सत्य का अवलोकन -- आभीर ,गोप , यादव कृष्ण की सनातन उपाधि परक विशेषण ।
कृष्ण का वास्तविक वंश ---
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कृष्ण वास्तविक रूप में आभीर (गोप) ही थे ।
क्योंकि महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप ही कहा गया है ।
और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर ) परिवार में हुआ
यादवों के पूर्वज यदु को ऋग्वेद के १० वें मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में स्पष्टत: गोप ( गायों का पालन करने वाला वर्णित किया गया है) और दास अथवा असुर भी कहा है ।
(आगे यथा क्रमश बताएेंगे कि दास अथवा असुर शूद्रों को ही कहा गया । )
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी।
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे।। ऋ१०/६२/१० अर्थात् जो यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास ( असुर अथवा शूद्र वैदिक सन्दर्भों के अनुसार) हैं वे गायों से घिरे हुए हैं ।
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं।ऋ१०/६२/१० ।
ऋग्वेद की यह ऋचा प्राचीनत्तम है।
" क्योंकि इसमे दासा द्विवचन रूप में है।
जबकि लौकिक संस्कृत में दासौ रूप मिलता है द्विवचन का "
रही बात पुराणों की तो ये महात्मा बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड की रचनाऐं है।
भागवतपुराण के बारहवें स्कन्ध के प्रथम अध्याय में कहा गया है कि
" मागधानां तु भविता विश्वस्फूर्जि: पुरञ्जय।
करष्यति अपरो वर्णान् पुलिन्द यदु मद्रकान् ।।३६
मगध ( आधुनिक विहार) का राजा विश्वस्फूर्ति पुरुञ्जय होगा ; यह द्वित्तीय पुरञ्जय होगा ---जो ब्राह्मण आदि उच्च वर्णों को पुलिन्द , यदु ( यादव) और मद्र आदि म्लेच्छ प्राय: जातियों में बदल देगा ।३६।
ये पुराण इत्यादि। बौद्ध काल के परवर्ती काल खण्ड में रचित ग्रन्थ हैं।
जिसके सूत्रधार ब्राह्मण शासक पुष्यमित्र सुंग
(ई०पू०१४८ )के अनुयायी ब्राह्मण हैं ।
परन्तु यहाँ भी दो प्रकार के ब्राह्मणों ने ग्रन्थ का लेखन कार्य किया ।
एक उपनिषदों का प्रणयन, करने वाले सत्यवादी । तथा दूसरे रूढ़िवादी तथा कर्म- काण्डी ब्राह्मण जिन्होंने योजना बद्ध विधि से अपने पूर्व-दुराग्रहों से ग्रसित अनुमानों द्वारा लिखा और सब जानते हैं कि
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(पूर्व-दुराग्रहों से ग्रसित अनुमानों द्वारा सत्य का निर्णय नहीं होता है।)
निश्चित रूप से पुराण किसी एक व्यक्ति की रचना नहीं हैं।
महाभारत, पुराण आदि बहुत से ब्राह्मणों ने लिखे सभी ग्रन्थों में महात्मा बुद्ध के मत का विरोध व खण्डन किया गया है।
वाल्मीकि रामायण भी इस प्रति क्रिया से नहीं बची है ।
अब हम बात करते हैं यादव, गोप और आभीर ( अभीर अण्) शब्दों की ,तो ये परस्पर पर्याय वाची शब्द हैं।
विशेष :- अभीर का समूहवाचक रूप आभीर है ।
क्योंकि ब्राह्मणों का यादवों से वैदिक काल से ही विरोध चला आ रहा है ।
और ऋग्वेद के सूक्त प्राचीनत्तम हैं ।
तब जब ब्राह्मणों ने बौद्ध धर्म की प्रतिद्वन्द्वीता स्वरूप पुराण, रामायण तथा महाभारत आदि ग्रन्थ लिखे तो इनमें यदु वंश का भी वर्णन किया गया ।
महाभारत के मूसल पर्व में आभीरों को सर्व-प्रथम यादवों की पुत्रवधू स्वरूप गोपिकाओं को लूटने वाला बताया गया ।
फिर भागवत पुराण में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द वर्णित किया ।
और फिर महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण का जन्म गोप परिवार में बताया ।
अब बताओं कि ये तीनों एक हुए कि नहीं अर्थात् आभीर फिर गोप और यादव ।
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दुर्भाग्य से ब्राह्मणों के ज्ञान की तो पोल खुली परन्तु उन पर चोरी करना नहीं आया ।
क्योंकि चोरी भी चौंसठ कलाओं में में एक है ।
और अहीरों से चौरी करना सीख वें !
हाँ अहीर चोर तो नहीं ,डाँकू जरूर रहे हैं ।
और डाँकू और चोर में प्रकाश और चमक जैसा अन्तर है ।
आइए ! इन तीनों श्लोकों को --
जिनके आधार पर हम सिद्ध करेंगे कि अहीर ही असली यादव ( यदुवंशी) हैं
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" ततस्ते पाप कर्माणो लोभोपहतचेतस: ।
आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना: ।४७।। (महा० मूसल पर्व अष्टम् अध्याय)
इसका अर्थ है " पाप कर्म करने वाले अशुभ -दर्शन तब उन अहीरों ने एकत्रित होकर सलाह की ;
गोपिकाओं को लूटने के लिए । ४७।
तुलसी ने लिखा :-
तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान।
भीलन लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण॥
अर्थात समय ही व्यक्ति को सर्वश्रेष्ठ और कमजोर बनता है। अर्जुन का वक्त बदला तो उसी के सामने भीलों ने गोपियों को लूट लिया जिसके गाण्डीव की टंकार से बड़े बड़े योद्धा घबरा जाते थे ।
कदाचित भील और अहीर यहाँ एक दर्शाए हैं ।
तुलसी नर का क्या बड़ा, समय बड़ा बलवान।
अभीरन लूटी गोपियाँ, वही अर्जुन वही बाण॥
अर्थात समय ही व्यक्ति को सर्वश्रेष्ठ और कमजोर बनता है।
अर्जुन का वक्त बदला तो उसी के सामने भीलों ने गोपियों को लूट लिया जिसके
परन्तु भागवतपुराण में गोपों ने गोपिकाओं को लूटा ऐसा वर्णन है। देखें---
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" सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन ।
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य:।।
अध्वन्युरुक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।।२०। (श्रीमद्भागवत पुराण )
अर्थात् हे राजन ! वह मैं अर्जुन पुरुषोत्तम कृष्ण से रहित हो गया; वह मेरे सखा -प्रिय सहृद ही नहीं अपितु मेरा हृदय ही थे।
जब मेैं गोपिकाओं को द्वारिका से ला रहा था ।
तो अबला के समान मुझे गोपों ने गोपिकाओं सहित लूट लिया ।२०।
अब देखिए हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण को गोप कहा!
