गोषा -गां सनोति सेवयति सन् (षण् )धातु विट् प्रत्यय ।
अर्थात् --जो गाय की सेवा करता है ।
गोदातरि “गोषा इन्द्रीनृषामसि” “
शर्म्मन् दिविष्याम पार्य्ये गोषतमाः” ऋग्वेद ६ । ३३ । ५ ।
अत्र “घरूपेत्यादि” पा० सू० गोषा शब्दस्य तमपि परे ह्रस्वः ।
गोषन् (गोष: )गां सनोति सन--विच् ।
“सनोतेरनः” पा० नान्तस्य नित्यषत्वनिषेधेऽपि पूर्वपदात् वा षत्वम् ।
गोदातरि “शंसामि गोषणो नपात्” ऋग्वेद ४ । ३२ । २२ ।
उपर्युक्त ऋचाओं गोषन् तथा गोषा गोसेवक को वाचक हैं
लौकिक भाषा में यही घोष रूप में यादवों की की गोपालन वृत्ति को सूचित करने लगा ।
हैहय वंश पुराणों में वर्णित भारत का एक प्राचीन यादव राजवंश था।
यदु के चार पुत्र थे –
(I) सहस्त्रजित, (II) क्रोष्टा, (III) नल (IV) रिपु.
हैहय वंश यदु के ज्येष्ठ पुत्र सहस्रजित के पुत्र का नाम शतजित था।
शतजित के तीन पुत्र थे – महाहय, वेणुहय तथा हैहय. इसी हैहय के नाम पर हैहय वंश का उदय हुआ.
हैहय का पुत्र धर्म, धर्म का नेत्र, नेत्र का कुन्ति, कुन्ति का सहजित, सहजित का पुत्र महिष्मान हुआ,
जिसने महिष्मतिपुरी को बसाया ।
महिष्मान का पुत्र भद्रश्रेन्य हुआ. भद्रश्रेन्य के दुर्दम और दुर्दम का पुत्र धनक हुआ ।
धनक के चार पुत्र हुए – कृतवीर्य, कृताग्नी, कृतवर्मा और कृतौना. कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन था।
अजुर्न ख्यातिप्रात एकछत्र सम्राट था।
उसे कार्तवीर्य अर्जुन और सहस्त्रबाहु अर्जुन भी कहते थे।
हरिवंश पुराण के अनुसार हैहय, सहस्राजित का पौत्र तथा यदु का प्रपौत्र था।
श्रीमद्भागवत महापुराण के नवम स्कंध में इस वंश के अधिपति के रूप में एक कार्तवीर्य अर्जुन नामक राजा का उल्लेख किया गया है।👇
पुराणों में हैहय वंश का इतिहास सोम की तेईसवी पीढ़ी में उत्पन्न वीतिहोत्र के समय तक पाया जाता है।
इसी हैहयों के वंशज थे दमघोष :---
सोम सैमेटिक संस्कृतियों से आदि प्रवर्तक साम का भारतीय रूपान्तरण है ।
जिसे बाद में सोम की अर्थ चन्द्रमा करके चन्द्र वंश कर दिया ।
श्रीमद्भागवत के अनुसार ब्रह्मा की बारहवी पीढ़ी में हैहय का जन्म हुआ।
ब्रह्मा सुमेरियन माइथॉलॉजी में अब्राहम के रूप में है ।
हरिवंश पुराण के अनुसार ग्यारहवी पीढ़ी में हैहय तीन भाई थे जिनमें हैहय सबसे छोटे भाई थे।
हैहय के शेष दो भाई-महाहय एवं वेणुहय थे जिन्होंने अपने-अपने नये वंशो की परंपरा स्थापित की।
त्रिपुरी के कलचुरी वंश को हैहय वंश भी कहा जाता है। गुजरात के सोलंकी अथवा चालुक्य वंश से इसका दीर्घ काल तक संघर्ष चलता रहा ।
महापद्म द्वारा उन्मूलित प्रमुख राजवंशों में 'हैहय', जिसकी राजधानी महिष्मती (माहिष्मति) थी, का भी नाम है।
पौराणिक कथाओं में माहिष्मती को हैहयवंशीय कार्तवीर्य अर्जुन अथवा सहस्त्रबाहु की राजधानी बताया गया है।
परशुराम से कार्तवीर्य का भयंकर युद्ध हुआ था ।
उत्तर भारत से नागरी लिपि के ढेरों अभिलेख मिलते हैं। इनमें गुहिलवंशी, चाउ-हुन (चौहान) वंशी, राष्ट्रकूट, चालुक्य (सोलंकी), परमार, चंदेलवंशी, हैहय (कलचुरी) आदि राजाओं के नागरी लिपि में लिखे हुए दानपत्र तथा शिलालेख प्रसिद्ध हैं।
चीनी यात्री युवानच्वांग, 640 ई. के लगभग इस स्थान पर आया था।
उसके लेख के अनुसार उस समय माहिष्मती में एक ब्राह्मण राजा राज्य करता था।
क्यों की यादवों की संहार परशुराम ने किया
औव स्थान यादव शून्य हो गया तब वहाँ ब्राह्मणों का राज हो गया ।
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एक बार कार्तवीर्य अर्जुन ने वाणों से समुद्र को त्रस्त कर किसी परम वीर के विषय में पूछा।
समुद्र ने उसे परशुराम से लड़ने को कहा।
परशुराम को उसने अपने व्यवहार से बहुत रुष्ट कर दिया। अत: परशुराम ने उसकी हज़ार भुजाएं काट डालीं।
किंवदंती है कि सहस्त्रबाहु ने अपनी सहस्त्र भुजाओं से नर्मदा का प्रवाह रोक दिया था।
एक क्षत्रिय वंश जो यदु से उत्पन्न कहा गया है ।
विशेष—पुराणों में इस वंश की पाँच शाखाएँ कही गई हैं —ताल- जंघ, वीतिहोत्र, आवंत्य, तुंडिकेर और जात (जाट) ।
लिखा है कि हैहयों ने शकों के साथ साथ भारत के अनेक देशों के जीता था ।
प्राचीन काल का इस वंश का सबसे प्रसिद्ध राजा कार्तवीर्य सहस्त्रार्जुन हुआ था जिसे सहस्त्र भुजाएँ थीं । इसने परशुराम के पिता जमदग्नि को मारकर उनकी गायों का हरण कर लिया जिससे क्रुद्ध हो परशुराम ने इसे मारा था ।
इतिहास में हैहय वंश कलचुरि के नाम से प्रसिद्ध है । विक्रम संवत् ५५० और ७९० के बीच हैहयों का राज्य चेदि देश और गुजरात में था ।
हैहयों ने एक संवत् भी चलाया था जो कलचुरि संवत् कहलाता था और विक्रम संवत् ३०६ से आरंभ होकर १४ वीं शताब्दी तक इधर उधर चलता रहा ।
हैहयों का श्रृंखलाबद्ध इतिहास विक्रम संवत् ९२० के आसपास मिलता है, इसके पूर्व चालुक्यों आदि के प्रसंग में इधर उध र हैहयों का उल्लेख मिलता है । कोकल्लदेव (वि॰ सं॰ ९२०- ९६०) मु्ग्धतुंग, बालहर्ष, केयूरवर्ष (वि॰ सं॰ ९९० के लगभग); शंकरगण युवराजदेव (वि॰ सं॰ १०५० के लगभग), गागेयदेव, कर्णदेव आदि बहुत से हैहय राजाओं के नाम शिला- लेखों में मिलते हैं ।
२. हैहयवंशी कार्तवीर्य सहस्रार्जुन ।
३. एक देश का नाम जहाँ हैहय जाति का निवास था ।
४. बृहत्संहिता के अनुसार पश्चिम दिशा का एक पर्वत ।
हैहय भारत का एक प्राचीन राजवंश था।
हरिवंश पुराण के अनुसार हैहय, सहस्राजित का पौत्र तथा यदु का प्रपौत्र
यादव वंशगत विशेषण था
जबकि गोप , गौश्चर: गोष: वाद में घोष: पल्लव, पाल आभीर गोधुक् गावधुक् गावदी ( गद्दी) गुप्त ये सभी गुप्त काल में यादवों के विशेषण थे ।
इनमें आभीर प्राचीनत्तम विशेषण है।👇
ब्राह्मण और राजपूत बौद्ध के परवर्ती काल खण्ड में रचित महाभारत तथा भागवतपुराण से यह श्लोक उद्धृत करते हैं👇
ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: ।
आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना: ।।४७
(महाभारत मूसल पर्व अष्टम् अध्याय)
जिस में अहीरों को अर्जुुन को परास्त कर ने वाला बताया है ।
और भागवत में अहीरों को गोपों के रूप में वर्णन किया है ये नारायणी सेना के गोप ही थे ।
भारतीय वेदौं में यदु की वर्णन देव विरोधी है ।
अत: देवोंसे इन्हें वश में करने की प्रार्थना की गयी है👇
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प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ
नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७)
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !
ऋग्वेद में भी यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को अपने अधीन करो ।
और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम है ।...
