यादवों के इतिहास के सबसे बड़े विश्लेषक
और अध्येता परम श्रृद्धेय गुरुवर
सुमन्त कुमार यादव के श्री चरणों मे श्रृद्धानवत होते हुए
यह यादवों के पूर्वज व यादव संस्कृति के प्रवर्तक
यदु का पौराणिक विवरण जिज्ञासुओं में प्रेषित है
प्रस्तुति करण :-
यादव योगेश कुमार रोहि
सम्पर्क सूत्र 8077160219...
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संसार में यद्यपि प्राचीनत्तम सामाजिक शासकीय व्यवस्थाऐं
राजतान्त्रिक अवश्य थी परन्तु उनकी आत्मा में प्रजातान्त्रिक ही थी
वैदिक काल में यदु इसके सशक्त पैरोकारन थे
यद्यपि यदु को दो अवतरणों रूपों में पुराणकारों ने स्थापित किया है
ययाति पुत्र यदु बनाम हर्यश्व पुत्र यदु इस प्रकरण से सम्बद्ध है
इस पर कुछ विश्लेषण प्रस्तुत है !
नाम से यादवों के आदि पुरुष यदु को दो अवतरणों में स्थापित करने की चेष्टा की
जो यदु इतिहास की पूर्णता से अनभिज्ञ ही थे |
यह सत्य है कि यादवों का इतिहास किस प्रकार विकृत हुआ उसे सहजता से नहीं जाना जा सकता है ।
दीर्घ काल से द्वेषवादी विकृतीकरण की दशा में पीढी दर पीढ़ी सक्रिय रहे
विश्व इतिहास में यदु द्वारा स्थापित संस्कृति तत्कालीन राजतन्त्र और वर्ण-व्यवस्था मूलक सामाजिक ढाँचे से पूर्णत: पृथक (अलग) लोकतन्त्र और वर्ण व्यवस्था रहित ही थी कृष्ण ने सारथी (सूत ) की भूमिका से शूद्र वर्ण का गोपालन से वैश्य वर्ण का परन्तु नारायणी सेना में भी गोप रूप में क्षत्रिय वर्ण का पालन किया
और श्रीमद् भगवद् गीता के उपदेशक रूप में ब्राह्मण वर्ण की भूमिका का निर्वहन किया ...
यदु की व्यवस्था समाजवाद मूलक और वन संरक्षण व चरावाह परक कृषि संस्कृति मूलक थी |
क्यों कि यदु ने अपने पिता के विपरीत लोक तन्त्र को स्थापन किया जिसे रूढ़िवादियों ने ययाति का शाप का रूप देकर
परिहार करने की निरर्थक चेष्टा की
जो कि पुराणों में इस रूपण में है ..
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स एवमुक्तो यदुना राजा कोपसमन्वित:।
उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर्गर्हयन् सुतम्।२७।
•-यदु के ऐसा कहने पर ( अर्थात् यदु के द्वारा पिता को युवा अवस्था न देने पर) वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा ययाति कुपित हो उठे और अपने उस पुत्र की निन्दा करते हुए बोले –।२७।
क आश्रयस्तवान्यो८स्ति को वा धर्मो विधीयते ।
मामनादृत्य दुर्बुद्धे तदहं तव देशिक: ।।२८।
•-दुर्बुद्धे ! मेरा अनादर करके तेरा दूसरा कौन सा आश्रय है ? अथवा तू किस धर्म का पालन कर रहा है।
मैं तो तेरा गुरु हूँ ( फिर भी मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है ।२८।
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एवमुक्त्वा यदुं तात शशापैनं स मन्युमान्।
अराज्या ते प्रजा मूढ भवित्रीति नराधम ।।२९।
•-तात ! अपने पुत्र यदु से ऐसा कहकर कुपित हुए राजा ययाति 'ने उसे शाप दिया– मूढ ! नराधम तेरी सन्तानें सदा राज्य से वञ्चित रहेगी ।।२९।
अधिकतर पुराणों में ययाति द्वारा यदु को दिए गये शाप का वर्णन है ।
पहले तो ययाति का यह प्रस्ताव ही अनुचित था ।
क्यों कि शाप भी वही दे सकता है
जो पीड़ित है और उसकेे द्वारा शाप उसी को दिया जा सकता है
जो वस्तुत: पीड़क है !
परन्तु मिथकों में इस सिद्धान्त की भी हवा निकाल दी ..
जब ययाति का यौवन विनिमय -प्रस्ताव ही पूर्णत: अनैतिक था |
कि यदु में अपना यौवन देकर वृद्धाावस्था लेना इस लिए अस्वीकार किया क्योंकि मेरे यौवन से आप माता के साथ साहचर्य करोगे ।
जो मेरे लिए यह पाप तुल्य ही हैै ।
क्यों आप मेरे यौवन से माता का उपभोग करोगे
वस्तुत: शाप का प्रकरण एक मनगडन्त सिद्धान्ततों के विरुद्ध ही है |
कालान्तरण में यदुवंशीयों 'ने राजा की व्यवस्था को बदलकर लोक तन्त्र की स्थापना की ...
कभी से वर्ण व्यवस्था आदि ब्राह्मणीय अव्यवस्थाओं को यादवों ने स्वीकार ही नहीं किया।
ये आभीर रूप में इतिहास में उदित हुए ...
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हरिवशं पुराण'हरिवंश पर्व तीसवाँ अध्याय गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण पृष्ठ संख्या १४५
गाय का चारण और वनविहारण और दुर्व्यवस्थाओं के पोषकों से निर्भीकता से रण इनके वंशजों के संकल्प में समाहित थे ..
यदु का इतिहास यद्यपि इजराएल से लेकर सुमेर ( मैसोपाटामिया) तक न सीमित होकर भारतीय देव संस्कृति के अनुयायीयों के ग्रन्थो में भी आयात हुआ है ...
हिब्रु बाइबिल के जैनेसिस खण्ड में
अबीर शब्द ईश्वर का वाचक है
वैदिक यदु को बाइबिल में वर्णित यहुदह् के रूप में वर्णित किया यहुदह् के पिता याकूव जिसे भारतीय पुराणों में ययाति कहा है बाइबिल में
याकूव को अबीर कहा गया है !
परन्तु कालान्तरण में यहूदीयों का एक लडाकू कबीला ही अबीर हुआ ..
भारतीय सन्दर्भ ये ही आभीर (अहीर ) हैं ...
यादवों ने कभी वर्ण -व्यवस्था को नहीं माना ।
कारण वह राजतंत्र की व्यवस्था का अंग थी
और ये किसी के द्वारा परास्त नहीं हुए ।
क्योंकि इनकी गोपों'की नारायणी सेना अजेय थी ।उन्हे
इसी नवीन भागवत धर्म की अवधारणा का भी जन्म हुआ था ।
इसलिए ब्राह्मणों ने द्वेष वश अहीरों या यादवों को शूद्र वर्ण में निर्धारित करने की असफल चेष्टा की ।
ब्राह्मण अहीरों को इसलिए शूद्र मानते हैं ।
क्योंकि उनका वर्चस्व तत्कालीन पुरोहितों से अधिक था ।
द्वेष वश उन्होंने उनका वर्चस्व समाप्त करने के विधान बनाए ।
और उन्हें शूद्र मान लिया ताकि उनका वर्चस्व ही मिट जाय
वस्तुत --जो जन-जाति वर्ण व्यवस्था को ही खारिज करती हो उसे आप न तो क्षत्रिय मान सकते हैं और नाही शूद्र ।
क्योंकि पुराणों से भी प्राचीन वेद हैं ;और उनमें भी ऋग्वेद सबसे प्राचीन है ।
जिसमे यदु और और तुर्वसु का समानान्तरण गोप अथवा गोपालकों के रूप में वर्णन है ...