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गोपायनं य: कुरुते जगत: सर्वलौककम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९। (हरिवंश पुराण ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण अनुवादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य)
अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।
वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।
( द्वेष वश गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति से यह श्लोक हटा दिया गया है ।)
तथा और भी देखें---यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है ।
देखें--- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण
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" इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।२२।।
द्या च सा सुरभिर्नाम् अदितिश्च सुरारिण: ते$प्यमे तस्य भुवि संस्यते ।।२४।।
वसुदेव: इति ख्यातो गोषुतिष्ठति भूतले ।
गुरु गोवर्धनो नामो मधुपुर: यास्त्व दूरत:।।२५।।
सतस्य कश्यपस्य अंशस्तेजसा कश्यपोपम:।
तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य कर दायक: तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्चते ।।२६।।
देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्य धीमत:
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अर्थात् हे विष्णु ! महात्मा वरुण के एैसे वचन सुनकर
तथा कश्यप के विषय में सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके
उनके गो-अपहरण के अपराध के प्रभाव से
कश्यप को व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करने का शाप दे दिया ।।२६।।
कश्यप की सुरभि और अदिति नाम की पत्नीयाँ क्रमश:
रोहिणी और देवकी हुईं ।
गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित श्री रामनायण दत्त शास्त्री पाण्डेय ' राम' द्वारा अनुवादित हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप ही बताया है ।
इसमें यह 55 वाँ अध्याय है । पितामह वाक्य नाम- से पृष्ठ संख्या [ 274 ]
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षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं । जैसे भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के आठवें अध्याय में
यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वत: ।
सुतं मया मन्यते देवकी सुतम् ।।७।
अर्थात् गर्गाचार्य जी कहते हैं कि नन्द जी मैं सब जगह यादवों के आचार्य रूप में प्रसिद्ध हूँ ।
यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करुँगा । तो लोग समझेगे यह तो वसुदेव का पुत्र है ।७।
एक श्लोक और
" अयं हि रोहिणी पुत्रो रमयन् सुहृदो गुणै: ।
आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद् बलं विदु:।
यदूनाम् अपृथग्भावात् संकर्षणम् उशन्ति उत ।।१२
अर्थात् गर्गाचार्य जी ने कहा :-यह रोहिणी का पुत्र है ।इस लिए इसका नाम रौहिणेय ।
यह अपने लगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से आनन्दित करेगा इस लिए इसका नाम राम होगा।इसके बल की कोई सीमा नहीं अत: इसका एक नाम बल भी है ।
यह यादवों और गोपों में कोई भेद भाव नहीं करेगा इस लिए इसका नाम संकर्षणम् भी है ।१२।
परन्तु भागवतपुराण में ही परस्पर विरोधाभास है ।
देखें---
" गोपान् गोकुलरक्षां निरूप्य मथुरां गत ।
नन्द: कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरुद्वह।।१९।
वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम्।
ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम् ।२०।
अर्थात् कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भाव नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये ।१९। जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं ।जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ; तब वे नन्द ठहरे हुए थे बहाँ गये ।२०।
और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे ,
तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ।
फिर यह कहना पागलपन है कि कृष्ण यादव थे नन्द गोप थे । भागवतपुराण बारहवीं सदी की रचना है ।
और इसे लिखने वाले कामी व भोग विलास -प्रिय ब्राह्मण थे ।
पुष्यमित्र सुंग के विधानों का प्रकाशन करने वाला है।
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अब कोई बताएे कि गोप ही गोपिकाओं को लूटने वाले कैसे हो सकते हैं ?
वास्तविक रूप में ये प्रक्षिप्त ( नकली) श्लोक किन्हीं विक्षिप्त ब्राह्मणों ने जोड़ कर केवल अहीरों ( गोपों) को कृष्ण से अलग करने की असफल कुचेष्टा की है ।
प्रभु उन धूर्तों की दिवंगत आत्मा को शान्ति दे !
यदि ब्राह्मण और स्वयं को क्षत्रिय और यदु वंशी घोषित करने वाले ।
यह कहते हैं कि अहीरों ने गोपिकाओं को प्रभास क्षेत्र में लूट लिया और बाद में यादव बन गये !
यद्यपि ये श्लोक प्रक्षिप्त (नकली) ही हैं ।
और इन्हें सत्य भी मान लिया जाय तो ; मूर्खों अहीरों ने ही अहीरों की स्त्रीयों को लूटा ।
तुम्हारी स्त्रीयों को तो नहीं लूटा ।
प्रमाण तो यह भी मिलता है कि कृष्ण को कहीं भी पुराणों में क्षत्रिय नहीं कहा गया है ।
अपितु शूद्र अवश्य कहा गया है ।
सम्भवत पुराण कारों का कृष्ण को शूद्र अथवा गोप कहने के मूल में यही भावना रही है कि इनके पूर्वज यदु दास थे ।
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यहाँ पर एक बात विचारणीय है; कि यदि हम किसी से द्वेष रखते हैं तो हम उसे कभी भी सम्माननीय उपाधि नहीं दे सकते !
और यही हुआ यादवों के विषय में ।
ब्राह्मणों को यादव कभी भी अच्छे नहीं लगे इसी लिए वाल्मीकि-रामायणकार ने तथा महाभारत के मूसल पर्व लिखने वाले ने अहीरों को बुरी शक्ल का कहा !
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल की एक ऋचा में कृष्ण के लिए असुर सम्बोधन आया है ।
ऋग्वेद-- में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती तटवर्ती प्रदेश में रहता था ।
और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था।
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की ऋचा (13,14,15,)में असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसा वर्णन है ।
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आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या:
न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।14।
अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण:
विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।।
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संस्कृत पद विश्लेषण:--अर्थात् अंशुमती( संज्ञा स्त्री० ) यमुना (कलिन्दी यमुना )की उपस्थ (तलहटी )
“उपस्था उपस्थे उत्सङ्गेऽन्तरालदेशे वा”
“उपस्थे उत्सङ्गे” सं० त० “भूम्या अदेव ईर्भ्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान्” (ऋ० २, १४, ७ )
वैदिक सन्दर्भों में प्राप्त है।
वेदों में पणियों को विश के रूप में वर्णित किया गया तथा असुर कहा है।
पणि फिनीशियन थे जो असीरियन जन-जाति के सहवर्ती थे।
विश की व्युत्पत्ति -विश्लेषण
(विश--क्विप् ।
१ मनुजे २ वैश्ये च अमरः )विट्,
[श्] पुं, (विश् क्विप् ।) वैश्यः । (यथा, मनुः । २ । ३६
“गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्व्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम् । गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भाच्च द्बादशे विशः ॥”)
मनुजः । इत्यमरः ॥ (यथा, रघुः । १ । ९३ । “अथ प्रदोषे दोषज्ञः संवेशाय विशांपतिम् ।
सूनुः सूनृतवाक् स्रष्टुः विससर्जोदितश्रियम् ॥”) प्रवेशः । इति विश्वः ॥
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मधु असुर थे यादवों के पूर्वज ! इस लिए कृष्ण को कहते हैं माधव। अर्थात् "मधु "शशिबिन्दु के उपरान्त यादवों का विख्यात राजा हुआ ।
यादवों को भारतीय पुराणों में यद्यपि असुर संस्कृति से सम्बद्ध रूप में वर्णित किया गया है । अतः यादव और माधव पर्याय वाची शब्द हैं ।
----------------------------------------------------------------- यदुवंशी कृष्ण द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता में-- यह कहना पूर्ण रूपेण मिथ्या व विरोधाभासी ही है कि ..
."वर्णानां ब्राह्मणोsहम् "
( श्रीमद्भगवद् गीता षष्ठम् अध्याय विभूति-पाद) __________________________________
{"चातुर्यवर्णं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:" } (श्रीमद्भगवत् गीता अध्याय ४/३)
क्योंकि कृष्ण यदु वंश के होने से स्वयं ही शूद्र अथवा दास थे ।
फिर वह व्यक्ति समाज की पक्ष-पात पूर्ण इस वर्ण व्यवस्था का समर्थन क्यों करेगा !
