अनुसार, केवल मृत्यु से गुजरता है ; जैसे एक मकान दूसरे मकान में; केवल इस तरह के सिद्धान्त द्वारा, वे कहते हैं, जो अपने सभी भयों को विशेषत मृत्यु के भय को रोकता है, मानव स्वभाव के सर्वोच्च रूप को विकसित कर सकता है ।
इस मुख्य सिद्धान्त की शिक्षाओं के लिए सहायक, वे विभिन्न व्याख्यानों और विश्व के भौगोलिक वितरण, प्राकृतिक दर्शन की विभिन्न शाखाओं पर, और धर्म से जुड़े कई समस्याओं पर, विशेषत: खगोल विज्ञान पर चर्चाएं आयोजित करते हैं। - जूलियस सीज़र, डी बेलो गैलिको, ,, Vl 13 देखें--- अंग्रेज़ी मूल रूप -- Alexander Cornelius polihystor--referred to the Druids as philosopher and called their doctrine of the immortality of the Soul and reincarnation or metaphychosis "
Pythagorean " _______________________________________________ The pathyagorean doctrine prevails among the goals teaching that the souls of men are immortal ,
and that After a fixed Number of years they Will enter into Another body " ज्यूलियस सीज़र आगे लिखता है , ------------------------------------------------------------------- Julius Caesar, De Bello Gllic, VI, 13.. _______________________________________________ कि ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों का मुख्य बिन्दु था, कि आत्मा मरती नहीं है ।
( Philosophyof Druids About Soul) Alexander Cornelius Polyhistor referred to the druids as philosophers and called their doctrine of the immortality of the soul and reincarnation or metempsychosis "Pythagorean": "The Pythagorean doctrine prevails among the Gauls' teaching that the souls of men are immortal, and that after a fixed number of years they will enter into another body." Caesar remarks: "The principal point of their doctrine is that the soul does not die and that after death it passes from one body into another" (see metempsychosis).
Caesar wrote: With regard to their actual course of studies, the main object of all education is, in their opinion, to imbue their scholars with a firm belief in the indestructibility of the human soul, which, according to their belief, merely passes at death from one tenement to another; for by such doctrine alone, they say, which robs death of all its terrors, can the highest form of human courage be developed. Subsidiary to the teachings of this main principle, they hold various lectures and discussions on astronomy, on the extent and geographical distribution of the globe, on the different branches of natural philosophy, and on many problems connected with religion. — Julius Caesar, De Bello Gallico, VI, 13 ________________________________________________ इतना ही नहीं पश्चिमीय एशिया में यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ जन-जाति भी एकैश्वरवादी (Monotheistic) और कर्म के आधार पर पुनर्जन्म में विश्वास करते थे ।
ये इब्राहीम परम्पराओं के अनुयायी थे जिसे भारतीय संस्कृति में ब्रह्मा कहा गया है ।
परन्तु ये मुसलमान ,ईसाई और यहूदी होते हुए भी ईश्वर को एक मानते थे । तथा इनका विश्वास था कि पुनर्जन्म होता है ।
और आत्मा दूसरे शरीरे नये शरीरों मे जाती है ऐसी इनकी मान्यताऐं थीं । सीरिया ,इज़राएल ,लेबनान और जॉर्डन में बहुसंख्यक रूप से ये लोग आज भी अपनी मान्यताओं का दृढता से अनुपालन कर रहे हैं तथा इनका मानना है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा एक दूसरे शरीर में प्रवेश करती है ,वह भी जीवन में वर्ष की निश्चित संख्या के अन्तर्गत .. ----------------------------------------------------------------- सम्पूर्ण सृष्टि में जीव की भिन्नता का कारण प्राणी का चित् अथवा मन ही है ।