पुराणों का लेखन भी वेदों को उपजीवि( श्रोत) मान कर किया गया है।
और सारे पुराण परछाँईं के समान
वेदों के ही अनुगामी हैं।
---जो बात वेद में है ;
उसी का विस्तार पुराणों में है।
अत: यदु तथा उनके वंशज कृष्ण का वर्णन भी ऋग्वेद में है ।
'परन्तु इन्द्र उपासक पुरोहितों ने इन्द्र से यदु और तुर्वशु को अपने वश में या अधीन करने लिए ही प्रार्थना की हैं ।
'परन्तु फिर भी वह कभी उन्हें अपने वश में नही कर पाए
इतनी सायद इतनी सामर्थ्य तो इन्द्र की भी नहीं थी ।
विदित हो कि वेदों में यदु और उनके वंशज कृष्ण को दास अथवा शूद्र अथवा असुर (अदेव) आदि इन समानार्थक विशेषणों से भी ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में सम्बोधित किया गया है ।
और यमुना की तलहटी में चरावाहे रूप में इन्द्र से कृष्ण का युद्ध भी हुआ यह भी वर्णन है ।
सर्व-प्रथम हम ऋग्वेद में यादवों के पूर्वज यदु का वर्णन करते हैं ।
जब यदु को ही वेदों में दास कहा है ।
तो फिर जब दास शब्द का दाता और दानी से पतित होते हुए गुलाम अर्थ हुआ तो शूद्रों को दास विशेषण का अधिकारी बना दिया
परन्तु यह शब्द ईरानी भाषाओं में "दाह" शब्द के रूप में उच्च अर्थों का ही द्योतक है !
'परन्तु यह सब द्वेष की पराकाष्ठा या चरम-सीमा ही है ।
किक अर्थ का अनर्थ कर कर दिया जाय...
यादव उस समय कहीं अबीर तो कहीं अवर तथा कहीं अफर के रूप में सम्पूर्ण एशिया में महान जन-जाति थी ।
हम आपको बता चुके हैं कि दास शब्द वेदों में उन अर्थों में नहीं जिन अर्थों में लौकिक या आज के साहित्य में है ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में , यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है ।
वह भी गोपों को रूप में
तो यदुवंशी कब से क्षत्रिय हो गये ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत यह विषय भी विचारणीय है '
परन्तु अपनी वीरता और पराक्रम के लिए ये किसी भी क्षत्रिय से बहुत ऊँचे हैं।
ऋग्वेद में यदु को विषय में लिखा है कि
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है;
गो-पालक ही गोप होते हैं मह् धातु का क्रिया रूप आत्मने पदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप में वर्णित है।
वैदिक सन्दर्भों में मह् धातु का अधिकतर अर्थ वर्णन करना अथवा कहना ही है।
प्रशंसा करना अर्थ लौकिक संस्कृत में रूढ़ हो गया है।
क्योंकि कि देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है।
दास शब्द का यहांँ उच्चतम अर्थ दाता अथवा उदार भी है
इसी लिए प्रशंसा करने में मामहे आत्मनेपदीय क्रिया पद लट्लकार वर्तमान काल उत्तम पुरुष बहुवचन में प्रयुक्त है
गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करनेो वाला ।
अथवा गो परिणसा गायों से घिरा हुआ ।
वेदों में बहुतायत रूप में यदु और तुर्वशु को वश में करने की प्रार्थना पुरोहित इन्द्र से करते हैं ।
जिनको हम प्रकरण के अनुरूप उद्धृत करेंगे 👇
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यद्यपि कृष्ण और पाण्डवों के प्रतिद्वन्द्वीयों में समाहित रहे जरासन्ध, और दमघोष आदि राजा एक ही कुल हैहयवंश के यादव थे '
परन्तु उन्हें यादव कहकर पुराणकारों द्वारा कितनी बार सम्बोधित किया गया ?
सायद नहीं के बरावर ...
इसी श्रृंखला में प्रस्तुत है हरिवंशपुराण से यह विश्लेषण ...
और किस प्रकार कालान्तरण में परवर्ती पुराण कारों 'ने यदु को ही एक रहस्यमय विधि से सूर्य वंश में घसीटने की भी कोशिश की ...
दरअसल भारतीय पुरोहित वर्ग 'ने यदु की कथाऐं सैमेटिक जनजातियों यहूदियों और असीरीयों से ग्रहण की और श्रुत्यान्तरण से उसमें व्युत्क्रम होना स्वाभाविक ही था।
विदित हो की यहूदी और असीरीयों ( असुर) दौनों' जनजातियाँ ही सैमेटिक लोग थे ।
जिन्हें भारतीय पुराणों ने सोमवंश कहा ..
'परन्तु जब ईसा० पूर्व की सदीयों में भारतीय मिथकों में यदु और तुर्वशु की कथाऐं समाविष्ट हुईं ।
तो पूर्वाग्रह 'ने कथाओं का स्वरूप ही बदल दिया।
हरिवंशपुराण हो या भागवत पुराण सभी में एक कृत्रिम विधि से कुछ बातें जोड़ी और तोड़ी गयी तो परिणाम स्वरूप विरोधाभास और एक क्षेपक उत्पन्न होने लगा ।
किस प्रकार यादवों के आदि पुरुष यदु के वंशजों को ही एक शाखा को यादव तो दूसरी को भोज तीसरी को अन्धक तो चौथी को वृष्णि भी कहा गया 'परन्तु थे सभी यादव ही 'परन्तु भोज या अन्धक या भैम को क्यों यादव नहीं कहा गया ?
'परन्तु आभीर जो यदु के पूर्वजों ययाति की भी उपाधि थी वह भी प्रवृत्ति मूलक विशेषण रूप में जो कालान्तरण में गोप अर्थ में समाहित हो गयी ।
आभीर यादवों का भी विशेषण रहा
जबकि ये भी यदु के वंशजों में सुमार थे ।🌸
यादव शब्द ही कालान्तरण में केवल कुछ यदुवंशीयों के लिए रूढ़ हो गया था क्या ? जैसा कि निम्नलिखित श्लोक में भी यादव अलग से कुल बताया गया है ।
जो मूर्खता पूर्ण है ।
जिसके विषय में हमने पूर्व संकेत किया ।👇
यह भविष्य वाणी नागराज धूम्रवर्ण करता है जो हर्यश्व पुत्र यदु को अपनी पाँच कन्याऐं पत्नी रूप देता है।
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 66-70 संस्कृत श्लोक ...
स तस्मै धूम्रवर्णो वै कन्या: कन्याव्रते स्थिता:।
जलपूर्णेन योगेन ददाविन्द्रवसमाय वै।।66।।
वरं चास्मै ददौ प्रीत: स वै पन्नगपुंगव:।
श्रावयन् कन्यका: सर्वा यथाक्रममदीनवत्।।67।।
एतासु ते सुता: पंच सुतासु मम मानद।
उत्पस्यन्ते पितुस्तेजो मातुश्चैव समाश्रिता:।।68।।
अस्मत्समयबद्धाश्च सलिलाभ्यन्तरेचरा:।
तव वंशे भविष्यन्ति पार्थिवा: कामरूपिण:।।69।।
स वरं कन्यकाश्चैव लब्ध्वा यदुवरस्तदा।
उदतिष्ठत वेगेन सलिलाच्चन्द्रमा इव।।70।।
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भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव: दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।।६५।
अर्थ:- जैसे कुक्कुर, भोज, अन्धक ,दाशार्ह ,भैम, यादव, और वृष्णि नाम सात वंश वाले शाखा में प्रसिद्ध होंगे
हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीस वाँ अध्याय
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अब हद तो तब हो गयी जब यदु को सैमेटिक या सोमवंश से हाइजैक कर हैम या सूर्य वंश में स्थापित करने की दुष्चेष्टा की गयी
दरअसल भारतीय पुराणों में यदु के विषय में जो कथाऐं आलेखित की गयीं वे यहूदियों के आख्यानकों से ली गयीं हैं !