गीता में वर्णित बाते दार्शिनिक रूप में तो कृष्ण का दर्शन (ज्ञान) हो सकता है।
परन्तु वर्ण-व्यवस्था का समर्थन और प्रतिपादन कृष्ण ने कभी नहीं किया क्योंकि हरिवंश पुराण में कृष्ण को इन्द्र शूद्र कहता है ।
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कृष्णा रूपाणि अर्जुना वि वो मदे विश्वा अधि श्रियो धिषे विवक्षसे ॥३॥ ऋग्वेद १०/२३/१४
देखें--- हरिवंश पुराण
हरिवंश पुराण में भी इन्द्र ने कृष्ण को शूद्र कह कर सम्बोधित किया है देखें---प्रमाण --
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" तं वीक्ष्यं बालं महता तेजसा दीप्तमव्ययम् ।
गोप वेषधरं विष्णु प्रीति लेभे पुरन्दर: ।४।
त साम्युजलद श्याम कृष्ण श्रीवत्स लक्षणम् ।
पर्याप्तनयन: शूद्र सर्व नेत्रैर् उदक्षत् ।५।
दृष्टवा च एनं श्रिया जुष्टं मर्त्यलोके८मरोपमम्।
शूपविष्टं शिला पृष्ठे शक्र स ब्रीडितो८भवत् ।६।
( गीता प्रेस खोरख पुर के हरिवंश पुराण शक्र शब्द किया है ।
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अर्थात्:- जल युक्त मेघ के समान काले शूद्र कृष्ण को इन्द्र ने अपने हजारों नेत्रों से देखा
जो हृदय पर श्रीवत्स लक्षणम् धारण किये हुए थे ।४-५। पृथ्वी के एक शिला खण्ड पर विराजमान उस तेजस्वी बालकी शोभा देकर इन्द्र बड़ा लज्जित हुआ ।६।
हरिवंश पुराण "श्रीकृष्ण का गोविन्द पद पर अभिषेक नामक ४९वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या ३१४ सम्पादक पं० श्री राम शर्मा आचार्य
( ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)
वैसे भी अहीरों को ब्राह्मणों ने शूद्र ही माना तो इस मान्यताओं के पीछे यही धारणा है कि यदु दास है ।
विशेषत: वैदिक ऋचाओं में
यदि देखना है तो देखिए !🐩
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ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।
वह भी गोपों को रूप में
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है।
गो-पालक ही गोप होते हैं
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन
नकारात्मक रूप में हुआ है ।
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प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ
नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७)
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हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !
(ऋग्वेद ७/१९/८)
ऋग्वेद में भी यथावत यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो ।
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और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है ।...
देखें---
अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय ,
शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
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हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था ।
उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया ।
यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा
जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज- असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज- हैं
भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया ।
यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है देखें--और भी
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सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७)
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हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ।
अर्थात् उनका हनन कर डाला ।
अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
निह्नवाकर्त्तरि ।
“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ )
अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है ।
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किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं
त्वां श्रृणोमि ।।
अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/
हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो ।
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो ।
तुम मुझे क्षीण न करो ।
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यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे ।
यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है ।
अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है ।
ईरानी असुर संस्कृति में दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।
यदु एेसे स्थान पर रहते थे।जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था
ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है ।
यह स्था (उष ष्ट्रन् किच्च )
ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )।
(ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् । “हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति” “नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम्
देखें---ऋग्वेद में
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शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे ।
राधांसि यादवानाम्
त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६।
उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।१७।
यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !
ऋग्वेद ८/६/४६
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दास शब्द के वैदिक सन्दर्भों को भी समझे
जो वेदों दास अथवा असुर कहे गये वही लौकिक संस्कृत में शूद्र कहलाए --
स्मृति-ग्रन्थों में कहा गया :---
लौकिक संस्कृत में उन्हें शूद्र कहा गया है।
विशेषत:
मनु-स्मृति का यह श्लोक इस तथ्य को प्रमाणित करता है ।
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जो पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के समकालिक निर्मित कृति है ।
प्राय: पुराणों में पुष्यमित्र सुंग की महिमा का मण्डन करते हुए पुष्यमित्र सुंग की वंशावली के साथ गुप्त काल के राजा चन्द्र गुप्त मौर्य तथा चाणक्य का वर्णन किया है। देखें---
विष्णु पुराण चौबीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २९७ ( गीता प्रेस गोरखपुर )
महापद्मपुत्राश्चैकं वर्षशतमवनीपतयो भविष्यन्ति ।२५।
ततश्च नव चैतान्नन्दान् कौटिल्यो ब्राह्मणस्समुद्धरिष्यति।२६।
तेषामभावे मौर्या: पृथिवीं भोक्ष्यन्ति।२७।
कौटिल्य एव चन्द्रगुप्तमुत्पन्नं राज्ये८भिषेक्ष्यति।२८। तस्यापि पुत्रो बिन्दुसारो भविष्यति ।।२९। तस्याप्यशोकवर्द्धनस्ततस्सुयशाततश्च दशरथस्ततश्च संयुतस्ततश्शालिशूकस्तस्मात्सोमशर्मा तस्यापि सोम शर्मणश्शतधन्वा।।३०।।
एवमेते मौर्य्या दश भूपतयो भविष्यन्ति अब्दशतं सप्तत्रिंशदुत्तरम्।३२।।
तेषामन्ते पृथिवीं दश शुंगा भोक्ष्यन्ति ।३३। पुण्यमित्रस्सेनापतिस्स्वामिनं हत्वा राज्यं करिष्यति
तस्यात्मजो८ग्निमित्र:।३४।
अर्थात् महापद्म और उसके पुत्र सौ वर्ष तक पृथ्वी का शासन करेंगे ।उसके बाद इन नवो नन्दों को कौटिल्य नामक एक ब्राह्मण नष्ट करेगा ।
उसका अन्त होने पर मौर्य राजा गण पृथ्वी को भोगेंगे ।
कौटिल्य ब्राह्मण ही मुरा नाम- की दासी से जन्में चन्द्र गुप्त मौर्य को राज्याभिषिक्त करेगा ।२५-२८।
चन्द्र गुप्त मौर्य का पुत्र बिन्दु सार बिन्दु सार का पुत्र अशोक वर्द्धन अशोक वर्द्धन का सुयशा सुयशा का दशरथ दशरथ का संयुत संयुत का शालिशूक शालिशूक का सोम शर्मा सोम शर्मा का शतधन्वा और शतधन्वा का पुत्र वृहद्रथ होगा । इस प्रकार एक सौ तिहत्तर वर्ष तक ये दश मौर्य वंशी राजा रज्य करेगें।२९-३२।.