देखें---
अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय , शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था ।
उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों को शासन (वश) में किया ।
यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा
जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज- असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज- हैं
भारतीय पुराणों में साम सोम हो गया ।
यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है देखें--और भी
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सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७)
हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ।
अर्थात् उनका हनन कर डाला ।
अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
निह्नवाकर्त्तरि ।
“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है ।
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किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं
त्वां श्रृणोमि ।।
अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/
हे इन्द्र तुम भोगने वाले हो ।
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो ।
मुझे क्षीण न करो ।
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यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे ।
यहूदियों के वंशज पुरानी दुनियाँ के सबसे बड़े चरावाहे थे।
यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है ।
अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है ।
ईरानी असुर संस्कृति में दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।
यदु एेसे स्थान पर रहते थे।
जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था
ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है ।
(उष ष्ट्रन् किच्च )
ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )।
(ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् । “हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति” “नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम्
देखें---ऋग्वेद में
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शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे ।
राधांसि यादवानाम्
त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६।
उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।१७।
यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !
ऋग्वेद ८/६/४६
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यह स्थान इज़राएल अथवा फलस्तीन ही है ।
ब्राह्मणों का आगमन यूरोप स्वीडन से मैसॉपोटमिया सुमेरो-फोनियन के सम्पर्क में रहते हुए हुआ है ।👇
सुमेरियन पुरातन कथाओं में (बरमन) /बरम (Baram) पुरोहितों को कहते है ।
ईरानी मे बिरहमन तथा जर्मनिक जन-जातियाँ में ब्रेमन ब्रामर अथवा ब्रेख्मन
ब्राह्मण शब्द का तद्भव है।
पुष्य-मित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मणों ने अहीरों( यादवों से सदीयों से घृणा की है )उन्हें ज्ञान से वञ्चित किया और उनके इतिहास को विकृत किया और उन्हें दासता की जञ्जीरों में बाँधने की कोशिश भी की परन्तु अहीरों ने दास (गुलाम) न बन कर दस्यु बनना स्वीकार किया ।
ईरानी भाषा में दस्यु तथा दास शब्द क्रमश दह्यु तथा दाहे के रूप में हैं ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।
उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
यदु और तुर्वसु नामक दौनो दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की प्रशंसा करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है ।
🐂जो अहीरों का वाचक है ।
अमरकोश में जो गुप्त काल की रचना है । उसमें अहीरों के अन्य नाम- पर्याय वाची रूप में वर्णित हैं।
आभीर पुल्लिंग विशेषण संज्ञा
गोपालः
समानार्थक: १-गोपाल,२-गोसङ्ख्य,३-गोधुक्,४-आभीर,५-वल्लव,६-गोविन्द,७-गोप
(2।9।57।2।5 अमरकोशः)
कामं प्रकामं पर्याप्तं निकामेष्टं यथेप्सितम्. गोपे गोपालगोसंख्यगोधुगाभीरवल्लवाः॥
पत्नी : आभीरी
सेवक : गोपग्रामः
वृत्ति : गौः
: गवां-स्वामिः गायों का स्वामी ।
और यदु पुराणों की बात करें तो महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण में वसुदेव को गोप रूप में वर्णित किया गया है ।
पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ट संख्या २३० अनुवादक पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)
एक समय महात्मा वरुण के पास कुछ यज्ञ- काल के लिए दूध देने योग्य कुछ योग्य गायें थी ।
एक वार प्रजापति भगवान् कश्यप उन गायों को महात्मा वरुण से माँग कर ले गये ।
तो कश्यप की भार्याओं अदिति और सुरभि ने गायें वरुण को लोटाने में अनिच्छा प्रकट की ।१०-११।
तब ब्रह्मा जी ने विष्णु से कहा कि तब एक वार वरुण मेरे पास आकर तथा मुझे प्रणाम करके बोले भगवन् !
मेरी समस्त गायें मेरे पिता भगवान् कश्यप ने ले ली हैं ।यद्यपि उनका कार्य सम्पन्न हो चुका है ।
किन्तु उन्होंने मेरी गायें नहीं लौटायीं हैं ।
और अपनी दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि का समर्थन कर रहे हैं
हे पितामह ब्रह्मा चाहें कोई स्वामी हो , या गुरू हो अथवा कोई भी क्यों न हो । सभी को निर्धारित सीमा का उल्लंघन कने पर आप दण्डित अवश्य करते हो !
आपके अतिरिक्त मेरा कोई सहायक नहीं है ।क्यों कि आप ही मेरे अत्यन्त हितैषी हो ।
यदि इस जगत् में अपराधी अपने अपराध के लिए नियमित रूप से दण्डित न हो ! तो इस समस्त संसार में अव्यवस्था उत्पन्न होकर संसार का विनाश हो जाएग तथा इसकी मर्यादा-भंग हो जाएगी ।१६-१७। हे ब्रह्मन् इस सन्दर्भ में और कु नहीं , केवल अपनी गायें वापस चाहता हूँ।
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"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१
येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२
द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण:
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।
तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।
देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७।
सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति।
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अनुवादित रूप :----हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया।
तथा कहा
।२१। कि कश्यप ने अपने जिस तेज से प्रभावित होकरउन गायों का अपहरण किया ।
उस पाप के प्रभाव वश होकर भूमण्डल पर आहीरों (गोपों)का जन्म धारण करें ।२२।
तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि उनकी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर उनके साथ जन्म धारण करेंगी ।२३। इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।
हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में कश्यप के तेज स्वरूप वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेना करते हुए जीवन यापन करते हैं।
मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है ।उसी पर पापा कंस के अधीन होकर गोकुल पर राजंय कर रहे हैं।
कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं ।२४-२७।
(उद्धृत सन्दर्भ )
पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ट संख्या २३० अनुवादक पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)
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गोप अयनं य: केरुते जगत: सर्वलौककम् ।
स कथ गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत ।।९।
अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की
रक्षा करनें में समर्थ है ।
वे ही इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ।९।
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हरिवंश पुराण "वराह नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ट संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)
जो प्रभु भूतल के सब जीवों की रक्षा करनें में समर्थ है ।
वे ही इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ।
और भी देखें--- हरिवंश पुराण में यादवों अथवा गोपों के लिए घोष (घोषी) शब्द का बहुतायत से प्रयोग है ।
ताश्च गाव: स घोषस्तु स च सकर्षणो युवा।
कृष्णेन विहितं वासं तमध्याससत निर्वृता ।३५।
अर्थात् उस वृदावन में सभी गौएें गोप (घोष) तथा संकर्षण आदि सब कृष्ण के साथ आनन्द पूर्वक निवास करने लगे ।३५।
हरिवंश पुराण श्रीकृष्ण का वृन्दावन गमन नामक ४१वाँ अध्याय।
परन्तु यादव विरोधी पाण्डित्य हास्यास्पद ही है
भागवत पुराण में प्रक्षिप्त (नकली) अंश भी देखें---लिखा है
" सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन ।
सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।। अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।
( अध्याय एक (पृष्ट संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर )
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हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा -प्रिय मित्र ---नहीं नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम से मैं रहित हो गया । कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया ।
और मैं अर्जुन उनकी रक्षा नहीं कर सका ! महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग --
ततो लोभ: समभवद् दस्यूनां निहतेश्वरा:। दृष्टवा स्त्रीयो नीयमाना: पार्थेनैकेन भारत ।४६।
हे भरत नन्दन! एकमात्र अर्जुन के संरक्षण में लायी जाती हुई स्त्रीयों को देख कर वहाँ रहने बाले डाँकूओं के मन मे लोभ उत्पन्न हो गया ।
ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: ।
आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना: ।। ४७।।
यहाँ दास शब्द का अर्थ जन-जाति विशेष के रूप में वर्णित है।
न कि गुलाम के अर्थ में ।
असुर का अर्थ भी ईरानी भाषा में पूज्य तथा शक्ति सम्पन्न है।
और ईरानी भाषा में देव( 'दएव' ) का अर्थ लम्पट कामुक तथा दुष्ट आदि है ।
अवेस्ता ए झन्द ईरानी धर्म-ग्रन्थ में दस्यु का अर्थ श्रेष्ठ तथा दक्ष है ।
संस्कृत साहित्य में दस्यु :- डाँकू अथवा डकैत Daicoit को कहते है ।
और चोर और डकैत Daicoit में जमीन आसमान का अन्तर है ।
डकैतों ने अपने शत्रुओं को ही लूटा किसी गरीब़-लाचार को नहीं !