हमारा चित्त ही हमारी दृष्टि ज्ञान और वाणी का संवाहक है, हमारी चेतना जितनी प्रखर होगी ,हमारा ज्ञान वाणी और दृष्टि उतनी ही उन्नत होगी स्त्री और पुरुष का जो भेद है, वह केवल मन के स्तर पर ही है ।
आत्मा के स्तर पर कदापि नहीं है जन्म-जन्मातरण तक यह मन ही हमारे जीवन का दिशा -निर्देशन करता है । सुषुप्ति ,जाग्रति और स्वप्न ये मन की ही त्रिगुणात्मक अवस्थाऐं हैं , आत्मा की नहीं है प्राणी जीवन का संचालन मन में समायोजित प्रवृत्तियों के द्वारा होता है ।
जैसे कम्प्यूटर का संचालन सी.पी.यू.-(केन्द्रिय प्रक्रिया इकाई) के द्वारा होता है । जिसमें सॉफ्टवेयर इन्सटॉल्ड (installed)होते हैं , उसी प्रकार प्रवृत्तियों के (System Software ) तथा (Application Software )हमारे मन /चित्त के सी. पी.यू. में समायोजित हैं.। जिन्हें हम क्रमश: प्रवृत्ति और स्वभाव कहते हैं । वास्तव में प्रवृत्तियाँ प्राणी की जाति(ज्ञाति)से सम्बद्ध होती हैं । और स्वभाव पूर्व-जन्म के कर्म-गत संस्कारों से होता है , जैसे सभी स्त्री और पुरुषों की प्रवृत्तियाँ तो समान होती परन्तु स्वभाव भिन्न भिन्न जिन्हें हम क्रमश: सिष्टम सॉफ्टवेयर और एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर कह सकते है । जो अंगेजी में स्प्रिट (Spirit) है । पुरानी फ्रेंच भाषा में लैटिन प्रभाव से "espirit" शब्द है जिसका अर्थ होता है --श्वाँस लेना (Breathing) अथवा inspiration----जिसका सम्बन्ध लैटिन क्रिया । Spirare---to breathe से है भाषा वैज्ञानिक इस शब्द का सम्बन्ध भारोपीय धातु स्पस् (s)peis से निर्धारित करते हैं । spirit (v.) 1590s, "to make more active or energetic" (of blood, alcohol, etc.), from spirit (n.). The meaning "carry off or away secretly" (as though by supernatural agency) is first recorded 1660s. Related: Spirited; spiriting. spirit (n.) mid-13c., "animating or vital principle in man and animals, " from Anglo-French spirit, Old French espirit "spirit, soul" (12c., Modern French esprit) and directly from Latin spiritus "a breathing (respiration, and of the wind), breath; breath of a god," hence "inspiration; breath of life," hence "life;" also "disposition, character; high spirit, vigor, courage; pride, arrogance," related to spirare "to breathe," perhaps from PIE (s)peis- "to blow" (source also of Old Church Slavonic pisto "to play on the flute"). But de Vaan says "Possibly an onomatopoeic formation imitating the sound of breathing. There are no direct cognates." _________________________________________________
According to Barnhart and OED, originally in English mainly from passages in Vulgate, where the Latin word translates Greek pneuma and Hebrew ruah. Distinction between "soul" and "spirit" (as "seat of emotions")
became current in Christian terminology (such as Greek psykhe vs. pneuma, Latin anima vs. spiritus) but "is without significance for earlier periods" [Buck]. Latin spiritus, usually in classical Latin "breath," replaces animus in the sense "spirit" in the imperial period and appears in Christian writings as the usual equivalent of Greek pneuma. Spirit-rapping is from 1852 Ifrit 1590 ...