इसके बाद पृथ्वी पर दश शुंग वंशीय राजा गण होंगे ।३३। इसमें पहला पुष्यमित्र सुंग (ई०पू०१४८ ) के समकालिक सेनापति अपने स्वामी वृहद्रथ को मारकर स्वयं राज्य करेगा ।और उसका पुत्र अग्नि मित्र , तथा अग्नि मित्र का सुज्येष्ठ , सुज्येष्ठ का वसु मित्र आदि आदि ब्राह्मण
वंशी राजा एक सौ बारह वर्ष तक राज्य करेंगे ।३७।
इसी पुराण में वर्णित है कि शुंग वंश के बाद काण्व वंश पैंतालीस वर्ष तक फिर आन्ध्र के सेवक राजा गण चार सौ छप्पन वर्ष तक शासन करेंगे।
अब देखिए इनके बाद आभीर( गोप) राजाओं का राज्य
सप्त आभीर प्रभृतयो दश गर्दभिल्लाश्च भूभुजो भविष्यन्ति।५१।
ततष्षोडश शका भूपतयो भवितार:।५२। ततश्चाष्टौ यवना: चतुर्दश तुरुष्कारा मुण्डाश्च त्रयोदश एकादश मौना एते वै पृथ्वी पतय: पृथिवीं दश वर्ष शतानि नवत्यधिकानि भोक्ष्यन्ति ।५३।
अर्थात्-- इसके बाद सात अहीर राजा शासन करेंगे तथा इसके बाद दशगर्दभिल्ल राज्य करेंगे ५१।
फिर सौलह शक राजा ५२।इसके बाद आठ यवन चौदह तुर्क तैरह मुण्ड ( गुरुण्ड)और ग्यारह मौन जातीय राजा एक हजार नब्बे वर्ष तक पृथ्वी का शासन करेंगे।५३।
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आभीर (गोप) जन-जाति का वर्णन इसी अध्याय पृष्ठ संख्या ३०० में इस प्रकार से है :--
सौराष्ट्र अवन्ति शूद्र आभीरा: नर्मदा मरुभूमिविषयांश्च व्रात्य द्विज आभीर शूद्राद्या भोक्ष्यन्ति ।६८।
अर्थात् सौराष्ट्र अवन्ति शूद्र तथा आभीर तथा नर्मदा के तटवर्ती मरुभूमि पर व्रात्य द्विज आभीर और शूद्र आदि का आधिपत्य स्थापित होगा।
विष्णु पुराण चतुर्थ अंश चौबीसवाँ अध्याय)
भागवतपुराण के बारहवें स्कन्ध के प्रथम अध्याय में
कलियुग के राजाओं का वर्णन करते हुए विष्णु पुराण के समान वर्णन है ।
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शर्मा देवश्च विप्रस्य वर्मा त्राता भूभुज:
भूतिर्दत्तश्च वैश्यस्य दास शूद्रस्य कारयेत् ।।
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अर्थात् विप्र (ब्राह्मण) के वाचक शब्द शर्मा तथा देव हों,
तथा क्षत्रिय के वाचक वर्मा तथा त्राता हों ।
और वैश्य के वाचक भूति अथवा दत्त हों तथा दास शूद्र का वाचक हो ।
आभीर विशेषण अहीरों की निर्भीकता के कारण हुआ ।
ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था के प्रति विद्रोही स्वर में मुखरित हो दास न बनकर दस्यु बनना उचित समझा ।
और इतिहास कारों ने आभीरों अथवा यादवों को दस्यु रूप में वर्णित किया है ।
पुष्य-मित्र सुंग ई०पू०१८५ के समकक्ष निर्मित स्मृति-ग्रन्थों में गोप जन-जाति को शूद्र ही माना है ।
व्यास-स्मृति के अध्याय प्रथम के श्लोक ११-१२ में गोप जन-जाति को शूद्र ही माना गया है।
अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है। यह भी देखें---
व्यास -स्मृति तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है
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" क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: ।
स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय: -----------------------------------------------------------------
अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।
और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं ....
पाराशर स्मृति में वर्णित है कि..
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वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: । वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।।
एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना:
एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।। ----------------------------------------------------------------- वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं ।
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।
और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।
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अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।। शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति ।
धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।। (व्यास-स्मृति)
नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं ।
तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।।
जिनके वंश का ज्ञान है ;एेसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। ________________________________________ (व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२) -------------------------------------------------------------- स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
देखें-: निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में..
_________________________________________ " वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् । पप्रच्छुमुर्नयोSभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।।
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अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा ।
वाल्मीकि-रामायण रामायण कार भी अहीरों को दस्यु अथवा दास लिखता है ।
______________________________________
" उत्तरेणावकाशो८स्ति कश्चित् पुण्यतरो मम ।
द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान् ।।३२।।
उग्रदर्शनं कर्माणो बहवस्तत्र दस्यव: ।
आभीर प्रमुखा: पापा:पिवन्ति सलिलम् मम ।३३।।
तैर्न तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पाप कर्मभि: ।
अमोघ क्रियतां रामो८यं तत्र शरोत्तम: ।।३४।।
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मन: ।
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागर दर्शनात् ।।३५।।
(वाल्मीकि-रामायण युद्ध-काण्ड २२वाँ सर्ग)
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अर्थात् समुद्र देव राम से बोले हे प्रभो ! जैसे जगत् में आप सर्वत्र विख्यात एवम् पुण्यात्मा हैं ।
उसी प्रकार मेरे उत्तर की ओर द्रुमकुल्य नामका बड़ा ही प्रसिद्ध देश है ।३२।
वहाँ अाभीर आदि जातियों के बहुत से मनुष्य निवास करते हैं ।
जिनके कर्म तथा रूप बड़े भयानक हैं।
सबके सब पापी और लुटेरे हैं ।
वे लोग मेरा जल पीते हैं ।३३।
उन पापाचारियों का मेरे जल से स्पर्श होता रहता है ।
इस पाप को मैं नहीं यह सकता हूँ ।
हे राम आप अपने इस उत्तम वाण को वहीं सफल कीजिए ।३४।
महामना समुद्र का यह वचन सुनकर समुद्र के दिखाए मार्ग के अनुसार उसी अहीरों के देश द्रुमकुल्य की दिशा में राम ने वह वाण छोड़ दिया ।३।
और अपने अचूक रामवाण से नष्ट कर दिया ।
अब मान लीजिए अहीर त्रेता युग--में ही राम के द्वारा मारे गये तो कृष्ण के समय में कहाँ से आये ।
ब्राह्मणों का दोग़ले विधानों की महिमा विचित्र है ।
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निश्चित रूप से ब्राह्मण समाज ने राम को आधार बनाकर ऐसी मनगढ़न्त
कथाओं का सृजन किया है ।
ताकि इन पर सत्य का आवरण चढ़ा कर अपनी काल्पनिक बातें को सत्य व प्रभावोत्पादक बनाया जा सके ।
इन ब्राह्मणों का जैनेटिक सिष्टम ही कपट से मय है ।
जो अवैज्ञानिक ही नहीं अपितु मूर्खता पूर्ण भी है ।
क्योंकि चालाकी कभी बुद्धिमानी नहीं हो सकती है ; चालाकी में चाल ( छल) सक्रिय रहता है । कपट सक्रिय रहता है और बुद्धि मानी में निश्छलता का भाव प्रधान है।
आइए अब पद्म पुराण में अहीरों के विषय में क्या लिखा है देखें---
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पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय १६ में गायत्री माता को नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या 'गायत्री' के रूप में वर्णित किया गया है ।
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" स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व ,
सर्वास्ता: सपरिग्रहा : |
आभीरः कन्या रूपाद्या ,
__________________________________________ शुभास्यां चारू लोचना ।७।
न देवी न च गन्धर्वीं ,
नासुरी न च पन्नगी ।
वन चास्ति तादृशी कन्या ,
यादृशी सा वराँगना ।८।
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अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा ;
तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके ,
परन्तु एक नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर दंग रह गये ।७।
उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर असुर की स्त्री और न कोई पन्नगी ही थी।
इन्द्र ने तब उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ? और कहाँ से आयी हो ?