यह इतिहास गवाह है ।
१९८७ में डकैत हिन्दी फिल्म इसी सच्चाई पर आधारित है ।
बौद्ध काल के परवर्ती काल खण्ड में पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१४८ के समकक्ष पुष्यमित्र सुंग के निर्देशन में यदु की सन्तति यादवों / आभीरों को लक्ष्य करके कुछ विरोधाभासी वर्णन काल्पनिक रूप में हुए ।
जिसका हवाला प्राय: ब्राह्मण तथा राजपूत अथवा ठाकुर या क्षत्रिय देते हैं ।
वे यादवों से अहीरों को पृथक करते हैं ।
और ऐसा करने में ही सारी शक्ति लगा देते हैं ।
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वाल्मीकि-रामायण में उत्तर काण्ड तथा महाभारत मे मूसल कण्ड समकालिक रचना हैं ।
और लिखने वाले भी समान हैं।
आइए विचार करते हैं ।
इनकी सत्यता पर --
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तं देवकी च भद्रा रोहिणी मदिरा तथा ।
अन्वारोहन्त च तदा भर्तारं योषितां वरा:।।१८
अर्थात् युवतियों में श्रेष्ठ देवकी,भद्रा, रोहिणी और मदिरा ---ये सबकी सब अपने पति वसुदेव की चिता पर आरूढ़ होने को तैयार हो गयीं।
ये वर्णन पुष्यमित्र सुंग कालीन सती प्रथा की झलक है ।
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अनुजग्मुश्च तं वीरं देवस्यता वै स्वलंकृता: ।
स्त्रीसहस्रै: परिवृता वधूभिश्च सहस्रश: ।।२२।
वीर वसुदेव की पत्नीयाँ वस्त्रों तथा आभूषणों से सजधज कर हजारों पुत्रवधूओं और अन्य स्त्रीयों के साथ अपने पति की अरथी के पीछे पीछे चलरहीं थी ।
यस्तु देश: प्रियस्तस्य जीवतो८भून्महात्मन:।
तत्रैनमुपसंकल्प्य पितृमेधं प्रचक्रिरे ।।२३।
महात्मा वसुदेव को अपने जीवन काल में जो स्थानों विशेष -प्रिय था ।वहीं ले जाकर अर्जुन आदि ने उनका दाह संस्कार किया ।
यद्यपि वसुदेव बटेसुर के निवासी थे ।तब द्वारिका से लाकर क्या यहाँ जलाये ?
तं चिताग्नि गतं वीरं शूर पुत्रं वरांगना : ।
ततो ८न्वारुरुह: पत्न्यश्चतस्र: पतिलोकगा: ।।२४।
चिता की प्रज्वलित स्थित वसुदेव के साथ पहले कही गयी चारौ पत्नीयाँ चिता पर बैठ कर पतिलोक को चली गयीं ।
पुत्राश्चान्धकवृष्णीनां सर्वे पार्थमनुव्रता:।
ब्राह्मणा : क्षत्रिया वैश्या: शूद्राश्चैव महाधना:।।३७।
दशषट् च सहस्राणि वसुदेवावरोधनम् ।
पुरुस्कृत्य ययुर्वज्रं पौत्रं कृष्णस्य धीमत:।३८।
अन्धक और वृष्णि वंश के समस्त बालक -अर्जुन में श्रृद्धा रखते थे ।वे तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा महाधनी शूद्र और कृष्ण की सोलह हजार रानीयाँ -- सब की सब बुद्धिमान कृष्ण के पौत्र वज्र को आगे करके चल रहे थे ।
आर्य समाज के विद्वान् कहते हैं कि महाभारत में कृष्ण की केवल एक पत्नी रुक्मणी थी ।
और यहाँ सोलह हजार रानीयाँ हैं ।
बहूनि च सहस्राणि प्रयुतान्यर्बुदानि च ।
भोज वृष्ण्यन्धक स्त्रीणां हतनाथानि निर्ययु:।३९।
तत्सागरसमप्रख्यं वृष्णि चक्रंमहर्धिमत्।
उवाह रथीनां श्रेष्ठ:पार्थ: परपुरञ्जय: ।४०।
अर्थात् भोज वृष्णि अन्धक कुल की अनाथ स्त्रीयों की संख्या कई हजारों,लाखों और अरबों तक पहुँच गयी ।
वे सब द्वारिका पुरी से बाहर निकली। वृष्णि वंश का वह महान समृद्ध शाली मण्डल महासागर के समान प्रतीत होता था । शत्रु नगरी पर विजय पाने वाले रथीयों में श्रेष्ठ अर्जुन उसे अपने साथ लेकर चला ।
निर्याते तु जने तस्मिन् सागरो मकरालय: ।
द्वारिकां रत्नसम्पूर्णो जलेनप्लावयत् तदा ।४१।
अर्थात् उस जन समुदाय के निकलते ही नगरों और खड़ियालों के निवास स्थान समु्द्र ने रत्नों से भरा -पूरी द्वारिका को जल में डबो दिया । वस्तुत यह अस्वाभाविक वर्णन है।
स पञ्चनदमासाद्य धीमानतिसमृद्धिमत् ।
देशे गोपशु धान्याढ्ये निवासमकरोत् प्रभु ।।४५।
चलते चलते बुद्धिमान और सामर्थ्य शाली अर्जुन ने अत्यधिक समृद्ध शाली पंजाब में पहुँच कर ,जो गौ ,पशु तथा धनधान्य से सम्पन्न था ।ऐसे प्रदेशों में पढ़ाब डाला
ततो लोभ: समभवद् दस्यूनां निहतेश्वरा:।
दृष्टवा स्त्रीयो नीयमाना: पार्थेनैकेन भारत ।४६।
हे भरत नन्दन! एकमात्र अर्जुन के संरक्षण में लायी जाती हुई स्त्रीयों को देख कर वहाँ रहने बाले डाँकूओं के मन मे लोभ उत्पन्न हो गया ।
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ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस: ।
आभीरा मन्त्रामासु: समेत्याशुभ दर्शना: ।।४७।
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वाल्मीकि-रामायण की भाषा से साम्य
उग्रदर्शन कर्मणो बहवस्तत्र दस्यवः।
आभीर प्रमुखाः पापाः पिबन्ति सलिलं मम।३३।
यहाँ पापा कर्माणो तथा उग्र या अशुभ दर्शन दौनो विशेषण समान हैं । जो सिद्ध कर के हैं कि ये अहीरों के विषय में लिखने वाला एक है ।
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अर्थात् लोभ से जिनकी विवेक शक्ति नष्ट हो गयी ।उन अशुभ दर्शी पापा चारी अहीरों ने परस्पर मिलकर सलाह की ।
अयमेको८र्जुनो धन्वी वृद्ध बालं हतेश्वरम्।
नयत्यसमानतिक्रम्य योधाश्चेमे हतौजस: ।४८।
ये अकेला अर्जुन धनुर्धरऔर ये हतोत्साहित सैनिक हम को लांघकर वृद्धों और बालकों के इस अनाथ समुदाय को लिए जारहे हैं ।
अत: इनपर आक्रमण करना चाहिए।
ततो यष्टिप्रहरणा दस्यवस्ते सहस्रश: ।
अभ्यधावन्त वृष्णिनां तं जनं लोप्त्रारिण:।४९।
ऐसा निश्चय करके लूट का मूल उड़ाने वाले वे लट्ठधारी लुटेरे वृष्णि वंशीयों पर हजारों'की संख्या में-- टूट पड़े ।
मिषतां सर्वयोधानां ततस्ता: प्रमदोत्तमा:।
समन्ततो८वकृष्यन्तकामात् च अन्या: प्रवव्रजु: ।।५९।
सब योद्धाओं के देखते देखते वे डाँकू उन सुन्दर स्त्रीयों को चारो-और से खींच खींच कर ले जाने लगे ।दूसरी स्त्रीयाँ उनके स्पर्श भय से उनकी इच्छा के अनुसार चुपचाप उनके साथ चली गयीं ।
हार्दिक्य तनयं पार्थो नगरे मार्तिकावते ।
भोजराज कलत्रं च हृतशेषं नरोत्तम:।।६९।
कृत वर्मा के पुत्र को और भोजराज के परिवार की अपहरण से बची हुईं स्त्रीयों को अर्जुन ने मार्तिकावत नगर में बसा दिया ।
रुक्मणी त्वथ गान्धारी शैव्या हैमवतीत्यपि ।
देवीं जाम्बवती चैव विविशुर्जातवेदसम् ।।७३।
रुक्मणी , गान्धारी ,शैव्या हैमवती तथा जाम्बवती देवी ने पति लोक की प्राप्ति के लिए अग्नि में प्रवेश किया।
सत्यभामा तथैवान्या देव्य: कृष्णस्य सम्मता :।
वनं प्रविविशू राजंस्तास्ये कृतनिश्चया: ।।७५।।
राजन्! श्री कृष्ण प्रिया सत्यभामा तथा अन्य रानियाँ
तपस्या का निश्चय करके वन में चलीं गयीं ।७४।
मनो मे दीर्यते येन चिन्तयानस्य वै मृदु: ।
पश्यतो वृष्णिदाराश्च मम ब्रह्मन् सहस्रश:।।१६।
आभीरैरनुसृत्याजौ हृता: पञ्चनदालयै: ।।
(मूसल पर्व अष्टम् अध्याय )
~ वाल्मीकीय रामायण जो आज प्राप्त है क्या वाल्मीकि के द्वारा रचित है?
