पिंगल और डिंगल -राजस्थान की पूर्वीय और पश्चिमीय बोलीयों का सीमांकन करती हैं ।
'डिंगल' पश्चिमीय राजपूताने की वह राजस्थानी भाषा गत शैली है; जिसमें चारण लोग आज तक काव्य और वंशावली आदि लिखते चले आ रहे हैं ।
विशेषत: चारण लोग डिंगल भाषा में काव्य रचनाऐं करते रहे हैं।
'यह' भाषाशैली कृत्रिम होते हुए भी कलात्मक व ओज पूर्ण है।
इसके विपरीत पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा-शैली के उपादानों को ग्रहण करते हुआ था।
और यह भाटों की काव्यात्मक शैली है ।
डॉ. चटर्जी के अनुसार 'अवहट्ट' ही राजस्थान में 'पिंगल' नाम से ख्यात थी।
डॉ. तेसीतोरी ने राजस्थान के पूर्वी भाग की भाषा को 'पिंगल अपभ्रंश' नाम दिया।
उनके अनुसार इस भाषा से संबंद्ध क्षेत्र में मेवाती, जयपुरी, आलवी आदि बोलियाँ मानी जाती हैं।
पूर्वी राजस्थान में, ब्रज क्षेत्रीय भाषा शैली के उपकरणों को ग्रहण करती हुई, पिंगल नामक एक भाषा-शैली का जन्म हुआ, जिसमें भाट- परम्परा के श्रेष्ठ साहित्य की रचना हुई।
' 'पिंगल' शब्द राजस्थान और ब्रज के सम्मिलित क्षेत्र में विकसित और भाटो में प्रचलित ब्रज - बोली की एक शैली के लिए प्रयुक्त हुआ है।
पिंगल का संबंध शौरसेनी अपभ्रंश और उसके मध्यवर्ती क्षेत्र से है।
विद्वानों ने इसका क्षेत्र दिल्ली और ग्वालियर (मध्यप्रदेश) के बीच का क्षेत्र माना है।
इस प्रकार कालान्तरण में राजस्थान से इस शब्द का अनिवार्य लगाव नहीं रहा।
यह शब्द 'ब्रजभाषा वाचक हो गया।
गुरु गोविंद सिंह के विचित्र नाटक में "भाषा पिंगल दी " कथन मिलता है।
इससे इसका ब्रजभाषा से अभेद स्पष्ट हो जाता है;
ब्रजभाषा का प्रभाव 'पिंगल' और और मारवाड़ी का 'डिंगल' है; ये दोनों ही शैलियों के नाम हैं, न कि भाषाओं के
'डिंगल' भाषा-शैली का सम्बन्ध चारण बंजारों से था।
जो अब स्वयं को राजपूत कहते हैं।
राजपूतों का जन्म करण कन्या और क्षत्रिय पुरुष को द्वारा
ब्रह्मवैवर्त पुराण को दशम् अध्याय में वर्णित है ।
इसी कन्या को करणी माता को रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।
डिंगल भाषाऐं शैली चारणों में ही विकसित हो रही थी।
परन्तु ऐसे चारणों में जो ब्राह्मणों और राजपूतों के मिश्रण प्रवृत्तियों से युक्त थे ।
'डिंगल' का आधार पश्चिमी राजस्थानी बोलियाँ प्रतीत होती हैं।
'पिंगल' संभवतः 'डिंगल' की अपेक्षा अधिक परिमार्जित थी ;और इस पर 'ब्रजभाषा' का अधिक प्रभाव था।
सत्य पूछा जाय तो बात परिमार्जन की नहीं अपितु बात स्वाभाविक लय और प्रवाह की थी ।
जबकि डिंगल भाषाऐं शैली द्रुतवाची थी ।
पिंगल शैली को 'अवहट्ठ' और 'राजस्थानी' के मिश्रण से उत्पन्न भी माना जा सकता है।
'पृथ्वीराज रासो' जैसी रचनाओं ने इस शैली का गौरव बढ़ाया।
काव्य शैली 'रासो' की भाषा को इतिहासकारों ने 'ब्रज' या 'पिंगल' माना है।
🌺 वास्तव में 'पिंगल' ब्रजभाषा पर आधारित एक काव्य शैली थी।
यह जनभाषा नहीं थी ; इसमें राजस्थानी और पंजाबी का पुट है।
ओजपूर्ण शैली की दृष्टि से प्राकृत या अपभ्रंश रूपों का भी मिश्रण इसमें किया गया है।
इस शैली का निर्माण तो प्राकृत पैंगलम् (12वीं-13वीं शती) के समय हो गया था,
पर इसका प्रयोग भाट लोग बहुत पीछे के समय तक करते रहे हैं।
इस शैली में विदेशी शब्द भी प्रयुक्त होते थे।
इस परम्परा में कई रासो ग्रन्थ आते हैं।
बाद के समय में पिंगल शैली भक्ति साहित्य में संक्रमित हो गई।
इस स्थिति में ओजपूर्ण सन्दर्भों की विशेष संरचना के भाग होकर अथवा पूर्वकालीन भाषा स्थिति के अवशिष्ट के रूप में जो अपभ्रंश के द्वित्व या अन्य रूप मिलते थे, उनका ह्रास होने लगा। __________________________________________
इसी के समानान्तरण डिंगल भी राजस्थानी भाषा की शैली है ।