और किस की पुत्री हो ८।
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गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:।
एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९ ।।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में
इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ी रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो इस प्रकार की गौर वर्ण महातेजस्वी कन्या को देखकर इन्द्र भी चकित रह गया कि यह गोप कन्या इतनी सुन्दर है !
अध्याय १७ के ४८३ में प्रभु ने कहा कि यह गोप कन्या पराधीन चिन्ता से व्याकुल है ।९।
देवी चैव महाभागा , गायत्री नामत: प्रभु ।
गान्धर्वेण विवाहेन ,विकल्प मा कथाश्चिरम्।९।
१८४ श्लोक में विष्णु ने ब्रह्मा जी से कहा कि हे प्रभो इस कन्या का नाम गायत्री है ।
अब यहाँ गायत्री आभीर अथवा (गोपों )की कन्या है । और गोपों को
भागवतपुराण तथा महाभारत हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है
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" अंशेन त्वं पृथिव्या वै ,प्राप्य जन्म यदो:कुले ।
भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र ,गोपालत्वं करिष्यसि ।१४।
(भागवतपुराण)
अंश रूप में तुम पृथ्वी पर जन्म प्राप्त करो ।
और भार्या के साथ संयुक्त रूप से गोपालन करोगे ।१४।
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वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं
पद्म पुराण में पहले आभीर- कन्या शब्द आया है फिर गोप -कन्या भी गायत्री के लिए ..
तथा अग्नि पुराण मे भी आभीरों (गोपों) की कन्या गायत्री का है ।
आभीरा स्तच्च कुर्वन्ति तत् किमेतत्त्वया कृतम्
अवश्यं यदि ते कार्यं भार्यया परया मखे ४०
एतत्पुनर्महादुःखं यदाभीरा विगर्दिता
वंशे वनचराणां च स्ववोडा बहुभर्तृका ५४
आभीरीति सपत्नीति प्रोक्तवंत्यः हर्षिताः
इति श्रीवह्निपुराणे नांदीमुखोत्पत्तौ ब्रह्मयज्ञ समारंभे प्रथमोदिवसो नाम षोडशोऽध्यायः संपूर्णः
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श्री कृष्ण एक ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं ।
जिनका सम्बन्ध असीरियन तथा द्रविड सभ्यता से भी है
इसका स्पष्ट प्रमाण हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक श्लोक में मिलता है।
छान्दोग्य उपनिषद :--(3.17.6 )
कल्पभेदादिप्रायेणैव “तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच” इत्युक्तम् । वस्तुतस्तस्य भगवदवतारात् भिन्नत्वमेव तस्य घोरा- ङ्गिरसशिष्यत्वोक्तेः
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कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि घोर- आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी !
जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे। श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था और गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है।
परन्तु कृष्ण का सम्पूर्ण आध्यात्मिक दृष्टि कोण प्राचीनत्तम द्रविड संस्कृति से अनुप्राणित है ।
किन्तु इनके जन्म और बाल-जीवन का जो वर्णन हमें प्राप्त है वह मूलतः श्रीमद् भागवत का है और वह ऐतिहासिक कम, काल्पनिक अधिक है ;
और यह बात ग्रन्थ के आध्यात्मिक स्वरूप के अनुसार ही है।
भागवत पुराण बारहवीं सदी की रचना है ।
जिसका निर्माण दक्षिणात्य के ब्राह्मणों ने किया ।
वस्तुतः भागवत में सृष्टि की संपूर्ण विकास प्रक्रिया का और उस प्रक्रिया को गति देने वाली परमात्म शक्ति का दर्शन काल्पनिक रूप में कराया गया है।
ग्रन्थ के पूर्वार्ध (स्कंध 1 से 9) में सृष्टि के क्रमिक विकास (जड़-जीव-मानव निर्माण) का और उत्तरार्ध (दशम स्कन्ध) में श्रीकृष्ण की लीलाओं के द्वारा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का वर्णन प्रतीक शैली में किया गया है।
भागवत में वर्णित श्रीकृष्ण लीला के कुछ मुख्य प्रसंगों का आध्यात्मिक संदेश पहचानने का यहाँ प्रयास किया गया है।
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हिन्दू कालगणना के अनुसार कृष्ण का जन्म आज से लगभग 5,235 ई सन् हुआ था ।
परन्तु कई वैज्ञानिक कारणों से प्रेरित कृष्ण का जन्म 950 ईसापूर्व मानना अधिक युक्ति युक्त है।
जो महाभारत युद्ध की कालगणना से मेल खाता है ।
यद्यपि महाभारत का रचना काल महात्मा बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में किया गया है ।
क्योंकि आदि पर्व में बुद्ध का ही वर्णन हुआ है।
बुद्ध का समय ई०पू० ५६३ के समकक्ष है ।
छान्दोग्य उपनिषद का अनुमान है, जो 8 वीं और 6 वीं शताब्दी ई.पू. के बीच कुछ समय में रचित हुआ था, प्राचीन भारत में कृष्ण के बारे में अटकलों का एक और स्रोत रहा है।
भागवत महापुराण के द्वादश स्कन्ध के द्वितीय अध्याय के अनुसार कलियुग के आरंभ के सन्दर्भ में भारतीय गणना के अनुसार कलयुग का शुभारंभ ईसा से 3102 वर्ष पूर्व 20 फ़रवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकण्ड पर हुआ था।
एेसा आनुमानिक रूप से माना है।
परन्तु यह तथ्य प्रमाण रूप नहीं हैं ।
पुराणों में बताया गया है कि जब श्री कृष्ण का स्वर्गवास हुआ तब कलयुग का आगमन हुआ, इसके अनुसार कृष्ण जन्म 4,500 से 3,102 ई०पूर्व के बीच मानना ठीक रहेगा। इस गणना को सत्यापित करने वाली खोज मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई। पुरातत्व वेत्ता मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला है , जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बच्चे का चित्र बना हुआ था, जो हमें भागवत आदि प से सम्बद्ध थे। पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर ले जाता है। इससे सिद्ध होता है कि कृष्ण 'द्रविड संस्कृति से सम्बद्ध हैं ।
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इसके अनुसार महाभारत का युद्ध 950 ई०पूर्व हुआ होगा जो पुरातात्विक सबूत की गणना में सटीक बैठता है। इससे कृष्ण जन्म का सटीक अनुमान मिलता है।
ऋग्वेद -- में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटवर्ती प्रदेश में रहता था ।