ऋग्वेद में उद्गाता पुरोहित यदु और तुर्वशु को परास्त करने के लिए इन्द्र से प्रार्थना करते हैं ।
इस बात को भी कम 'लोग'जानते हैं ।
क्योंकि जो यहूदियों के आख्यानकों में इश्हाक है वही पात्र पुराणों में इक्ष्वाकु है ।
कहीं सैमेटिक तो कहीं हैमेटिक रूप में इसे माना गया
भारतीय पुराणों में भी सोम का रूपान्तरण चन्द्र में कर के चन्द्र वंश की कल्पना कर ली गयी ।
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जैसे हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सप्तत्रिंशो८ध्याय:
में वर्णित है कि वैवस्वत मनु के वश में इक्ष्वाकु के पुत्र हर्यश्व राजा हुए ।
जो प्रजा का रञ्जन करते थे इसी राजा कहलाये ।
मधु असुर की पुत्री मधुवती ये हर्यश्व का विवाह हुआ ।
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एक दिन हर्यश्व के बड़े भाई 'ने उसे राज्य से निकाल दिया तब हर्यश्व 'ने अयोध्या छोड़ दी ।
तब मधुमती हर्यश्व को मधुवन ले गयी यही मधपुरी भी था
मधु असुर 'ने केवल मधुवन को छोड़कर अपना सारा राज्य अपने जामाता हर्यश्व को दे दिया ।
लवण मधु का पुत्र भी हर्यश्व का सहायक बना ।
यह मधुवन गौंओं से सम्पन्न और लक्ष्मी से सेवित है यहांँ आभीर या गोप जाति ही बहुतायत से रहती था ।
इस प्रकार का वर्णन भी हरिवंशपुराण में है ।
देखें निम्नलिखित श्लोक इस विषय में तथा हिन्दी अनुवाद विस्तृत रूप में
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हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 16-20 में हर्यश्व और मधुमती के विषय में वर्णित है 👇
सा तमिक्ष्वांकुशार्दूलं कामयामास कामिनी।
स कदाचिन्नरश्रेष्ठो भ्रात्रा ज्येष्ठे्न माधव।।16।।
राज्यान्निरस्तो विश्वस्त: सोऽयोध्यां सम्परित्यजत्।
स तदाल्पपरीवार: प्रियया सहितो वने।।17।।
रेमे समेत्य कालज्ञ: प्रियया कमलेक्षण:।
भ्रात्रा विनिष्कृतं राज्यात् प्रोवाच कमलेक्षणा।।18।।
एह्यागच्छ नरश्रेष्ठ त्यज राज्यकृतां स्पृहाम्।
गच्छाव: सहितौ वीर मधोर्मम पितुर्गृहम्।।19।।
रम्यं मधुवनं नाम कामपुष्पफलद्रुमम्।
सहितौ तत्र रंस्यावो यथा दिवि गतौ तथा।।20।।
वह कामिनी होकर इक्ष्वाकु वंश के श्रेष्ठ वीर हर्यश्व को सम्पूर्ण से हृदय चाहती थी।
माधव! एक दिन बड़े भाई ने उनके विश्वास पर रहने वाले नरश्रेष्ठ हर्यश्व को राज्य से निकाल दिया,
तब उन्होंने अयोध्या छोड़ दी और थोड़े से परिवार के साथ अपने प्रिया मधुमती सहित वे वन में रहने लगे काल की महिमा को जानने वाले कमलनयन हर्यश्व अपनी प्यारी पत्नी के साथ मिलकर वहाँ बड़े आनन्द से समय बिताने लगे।
एक दिन कमलनयनी मधुमती ने भाई द्वारा राज्य से निकाले गये पति से कहा- ‘नरश्रेष्ठ वीर! अयोध्या के राज्य की अभिलाषा छोड़ दो और आओ मेरे साथ चलो।
हम दोनों मेरे पिता मधु के घर चलें सुरम्य मधुवन नामक वन ही मेरे पिता का निवास स्थान है।
वहाँ के वृक्ष इच्छानुसार फूल और फल देने वाले हैं।
वहाँ हम दोनों साथ रहकर स्वर्गवासियों के सामने मौज करेंगे।'
पृथ्वीनाथ! मेरे पिता और माता दोनों को ही तुम बहुत प्रिय हो और मेरा प्रिय करने के लिये मेरा भाई लवणासुर भी तुम्हें अत्यन्त प्रिय मानेगा।
नरश्रेष्ठ! वहाँ जाकर हम दोनों साथ-साथ रहकर राज्य पर बैठे हुए दम्पत्तियों की भाँति इच्छानुरूप वस्तुओं का उपभोग करते हुए रमण करेंगे।
जैसे देवपुरी के नन्दवन में देवांगना और देवता विहार करते हैं, उसी प्रकार वहाँ हम दोनों विहार करेंगे।
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हर्यश्व को राज्य देकर मधु तप करने वन में चला गया। ययाति पुत्र महाराज यदु योगबल से पुन: मधुमती के गर्भ में आए।
इनके वंश में ही मथुरा के सभी यादव हैं।
जो आभीर रूप में पहले रहते हैं ।
प्राचीन प्रतियों में गोपों अथवा यादवों का विशेषण ही अधिकतर था परन्तु पुराणों के प्रकाशन के समय आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द आरोपित किया गया है
यादवों को गो पालक होनो से ही गोप कहा गया है | भागवत पुराण के दशम स्कन्ध के अध्याय प्रथम के श्लोक संख्या बासठ ( 10/1/62) पर वर्णित है|
ये आभीर या गोप यादवों की शाखा नन्द बाबा आदि के लिए भी गर्गसंहिता , पद्म पुराण आदि ग्रन्थों में भी अवशिष्ट रह गया है !
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नन्दाद्या ये व्रजे गोपा याश्चामीषां च योषितः ।
वृष्णयो वसुदेवाद्या देवक्याद्या यदुस्त्रियः ॥ ६२ ॥
●☆• नन्द आदि यदुवंशीयों की वृष्णि की शाखा के व्रज में रहने वाले गोप और उनकी देवकी आदि स्त्रीयाँ |62|
सर्वे वै देवताप्राया उभयोरपि भारत |
ज्ञातयो बन्धुसुहृदो ये च कंसमनुव्ररता:।63||
हे भरत के वंशज जनमेजय !