कदापि नहीं पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी धूर्त ब्राह्मणों द्वारा रचित ग्रन्थ है ।
प्रस्तोता --- यादव योगेश कुमार 'रोहि' ग्राम -आजादपुर पत्रालय- पहाड़ीपुर जनपद- अलीगढ उ०प्र०
आओ देखें---वाल्मीकि-रामायण में अहीरों के विषय में क्या लिखा है ?
राम से महासागर ने कहा कि ---
उत्तरेणावकाशोस्ति कश्चित् पुण्यतरो मम।
द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके
ख्यातो यथाभवान् 32।।
उग्रदर्शन कर्मणो बहवस्तत्र दस्यवः।
आभीर प्रमुखाः पापाः पिबन्ति सलिलं मम।।33।। तैन तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पापकर्मभिः।
अमोधः क्रियतां राम अयं तत्र शरोत्तमः।।34।।
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मनः।
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागर दर्शनात्।।35।।
तेन तन्मरुकान्तारं पृथिव्यां किल विश्रुतम्। नियातितः शरो यत्र बज्राशनिसमप्रभः।।36।।
हे प्रभो ! जैसे जगत में आप सर्वत्र विख्यात एवं पुण्यात्मा हैं, ।
उसी प्रकार मेरे उत्तर की ओर द्रुमकुल्य नाम से विख्यात एक बड़ा ही पवित्र देश है।
वहाँ आभीर आदि जातियों के बहुत से मनुष्य निवास करते हैं ।
जिनके रूप और कर्म बड़े ही भयानक हैं।
वे सब के सब पापी और लुटेरे हैं।
वे लोग मेरा जल पीते हैं।
उन पापचारियों का स्पर्श मुझे प्राप्त होता रहता है, इस पाप को मै नहीं सह सकता।
श्री राम! आप अपने इस उत्तम बाण को वहीं सफल कीजये।
महामना समुद्र का यह वचन सुनकर सागर के दिखाये अनुसार उसी देश में राम ने वह अत्यन्त प्रज्वलित बाण छोड़ दिया।
वह वज्र और मशीन के समान तेजस्वी बाण जिस स्थान पर गिरा था वह स्थान उस बाण के कारण ही पृथ्वी में दुर्गम मरूभूमि के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
(मारवाड़)
भगवान राम ने अहीरों के देश पर बाण छोड़कर मरुस्थल बना दिया।
जबकि अहीरों का राम से कोई अदावत या दुश्मनीं नहीं थी। ।
....राम और कृष्ण के चरित्र में भी बड़ा फर्क है।
कृष्ण ने आर्याे के देवता इन्द्र से युद्ध किया।
ऋग्वेद आर्याे की प्राचीन पुस्तक है।
ऋग्वेद में उल्लेख कि कृष्ण दानव थे और इन्द्र के शत्रु थे। (पढ़ें ऋग्वेद या इतिहासकार डी0डी0 कौशाम्बी की पुस्तक प्राचीन भारत की संस्कृति और सभ्यता पृष्ठ 148) देखें---
अर्थात् ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या ९६ की ऋचा..
१३, १४,१५, पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ है ।"
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" आवत् तमिन्द्र शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त।द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या: न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि।।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।।१४।।
अध द्रप्सो अंशुमत्या उपस्थे$धारयत् तन्वं तित्विषाण: विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना
युज इन्द्र: ससाहे ।। १५।।
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अर्थात् कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको के साथ निवास करता है ,उसे अपनी बुद्धि-बल से इन्द्र ने खोज लिया है ! और उसकी सम्पूर्ण सेना (गोप मण्डली) को इन्द्र ने नष्ट कर दिया है ।
आगे इन्द्र कहता है :--कृष्ण को मैंने देख लिया है ,जो यमुना नदी के एकान्त स्थानों पर घूमता रहता है । __________________________________________
"कृष्ण के पूर्वज यदु को वेदों में पहले ही शूद्र घोषित कर दिया " तो कृष्ण भी शूद्र हुए ऋग्वेद में तो कृष्ण को असुर कहा ही है ।
क्योंकि वैदिक सन्दर्भों में जो दास अथवा असुर कहे गये हैं । लौकिक संस्कृत में उन्हें शूद्र कहा गया है।
मनु-स्मृति का यह श्लोक प्रमाण है । जो पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के समकक्ष निर्मित है)
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कृष्ण ने अपने पूरे जीवन में कहीं मन्दिर नहीं बनवाये ऋग्वेद में दशम् मण्डल में कहा है कि
" उत् दासापरिविषे गोपरणीसा यदुस्तुर्वुशुश्च मामहे " अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दासों कीहम स्तुति करते हैं जो गायों से घिरे हुए है ।
राम और समुद्र के सम्वाद रूप में...
"आभीर यवन किरात खल अति अघ रूप जे "
वाल्मीकि-रामायण में राम और समुद्र के सम्वाद रूप में वर्णित युद्ध-काण्ड सर्ग २२ श्लोक ३३पर
समुद्र राम से निवेदन करता है कि
आप अपने अमोघ वाण दक्षिण दिशा में रहने वाले
अहीरों पर छोड़ दे--
जड़ समुद्र भी राम से बाते करता है ।
कितना अवैज्ञानिक व मिथ्या वर्णन है ..
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अहीर ही वास्तविक यादवों का रूप हैं
जिनकी अन्य शाखाएें गौश्चर: (गुर्जर) तथा
जाट हैं ।
दशवीं सदी में अल बरुनी ने नन्द को जाट के रूप में वर्णित किया है ...जाट अर्थात् जादु
(यदु )
अहीर ,जाट ,गुर्जर आदि जन जातियों को शारीरिक रूप से शक्ति शाली और वीर होने पर भी तथा कथित ब्राह्मणों ने कभी क्षत्रिय नहीं माना..
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क्योंकि इनके पूर्वज यदु दास घोषित कर दिये थे ।....
और आज जो राजपूत अथवा ठाकुर अथवा क्षत्रिय स्वयं को लिख रहे हैं ...
वो यदु वंश के कभी नहीं हैं ।
क्योंकि वेदों में भी यदु को दास अथवा असुर के रूप में वर्णित किया है।
जादौन तो अफ़्ग़ानिस्तान में तथा पश्चिमोत्तर पाकिस्तान में पठान थे ।
जो सातवीं सदी में कुछ इस्लाम में चले गये
और कुछ भारत में राजपूत अथवा ठाकुर के रूप में उदित हुए।
यद्यपि जादौन पठान स्वयं को यहूदी ही मानते हैं ....
स्वयं ठाकुर शब्द इस बात का सबसे बड़ी प्रमाण है कि
जादौन अफगानिस्तान मूल के हैं क्यों कि ठाकुर शब्द संस्कृत भाषा में मूल रूप से नहीं है; अपितु फारसी आरमेनियन तथा तुर्की भाषा का तक्वुर शब्द है ।
भारत में इस शब्द का प्रचलन बारहवीं सदी से प्रारम्भ होकर पन्द्रवीं सदी में अधिक ख्यात में वर्णित हुआ ।
ठाकुर कृष्ण की प्रतिमा के रूप में सार्थक हुआ।
जो पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय में श्रीनाथजी के विशेष विग्रह के साथ कृष्ण भक्ति की जाती है।
जिसे ठाकुर जी सम्बोधन दिया गया है ।
पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय का जन्म पन्द्रवीं सदी में ही हुआ। है
परन्तु बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द का प्रवेश तुर्कों और पठानों के माध्यम से भारतीय धरा पर हुआ । _________________________________________ और ठाकुर शब्द तुर्कों और ईरानियों के साथ आया । ठाकुर जी सम्बोधन का प्रयोग वस्तुत : स्वामी भाव को व्यक्त करने के निमित्त है ।
न कि जन-जाति विशेष के लिए ।
कृष्ण को ठाकुर सम्बोधन का क्षेत्र अथवा केन्द्र नाथद्वारा प्रमुखत: है।
यहां के मूल मन्दिर में कृष्ण की पूजा ठाकुर जी की पूजा ही कहलाती है।
यहाँ तक कि उनका मन्दिर भी हवेली कहा जाता है। विदित हो कि हवेली (Mansion)और तक्वुर (ठक्कुर) दौनों शब्दों की पैदायश ईरानी भाषा से है ।
कालान्तरण में भारतीय समाज में ये शब्द रूढ़ हो गये ।
पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय के देशभर में स्थित अन्य मन्दिरों में भी भगवान को ठाकुर जी कहने का परम्परा है। __________________________________________ यह शब्द ईरानी , आरमेनियन तथा तुर्की भाषा से आयात है ।
संस्कृत भाषा में तक्वुर (ठक्कुर) शब्द के जन्म सूत्र तुर्की भाषा में ही प्राप्त हैं ।
" यादव योगेश कुमार 'रोहि' की जिस पर एक नवीनत्तम विवेचना प्रमाणों के दायरे में प्रथम वार .. ______________________________________
तुर्किस्तान में (तेकुर अथवा टेक्फुर )परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी ।
यहाँ पर ही इसका जन्म हुआ । ________________________________________
इस सन्दर्भों में समीप वर्ती उस्मान खलीफा के समय का उल्लेख है, कि " जो तुर्की राजा स्वायत्त अथवा अर्द्ध स्वायत्त होते थे वे ही तक्वुर अथवा ठक्कुर कहलाते थे _________________________________________ तब निस्संदेह इस्लाम धर्म का आगमन
नहीं हो पाया था मध्य एशिया में ।
वहाँ सर्वत्र ईसाई विचार धारा ही प्रवाहित थी , केवल छोटे ईसाई राजा होते थे ।
ये स्थानीय बाइजेण्टाइन ईसाई सामन्त (knight) अथवा माण्डलिक ही होते थे जिन्हें तब तुर्की भाषा में इन्हें तक्वुर (ठक्कुर) ही कहा जाता था !