के दशक में "अधिक सक्रिय या ऊर्जावान बनाने के लिए विशेषत: रक्त में उत्तेजना उत्पादक के रूप में शराब, आदि), ता कहीं कहीं आत्मा का अर्थक" (अलौकिक जैवीय प्रतिनिधि के रूप में यद्यपि) पहले 1660 के दशक में दर्ज किया गया था।
समबन्धित अर्थ : उत्साह; spiriting। तथा आत्मा मध्यकाल 13 वीं सदी में , एंजेलो-फ्रांसीसी आत्मा से "मानव और पशुओं में महत्वपूर्ण या विशेष सिद्धांत", पुरानी फ्रांसीसी एस्पिरिट espirit। सॉल और स्प्रिट " (12वीम सदी में ) आधुनिक फ्रेंच एस्प्रिट) और सीधे लैटिन आत्मा से "एक श्वास (श्वसन, और हवा का), सांस; एक देवता की सांस, "इसलिए" प्रेरणा, जीवन की सांस, "इसलिए" जीवन; " कदाचित मूल भारोपीय धातु *(s)peis- "to blow"* "उड़ाने" (पुराने चर्च स्लावोनिक पिस्टो का स्रोत भी खेलने के लिए) "श्वास करने के लिए" spirare "to breathe,"से संबंधित "स्वभाव, चरित्र, उच्च भावना, उत्साह, साहस, अभिमान, अहंकार" बांसुरी पर ") लेकिन डी वान कहते हैं, "हो सकता है कि श्वास लेने की आवाज़ की नकल करने के लिए संभवतः एक अपरम्परागत गठन होता है। ________________________________________________
अर्थ "अलौकिक अथाह प्राणी; दूत, दानव; एक भक्ति, एक हवादार प्रकृति का अदृश्य भौतिक अस्तित्व" मध्य -14 वीं सदी में सत्यापित अर्थ व्यञ्जनाऐं है । 14वीं सदी के अन्त से "भूत" के अर्थ में रूढ़ शब्द। 14 वीं सदी के अंत से ही कीमिया में "वाष्पशील पदार्थ; डिस्टिलेट;" के अर्थ में रूढ़ स्प्रिट ।
तथा 15 वीं सदी में "दार्शनिक के पत्थर के स्थिर और अस्थिर तत्वों को एकजुट करने में सक्षम पदार्थ" के रूप में । इसलिए आत्माओं "वाष्पशील पदार्थ;" भावना 1670 के दशक तक " जोशीली शराब के अर्थ में संकुचित हो गई। यह भावना स्तर (1768) में भी भावना है।
मध्य काल -14 वीं सदी के अर्थ रूपों में "चरित्र, स्वभाव, सोच और भावना के तरीके, मन की स्थिति, मानव इच्छा का स्रोत;" मध्य अंग्रेजी में आत्मा की स्वतंत्रता का मतलब था "पसंद की स्वतंत्रता। 14 वीं सदी के अंत से "दिव्य पदार्थ, दिव्य मन, भगवान;" "मसीह" या उसके दिव्य प्रकृति; "पवित्र आत्मा; दिव्य शक्ति;" "मनुष्य की दिव्य शक्ति का विस्तार; प्रेरणा, एक करिश्माई राज्य, विशेषकर भविष्यवाणी की करिश्माई शक्ति।
इसके अलावा "आवश्यक प्रकृति, आवश्यक गुणवत्ता।
" 1580 से अलंकारिक अर्थों में "एनीमेशन, जीवन शक्ति को ही स्प्रिट कहा जाने लगा ।
बार्नहार्ट और ओईडी के मुताबिक मूल रूप से अंग्रेजी में वल्गेट में अंश हैं, जहां लैटिन शब्द में ग्रीक पनुमा और हिब्रू रूह का अनुवाद है। "सॉल" और स्प्रिट " ("भावनाओं का आसन " के रूप में) ईसाई शब्दावली (जैसे ग्रीक psykhe बनाम pneuma, लैटिन एनिमा बनाम भावनाकार spiritus) के रूप में भेद हो सकता है ।
लेकिन "पहले की अवधि के लिए कोई महत्व नहीं है"।
आमतौर पर शास्त्रीय लैटिन "श्वाँस breath में लैटिन ईसाई को शाही काल में "आत्मा" के रूप में बदलता है ।
और ईसाई लेखन में यूनानी पनुमा pneuma के सामान्य समकक्ष के रूप में प्रकट होता है । आत्मा का वाचक प्रेत शब्द !