ये सब यदुवंशी नन्द आदि गोप दौनों ही नन्द और वसुदेव सजातीय (सगे-सम्बन्धी)भाई और परस्पर सुहृदय (मित्र) हैं ! जो तुम्हारे सेवा में हैं| 63||
( गोरखपुर गीताप्रेस संस्करण पृष्ठ संख्या 109).. ___________________
गर्गसंहिता में भी नीचे देखेें कि अहीरों या गोपों को यादव कहा है तं द्वारकेशं पश्यन्ति मनुजा ये कलौ युगे ।
सर्वे कृतार्थतां यान्ति तत्र गत्वा नृपेश्वर:| 40||
य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोक आरोहणं हरे: |
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्व पापै: प्रमुच्यते |
अन्वयार्थ ● हे राजन् (नृपेश्वर)जो (ये) मनुष्य (मनुजा) कलियुग में (कलौयुगे ) वहाँ जाकर ( गत्वा) उन द्वारकेश को (तं द्वारकेशं) कृष्ण को देखते हैं (पश्यन्ति) वे सभी कृतार्थों को प्राप्त होते हैं (सर्वे कृतार्थतां यान्ति)।40।।
य: श्रृणोति चरित्रं वै गोलोक आरोहणं हरे: |
मुक्तिं यदुनां गोपानां सर्व पापै: प्रमुच्यते | 41||
अन्वयार्थ ● जो (य:) हरि के (हरे: ) 🍒● यादव गोपों के (यदुनां गोपानां )गोलोक गमन (गोलोकारोहणं ) चरित्र को (चरित्रं ) निश्चय ही (वै ) सुनता है (श्रृणोति ) वह मुक्ति को पाकर (मुक्तिं गत्वा) सभी पापों से (सर्व पापै: ) मुक्त होता है ( प्रमुच्यते ) इति श्रीगर्गसंहितायाम् अश्वमेधखण्डे राधाकृष्णयोर्गोलोकरोहणं नाम षष्टितमो८ध्याय |
( इस प्रकार गर्गसंहिता में अश्वमेधखण्ड का राधाकृष्णगोलोक आरोहणं नामक साठवाँ अध्याय ) | श्रीश्री राधाकृष्णगणोद्देश्य दीपिका " रचियता श्रीश्रीलरूपगोस्वामी 👇
ने भी अहीरों को यादव और गोप कहा जैसा कि राधा जी के सन्दर्भ में है ⬇ _____________________________________ आभीरसुतां (सुभ्रुवां) श्रेष्ठा राधा वृन्दावनेश्वरी |
अस्या : शख्यश्च ललिता विशाखाद्या: सुविश्रुता:|83 |।
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अहीरों की कन्यायों में राधा श्रेष्ठा है ; जो वृन्दावन की स्वामिनी है और ललिता , विशाखा आदि जिसकी सखीयाँ हैं |83||
उद्धरण ग्रन्थ "श्रीश्री राधाकृष्ण गणोद्देश्य दीपिका " रचियता श्रीश्रीलरूप गोस्वामी ___________________________________ आभीरस्यापि नन्दस्य पूर्वपुत्र: प्रकीर्तित:।
वसुदेवो मन्यते तं मत्पुत्रोऽयं गतत्रप: ।१४। ____________________________
कृष्ण वास्तव में नन्द अहीर का पुत्र है ।
उसे वसुदेव ने वरबस अपना पुत्र माने लिया है उसे इस बात पर तनिक भी लाज ( त्रप) नहीं आती है ।१४।।
(गर्ग संहिता उद्धव शिशुपालसंवाद विश्वजित खण्ड सप्तम अध्याय ) ___________________________________
रूप गोस्वामी ने अपने मित्र श्री सनातन गोस्वामी के आग्रह पर कृष्ण और श्री राधा जी के भाव मयी आख्यानकों का पुराणों से संग्रह किया श्रीश्री राधा कृष्णगणोद्देश्यदीपिका के नाम से ...
परन्तु लेखक ने एक स्थान पर लिखा .
"ते कृष्णस्य परीवारा ये जना: व्रजवासिन: ।
पशुपालस्तथा विप्रा बहिष्ठाश्चेति ते त्रिथा। ६।।
भाषानुवाद– व्रजवासी जन ही कृष्ण का परिवार हैं ; उनका यह परिवार पशुपाल, विप्र, तथा बहिष्ठ ( शिल्पकार) रूप से तीन प्रकार का है ।६।।
पशुपालस्त्रिधा वैश्या आभीरा गुर्जरास्तथा ।
गोप वल्लभ पर्याया यदुवंश समुद्भवा : ।।७।।
भाषानुवाद – पशुपाल भी वणिक , अहीर और गुर्जर भेद से तीन प्रकार के हैं । इन तीनों का उत्पत्ति यदुवंश से हुई है । तथा ये सभी गोप और वल्लभ जैसे समानार्थक नामों से जाने जाते हैं ।७।।
प्रायो गोवृत्तयो मुख्या वैश्या इति समीरिता: । अन्ये८नुलोमजा: केचिद् आभीरा इति विश्रुता:।।८।
भषानुवाद– वैश्य प्राय: गोपालन के द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते है । और आभीर तथा गुर्जरों से श्रेष्ठ माने जाते हैं । अनुलोम जात ( उच्च वर्ण के पिता और निम्न वर्ण की माता द्वारा उत्पन्न ) वैश्यों को आभीर नाम से जाना जाता है ।८।।
आचाराधेन तत्साम्यादाभीराश्च स्मृता इमे ।।
आभीरा: शूद्रजातीया गोमहिषादि वृत्तय: ।।
घोषादि शब्द पर्याया: पूर्वतो न्यूनतां गता: ।।९।।
भाषानुवाद–आचरण में आभीर भी वैश्यों के समान जाने जाते हैं । ये शूद्रजातीया हो जाते हैं ।
तथा गाय भैस के पालन द्वारा अपना जीवन निर्वाह करते हैं । इन्हें घोष भी कहा जाता है ये पूर्व कथित वैश्यों से कुछ हीन माने जाते हैं ।९।।
किञ्चिद् अभीर तो न्यूनाश्च छागादि पशुवृत्तय:।
गोष्ठप्रान्त कृतावासा: पुष्टांगा गुर्जरा: स्मृता :।।१०।
भाषानुवाद – अहीरों से कुछ हीन बकरी आदि पशुओं को पालन करने वाले तथा गोष्ठ की सीमा पर वास करने वाले गोप ही गुर्जर कहलाते हैं ये भी प्राय हृष्ट-पुष्टांग वाले होते हैं ।१०।
वास्तव में उपर्युक्त रूप में वर्णित तथ्य की अहीर और गुर्जर यदुवंश से उत्पन्न होकर भी वैश्य और शूद्र हैं । गोपालन करने से ये गोपालन से ही वैश्य होने के तथ्य शास्त्र सम्मत व युक्ति- युक्त नहीं हैं क्यों कि पद्मपुराण सृष्टि खण्ड तथा अग्निपुराण और इसी के रूप नान्दी -उपपुराण आदि में वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या बताया हैं जिसे गूजर और अहीर दौनों समान रूप से अपनी कुल देवी मानते हैं ।
वह गायत्री वैश्य या शूद्रा क्यों नहीं हुईं ?
जिस गायत्री मन्त्र के वाचन से ब्राह्मण स्वयं को तथा दूसरों को पवित्र और ज्ञानवान बनाने का अनुष्ठान करता है वह गायत्री एक अहीर नरेन्द्र सेन की कन्या है ।
गायत्री वेदों की अधिष्ठात्री देवता है जब शास्त्रों में ये बात है तो फिर अहीर तो ब्राह्मणों के भी पूज्य हैं फिर षड्यन्त्र के तहत किस प्रकार अहीर शूद्र और वैश्य हुए ।
वास्तव में जिन तथ्यों का अस्तित्व नहीं हो तो उनको उद्धृत करना भी महा मूढ़ता ही है ।
इस लिए अहीर यादव या गोप आदि विशेषणों से नामित यादव कभी शूद्र नहीं हो सकते हैं और यदि इन्हें किसी पुरोहित या ब्राह्मण का संरक्षक या सेवक माना जाए तो भी युक्ति- युक्त बात नहीं है
क्यों कि ज्वाला प्रसाद मिश्र अपने ग्रन्थ जाति- भाष्कर में आभीरों को ब्राह्मण लिखते हैं ।
परन्तु नारायणी सेना के यौद्धा आभीर या गोप जो अर्जुन जैसे महारथी यौद्धा को क्षण-भर में परास्त कर देते हैं । क्या ये शूद्र या वैश्य माने जाऐंगे ?
सम्पूर्ण विश्व की माता गो को पालन करने वाले वाले वैश्य या शूद्र माने जाऐंगे ?