उस समय एशिया माइनर (तुर्की) और थ्रेस में ही इसका इस प्रकार की शासन प्रणाली होती थी।
तुर्की इतिहास से उद्धृत अंश देखें---
Tekfur was a title used in the late Seljuk and early Ottoman periods to refer to independent or semi-independent minor Christian rulers or local Byzantine governors in Asia Minor and Thrace. ______________________________________ Origin and meaning - (व्युत्पत्ति- और अर्थ ) The Turkish name, Tekfur Saray, means "Palace of the Sovereign" from the Persian word meaning "Wearer of the Crown". It is the only well preserved example of Byzantine domestic architecture at Constantinople. The top story was a vast throne room. The facade was decorated with heraldic symbols of the Palaiologan Imperial dynasty and it was originally called the House of the Porphyrogennetos - which means "born in the Purple Chamber". It was built for Constantine, third son of Michael VIII and dates between 1261 and 1291. ________________________________________
"_ From Middle Armenian թագւոր (tʿagwor), from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor). Attested in Ibn Bibi's works...... (Classical Persian) /tækˈwuɾ/ (Iranian Persian) /tækˈvoɾ/ تکور • (takvor) (plural تکورا__ن_ हिन्दी उच्चारण ठक्कुरन) (takvorân) or تکورها (takvor-hâ)) alternative form of Persian in Dehkhoda Dictionary .
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tafur on the Anglo-Norman On-Line Hub Old Portuguese ( पुर्तगाल की भाषा) Alternative forms (क्रमिक रूप ) taful Etymology (शब्द निर्वचन) From Arabic تَكْفُور (takfūr, “Armenian king”), from Middle Armenian թագւոր (tʿagwor, “king”), from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor, “king”), from Parthian. ( एक ईरानी भाषा का भेद) Cognate with Old Spanish tafur (Modern tahúr). Pronunciation : /ta.ˈfuɾ/ संज्ञा - tafurm gambler 13th century, attributed to Alfonso X of Castile, Cantigas de Santa Maria, E codex, cantiga 154 (facsimile): Como un tafur tirou con hũa baeſta hũa seeta cõtra o ceo con ſanna p̈ q̇ pdera. p̃ q̃ cuidaua q̇ firia a deos o.ſ.M̃. How a gambler shot, with a crossbow, a bolt at the sky, wrathful because he had lost. Because he wanted it to wound God or Holy Mary. Derived terms tafuraria ( तफ़ुरिया ) Descendants Galician: tafur Portuguese: taful Alternative forms թագվոր (tʿagvor) हिन्दी उच्चारण :- टेगुर. बाँग्ला टैंगॉर रूप... թագուոր (tʿaguor) Etymology( व्युत्पत्ति) From Old Armenian թագաւոր (tʿagawor). Noun թագւոր • (tʿagwor), genitive singular թագւորի(tʿagwori) king bridegroom (because he carries a crown during the wedding) Derived terms թագուորանալ(tʿaguoranal) թագւորական(tʿagworakan) թագւորացեղ(tʿagworacʿeł) թագվորորդի(tʿagvorordi) Descendants Armenian: թագվոր (tʿagvor) References Łazaryan, Ṙ. S.; Avetisyan, H. M. (2009), “թագւոր”, in Miǰin hayereni baṙaran [Dictionary of Middle Armenian] (in Armenian), 2nd edition, Yerevan: University Press ! तेकफुर एक सेलेजुक के उत्तरार्ध में इस्तेमाल किया गया एक शीर्षक था। और ओटोमन (उस्मान)काल के प्रारम्भिक चरण या समय में स्वतंत्रता या अर्ध-स्वतंत्र नाबालिग (वयस्क)ईसाई शासकों या एशिया माइनर और थ्रेस में स्थानीय बायज़ान्टिन राज्यपालों का तक्वुर (ठक्कुर) रूप में उल्लेख किया गया था। ______________________________________ उत्पत्ति और अर्थ - (व्युत्पत्ति- और अर्थ) तुर्की नाम, टेकफुर सराय, "शाही के धारक" का अर्थ है "शासक के महल" का अर्थ है इसी फ़ारसी शब्द से है । यह कांस्टेंटिनोपल में बीजान्टिन घरेलू वास्तुकला का एकमात्र अच्छा संरक्षित उदाहरण है । शीर्ष कहानी -. एक विशाल सिंहासन कक्ष था मुखौटे (Palaiologan) इंपीरियल राजवंश के हेरलडीक प्रतीकों से जिसे सजाया गया था ।और इसे मूल रूप से पोरफिरोगनेनेट्स हाउस कहा जाता था - जिसका अर्थ है "बैंगनी चेंबर में पैदा हुआ"। यह कॉन्सटेंटाइन, माइकल आठवीं का तीसरा पुत्र द्वारा और 1261 और 12 9 1 के बीच की तारीखों के लिए बनाया गया था। ________________________________________
"मध्य आर्मीनियाई թագւոր (t'agwor) से, पुरानी अर्मेनियाई թագաւոր (टी'गवायर) रूप से इब्न बीबी के कामों में सत्यापित ... (शास्त्रीय फ़ारसी) / त्केवुर / (ईरानी फारसी) / टीएकेवोर/ تکور • (takvor) (बहुवचन تکورا__n_ हिन्दी उच्चारण थाकुरन) (takvorân) या تکورها (takvor-hâ) का वैकल्पिक रूप फ़ारसी (Dehkhoda )शब्दकोश में .
______________________________________
एंग्लो-नोर्मन ऑन-लाइन हब पर तफ़ूर पुरानी पुर्तगाली (पुर्तगाल की भाषा) वैकल्पिक रूप (क्रमिक रूप) taful व्युत्पत्ति (शब्द निर्वचनता) पार्थियन से ओल्ड आर्मेनियाई թագաւոր (टी'गवायर, "राजा") से, अरबी तक्कीफुर (takfur, "अर्मेनियाई राजा") से, मध्य अर्मेनियाई թագւոր (t'agwor, "राजा") से, (एक इरानी भाषा का हिस्सा) पुरानी स्पैनिश तफ़ूर (आधुनिक तहुर) के साथ संज्ञानात्मक रूप - उच्चारण : /ta.fuɾ/ संज्ञा - tafurm (जुआरी ) 13 वीं शताब्दी, कैस्टिले के अल्फोंसो एक्स को जिम्मेदार ठहराया गया इस अर्थ रूप के लिए , कैंटिगास डी सांता मारिया, ई कोडेक्स, कैंटिगा 154 (प्रतिकृति): कोमो ओन तफ़ूर टिरू कॉ हन बाएस्टा हता सीटा कोटा ओ सीओ को साना पी क्यू यू पीडीआरए। ( p q cuidaua q̇ firia a deos o.s.M ) जुआरी ने एक क्रॉसबो के साथ आकाश में एक बोल्ट कैसे गोली मार दी, क्रोधी क्योंकि वह खो गया था अपना आपा। क्योंकि वह चाहता था - कि वह भगवान या पवित्र मरियम को घायल कर दे। तक्वुर शब्द के अर्थ व्यञ्जकता में एक अहंत्ता पूर्ण भाव ध्वनित है। व्युत्पन्न शर्तों के अनुसार- तफ़ूरिया (तफ़ूरिया) वंशज गैलिशियन: तफ़ूर पुर्तगाली: सख्त वैकल्पिक रूप թագվոր (t'agvor) हिन्दी: - टेगुँरु तथा बाँग्ला- टैंगोर रूप ... թագուոր (t'aguor) व्युत्पत्ति (व्युत्पत्ति) ओल्ड आर्मीनियाई թագաւոր (टी'गवायर) से संज्ञा । թագւոր • (t'agwor), यौतिक एकवचन शब्द (t'agwori) राजा के अर्थ में। दुल्हन (क्योंकि वह शादी के दौरान एक मुकुट पहना करता है) व्युत्पन्न शर्तों से - ________________________________________ թագուորանալ (t'aguoranal) թագւորական (t'agworakan) թագւորացեղ (t'agworac'eł) թագվորորդի (t'agvorordi) वंशज अर्मेनियाई: թագվոր (t'agvor) संदर्भ ----- लज़ारियन, Ṙ एस .; Avetisyan, एच.एम. (200 9), "üyühsur", में Miine hayereni baaran [मध्य अर्मेनियाई के शब्दकोश] (अर्मेनियाई में), 2 संस्करण, येरेवन: विश्वविद्यालय प्रेस! _____________________________________ टक्फुर (तक्वुर) शब्द एक तुर्की भाषा में रूढ़ माण्डलिक का विशेषण शब्द है. जिसका अर्थ होता है " किसी विशेष स्थान अथवा मण्डल का मालिक अथवा स्वामी । तुर्की भाषा में भी यह ईरानी भाषा से आयात है । इसका जडे़ भी वहीं है । ईरानी संस्कृति में ताजपोशी जिसकी की जाती वही तेकुर अथवा टेक्फुर कहलाता था । " A person who wearer of the crown is called Takvor " यह ताज केवल उचित प्रकार से संरक्षित होता था, केवल बाइजेण्टाइन गृह सम्बन्धित उदाहरण- के निमित्त विशेष अवसरों पर इसका प्रदर्शन भी होता था । पुरातात्विक साक्ष्यों ने ये प्रमाणित कर दिया गया है। कि सिंहासन कक्ष एक उच्चाट्टालिका के रूप में होता था राजा की मुखाकृति को शौर्य शास्त्रीय प्रतीकों द्वारा. सुसज्जित किया जाता था । शाही ( राजकीय) पुरालेखों में इस कक्ष को राजा के वंशज व्यक्तियों की धरोहरों से युक्त कर संरक्षित किया जाता था । और इसे पॉरफाइरो जेनेटॉस का कक्ष कह कर पुकारा जाता था ।
जिसका अर्थ होता है :- बैंगनी कक्ष से उत्पन्न " इसे अनवरत रूप से माइकेल तृतीय के पुत्र द्वारा बन बाया गया । यद्यपि व्युत्पत्ति- की दृष्टि से तक्वुर शब्द अज्ञात है परन्तु आरमेनियन ,अरेबियन (अरब़ी) तथा हिब्रू तथा तुर्की आरमेनियन भाषाओं में ही यह प्रारम्भिक चरण में उपस्थिति है । जिसकी निकासी ईरानी भाषा से हुई । _________________________________________ आरमेनियन भाषा में यह शब्द तैगॉर रूप में वर्णित है । जिसका अर्थ होता है।
:- ताज पहनने वाला " The origin of the title is uncertain. It has been suggested that it derives from the Byzantine imperial name Nikephoros, via Arabic Nikfor.