हिब्रू बाइबिल तथा क़ुरान शरीफ़ आदि में आत्मा को प्रेत अथवा एफ्रित सम्बोधन दिया गया है।
जो आख्यानों प्राप्त होता है । ifrit एफ्रित ----- अऱघान डिव नामक एक इफ्रित को कवच की छातीमे रखकर हमजा से लाता है समूहिंग जिन्न क्षेत्रीय मध्य पूर्व विवरण है । ________________________________________________
इफ्रिट्स शैतानीय आत्माओं का एक वर्ग है, जो एक डिजिन djinn के रूप में वर्गीकृत किया गया है।
और हत्यारे पर बदला लेने के लिए एक हत्या किए गए पीड़ित व्यक्ति के जीवन-शक्ति (या रक्त) के लिए तैयार की गई मौत की आत्मा होती है।
साधारण जिन्दगी के साथ, एक इफ्रिट या तो एक आस्तिक या अविश्वासी, अच्छा या बुरे हो सकता है।
लेकिन इसे अक्सर दुष्ट, क्रूर और बुराई के रूप में दर्शाया जाता है; एक शक्तिशाली शैतान।
माना जाता है कि अंडरवर्ल्ड या सतह पर उजाड़ हुए स्थानों जैसे कि खण्डहर या गुफाएं मे ये रहते हैं ।
इस्लामिक सूत्रों के मुताबिक, अगर इफ्रित अपने मुंह से उछलते हुए आग उगने से आग लगाने की कोशिश करता है तो वह लोगों को खतरे में डाल सकता है।
लेकिन अगर कोई उसके पास एक (इस्लामिक प्रार्थना) पढ़ता है तो उसे नष्ट किया जा सकता है। लोककथाओं में, वे आमतौर पर मृत्यु के समय मृतक के आकार को, या शैतान की उपस्थिति के बारे में सोचा जाते हैं। ________________________________________________
शब्द-साधन (व्युत्पत्ति-) माखन ने एक कला द्वारा गले लगाया निज़ामी की कविता हम्सा को चित्रण बुखारा, 1648 परम्परागत रूप से, अरब फिलोलॉजिस्ट्स इस शब्द को व्युत्पन्न करने के लिए عفر (afara, "धूल से रगड़ना") का पता लगाते हैं।
कुछ पश्चिमी भाषाविदों, जैसे जोहान जैकब हेस और कार्ल वाल्र्स, इसे मध्य फारसी (फार्रतान) के लिए कहते हैं ! जो आधुनिक फ़ारसी अफ़्रीदीन (बनाने के लिए) इस्लामिक शास्त्र-- __________________________________________
कुरान, सुरा अन-नामल (27: 38-40) में एक प्रेत इफ्रित का उल्लेख है: [सोलोमन] ने कहा, "हे जिन्न की विधानसभा, मेरे पास आने से पहले मेरे पास [शबा की रानी की राजकुमारी को ला ] क्या मेरे सामने लाएगा?" जीन से एक आरती (सशक्त) ने कहा: "मैं तेरे स्थान से उठने से पहले तेरे पास लाऊंगा।
और वास्तव में, मैं वास्तव में मजबूत हूं, और इस काम के लिए भरोसेमंद हूँ। " जिनके पास शास्त्र के बारे में ज्ञान था, उन्होंने कहा: "मैं इसे एक आँख की झिलमिलाहट में लाऊंगा!
" फिर जब सुलैमान ने उसे अपने सामने रखा, तो उसने कहा: "यह मेरे प्रभु की कृपा से है, मुझे यह परीक्षा देने के लिए कि क्या मैं कृतज्ञ हूं या कृतघ्न हूँ! और जो कोई भी आभारी है, वास्तव में, उसका कृतज्ञता उसके लिए है स्वयं; और जो कोई कृतघ्न नहीं है, (वह केवल अपने स्वयं के नुकसान के लिए कृतज्ञ नहीं है)।
निश्चित रूप से, मेरे भगवान अमीर हैं (सभी ज़रूरतों से मुक्त), भरपूर।
" बुखारी से एक हदीस के मुताबिक, एक इफ्रित ने मोहम्मद की प्रार्थनाओं में बाधा डालने का प्रयास किया।
मोहम्मद ने इफ्रित को ज़ोर से मार दिया और उसे एक खम्भे में जकड़ना चाहता था ताकि हर कोई सुबह उसे देख सके।
फिर, उसने सुलैमान के बयान को याद किया और उन्होंने इफ्रित को खारिज कर दिया।
मुहम्मद नाइट जर्नी के बारे में एक बयान के मुताबिक, एक इफ्रिट ने मोहम्मद को एक ज्वलन्त मशाल से पूछा।
उससे छुटकारा पाने के लिए, उसने जिब्राइल से मदद के लिए पूछा:- जीब्राइल ने उसे सिखाया कि कैसे भगवान से शरण लेने के लिए, जहां से (Ifrit )उसे दूर हो।
एक इफ्रित, बैठक इमाम अली, विभिन्न शिया खातों में वर्णित है। शिया समुदाय के अनुसार, इमाम अली अपने अविश्वासी होने के लिए एक इफ्रित के खिलाफ गुस्से में थे।