किस मूर्ख ने ये विधान बनाया ? हम इस आधार हीन बातों और विधानों को सिरे से खारिज करते हैं ।
इसी लिए यादवों ने वर्ण व्यवस्था को खण्डित किया और षड्यन्त्र कारी पुरोहितों को दण्डित भी किया ।
यादव भागवत धर्म का स्थापन करने वाले थे ।
जहाँ सारे कर्म -काण्ड और वर्ण व्यवस्था आदि का कोई महत्व व मान्यता नहीं थी ।
___________________________________
हरिवंश पुराण में वर्णन है कि महाराज यदु एक बार अपनी पत्नियों सहित समुद्र स्नान करने गए।
वहाँ सर्पराज धूम्रवर्ण उन्हें खींच कर नाग लोक ले गए और अपनी पाँच कन्याएं उन्होंने विवाह दीं।
ये पाँचों प्रसिद्ध महाराज यौवनाश्व की बहन की संतति भानजी थीं।
नाग राज ने साथ ही वरदान दिया–तुमसे सात कुल चलेंगे।
ये वंश भैम, कुक्कुर, भोज, अन्धक, यादव, दाशार्ह और वृष्णि रूप में होगा ।
नाग लोक में विवाह करके महाराज यदु अपनी नवीन पत्नियों के साथ पृथ्वी पर आए।
उन नाग कन्याओं से पाँच पुत्र हुए– मुचुकुन्द, पद्मवर्ण, माधव, सारस और हरित।
ये बड़े हुए तो इन्हें पिता ने आज्ञा दी–मुचुकुन्द को विन्ध्य एवं ऋक्षवान पर्वतों के निकट दो नगर बसाना चाहिए।
पद्मवर्ण दक्षिण भारत में सह्य पर्वत पर अपनी राजधानी बनाए।
पश्चिम भारत में सारस अपना राज्य स्थापित करे।
हरित को समुद्र के भीतर जाकर अपने नाना नागराज धूम्रवर्ण के नगर का पालन करना चाहिए।
________
माधव ज्येष्ठ है, अत: युवराज होकर इस राज्य का पालन करेगा।
पिता की आज्ञा से मुचुकुन्द ने नर्मदा तट पर महिष्मतीपुरी और ऋक्षवान पर्वत के समीप पुरिका नामक पुरी बसाई।
पद्मवर्ण ने दक्षिण में वैणा के तट पर पूरे राज्य को ही परकोटे से घेर दिया।
इस पद्मावत राज्य की राजधानी करवीरपुर हुई।
सारस ने वैणा के दक्षिण तट पर क्रोञ्चपुर बसाया।
युवराज माधव के पुत्र हुए सत्त्वत।
इनके पुत्र भीम।
इसके आगे यह वंश भैम या सात्त्वत कहा जाने लगा।
त्रेता में जब अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम राज सिंहासन पर थे, तब आनर्तनरेश भीम थे।
उसी समय श्री राम के छोटे भाई शत्रुघ्न कुमार ने लवणासुर को मार कर मधुपुरी बसाई।
'परन्तु भागवत पुराण में यदु के पिता ययाति ही है और यदु के पुत्र चार थे सहस्रजित् ,क्रोष्टा ,नल , और रिपु
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृति: ।
यदो: सहस्रजित् क्रोष्टा नलो रिपु: इति श्रुता : ।।२०।
चत्वार: सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मज: ।
महाहयो वेणुहयो हैहयेश्चेति तत्सुता: ।२१।
भागवत पुराण नवम स्कन्द अध्याय चौबीस( पृष्ठ संख्या ९३...गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
इस वंश में स्वयं भगवान् पर ब्रह्म श्रीकृष्ण 'ने नर रूप में अवतार लिया था - यदु के चार पुत्र थे सहस्रजित् ,क्रोष्टा ,नल , और रिपु
सहस्रजित् से शतजित् का जन्म हुआ - शतजित् के तीन' पुत्र उत्पन्न हुए -महाहय, वेणुहय और हैहय ।।२०-२१।।
हरिवंश पुराण में
अब 'हरि वंश पुराण में यदु के पाँच पुत्र हैं ।
नाग लोक में विवाह करके महाराज यदु अपनी नवीन पत्नियों के साथ पृथ्वी पर आए। उन नाग कन्याओं से पाँच पुत्र हुए–
मुचुकुन्द, पद्मवर्ण, माधव, सारस और हरित।
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ये बड़े हुए तो इन्हें पिता ने आज्ञा दी–मुचुकुन्द को विन्ध्य एवं ऋक्षवान पर्वतों के निकट दो नगर बसाना चाहिए।
पद्मवर्ण दक्षिण भारत में सह्य पर्वत पर अपनी राजधानी बनाए।
पश्चिम भारत में सारस अपना राज्य स्थापित करे।
हरित को समुद्र के भीतर जाकर अपने नाना नागराज धूम्रवर्ण के नगर का पालन करना चाहिए।
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माधव ज्येष्ठ है, अत: युवराज होकर इस राज्य का पालन करेगा।
पिता की आज्ञा से मुचुकुन्द ने नर्मदा तट पर महिष्मतीपुरी और ऋक्षवान पर्वत के समीप पुरिका नामक पुरी बसाई।
पद्मवर्ण ने दक्षिण में वैणा के तट पर पूरे राज्य को ही परकोटे से घेर दिया।
इस पद्मावत राज्य की राजधानी करवीरपुर हुई।
सारस ने वैणा के दक्षिण तट पर क्रोञ्चपुर बसाया।
युवराज माधव के पुत्र हुए सत्त्वत।
इनके पुत्र भीम।
इसके आगे यह वंश भैम या सात्त्वत कहा जाने लगा।
त्रेता में जब अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम राज सिंहासन पर थे, तब आनर्तनरेश भीम थे।
अब सहस्रजित् क्रोष्टा नल और रिपु का कहाँ गये उनका वंश कहाँ गया
कोई बताए !
'परन्तु यहांँ क्षेपक है यह तथ्य कि मधुरा शत्रुघ्न ने बसाई क्यों कि उसका नामकरण मधु असुर के आधार पर है ।।
मधुवन का उच्छेद करके यह पुरी बसी।
श्री राम के परमधाम जाने पर शत्रुघ्न के पुत्र ने विरक्त होकर राज्य त्याग दिया ये बातें भी क्षेपक ही हैं ।
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 36-40
स यदुर्माधवे राज्यं विसृज्य यदुपुंगवे।
त्रिविष्टपं गतो राजा देहं त्यक्त्वा महीतले।।36।।
बभूव माधवसुत: सत्त्वतो नाम वीर्यवान्।
सत्त्ववृत्तिर्गुणोपेतो राजा राजगुणे स्थित:।।37।।
सत्त्वतस्य सुतो राजा भीमो नाम महानभूत्।
येन भैमा: सुसंवृत्ता: सत्त्वतात् सात्त्वता: स्मृता:।।38।।
राज्ये स्थिते नृपे तस्मिन् रामे राज्यं प्रशासति।
शत्रुघ्नो लवणं हत्वा् चिच्छेद स मधोर्वनम्।।39।।
तस्मिन् मधुवने स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।
निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन:।।40।।
✍✍✍✍
तब मधुपुरी–मथुरा पर भीम ने अधिकार कर लिया। अयोध्या में जब कुश राजा थे–मथुरा सिंहासन पर भीम के पुत्र अंधक का अभिषेक हुआ।
ये अन्धक के पिता भीम यादव थे ।
अन्धको नाम भीमस्ये सुतो राज्यवमकारयत्।।43।।
___
अन्धकस्या सुतो जज्ञे रेवतो नाम पार्थिव:।
ऋक्षोऽपि रेवताज्जयज्ञे रम्येन पर्वतमूर्धनि।।44।।
ततो रैवत उत्पकन्नय: पर्वत: सागरान्तिके।
नाम्नाव रैवतको नाम भूमौ भूमिधर: स्मृत:।।45।।
अन्धक के पुत्र रैवत थे।
इनकी पत्नी ने पुत्र ऋक्ष को पर्वत शिखर पर जन्म दिया था।
_______
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 38 श्लोक 46-50
रैवतस्यात्माजो राजा विश्वागर्भो महायशा:।
बभूव पृथिवीपाल: पृथिव्यां प्रथित: प्रभु:।।46।।
तस्य तिसृषु भार्यासु दिव्यारूपासु केशव।