और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था।
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विदित हो कि अंशुमान् सूर्य का वाचक है देखें---
अंशु अस्त्यर्थे मतुप् ।
सूर्य्ये, अंशुशाल्यादयोप्यत्र ।
सूर्य्यवंश्ये असमञ्जःपुत्रे दिलीपजनके राजभेदे तत्कथा रा० आ० ४३ अ० । अंशुमति पदार्थमात्रे त्रि० ।
पुराणों में यमुना ओर यम को अंशुमान् के सन्तति रूप में वर्णित किया है ।
कृष्ण का जन्म वैदिक तथा हिब्रू बाइबिल में वर्णित यदु के वंश में हुआ था ।
वेदों में यदु को दास अथवा असुर कहा गया है ,तो यह तथ्य रहस्य पूर्ण ही है ।
यद्यपि ऋग्वेद में असुर शब्द पूज्य व प्राण-तत्व से युक्त वरुण , अग्नि आदि का वाचक है।
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'असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद में लगभग १०५ बार हुआ है। उसमें ९० स्थानों पर इसका प्रयोग 'शोभन' अर्थ में किया गया है और केवल १५ स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' का वाचक है। 'असुर' का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है- प्राणवन्त, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८) और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है। विशेषत: यह शब्द इंद्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है। इंद्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परंतु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है। असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: मेधावी') के नाम से विद्यमान है। यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे। अनंतर आर्यों की इन दोनों शाखाओं में किसी अज्ञात विरोध के कारण फूट पड़ी गई। फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरंभ किया और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का ('द एव' के रूप में) अपने धर्म के दानवों के लिए प्रयोग करना शुरू किया। फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इंद्र) अवस्ता में 'वेर्थ्रोघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था। (ऋक्. १०।१३८।३-४)
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शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं (तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु:)
ये लोग पश्चिमीय एशिया के प्राचीनत्तम इतिहास में असीरियन कहलाए ।
पतञ्जलि ने अपने 'महाभाष्य' के पस्पशाह्निक में शतपथ के इस वाक्य को उधृत किया है।
शबर स्वामी ने 'पिक', 'नेम', 'तामरस' आदि शब्दों को असूरी भाषा का शब्द माना है।
आर्यों के आठ विवाहों में 'आसुर विवाह' का संबंध असुरों से माना जाता है। पुराणों तथा अवांतर साहित्य में 'असुर' एक स्वर से दैत्यों का ही वाचक माना गया है।
यहूदी जन-जाति और असीरियन जन-जाति समान कुल गोत्र के अर्थात् सॉम या साम की सन्तानें थे ।
इसी लिए इन्हें सेमेटिक सोम वंश का कहा जाती है
पुराणों में सोम का अर्थ चन्द्रमा कर दिया।
इसी कारण ही कृष्ण को असुर कहा जाना आश्चर्य की बात नहीं है ।
यदु से सम्बद्ध वही ऋचा भी देखें---
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा।
यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।(१०/६२/१०ऋग्वेद )
इन्द्र और कृष्ण का युद्ध वर्णन पुराणों में वर्णित ही है ।
यद्यपि पुराण बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में रचित ग्रन्थ हैं ।
जबकि ऋग्वेद ई०पू० १५०० के समकक्ष की घटनाओं का संग्रहीत ग्रन्थ है ।
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पुराणों में कृष्ण को प्राय: एक कामी व रसिक के रूप में ही अधिक वर्णित किया है।
"क्योंकि पुराण भी एैसे काल में रचे गये जब भारतीय समाज में राजाओं द्वारा भोग -विलास को ही जीवन का परम ध्येय माना जा रहा था । बुद्ध की विचार -धाराओं के वेग को मन्द करने के लिए द्रविड संस्कृति के नायक कृष्ण को विलास पुरुष बना दिया ।"
कृष्ण की कथाओं का सम्बन्ध अहीरों से है ।
अहीरों से ही नहीं अपितु सम्पूर्ण यदु वंश से पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मण समाज का द्रोह चलता रहा ।
सत्य पूछा जाय तो ये सम्पूर्ण विकृतिपूर्ण अभिव्यञ्जनाऐं पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के काल से प्रारम्भ होकर अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध तक अनवरत
यादव अर्थात् आभीर जन जाति को हीन दीन दर्शाने के लिए योजना बद्ध तरीके से लिपिबद्ध ग्रन्थ रूप में हुई-
जो हम्हें विरासत में प्राप्त हुईं हैं ।
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इस्लाम को मानने वाले जो बहुपत्नीवाद में विश्वास करते हैं सदा कृष्ण जी महाराज पर १६००० रानी रखने का आरोप लगा कर उनका माखोल करते हैं|
और ऐसे कई उदाहरण आपको कृष्ण के नाम पर मिल जाएँगे..
श्री कृष्ण जी के चरित्र के विषय में ऐसे मिथ्या आरोप का अधर क्या हैं? इन अश्लील आरोपों का आधार हैं पुराण।
आइये हम सप्रमाण अपने पक्ष को सिद्ध करते हैं|
पुराण में गोपियों से कृष्ण का रमण करना ।
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विष्णु पुराण अंश ५ अध्याय १३ श्लोक ५९,६० में लिखा हैं :-
"गोपियाँ अपने पति, पिता और भाइयों के रोकने पर भी नहीं रूकती थी रोज रात्रि को वे रति “विषय भोग” की इच्छा रखने वाली कृष्ण के साथ रमण “भोग” किया करती थी "
कृष्ण भी अपनी किशोर अवस्था का मान करते हुए रात्रि के समय उनके साथ रमण किया करते थे. कृष्ण उनके साथ किस प्रकार रमण करते थे पुराणों के रचियता ने श्री कृष्ण को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी हैं ।
भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय ३३ श्लोक १७ में लिखा हैं – कृष्ण कभी उनका शरीर अपने हाथों से स्पर्श करते थे, कभी प्रेम भरी तिरछी चितवन से उनकी और देखते थे, कभी मस्त हो उनसे खुलकर हास विलास ‘मजाक’ करते थे.जिस प्रकार बालक तन्मय होकर अपनी परछाई से खेलता हैं वैसे ही मस्त होकर कृष्ण ने उन ब्रज सुंदरियों के साथ रमण, काम क्रीडा ‘विषय भोग’ किया.