It is sometimes also said that it derives from the Armenian taghavor, "crown-bearer". The term and its variants (tekvur, tekur, tekir, etc. ( History of Asia Minor)📍 __________________________________________ Identityfied of This word with Sanskrit Word Thakkur (ठक्कुर ) " It Etymological thesis Explored by Yadav Yogesh kumar Rohi - began to be used by historians writing in Persian or Turkish in the 13th century, to refer to "denote Byzantine lords or governors of towns and fortresses in Anatolia (Bithynia, Pontus) and Thrace. It often denoted Byzantine frontier warfare leaders, commanders of akritai, but also Byzantine princes and emperors themselves", e.g. in the case of the Tekfur Sarayı ,
the Turkish name of the Palace of the Porphyrogenitus in Constantino
( विश्व इतिहास कार "मॉद इस्तानबुल " के सन्दर्भों पर आधारित तथ्य )
Thus Ibn Bibi refers to the Armenian kings of Cilicia as tekvur,(ठक्कुर )while both he and the Dede Korkut epic refer to the rulers of the Empire of Trebizond as "tekvur of Djanit".
In the early Ottoman period, the term was used for both the Byzantine governors of fortresses and towns, with whom the Turks fought during the Ottoman expansion in northwestern Anatolia and in Thrace, but also for the Byzantine emperors themselves, interchangeably with malik ("king") and more rarely, fasiliyus (a rendering of the Byzantine title basileus). Hasan Çolak suggests that this use was at least in part a deliberate choice to reflect current political realities and Byzantium's decline, which between ________________________________________ 1371–94 and again between 1424 and the Fall of Constantinople in 1453 made the rump Byzantine state a tributary vassal to the Ottomans. 15th-century Ottoman historian Enveri somewhat uniquely uses the term tekfur also for the Frankish rulers of southern Greece and the Aegean islands. References--
( सन्दर्भ तालिका ) ________________________________________ ^ a b c d Savvides 2000, pp. 413–414. ^ a b Çolak 2014, p. 9. ^ Çolak 2014, pp. 13ff.. ^ Çolak 2014, p. 19. ^ Çolak 2014, p. 14. शीर्षक का मूल अनिश्चित है ।
यह सुझाव दिया गया है कि यह बीजान्टिन शाही नाम निकेफोरोस से निकला है, अरबी निकफो के माध्यम से यह कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि यह अर्मेनियाई तागवर, "मुकुट-धारक" से निकला है।
शब्द और इसके विकसित प्रकार (tekvur, tekur, tekir, आदि) (एशिया माइनर का इतिहास) 📍 __________________________________________ संस्कृत शब्द ठाकुर के साथ इस शब्द की पहिचान " यादव योगेश कुमार रोही द्वारा खोजा गया उत्पत्ति सम्बन्धी( शोध -पर्येष्टि- )
यह शब्द 13 वीं शताब्दी में फ़ारसी या तुर्की में लिख रहे इतिहासकारों द्वारा इस्तेमाल किया जाने लगा,
जिसका अर्थ है "बीजान्टिन प्रभुओं या एनाटोलिया ( तुर्की) के बीथिनीया, पोंटस) और थ्रेस में कस्बों और किले के गवर्नरों (राजपालों )का निरूपण करना।
यह प्रायः बीजान्टिन सीमावर्ती युद्ध के नेताओं, अकराति के कमांडरों, तथा बीजान्टिन राजकुमारों और सम्राटों को स्वयं को भी निरूपित करता है ", उदाहरण के लिए, कॉन्स्टेंटिनो में पोर्कफिरोजनीटस के पैलेस के तुर्की नाम, टेक्फुर सरायि के मामले में
( देखें--- तुर्की इतिहास लेखक "मोद इस्तानबूल "के सन्दर्भों पर आधारित तथ्य)
इस प्रकार इब्न बीबी ने सिल्किया के अर्मेनियाई राजाओं को टेक्विर (ठक्कुर) के रूप में संदर्भित किया है, (थक्कुर) जबकि वे दोनों और डेड कॉर्कुट महाकाव्य ट्रेबिज़ंड के साम्राज्य के शासकों को "डीजित के टेक्क्वुर" के रूप में कहते हैं।
शुरुआती तुर्क की अवधि में, इस किले का इस्तेमाल किलों और कस्बों के दोनों राज्यों के लिए किया गया था, जिनके साथ तुर्क ने उत्तर-पश्चिम अनातोलिया और थ्रेस में तुर्क साम्राज्य के दौरान संघर्ष किया था,
लेकिन साथ ही बीजान्टिन सम्राटों के लिए खुद भी, मलिक ("राजा ") और शायद ही कभी, फासीलीयस (बीजान्टिन शीर्षक बेसिलियस का प्रतिपादन किया गया हो )
हसन Çolak का सुझाव है कि इस उपयोग में कम से कम हिस्सा था एक वर्तमान चुनाव में वर्तमान राजनैतिक वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करने और बीजान्टियम की गिरावट, जो बीच में आया । ________________________________________ 1371-94 और फिर 1424 के बीच और 1453 में कॉन्सटिनटिनोप के पतन ने ओट्टोमन्स के लिए एक दमन बीजान्टिन राज्य को एक सहायक नदी बना दिया गया। 15 वीं शताब्दी के तुर्क इतिहासकार एनवेरी कुछ विशिष्ट रूप से दक्षिणी ग्रीस के फ्रैन्शिश शासकों और एजियन द्वीपों के लिए भी तकनीकी रूप से इस शब्द का उपयोग करते हैं। - (संदर्भ खंड) ________________________________________ ^ ए बी सी डी साविवेड्स 2000, पीपी। 413-414 ^ ए बी Çolak 2014, पी। 9। ^ Çolak 2014, पीपी 13ff .. ^ Çolak 2014, पी। 19। ^ Çolak 2014, पी। 14। शीर्षक का मूल अनिश्चित है । यह सुझाव दिया गया है कि यह बीजान्टिन शाही नाम निकेफोरोस से निकला है, अरबी निकफो के माध्यम से, और कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि यह अर्मेनियाई तागावर, "मुकुट-धारक" के अर्थ से निकला है। शब्द और इसके प्रकार (tekvur, tekur, tekir, आदि) (एशिया माइनर का इतिहास) __________________________________________ ________________________________________ कालान्तरण में सिकन्दर अफ़गानिस्तान होते हुए भारत तक पहुंच गया था। तब तुर्की और ईरानी सामन्त तक्वुर उपाधि( title) लगाने लग गये थे । यहीं से भारतीय राजपूतों ने इसे ग्रहण किया । ईसापूर्व १३० ईसवी सन् में अनातोलिया (एशिया माइनर अथवा तुर्की ) रोमन साम्राज्य का अंग बन गया था ।
ईसा के पचास वर्ष बाद सन्त पॉल ने ईसाई धर्म का प्रचार किया और सन ३१३ में रोमन साम्राज्य ने ईसाई धर्म को अपना लिया।
इसके कुछ वर्षों के अन्दर ही कान्स्टेंटाईन साम्राज्य का अलगाव हुआ और कान्स्टेंटिनोपल इसकी राजधनी बनाई गई। सन्त शब्द भारोपीय मूल से सम्बद्ध है । यूरोपीय भाषा परिवार में विद्यमान (Saint) इसका प्रति रूप है ।
रोमन इतिहास में सन्त की उपाधि उस मिसनरी (missionary') को दी जाती है । जिसने कोई आध्यात्मिक चमत्कार कर दिया हो ।
छठी सदी में बिजेन्टाईन साम्राज्य अपने चरम पर था पर १०० वर्षों के भीतर मुस्लिम अरबों ने इस पर अपना अधिकार जमा लिया।
बारहवी सदी में धर्मयुद्धों में फंसे रहने के बाद बिजेन्टाईन साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया। सन् १२८८ में ऑटोमन साम्राज्य का उदय हुआ ,और सन् १४५३ में कस्तुनतुनिया का पतन। इस घटना ने यूरोप में पुनर्जागरण लाने में अपना महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। _______________________________________ वर्तमान तुर्क पहले यूराल और अल्ताई पर्वतों के बीच बसे हुए थे।
जलवायु के बिगड़ने तथा अन्य कारणों से ये लोग आसपास के क्षेत्रों में चले गए।
लगभग एक हजार वर्ष पूर्व वे लोग एशिया माइनर में बसे।
नौंवी सदी में ओगुज़ तुर्कों की एक शाखा कैस्पियन सागर के पूर्व बसी और धीरे-धीरे ईरानी संस्कृति को अपनाती गई। ये सल्जूक़ तुर्क ही जिनकी उपाधि title तेगॉर थी और ईरानियों में भी तेगुँर उपाधि प्रचलित थी )
📒 इसके साथ ही कैस्पियन सागर के पश्चिम में वे मध्य तुर्की के कोन्या में स्थापित हो गए। ( सन् 1071) में उन लोगों ने बिजेंटाइनों को परास्त कर एशिया माइनर पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।
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परन्तु हैं ये पठान लोग धर्म की दृष्टि से मुसलमान है ...