चत्वारो जज्ञिरे पुत्रा लोकपालापमा: शुभा:।।47।।
वसुर्बभ्रु: सुषेणश्च सभाक्षश्चैव वीर्यवान्।
यदुप्रवीरा: प्रख्याता लोकपाला इवापरे।।48।।
तैरये यादवो वंश: पार्थिवैर्बहुलीकृत:।
यै: साकं कृष्णर लोकेऽस्मिन् प्रजावन्त: प्रजेश्वरा:।।49।।
वसोस्तु कुन्तिविषये वसुदेव: सुतो विभु:।
तत: स जनयामास सुप्रभे द्वे च दारिके।।50।।
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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: अष्टात्रिंश अध्याय: श्लोक 46-58 का हिन्दी अनुवाद--
रैवत (ऋक्ष) के महायशस्वी राजा विश्वगर्भ हुए, जो पृथ्वी पर प्रसिद्ध एवं प्रभावशाली भूमिपाल थे।
केशव! उनके तीन भार्याऐं थीं।
तीनों ही दिव्य रूप-सौन्दर्य से सुशोभित होती थीं।
उनके गर्भ से राजा के चार सुन्दर पुत्र हुए, जो लोकपालों के समान पराक्रमी थे।
उनके नाम इस प्रकार हैं- वसु, बभ्रु, सुषेण और बलवान सभाक्ष।
ये यदुकुल के प्रख्यात श्रेष्ठ वीर दूसरे लोकपालों के समान शक्तिशाली थे।
श्रीकृष्ण! उन राजाओं ने इस यादव वंश को बढ़ाकर बड़ी भारी संख्या से सम्पन्न कर दिया।
जिनके साथ इस संसार में बहुत-से संतानवान नरेश हैं। वसु से (जिनका दूसरा नाम शूर था) वसुदेव उत्पन्न हुए। ये वसुपुत्र वसुदेव बड़े प्रभावशाली हैं।
वसुदेव की उत्पत्ति के अनन्तर वसु ने दो कान्तिमती कन्याओं को जन्म दिया (जो पृथा (कुन्ती) और श्रुतश्रवा नाम से विख्यात हुईं) इनमें से पृथा कुन्ति देश में (राजा कुन्तिभोज की दत्तक पुत्री के रुप में) रहती थी।
कुन्ती जो पृथ्वी पर विचरने वाली देवांगना के समान थी, महाराज पाण्डु की महारानी हुईं तथा सुन्दर कान्ति से प्रकाशित होने वाली श्रुतश्रवा चेदिराज दमघोष की पत्नी हुईं।
___
रैवत के पुत्र विश्वगर्भ हुए जिनका दूसरा नाम देवमीढ था
इस ऋक्ष का दूसरा नाम रैवत था।
इन महाराज रैवत के पुत्र विश्वगर्भ को देवमीढ़ कहा जाता है।
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उनकी तीन रानियों से चार पुत्र हुए– वसु, वभ्रु, सुषेण और सभाक्ष।
ज्येष्ठ पुत्र वसु का ही दूसरा नाम शूरसेन है।
वभ्रु, सुषेण और सभाक्ष ये ही क्रमश अर्जन्य पर्जन्य और राजन्य थे ।
शूरसेन की संतान ही वसुदेव हैं।
और पर्जन्य के पुत्र नन्द थे।
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हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 26-30
ततो मधुपुरं राजा हर्यश्व: स जगाम च।
भार्यया सह कामिन्या कामी पुरुषपुंगव:।।26।।
मधुना दानवेन्द्रेण स साम्न समुदाहृत:।
स्वागतं वत्स हर्यश्व प्रीतोऽस्मि तव दर्शनात्।।27।।
यदेतन्मम राज्यं वै सर्वं मधुवनं विना।
ददामि तव राजेन्द्र वासश्च प्रतिगृह्यताम्।।28।।
वनेऽस्मिल्लँवणश्चायं सहायस्ते भविष्यति।
अमित्रनिग्रहे चैव कर्णधारत्ववमेष्यति।।29।।
हरिवशं पुराणों में अन्य जनजातियों की उत्पत्ति भी प्रक्षिप्त ही है ।
प्रस्तुत हैं ये प्रमाण ....👇
हरिवंशपुराण हरिवशंपर्व पञ्चम अध्याय में एक स्थान पर वर्णन है कि
निषादवंशकर्तासौ बभूव वदतां वर ।
धीवरानसृजच्चाथ वेनकल्मषसम्भवान्।।१९।
•-- वक्ताओं में श्रेष्ठ जनमेजय ! वह निषादों के वंश को चलाने वाला हुआ और उसने धीवरों को जन्म दिया वे निषाद , धीवर वेन के पाप से उत्पन्न हुए थे ।१९।
( क्या यह सत्य कथन है ?)
ये चान्ये विन्ध्यनिलय तुषार तुम्बरास्तथा ।
अधर्म रुचयो ये च विद्धि तान् वेनसम्भवान् ।२०।
धीवरों के अतिरिक्त तुषार (तोखारी)
•--तुम्बर ( तोमर) तथा अधर्म से प्रेम करने वाले वन वासी ( गोण्ड- कोल आदि )हैं इन सबको तुम वेन के पाप से उत्पन्न हुआ समझो !
( तोमर जन-जाति राजपूत संघ गुर्जर संघ और जाट संघ में भी समायोजित है ।
'परन्तु हरिवंशपुराण विष्णुपर्व में ये वनवासी के रूप में हैं ।
हरिवंशपुराण हरिवशं पर्व इकतालीसवाँ अध्याय में श्रीमद्भगवदगीता के एक श्लोक का पूर्वार्द्ध हरिवंशपुराण में भी यथावत है ।👇
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत ।
धर्म संस्थापनार्थाय तदा सम्भवति प्रभु ।।१७।
यह श्लोक श्रीमद्भगवदगीता के श्लोक से साम्य रखता है
भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में वर्णन हरिवंशपुराण में है ।
इतनी ही नहीं ...
भागवत धर्म के विषय में ही एक श्लोक है ।👇
जिसके उद्गाता अक्रूर नामक यादव हैं
_______
अक्रूर ने श्रीकृष्ण से कहा- 'भैया! रथ को यहीं खड़ा रखो और घोड़ों को काबू में रखने का प्रयत्न करो। तात!
घोड़ों को दाना-घास देकर, इनके पात्र और रथ की विशेष यत्नपूर्वक देखभाल करते हुए एक क्षण तक मेरी प्रतीक्षा करो।
तब तक मैं यमुना जी के इस कुण्ड में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति कर लूँ।
वे गुहरास्वरूप भागवत देवता हैं, सम्पूर्ण लोकों के उत्पादक एवं उन्नायक हैं।
उनका मस्तिक कान्तिमान स्वस्तिक चिह्न से अलंकृत है। वे सर्प-विग्रहधारी भगवान अनन्त देव सहस्र सिरों से सुशोभित तथा नील वस्त्र धारण करने वाले हैं। मैं उन्हें प्रणाम करूँगा।
यमुनाया ह्रदे ह्यस्मिन् स्तोष्यामि भुजगेश्वरं ।
दिव्यैर् भागवतैर्मन्त्रै: सर्व लोक प्रभु यत: ।।४२।
तब तक 'मैं यमुना जी के इस कुण्ड के जल
में प्रवेश करके दिव्य भागवत मन्त्रों द्वारा सम्पूर्ण जगत के स्वामी नागराज अनन्त की स्तुति कर लूँ ।४२।
गुह्यं भागवतं देवं सर्वलोकस्य भावनम् ।
श्रीमत्स्वस्तिकमूर्द्धानं प्रणमिष्यामि भोगिनम् ।
सहस्रशिरसं देवमनन्तं नीलवाससम् ।।४३।
वे गुह्य स्वरूप भागवत देवता हैं ।
सम्पूर्ण लोकों के उत्पादक और उन्नायक हैं ।
उनका मस्तक कान्ति वान स्वास्तिक चिन्ह से अलंकृत है वे सर्प-विग्रहधारी अनन्त देव सहस्र शिरों से सुशोभित तथा नील वस्त्रधारण करने वाले हैं ।
'मैं उन्हें प्रणाम करुँगा ।४३।
हरिवंशपुराण विष्णुपर्व छब्बीस वें अध्याय में भागवत धर्म के अधिष्ठात्री देवता के रूप में बलराम की स्तुति की गयी है ।
कृष्ण को परामर्श देने वाले बलराम ही थे ।
ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध वर्ण व्यवस्था रहित लोकतन्त्र मूलक भक्तियोग समन्वित भागवत धर्म स्थापन का श्रेय कृष्ण 'ने बलराम को ही दिया ।
'परन्तु इसका तथ्य को पुराणों में दबाया- गया ।..