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भगवांस्तदभिप्रेत्य कृष्णो योगेश्वरेश्वर:।
वयस्यैरावृतस्तत्र गतस्तत्कर्म सिद्धये।।८
तासां वासांस्यु पादाय नीपमारुह्य सत्वर:।
हसद्भि: प्रहसन् बालै: परिहासमुवाच ह ।९
अत्रागत्यबला: कामं स्वं स्वं वासं प्रगृह्यताम् ।
सत्यं ब्रवाणि नो नर्मयद् यूयं व्रतकर्शिता:।१०
न मयोदितपूर्वं वा अमृतं तदिमे विदु:।
एकैकश: प्रतीत् शध्वं ( प्रतीच्छध्वं)सहैवोत सुमध्यमा ।११।
तस्य तद् क्ष्वेलितं दृष्टवा गोप्य:प्रेम परिप्लुता :।।१०
व्रीडिता: प्रेक्ष्य चान्योन्यं जातहासा न निर्ययु:।।१२।
एवं ब्रवति गोविन्दे नर्मणा८८क्षिप्तचेतस: ।
आकण्ठमग्रा: शीतोदे वेपमानास्तमब्रुवन् १३।
मानयं भो: कृथास्त्वां तु नन्द गोपसुतं प्रियम्।
जानीमो अंग व्रजश्लाघ्यंदेहि वासांसि वेपिता:।१४
श्याम सुन्दर ते दास्य: करवाम तवोदितम् ।
देहि वांसासि धर्मज्ञ नो चेद् राज्ञे ब्रुवामहे ।।१५
(श्री भगवानुवाच)
भवत्यो यदि मे दास्यो मयोक्तं वा करिष्यथ ।
अत्रागत्य स्ववासांसि प्रतीचछन्तु शुचिस्मिता:।।१६
एक अश्लीलता से पूर्ण श्लोक देखें---
ततो जलाशयात् सर्वा दारिका: शीतवेपिता: ।
पाणिभ्यां योनिम्आच्छाद्य प्रोत्तेरु:शीतकर्शिता।१७
वे कुमारियाँ ठण्ड से ठिठुर रहीं थी काँप रही थी।
कृष्ण की ऐसी बातें सुनकर वे अपने दौनो हाथों से योनि को छुपाकर जलाशय से बाहर निकली ।उस समय ठण्ड उन्हें बहुत सता रही थी ।१७।
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भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय २९ श्लोक ४५,४६ में लिखा हैं :- कृष्णा ने जमुना के कपूर के सामान चमकीले बालू के तट पर गोपिओं के साथ प्रवेश किया. वह स्थान जलतरंगों से शीतल व कुमुदिनी की सुगंध से सुवासित था. वहां कृष्ण ने गोपियों के साथ रमण बाहें फैलाना, आलिंगन करना, गोपियों के हाथ दबाना , उनकी छोटी पकरना, जांघो पर हाथ फेरना, लहंगे का नारा खींचना, स्तन (पकड़ना) मजाक करना नाखूनों से उनके अंगों को नोच नोच कर जख्मी करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना और मुस्कराना तथा इन क्रियाओं के द्वारा नवयोवना गोपिओं को खूब जागृत करके उनके साथ कृष्णा ने रात में रमण (विषय भोग) किया ।
ऐसे अभद्र विचार कृष्णा जी
महाराज को कलंकित करने के लिए भागवत के रचियता नें स्कन्द १० के अध्याय २९,३३ में वर्णित किये हैं ।
जिसका सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए हम वर्णन नहीं कर सकते ।
राधा और कृष्ण का पुराणों में वर्णन राधा का नाम कृष्ण के साथ में लिया जाता हैं. महाभारत में राधा का वर्णन तक नहीं मिलता. राधा का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण में अत्यन्त अशोभनिय वृतान्त का वर्णन करते हुए मिलता हैं. ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय ३ श्लोक ५९,६०,६१,६२ में लिखा हैं ।
की गोलोक में कृष्ण की पत्नी राधा ने कृष्ण को पराई औरत के साथ पकर लिया तो शाप देकर कहाँ – हे कृष्ण ब्रज के प्यारे , तू मेरे सामने से चला जा तू मुझे क्यों दुःख देता हैं – हे चंचल , हे अति लम्पट कामचोर मैंने तुझे जान लिया हैं. तू मेरे घर से चला जा. तू मनुष्यों की भांति मैथुन करने में लम्पट हैं, तुझे मनुष्यों की योनि मिले, तू गौलोक से भारत में चला जा. हे सुशीले, हे शाशिकले, हे पद्मावते, ! यह कृष्ण धूर्त हैं इसे निकल कर बहार करो, इसका यहाँ कोई काम नहीं. ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय १५ में राधा का कृष्ण से रमण का अत्यंत अश्लील वर्णन लिखा हैं ।
जिसका सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए हम यहाँ विस्तार से वर्णन नहीं कर सकते हैं ।
ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय ७२ में कुब्जा का कृष्ण के साथ सम्भोग भी अत्यंत अश्लील रूप में वर्णित हैं ।
राधा का कृष्ण के साथ सम्बन्ध भी भ्रामक हैं । राधा कृष्ण के वामांग से पैदा होने के कारण कृष्ण की पुत्री थी ।
अथवा रायण से विवाह होने से कृष्ण की पुत्रवधु थी चूँकि गोलोक में रायण कृष्ण के अंश से पैदा हुआ था इसलिए कृष्ण का पुत्र हुआ जबकि पृथ्वी पर रायण कृष्ण की माता यसोधा का भाई था ।
इसलिए कृष्ण का मामा हुआ जिससे राधा कृष्ण की मामी हुई|
कृष्ण की गोपिओं कौन थी? पदम् पुराण उत्तर खंड अध्याय २४५ कलकत्ता से प्रकाशित में लिखा हैं :-
की रामचंद्र जी दंडक -अरण्य वन में जब पहुचें तो उनके सुंदर स्वरुप को देखकर वहां के निवासी सारे ऋषि मुनि उनसे भोग करने की इच्छा करने लगे ।
उन सारे ऋषिओं ने द्वापर के अन्त में गोपियों के रूप में जन्म लिया और रामचंद्र जी कृष्ण बने तब उन गोपियों के साथ कृष्ण ने भोग किया ।
इससे उन गोपियों की मोक्ष हो गई ।
अन्यथा अन्य प्रकार से उनकी संसार रुपी भवसागर से मुक्ति कभी न होती ।
क्या गोपियों की उत्पत्ति का दृष्टान्त बुद्धि से स्वीकार किया जा सकता हैं?
श्री कृष्ण का वास्तविक रूप अब हम योगिराज, नीति- निपुण , महान कूटनीतिज्ञ श्री कृष्ण जी महाराज के विषय में उनके सत्य रूप को जानोगे |
कृष्ण की २ या ३ या १६००० पत्नियाँ होने का सवाल ही पैदा नहीं होता. रुक्मणी से विवाह के पश्चात श्री कृष्ण रुक्मणी के साथ बदरिक आश्रम चले गए और १२ वर्ष तक तप एवं ब्रहमचर्य का पालन करने के पश्चात उनका एक पुत्र हुआ जिसका नाम प्रद्धुम्न था. यह श्री कृष्ण के चरित्र के साथ अन्याय हैं ।
की उनका नाम १६००० गोपियों के साथ जोड़ा जाता हैं. महाभारत के श्री कृष्ण जैसा अलोकिक पुरुष , जिसे कोई पाप नहीं किया और जिस जैसा इस पूरी पृथ्वी पर कभी-कभी जन्म लेता हैं ।
वहीँ श्री कृष्ण जी महाराज की श्रेष्ठता समझे की उन्होंने सभी आगन्तुक अतिथियो के धुल भरे पैर धोने का कार्य भार लिया. श्री कृष्ण जी महाराज को सबसे बड़ा कूटनितिज्ञ भी इसीलिए कहा जाता हैं क्यूंकि उन्होंने बिना हथियार उठाये न केवल दुष्ट कौरव सेना का नाश कर दिया बल्कि धर्म की राह पर चल रहे पांडवो को विजय भी दिलवाई|
क्या है राधा का सच|
राधा का अर्थ है सफ़लता |
यजुर्वेद के प्रथम अध्याय का पांचवा मंत्र, ईश्वर से सत्य को स्वीकारने तथा असत्य को त्यागने के लिए दृढ़प्रतिज्ञ रहने में सफ़लता की कामना करता है |
कृष्ण अपनी जिंदगी में इन दृढ़ संकल्पों और संयम का मूर्तिमान आदर्श थे |