पश्चिमीय एशिया में भी अबीर (अभीर) यहूदीयों की प्रमाणित शाखा है ।
यहुदह् को ही यदु कहा गया ...
हिब्रू बाइबिल में यदु के समान यहुदह् शब्द की व्युत्पत्ति
मूलक अर्थ है " जिसके लिए यज्ञ की जाये"
और यदु शब्द यज् --यज्ञ करणे
धातु से व्युत्पन्न वैदिक शब्द है ।
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वाल्मीकि-रामायण भी पुष्यमित्र सुंग के विधानों का प्रकाशन करने वाली उसी के समय की कृत्रिम है ।
जिनमें अयोध्या काण्ड में राम बुद्ध को गाली दे रहा हैं।
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वाल्मीकि-रामायण में ‘तथागत-बुद्ध’…
कहाँ से आये ?
भले ही ब्राह्मण अपने धर्म और ग्रंथों को अति प्राचीन बताकर कितना ही महिमा मण्डित करें,।
परन्तु वास्तविकता छिपाई नहीं जा सकती हैं।
‘वाल्मिकी-रामायण’, ‘बुद्ध’ के बाद लिखी गयी रचना थी और है ।
, इसका प्रमाण स्वयं वाल्मीकि-रामायण’ ही है।
‘वाल्मिकी रामायण’ मे ऐसे कईं प्रक्षिप्त श्लोक हैं,।
जो वाल्मीकि रामायण की प्राचीनता को सन्दिग्ध करते हैं।
जो तथागत बुद्ध और बौद्ध धर्म के विरोधी में लिखे गये हैं
यह पुनीत कार्य वृहद्रथ के ब्राह्मण सेनापति
जिसने सैन्य- निरीक्षण के समय कपट से वृहद्रथ को मार दिया था।..
वाल्मीकि- रामायण के ये श्लोक, इस तथ्य की स्पष्ट पुष्टि करतें है, कि रामायण, गौतम बुद्ध और ‘बौद्ध धम्म’ के बाद लिखी गयी है।
पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के समकालिक के अनुयायी ब्राह्मणों द्वारा बौद्ध मत को
विरोधात्मक लक्ष्य कर के नये सिरे से लेखन कार्य हुआ..
यहीं नहीं अपितु रामायण की बहुत बातें तो इसके ‘सम्राट अशोक’ से भी बाद लिखे जाने की पुष्टि करती है।
जैसे पाषण्ड: बौद्धों का प्रथम सम्प्रदाय था ।
जिसे अशोक ने अतीव दान दिया था ..तथा संरक्षण भी ..
जहाँ जहाँ यह शब्द आया है वह सब इसे बौद्ध काल खण्ड का सिद्ध करता है।
पाषण्ड शब्द का अर्थ:-
--वैदिक कर्म-काण्ड के नाम पर
पशु- बलि, अस्पृस्यता आदि रूढ़िवादी पाशों (पाष)को काटने वाला मार्ग अर्थात्
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"पाषाणि बन्धनानि षण्डयति खण्डयति इति पाषण्ड: कथ्यते "
वाल्मिकी - रामायण तथा मनु-स्मृति , महाभारत तथा पुराणों में भी पाषण्ड शब्द बौद्ध मत के लिए आया है ।
तब तो ये सभी ग्रन्थ बौद्ध मत के बाद की लिपि- बद्ध रचनाऐं हैं ।
कथाऐं प्राचीन हो सकती हैं ।
परन्तु ये कल्पनाओं से रञ्जित अधिक हैं ।
बहुत सी बाते परस्पर विरोधी व मिथ्या हैं ।
बहुत सी बाते नैतिक रूप से भी मिथ्या हैं ।
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ऐसे ही कुछ श्लोक जो ‘आयोध्या-कांड’ में आये है ।
यहाँ पर वाल्मीकि रामायण के लेखक ने ‘बुद्ध’ और ‘बौद्ध-धम्म’ को नीचा दिखाने की नीयत से ‘तथागत-बुद्ध’ को स्पष्ट ही श्लोकबद्ध (सम्बोधन) करते हुए,
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राम के मुँह से चोर, धर्मच्युत नास्तिक और अपमान-जनक अपमानजनक शब्दों से संबोधित करवा दिया हैं।
यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहैं हैं , जिनकी पुष्टि आप ‘वाल्मिकी रामायण से कर सकते हैं ।
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:- उग्र तेज वाले नृपनन्दन श्रीरामचन्द्र, जावालि ऋषि के नास्तिकता से भरे वचन सुनकर उनको सहन न कर सके और उनके वचनों की निंदा करते हुए उनसे फिर बोले :- नीचे संस्कृत भाषा में मूल रूप देखें---
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“निन्दाम्यहं कर्म पितुः कृतं , तद्धस्तवामगृह्वाद्विप मस्थबुद्धिम्।
बुद्धयाऽनयैवंविधया चरन्त , सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम्।।”
– अयोध्याकाण्ड, सर्ग – 109. श्लोक : 33।।
• सरलार्थ :- हे जावालि!
मैं अपने पिता (दशरथ) के इस कार्य की निन्दा करता हूँ।
कि उन्होने तुम्हारे जैसे वेदमार्ग से भ्रष्ट बुद्धि वाले धर्मच्युत नास्तिक को अपने यहाँ स्थान दिया है । क्योंकि ‘बुद्ध’ जैसे नास्तिक - मार्गी , जो दूसरों को उपदेश देते हुए घूमा-फिरा करते हैं|
, वे केवल घोर नास्तिक ही नहीं, प्रत्युत धर्ममार्ग से च्युत भी हैं ।
देखें नीचे राम बुद्ध के विषय में क्या कहते हैं ।
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“यथा हि चोरः स, तथा ही बुद्धस्तथागतं।
नास्तिकमत्र विद्धि तस्माद्धियः शक्यतमः प्रजानाम् स नास्तिकेनाभिमुखो बुद्धः स्यातम् ।।
” -(अयोध्याकांड, सर्ग -109, श्लोक: 34 / पृष्ठों संख्या
गीता प्रेस गोरखपुर :(1678)
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सरलार्थ :- जैसे चोर दंडनीय होता है, इसी प्रकार ‘तथागत बुद्ध’ और और उनके नास्तिक अनुयायी भी दंडनीय है ।
‘तथागत'(बुद्ध) और ‘नास्तिक चार्वक’ को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए।
इसलिए राजा को चाहिए कि प्रजा की भलाई के लिए ऐसें मनुष्यों को वहीं दण्ड दें, जो चोर को दिया जाता है।
परन्तु जो इनको दण्ड देने में असमर्थ या वश के बाहर हो, उन ‘नास्तिकों’ से समझदार और विद्वान ब्राह्मण कभी वार्तालाप ना करे।
इससे स्पष्ट है कि रामायण बुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है न कि बुद्ध से 7000 साल पहले की रचना ।
कुछ रूढ़िवादी विद्वान रामायण को 2000000 वर्ष पुरातन भी मानते हैं ।
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ये संपूर्ण श्लोक ‘वाल्मिकि रामायण’ (मूल) से उद्घृत है। यदि किसी रूढ़िवादी विद्वान को कोई आपत्ति हो तो, कृपया,
‘रामायण’ को अच्छी तरह से पढ़ लेने के बाद ही तर्क करें ! अथवा
प्रतिक्रिया दे ! अन्यथा नहीं ....