यह श्लोक गुप्त काल की धर्म मूलक अवधारणा को प्रतिध्वनित करता है ।
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यहीं तीसवें श्लोक में आभीर वर्णन है ।👇
पालयैनं शुभं राष्ट्रं समुद्रानूपभूषितम्।
गोसमृद्धं श्रिया जुष्टम् आभीर प्रायमानुषम्।।30।।
हरिवंशपुराण विष्णुपर्व में सैंतीसवाँ अध्याय श्लोक संख्या ३० पर
वस्तुतः ये ययाति पुत्र यदु के वंशजों में सुमार आभीर हैं जिन्होंने ही व्रज क्षेत्र की प्रतिष्ठा की
यह आभीर नामक यादव जाति का ही वर्णन है ।
तीसवें श्लोक का अर्थ है 👇
अर्थात् तुम समुद्र के जलप्राय प्रदेश से विभूषित इस सुराष्ट्र (सूरत ) का पालन करो ! यह गौंओं से सम्पन्न और लक्ष्मी से सेवित है तथा यहीं अधिकतर अहीर ( आभीर ) निवास करते हैं।३०।
गुजरात नामकरण आभीर की उपशाखा गौश्चर गौज्जर गूर्जर से है ।
हरिवंशपुराण के इसी अध्याय के चौंतीसवें श्लोक में वर्णन है कि
ययातमपि वंशस्ते समेष्यति च यादववम्।
अनुवंशं च वंशस्ते सोमस्य भविता किल ।।३४।
•--अर्थात् तुम्हारा यह वंश ययाति पुत्र यदु के वंश में मिल जाएगा । जो सोम वंश का रूप है ।३४।
विदित हो कि हर्यश्व का राज्य आनर्त (गुजरात)था ।
वहीं सुराष्ट्र( सूरत )है ।
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•--सर्पराज 'ने कहा कि तुम से सात कुल विख्यात होंगे 👇
" भैमाश्च कुकुराश्चैव भोजाश्चान्धक यादव:
दाशार्हा वृष्णयश्चेति ख्यातिं यास्यन्ति सप्त ते ।।६५।
(हरिवंशपुराण विष्णुपर्व सैंतीसवाँ अध्याय )
जैसे कुक्कुर, भोज, अन्धक, यादव ,दाशार्ह ,भैम और वृष्णि के नाम वाल ये सात कुल प्रसिद्ध होंगे ।
अब प्रश्न यहांँ भी उत्पन्न होता है कि कुकुर, भोज, अन्धक, वृष्णि दाशार्ह ये यदुवंशीयों में शुमार नहीं थे ?
यादव विशेषण तो इनका भी बनता है ।
फिर ये अलग से यादव कुल कहाँ से आगया ।
सरे आम बकवास है ये तो !
आगे हरिवंशपुराण में ही वर्णन है कि
इन नागकन्याओं से यदु के पाँच पुत्र उत्पन्न हुए ।
१-मुचुकुन्द २,पद्मवर्ण३-,माधव, ४-सारस,तथा
राजा ५-हरित ये पाँच पुत्र थे ।
राजा यदु अपने बड़े पुत्र माधव को राज्य देकर परलोक को चले गये ।
माधव के पुत्र सत्वत्त नाम से प्रसिद्ध हुए ।
सत्वत्त के पुत्र भीम हुए ।
इनके वंशज भैम कहलाये
जब राजा भीम आनर्त देश पर राज्य करते थे और तब अयोध्या मे राम का शासन था ।
तब इसके समय पर ही मधु के पुत्र लवण को शत्रुघ्न 'ने मारकर मधुवन का उच्छेद कर डाला था।३९।
और उसी मधुवन के स्थान पर शत्रुघ्न' ने मधुपुरी को बसाया ।।४०।
तस्मिन् मधुवन स्थाने पुरीं च मथुरामिमाम्।
निवेशयामास विभु: सुमित्रानन्दवर्धन: ।।४०।।
'परन्तु प्रश्न यहांँ भी है कि मधु के नाम पर ही मधु पुर या मधुपुरी( मथुरा) शत्रुघ्न'ने क्यों बसाई अपने पूर्वजों के नाम ये अपने नाम से क्यों नहीं?
____________
'परन्तु जब शत्रुघ्न परलोक पधारे तो पुन: यादव राजा भीम ने इस वैष्णव स्थान मथुरा को पुन: प्राप्त किया ।क्यों कि यह भी उनके नाना मधु की नगरी थी ।
कालान्तरण भीम के पुत्र अन्धक मथुरा के राजा हुए और अन्धक के पुत्र रैवत ( ऋक्ष) के पुत्र विश्वगर्भ ( देवमीढ) हुए मथुरा के राजा हुए ।
विश्वगर्भ का नामान्तरण ही देवमीढ है ।
ये देवमीढ ही नन्द और वसुदेव के पूर्वजों में थे ।
पर्जन्य और शूरसेन के पिता देवमीढ थे ।
यद्यपि भागवत पुराण में एक प्रसंग के अनुसार जब अर्जुन को द्वारिका गये हुए कई महीने हो जाते हैं तब युधिष्ठर भीम को वहाँ यह जानने के लिए भेजते हैं कि
क्या कारण है अर्जुन को वहाँ इतना समय क्यों हो गया ?
इसी सन्दर्भ में समस्त ननिहाल के लोगों का कुशल क्षेम पूछने के लिए युधिष्ठर सबको पूछने के क्रम में सुनन्द और नन्द जो दूसरे अन्य यदुकुल के हैं उनका भी कुशल क्षेम पूछते हैं
अब प्रश्न यह बनता है कि ये सुनन्द और नन्द कौन दूसरे अन्य यदुकुल 'लोग' हैं ?
वास्तव में ये नौ नन्द ही हैं
धरानन्द, ध्रुवनन्द , उपनंद,नन्द,सुनंद अभिनंद, ., कर्मानन्द , धर्मानंद , और वल्लभ।
नन्द से नन्द वंशी यादव शाखा का प्रादुर्भाव हुआ।
श्रीमद्भागवत पुराण में प्रथम स्कन्द अध्याय पन्द्रह में ही श्लोक संख्या ३२ पर वर्णन है |
तथैवानुचरा: शौरे: श्रुतदेवोद्धवाय: सुनन्द नन्द शीर्षण्या ये चान्ये सात्वतर्षभा: ।।३२।
अर्थ- भगवान् कृष्ण के सेवक श्रुतदेव ,उद्धव , तथा दूसरे अन्य सुनन्द नन्द आदि शीर्ष यदुकुल के कृष्ण और बलराम के बाहुबल से संरक्षित हैं ।
सब के सब सकुशल हैं 'न?