नतीजतन, उन्होंने जेलों में इफ्रित को बाध्य किया। इफ्रित ने अपनी रिहाई के लिए आदम के बाद सभी नबियों से अपील की लेकिन कोई भी उसे मुक्त करने में सक्षम नहीं था। जब तक मुहम्मद उसे मिल गया और इफ्रित को इमाम अली ने लिया। उन्होंने इस शर्त पर उन्हें मुक्त कर दिया कि वह इस्लाम के लिए अपने विश्वास का दावा करेंगे। अरबी साहित्य से उद्धृत अंश -- एक हजार और एक नाइट्स में, "द पोर्टर एंड द यंग गर्ल्स" नामक एक कहानी में, एक राजकुमार के बारे में एक कथा है । जिसे समुद्री डाकूओं द्वारा हमला किया जाता है और लकड़ी के कारागार के साथ शरण लेता है। राजकुमार जंगल में एक भूमिगत कक्ष ढूंढता है जो एक खूबसूरत औरत के लिए अग्रणी होता है जिसे एक इफ्रित द्वारा अपहरण कर लिया गया है।
______________________________________________ ईश्वर और आत्मा के विषय में बुद्ध के विचार स्पष्ट ही कृष्ण दर्शन के अनुरूप हैं। विशेषत: मज्झ मग्ग ( मध्य मार्ग) महात्मा बुद्ध को उनके अनुयायी ईश्वर में विश्वास न रखने वाला कह कर बुद्ध को नास्तिक मानते हैं।
इस सम्बन्ध में आजकल जो लोग अपने को बौद्धमत का अनुयायी कहते हैं उनमें बहुसंख्या ऐसे लोगों की ही भरमार है ।
जो ईश्वर और आत्मा की सत्ता को अस्वीकार करते हैं एक बड़ी कठिनाई महात्मा बुद्ध के यथार्थ विचार जानने में यह है कि उन्होंने स्वयं कोई ग्रन्थ नहीं लिखा अब दीर्घनिकाय, मज्झिनिकाय, विनयमपिटक आदि जो भी ग्रन्थ महात्मा बुद्ध के नाम से पाये जाते हैं ;उनका संकलन उनके निर्वाण की कई शताब्दियों के पश्चात् किया गया जिनमें से बहुत-सी उक्तियां किंवदन्ती के ही रूप में हैं। अष्टाध्यायी के ‘अस्ति नास्ति दिष्टं मतिं’ इस सुप्रसिद्ध सूत्र के अनुसार जो परलोक और पुनर्जन्म आदि के अस्तित्व को स्वीकार करता है वह आस्तिक है ।
और जो इन्हें नहीं मानता वह नास्तिक कहाता है।
महात्मा बुद्ध परलोक और पुनर्जन्म को मानते थे ।
इससे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता।
इसलिये उन्हें सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण देना अनावश्यक है। प्रथम प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153)
‘अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस।
गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।।’
महात्मा बुद्ध ने कहा है कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा।
गृह निर्माण करने वाले की खोज में बार-बार जन्म दुःखमय हुआ। श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है।
दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है; जहां महात्मा बुद्ध ने अपने लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है।
वहाँ उन्होंने कहा है–भिक्षुओं ! कोई भिक्षु संयम, वीर्य, अध्यवसाय, अप्रमाद और स्थिर चित्त से उस प्रकार की चित्त समाधि को प्राप्त करता है ; जिस समाधि को प्राप्त चित्त में अनेक प्रकार के जैसे कि एक सौ, हजार, लाख, अनेक लाख पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है— “मैं इस नाम का, इस गोत्र का, इस रंग का, इस आहार का, इस प्रकार के सुखों और दुःखों का अनुभव करने वाला और इतनी आयु तक जीनेवाला था। सो मैं वहाँ मरकर वहाँ उत्पन्न हुआ।
वहां भी मैं इस नाम का था।
सो मैं वहां मरकर यहां उत्पन्न हुआ।“ इत्यादि। अगला तीसरा प्रमाण धम्मपद के उपर्युक्त वर्णित श्लोक का अगला श्लोक है जिसमें गृहकारक के रूप में आत्मा का निर्देश किया गया है। श्लोक है- 👇