पश्चात किसी ने किसी समय में इस राधा (सफ़लता) को मूर्ति में ढाल लिया |
उसका आशय ठीक होगा परंतु उसी प्रक्रिया में ईश्वर पूजा के मूलभूत आधार से हम भटक गये, तुरंत बाद में अतिरंजित कल्पनाओं को छूट दे गई और राधा को स्त्री के रूप में गढ़ लिया, यह प्रवृत्ति निरंतर जारी रही तो कृष्ण के बारे में अपनी पत्नी के अलावा अन्य स्त्री के साथ व्यभिचार चित्रित करनेवाली कहानियां गढ़ ली गयीं और यह खेल चालू रहा|
ऐसे महान व्यक्तित्व पर चोर, लम्पट, रणछोर, व्यभिचारी, चरित्रहीन , कुब्जा से समागम करने वाला आदि कहना अन्याय नहीं तो और क्या हैं और इस सभी मिथ्या बातों का श्रेय पुराणों और उनके रचयिता को जाता हैं|
इसलिए महान कृष्ण जी महाराज पर कोई व्यर्थ का आक्षेप न लगाये एवं साधारण जनों को श्री कृष्ण जी महाराज के लिए पुराणों और भागवत में कही गयी अनर्गल और मिथ्या बाते जो कृष्ण के चरित्र को कलंकित करती हैं उनका बहिष्कार करें ।
यद्यपि अवान्तर काल में महाभारत में भी वाल्मीकि-रामायण के उत्तर काण्ड के सादृश्य पर मूसल पर्व का काल्पनिक रूप से निर्माण कर आभीरों अथवा यादवों को ही स्वयं अपने ही गोपिकाओं को लूटने का विरोधाभासी वर्णन महाभारत की प्रमाणिकता को सन्दिग्ध कर देता है
महाभारत में महात्मा बुद्ध को भी वर्णित किया गया है।
पुराणों के समान अत: यह सर्व ब्राह्मण वर्चस्व को स्थापित कर ने का उपक्रम मात्र हैं ।
भीष्म पर्व में वर्णित श्रीमद्भगवद् गीता में आध्यात्मिक विचारों का प्रकाशन अवश्य कृष्ण से सम्बद्ध है ।
परन्तु इसमें भी
"वर्णानां ब्राह्मणोsहम् "
तथा "चातुर्यवर्णं मया सृष्टं गुण कर्म विभागश:"
ब्राह्मण वाद का आदर्श प्रस्तुत करना ही है ।
परन्तु ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त के दशम् ऋचा में गोप जन-जाति के पूर्व प्रवर्तक एवम् पूर्वज यदु को दास अथवा असुर के रूप में वर्णित किया गया है।
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।
(10/62/10 ऋग्वेद )
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास गायों से घिरे हुए हैं । अत: सम्मान के पात्र हैं |
यद्यपि पौराणिक कथाओं में यदु नाम के दो राजा हुए ।
एक हर्यश्व का पुत्र यदु तथा एक ययाति का पुत्र और तुर्वसु का सहवर्ती यदु ।
आभीर जन जाति का सम्बन्ध तुर्वसु के सहवर्ती यदु से है ।
जिसका वर्णन हिब्रू बाइबिल में भी है ।
यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है ।
हरिवंश पुराण में आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय
वाची हैं ।
सुदेवदेवक्यौ च कश्यपादिती।
तौच वरुणस्य गोहरणात् ब्रह्मणः शापेन गोपालत्वमापतुः।
यथाह (हरिवंश पुराण :- ५६ अध्याय )
“इत्यम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत!
गवां का-रणतत्त्वज्ञः कश्यपे शापमुत्सृजम्। येनांशेन हृता गावःकश्यपेन महात्मना। स तेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्व-मेष्यति।
या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारणी।
उभे ते तस्य वै भार्य्ये सह तेनैव (यास्यतः।
ताभ्यांसह स गोपत्वे कश्यपो भुवि रंस्यते। तदस्य कश्यपस्यां-शस्तेजसा कश्यपोपमः वसुदेव इति ख्यातो गोषु ति-ष्ठति भूतले।
गिरिर्गोवर्द्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरतः।
तत्रासौ गोष्वभिरतः कंसस्य करदायकः। तस्यभार्य्या-द्वयञ्चैव अदितिः सुरभिस्तथा।
देवकी रोहिणी चैववसुदेवस्य धीमतः। तत्रावतर लोकानां भवाय मधुसू-दन!।
जयाशीर्वचनैस्त्वेते वर्द्धयन्ति दिवौकसः। आत्मानमात्मना हि त्वमवतार्य्य महीतले। देवकीं रो-हिणीञ्चैव गर्भाभ्यां परितोषय।
तत्रत्वं शिशुरेवादौगोपालकृतलक्षणः। वर्द्धयस्व महाबाहो! पुरा त्रैविक्रमेयथा॥ छादयित्वात्मनात्मानं मायया गोपरूपया।
गोपकन्यासहस्राणि रमयंश्चर मेदिनीम्। गाश्च ते र-क्षिता विष्णो! वनानि परिधावतः। वनमालापरिक्षिप्तंधन्या द्रक्ष्यन्ति ते वपुः।
विष्णो! पद्मपलाशाक्ष! गोपाल-वसतिङ्गते। बाले त्वयि महाबाहो।
लोको बालत्व-मेष्यति। त्वद्भक्ताः पुण्डरीकाक्ष! तव चित्तवशानुगाः।
गोषु गोपा भविष्यन्ति सहायाः सततन्तव। वने चार-यतो गास्तु गोष्ठेषु परिधावतः।
मज्जतो यमुनायान्तुरतिमाप्स्यन्ति ते भृशम्। जीवितं वसुदेवस्य भविष्यतिसुजीवितम्। यस्त्वया तात इत्युक्तः स पुत्र इति वक्ष्यति।
अथ वा कस्यं पुत्रत्वं गच्छेथाः कश्यपादृते। का वा धारयितुं शक्ता विष्णो! त्वामदितिं विना।
योगेनात्मसमुत्थेन गच्छत्व विजयाय वै” इति विष्णुं प्रतिब्रह्मोक्तिः।
ताभ्यां तस्योत्पत्तिकथा च तत्र .........
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हे अच्यत् ! वरुण ने कश्यप को पृथ्वी पर वसुदेव के रूप में गोप होकर जन्म लेने का शाप दे दिया ।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड मे नरेन्द्र सैन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध कन्या मान कर ब्रह्मा ने विवाह कर लिया है ।
परन्तु व्यास-स्मृति के अध्याय प्रथम के श्लोक ११-१२ में गोप शूद्र के रूप में हैं ।
यहाँ एक तथ्य और स्पष्ट कर दें कि इतिहास वस्तुतः एकदेशीय अथवा एक खण्ड के रूप में कदापि नहीं होता है ; बल्कि अखण्ड और सार -भौमिक होता है छोटी-मोटी घटनाऐं इतिहास नहीं हैं ।
तथ्य- परक विश्लेषण इतिहास कार की आत्मिक प्रवृति है ।
और निश्पक्षता उस तथ्य परक पद्धति का कवच है । -----------------------------------------------------------------
सत्य के अन्वेषण में प्रमाण ही ढ़ाल हैं ;जो वितण्डावाद के वाग्युद्ध हमारी रक्षा करता है ;
अथवा हम कहें कि विवादों के भ्रमर में प्रमाण पतवार हैं ,🏄🏄
अथवा पाँडित्यवाद के संग्राम में सटीक तर्क 'रोहि' किसी अस्त्र से कम नहीं हैं।
मैं दृढ़ता से अब भी कहुँगा ।
सांस्कृतिक और ऐतिहासिक ,गतिविधियाँ कभी भी एक-भौमिक नहीं, अपितु विश्व-व्यापी होती है !
क्यों कि इतिहास अन्तर्निष्ठ प्रतिक्रिया नहीं है. इतिहास एक वैज्ञानिक व गहन विश्लेषणात्मक तथ्यों का निश्पक्ष विवरण है "
विद्वान् इस तथ्य पर अपनी प्रतिक्रियाऐं अवश्य दें ... ------------------------------------------------
यह एक शोध - लिपि है जिसके समग्र प्रमाण ।
यादव योगेश कुमार 'रोहि' के द्वारा अनुसन्धानित
है ।
अत: कोई जिज्ञासु इस विषय में इन से विचार- विश्लेषण कर सकता है
(. सम्पर्क - सूत्र ----8077160219. )