हमसे अत्यंत प्रेमकरने वाले वे 'लोग' कभी हमारा कुशल-मंगल पूछते हैं ?३२-३३
नन्द उपनन्द कृतक, शूर,आदि मदिरा नामकी वसुदेव की पत्नी से उत्पन्न चार पुत्र थे ।
'परन्तु सुनन्द और नन्द और उपनन्द ये पर्जन्य के पुत्रों में समविष्ट थे ।
नन्दोपनन्दकृतकशूराद्या मदिरात्मजा:।
कौसल्या केशिनं त्वेकमसूत कुलनन्दनम्।।४८।
अर्थ:- नन्द ,उपनन्द, कृतक, शूर,आदि मदिरा नामकी वसुदेव की पत्नी से उत्पन्न चार पुत्र थे ।
और वसुदेव की कौसल्या नामकी पत्नी 'ने एक ही वंश- उजागर पुत्र उत्पन्न किया उसका नाम केशी था ।४८। ( भागवत पुराण नवम् स्कन्द अध्याय चौबीस पृष्ठ संख्या १००(गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण)
इसलिए उपर्युक्त श्लोक में नौ नन्द सुनन्द, नन्द और उपनन्द आदि नव गोपों' का अर्थ ग्रहण करना चाहिए ..
आनर्त देश के विषय में कतिपय जानकारी करें 👇 -- -
आनर्त प्राचीन भारत में गुजरात के उत्तर भाग को कहा जाता था।
द्वारावती आधुनिक द्वारका इसकी प्रधान नगरी थी।
महाभारत के अनुसार अर्जुन ने पश्चिम दिशा की विजय-यात्रा में आनर्तों को जीता था।
महाभारत के सभापर्व के एक अन्य वर्णन से ज्ञात होता है कि आनर्त का राजा शाल्व था, जिसकी राजधानी सौभनगर में थी।
श्री कृष्ण ने इस देश को शाल्व से जीत लिया था।
विष्णु पुराण में आनर्त की राजधानी कुशस्थली
बताई गई है-
________
'आनर्तस्यापि रेवतनामा पुत्रो जज्ञे, योऽसावनर्तविशयं बुभुजे पुरीं च कुशस्थलीमध्युवास।'
इस उद्धरण से यह भी सूचित होता है कि आनर्त के राजा रेवत के पिता का नाम आनर्त था।
इसी के नाम से इस देश का नाम आनर्त हुआ होगा।
रेवत बलराम की पत्नी रेवती के पिता थे।
महाभारत से भी विदित होता है कि आनर्त नगरी, द्वारका का नाम था-
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'तमेव दिवसं चापि कौन्तेय: पांडुनंदन:, आनर्त नगरीं रम्यां जगामाशु धनंजय:।'
गिरनार के प्रसिद्ध अभिलेख के अनुसार रुद्रदामन आभीर ने 150 ई. के लगभग अपने पहलव अमात्य सुविशाख को आनर्त और सौराष्ट्र आदि जनपदों का शासक नियुक्त किया था-
___
'कृत्स्नानामानर्त सौराष्ट्राणां पालनार्थं नियुक्तेन पह्लवे कुलैप पुत्रेणामात्येन सुविशाखेन।'
रुद्रदामन ने आनर्त को सिंधु-सौवीर आदि जनपदों के साथ विजित किया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
ऐतिहासिक स्थानावली |
पृष्ठ संख्या= 63-64| विजयेन्द्र कुमार माथुर |
वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग |
मानव संसाधन विकास मंत्रालय, भारत सरकार
( यादव योगेश कुमार'रोहि'अलीगढ़ --8077160219)
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 59 श्लोक 16-20
________
पृथ्वी पति राजा जरासन्ध 'ने चेदिराज सुनीथ के पुत्र शिशुपाल के लिए भयानक पराक्रमी भीष्मक से उनकी कन्या रुक्मणि को माँगा था ।१९।
क्योंकि जरासन्ध दमघोष का वंशज था ।
विदित हो की चेदिराज उपरिचर वसु के एक पुत्र का नाम बृहद्रथ था जिसने मगध में पहले गिरिव्रज नामक नगर का निर्माण किया था उसी के वंश में जरासन्ध उत्पन्न हुए। उपरिचर वसु के ही वंश में उन्हीं दिनों दमघोष (सुनीथ) उत्पन्न हुए जो चेदि देश के राजा थे ।
दमघोष के पाँच पराक्रमी पुत्र उत्पन्न हुए शिशुपाल, दशग्रीव ,रैभ्य,उपदिश,और बली ।
जरासन्ध दमघोष का वंशज या कुटुम्बी था और समान वंश में उत्पन्न हुआ इसलिए दमघोष ने अपना पुत्र शिशुपाल जरासन्ध को सौंप दिया था ।
रुक्मिणी त्वयभवद् राजन् रूपेणासदशी भूवि।
चकमे वासुदेवस्तां श्रवादेव महाद्युति:।।16।।
स तया चाभिलषित: श्रवादेव जनार्दन:।
तेजोवीर्यबलोपेत: स मे भर्ता भवेदिति।।17।।
तां ददौ न च कृष्णाय द्वेषाद् रुक्मीि महाबल:।
कंसस्यौ वधसंतापात् कृष्णाययामिततेजसे।।18।।
याचमानाय कंसस्य द्वेष्योदयमिति चिन्तययन्।
चैद्यस्याकर्थे सुनीथस्य जरासंधस्तु् भूमिप:।
वरयामास तां राजा भीष्म कं भीमव्रिकमम्।।19।।
चेदिराजस्यं तु वसोरासीत् पुत्रो बृहद्रथ:।
मगधेषु पुरा येन निर्मितोऽसौ गिरिव्रज:।।20।।
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 58 श्लोक 21-25
तस्यान्वावाये जज्ञेऽसौ जरासंधो :।
वसोरेव तदा वंशे दमघोषोऽपि चेदिराट्।।21।।
दमघोष पुत्रास्तु पंच भीमपराक्रमा:।
भगिन्यां वसुदेवस्य श्रुतश्रवसि जज्ञिरे।।22।।
शिशुपालो दशग्रीवो रैभ्योयऽथोपदिशो बली।
सर्वास्त्रकुशला वीरा वीर्यवन्तो महाबला:।।23।।
निम्नलिखित श्लोक दमघोष जरासन्ध समान कुल वंशञ् समानवंशस्य सुनीथ: प्रददौ सुतम्।
जरासंधस्तु सुतवद् ददर्शैनं जुगोप च।।24।।
जरासंधं पुरस्कृत्य वृष्णिशत्रुं महाबलम्।
कृतान्यागांसि चैद्येन वृष्णीनां चाप्रियौषिणा।।25।।
__________________________💐
इसी पुराण में पृथ्वी के प्रथम राजा पृथु का वर्णन यूनानी-माइथॉलॉजी के प्रोटियस् से ग्राह्य है ।
हरिवंशपुराण के निम्नलिखित श्लोक में पृथु की पुत्री है पृथ्वी ।👇
तत८भयुपगमाद् राज्ञ्य: पृथोर्वैन्यस्य भारत ।
दुहितृत्वमनुप्राप्ता देवी पृथ्वीति चोच्यते ।।
पृथुना प्रविभक्ता च शोधिता च वसुंधरा ।।४६।
अर्थात् भरत वंशी राजन्य ! फिर वेनपुत्र राजा पृथु के पुत्री रूप में स्वीकार करने पर यह देवी उसकी पुत्री बनगयी और पृथ्वी कहलाया ।
इस प्रकार पृथु 'ने पृथ्वी को अनेक
भागों 'ने विभक्ति किया और शुद्ध किया ।४६।
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देखें निम्नलिखित यूनानी-माइथॉलॉजी से उद्धृत तथ्य साम्य--
In Greek mythology, Proteus (/ˈproʊtiəs, -tjuːs/; Ancient Greek: Πρωτεύς) is an early prophetic sea-god or god of rivers and oceanic bodies of water, one of several deities whom Homer calls the "Old Man of the Sea" (halios gerôn).