’गह कारक दिट्ठोऽसि पुन गेहं न काहसि। सब्वा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसंखितं।
विसंखारगतं चित्तं तण्हर्निं खयमज्झागा।।
‘ इस श्लोक के अनुवाद में इसका अर्थ दिया गया है कि हे गृह के निर्माण करनेवाले! मैंने तुम्हें देख लिया है, तुम फिर घर नहीं बना सकते। तुम्हारी कडि़यां सब टूट गईं, गृह का शिखर गिर गया। चित्त संस्कार रहित हो गया, तृष्णाओं का क्षय हो गया।
इस पर टिप्पणी करते हुए पं. धर्मदेव जी कहते हैं कि यह मुक्ति अथवा निर्वाण के योग्य अवस्था का वर्णन है।
जब तक ऐसी अवस्था नहीं हो जाती तब तक जन्म-मरण का चक्र चलता रहता है।
इस प्रकार यह सर्वथा स्पष्ट है कि महात्मा बुद्ध परलोक, पुनर्जन्म आदि में विश्वास करने के कारण आस्तिक थे।
महात्मा बुद्ध के आस्तिक होने से संबंधित अगला प्रश्न यह है कि क्या वह अनीश्वरवादी अर्थात ईश्वर में विश्वास न रखने वाले थे? महात्मा बुद्ध ने जीवन पर्यन्त मन के शुद्धिकरण के लिए तपश्चर्या की यदि ईश्वरीय तथा आत्मीय सत्ता को बुद्ध अस्वीकार करते तो क्या वे नैतिक पाठ अपने शिष्यों के पढ़ाते ? सायद कदापि नहीं यदि आत्मा और परमात्मा का अस्तित्व ही नहीं है , तो क्यों बुद्ध ने सत्याचरण को जीवन का आधार बनाया ?
बुद्ध ने जीवन का स्वरूप इच्छाओं को स्वीकार किया । इच्छा स्वरूप ही संसार और जीवन का कारक है । वस्तुत: प्रेरणा भी एक इच्छात्मक रूप ही है । जो आत्मा का स्वभाव है । संसार ब्रह्म रूपी जल पर इच्छा रूपी लहरें हैं । अन्त में हम अपने भावोद्गारो को इन पक्तियों मे अभिव्यक्त करते हैं । --------------------------------------------------------------------- ये शरीर केवल एक रथ है ।
और रोहि आत्मा जिसमें रथी है ।
इन्द्रियाँ ये बेसलहे घोड़े ।
बुद्धि भटका हुआ सारथी है ।
मन की लगाम बड़ी ढ़ीली ।
घोड़ों की मौहरी कहाँ नथी है ?
लुभावने पथ भोग - लिप्सा के ।
यहाँ मञ्जिलों से पहले दुर्गति है ।। --------------------------------------------------------------------- अर्थात् आध्यात्म बुद्धि के द्वारा ही मन पर नियन्त्रण किया जा सकता है ! मन फिर इन्द्रीयों को नियन्त्रित करेगा , केवल ज्ञान और योग अभ्यास के द्वारा मन नियन्त्रण में होता है ! अन्यथा इसके नियन्त्रण का कोई उपाय नहीं है !!
अध्यात्म वह पुष्प है ,जिनमें ज्ञान और योग के रूप में सुगन्ध और पराग के सदृश्य परस्पर सम्पूरक तत्व हैं । जो जीवन को सुवासित और व्यक्ति को एकाग्र-चित करते हैं । अन्तः करण चतुष्टय के चारों भागों को, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार को, जब सात्विकता के शान्तिमय पथ पर अग्रसर किया जाता है ; तो हमारी चेतना शक्ति का दिन-दिन विकास होता है। यह मानसिक विकास अनेक सफलताओं और सम्पत्तियों का कारक है। मनोबल से बड़ी और कोई सम्पत्ति इस संसार में नहीं है। मनैव मनुष्य: मन ही मनुष्य है; मन ही अनन्त प्राकृतिक शक्तियों का केन्द्र है ।
मानसिक दृष्टि से जो जितना बड़ा है उसी अनुपात से संसार में उसका गौरव होता है ; अन्यथा शरीर की दृष्टि से तो प्रायः सभी मनुष्य लगभग समान होते हैं।
उन्नति के इच्छुकों को अपने अन्तः करण चतुष्टय का विकास करने का पूरा प्रयत्न करना चाहिए। क्योंकि इस विकास में ही साँसारिक और आत्मिक कल्याण सन्निहित है। ________________________________________________ विचार-विश्लेषण --- यादव योगेश कुमार रोहि ग्राम आजा़दपुर पत्रालय पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़ दूरभाष संख्या ---8077160219.. ____________________________________________ ____________________________________________