अब देखिए जड़ निर्जीव समुद्र का राम को अहीरों को मार ने के लिए प्रेरित करना -
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राम और समुद्र के सम्वाद रूप में...
"आभीर यवन किरात खल अति अघ रूप जे "
(युद्ध काण्ड तुलसी कृत रामचरित मानस)
और देखें---
वाल्मीकि-रामायण में राम और समुद्र के सम्वाद रूप में वर्णित (युद्ध-काण्ड सर्ग २२ श्लोक ३३ )पर
समुद्र राम से निवेदन करता है-- कि
"आप अपने अमोघ वाण दक्षिण दिशा में रहने वाले
अहीरों पर छोड़ दे--
जड़ समुद्र भी राम से बाते करता है ।
कितना अवैज्ञानिक व मिथ्या व हास्यास्वद वर्णन है ..
उत्तरेणावकाशोस्ति कश्चित् पुण्यतरो मम।
द्रुमकुल्य इति ख्यातो लोके ख्यातो यथा भवान्।।32।। उग्रदर्शन कर्मणो बहवस्तत्र दस्यवः।
आभीर प्रमुखाः पापाः पिबन्ति सलिलं मम।।33।। तैन तत्स्पर्शनं पापं सहेयं पापकर्मभिः।
अमोधः क्रियतां राम अयं तत्र शरोत्तमः।।34।।
तस्य तद् वचनं श्रुत्वा सागरस्य महात्मनः।
मुमोच तं शरं दीप्तं परं सागर दर्शनात्।।35।।
तेन तन्मरुकान्तारं पृथिव्यां किल विश्रुतम्। नियातितः शरो यत्र बज्राशनिसमप्रभः।।36।।
हे प्रभो ! जैसे जगत में आप सर्वत्र विख्यात एवं पुण्यात्मा हैं, ।
उसी प्रकार मेरे उत्तर की ओर द्रुमकुल्य नाम से विख्यात एक बड़ा ही पवित्र देश है।
वहाँ आभीर आदि जातियों के बहुत से मनुष्य निवास करते हैं । जिनके रूप और कर्म बड़े ही भयानक हैं।
वे सब के सब पापी और लुटेरे हैं।
वे लोग मेरा जल पीते हैं।
उन पापचारियों का स्पर्श मुझे प्राप्त होता रहता है, इस पाप को मै नहीं सह सकता।
श्री राम! आप अपने इस उत्तम बाण को वहीं सफल कीजये।
महामना समुद्र का यह वचन सुनकर सागर के दिखाये अनुसार उसी देश में राम ने वह अत्यन्त प्रज्वलित बाण छोड़ दिया।
वह वज्र और मशीन के समान तेजस्वी बाण जिस स्थान पर गिरा था वह स्थान उस बाण के कारण ही पृथ्वी में दुर्गम मरूभूमि के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
(मारवाड़)
भगवान राम ने अहीरों के देश पर बाण छोड़कर मरुस्थल बना दिया। ..
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अहीर ही वास्तविक यादवों का रूप हैं
जिनकी अन्य शाखाएें गौश्चर: (गुर्जर) तथा
जाट हैं ।
दशवीं सदी में अल बरुनी ने नन्द को जाट के रूप में वर्णित किया है ...जाट अर्थात् जादु
(यदु )
अहीर ,जाट ,गुर्जर आदि जन जातियों को शारीरिक रूप से शक्ति शाली और वीर होने पर भी तथा कथित ब्राह्मणों ने कभी क्षत्रिय नहीं माना..
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क्योंकि इनके पूर्वज
यदु दास घोषित कर दिये थे ।....
और आज जो राजपूत अथवा ठाकुर अथवा क्षत्रिय स्वयं को लिख रहे हैं ...
वो यदु वंश के कभी नहीं हैं ।
क्योंकि वेदों में भी यदु को दास अथवा असुर के रूप में वर्णित किया है।
जादौन तो अफ़्ग़ानिस्तान में तथा पश्चिमोत्तर पाकिस्तान में पठान थे
जो सातवीं सदी में कुछ इस्लाम में चले गये ।
राजस्थान में जादौन मूलतः चारण बंजारे हैं।
--जो राजपूती परम्पराओं का पालन करने से स्वयं राजपूत या ठाकुर कहते ।
और कुछ भारत में राजपूत अथवा ठाकुर के रूप में उदित हुए ।
यद्यपि जादौन पठान स्वयं को यहूदी ही मानते हैं ....
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परन्तु हैं ये पठान लोग धर्म की दृष्टि से मुसलमान है ।...
पश्चिमीय एशिया में भी अबीर (अभीर) यहूदीयों की प्रमाणित शाखा है ।
यहुदह् को ही यदु कहा गया ...
हिब्रू बाइबिल में यदु के समान यहुदह् शब्द की व्युत्पत्ति
मूलक अर्थ है " जिसके लिए यज्ञ की जाये"
और यदु शब्द यज् --यज्ञ करणे
धातु से व्युत्पन्न वैदिक शब्द है ।
वेदों में वर्णित तथ्य ही ऐतिहासिक श्रोत हो सकते हैं ।
न कि रामायण और महाभारत आदि ग्रन्थ में वर्णित तथ्य....
ये पुराण आदि ग्रन्थ बुद्ध के परवर्ती काल में रचे गये ।
और भविष्य-पुराण सबसे बाद अर्थात् में उन्नीसवीं सदी में..
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आभीर: , गौश्चर: ,गोप: गोपाल : गुप्त: यादव -
इन शब्दों को एक दूसरे का पर्याय वाची समझा जाता है। अहीरों को एक जाति, वर्ण, आदिम जाति या नस्ल के रूप मे वर्णित किया जाता है, जिन्होने भारत व नेपाल के कई हिस्सों पर राज किया था ।
गुप्त कालीन संस्कृत शब्द -कोश "अमरकोष " में गोप शब्द के अर्थ ---गोपाल, गोसंख्य, गोधुक, आभीर, वल्लभ, आदि बताये गए हैं।
प्राकृत-हिन्दी शब्दकोश के अनुसार भी अहिर, अहीर,
अरोरा व ग्वाला सभी समानार्थी शब्द हैं।
हिन्दी क्षेत्रों में अहीर, ग्वाला तथा यादव शब्द प्रायः परस्पर समानार्थी माने जाते हैं।.
वे कई अन्य नामो से भी जाने जाते हैं, जैसे कि गवली, घोसी या घोषी अहीर,
घोषी नामक जो मुसलमान गद्दी जन-जाति है ।
वह भी इन्ही अहीरों से विकसित है ।
हिमाचल प्रदेश में गद्दी आज भी हिन्दू हैं ।
तमिल भाषा के एक- दो विद्वानों को छोडकर शेष सभी भारतीय विद्वान इस बात से सहमत हैं कि अहीर शब्द संस्कृत के आभीर शब्द का तद्भव रूप है।
आभीर (हिंदी अहीर) एक घुमक्कड़ जाति थी जो शकों की भांति बाहर से हिंदुस्तान में आई।
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आभीर: , गौश्चर: ,गोप: गोपाल : गुप्त: यादव -
इन शब्दों को एक दूसरे का पर्याय वाची समझा जाता है। अहीरों को एक जाति, वर्ण, आदिम जाति या नस्ल के रूप मे वर्णित किया जाता है, जिन्होने भारत व नेपाल के कई हिस्सों पर राज किया था ।
गुप्त कालीन संस्कृत शब्द -कोश "अमरकोष " में गोप शब्द के अर्थ :-गोपाल, गोसंख्य, गोधुक, आभीर, वल्लभ, आदि बताये गए हैं।
प्राकृत-हिन्दी शब्दकोश के अनुसार भी अहिर, अहीर,
अरोरा व ग्वाला सभी समानार्थी शब्द हैं।
हिन्दी क्षेत्रों में अहीर, ग्वाला तथा यादव शब्द प्रायः परस्पर समानार्थी माने जाते हैं।.
वे कई अन्य नामो से भी जाने जाते हैं, जैसे कि गवली, घोसी या घोषी अहीर,
घोषी नामक जो मुसलमान गद्दी जन-जाति है ।
वह भी इन्ही अहीरों से विकसित है ।
हिमाचल प्रदेश में गद्दी आज भी हिन्दू हैं ।
तमिल भाषा के एक- दो विद्वानों को छोडकर शेष सभी भारतीय विद्वान इस बात से सहमत हैं कि अहीर शब्द संस्कृत के आभीर शब्द का तद्भव रूप है।
आभीर (हिंदी अहीर) एक घुमक्कड़ जाति थी जो शकों की भांति बाहर से हिंदुस्तान में आई।
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प्रथम भाग ---