संस्कृत में डङ्गर शब्द का अर्थ धूर्त व नौकर व जंगल भी है ।
(डङ्गर पृषो० )
१ डङ्गर शब्दार्थे २ क्षेपे ३ वने ४ धूर्त्ते ५ सेवके च शब्दरत्नावली।
परन्तु इसका रूप उडिंगल से विकसित है ।
डिंगल राजस्थानी की प्रमुख बोली 'मारवाड़ी' का यह साहित्यिक रूप है।
कुछ लोग डिंगल को मारवाड़ी से भिन्न चारणों की एक अलग भाषा बतलाते हैं, किन्तु ऐसा मानना निराधार है। डिंगल को भाट भाषा भी कहा गया है।
मारवाड़ी के साहित्यिक रूप का नाम डिंगल क्यों पड़ा, इस प्रश्न पर बहुत मत- भिन्नता है -
डॉ. श्यामसुन्दर दास के अनुसार - 'पिंगल के सादृश्य पर यह एक गढ़ा हुआ शब्द है।'
तेस्सितोरी के अनुसार डिंगल का अर्थ है 'अनियमित' या 'गँवारू'।
साहित्य के क्षेत्र में ब्रज की तुलना में गँवारू होने का कारण यह नाम पड़ा।
हरप्रसाद शास्त्री 'डगर' से 'डिंगल' बनाते हैं।
'डगर' का अर्थ है 'जांगल देश की भाषा'। 🌸
गजराज ओझा के अनुसार 'ड' वर्ण - प्रधान भाषा होने से 'पिंगल' के सादृश्य पर 'प' के स्थान पर 'ड' रखकर 'डिंगल' शब्द टवर्ग या ड वर्ण-प्रधान भाषा के लिए बनाया गया।
पुरुषोत्तमदास स्वामी के अनुसार डिम गल से डिंगल बना है।
'डिम' अर्थात् डमरू की ध्वनि या रणचण्डी की ध्वनि। गल = गला या ध्वनि, अर्थात् वीर रस की ध्वनि वाली भाषा।
किशोर सिंह के अनुसार 'डी' धातु का अर्थ है 'उड़ाना'।
ऊँचे स्वर से पढ़े जाने से, डिंगल उड़ने वाली भाषा है। उदयराज के अनुसार डग= पाँखें, ल= लिये हुए; या डग= लम्बा क़दम या तेज़ चाल ल = लिये हुए।
अर्थात् 'डिंगल' स्वतंत्र या तेज़ चलने वाली भाषा है। जगदीश सिंह गहलौत के अनुसार डींग गठ्ठ (अर्थात् ऊँची बोली) से डिंगल है।
बद्रीप्रसाद के अनुसार डिंगीय डीघी (=ऊँची) गठ्ठ (=बात, स्वर) से डिंगल है।
गणपतिचन्द्र के अनुसार राजस्थान के किसी छोटे भाग का नाम प्राचीनकाल में 'डगल' था।
उसी आधार पर वहाँ की भाषा 'डिंगल' कहलाई। चन्द्रधर शर्मा गुलेरी के अनुसार डिंगल यादृच्छात्मक अनुकरण शब्द है।
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नरोत्तमदास स्वामी के अनुसार कुशललाल रचित पिंगल 'शिरोमणि' में "उडिंगल" नागराज का एक छन्द शास्त्रकार के रूप में उल्लेख मिलता है।
जैसे 'पिंगल' से पिंगल' का नाम पड़ा है, उसी प्रकार 'उडिंगल' से 'उडिंगल' ही बाद में 'डिंगल' हो गया।
डॉ. सुकुमार सेन तथा विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के अनुसार संस्कृत शब्द डिंगर (=गँवारू, निम्न) से इसका सम्बन्ध है अर्थात् मूलत: डिंगल गँवारू लोगों की भाषा थी।
वस्तुत: इनमें कोई भी मत युक्तियुक्त नहीं है।
कुछ सम्भावना नरोत्तम स्वामी के मत की ही हो सकती है।
कुछ ग्रंथों में डिंगल का पुराना नाम 'उडिंगल' मिलता भी है।
डिंगल नाम बहुत पुराना नहीं है।
इसका प्रथम प्रयोग डिंगल के प्रसिद्ध कवि बाँकीदास की पुस्तक 'कुकवि बत्तीसी' में मिलता है।
साहित्य में डिंगल का प्रयोग 13 वीं सदी के मध्य से लेकर आज तक मिलता है।
डॉ. तेस्सितोरी ने 'डिंगल' के प्राचीन और अर्वाचीन दो भेद किए हैं।
17 वीं सदी के मध्य तक की भाषा को प्राचीन और उसके बाद की भाषा को अर्वाचीन माना है।
डिंगल के प्रसिद्ध कवि नरपति नाल्ह, ईसरदास, पृथ्वीराज, करणीदीन, बाँकीदास, सरलादास तथा बालाबख़्श आदि हैं।
डिंगल- राजस्थान के चारण कवियों ने अपने गीतों के लिये जिस साहित्यिक शैली का प्रयोग किया है, उसे 'डिंगल कहा जाता है।
वैसे चारण कवियों के अतिरिक्त प्रिथीराज जैसे अन्य कवियों ने भी डिंगल शैली में रचना की है।
यहाँं चारण का अर्थ भाट ही समझना चाहिए।
राजस्थान के भाट्ट कवि "डिंगल" का आश्रय न लेकर "पिंगल" में रचना करते रहे हैं।
कुछ विद्वान् "डिंगल" और "राजस्थानी" को एक दूसरे का पर्यायवाची मानते हैं, किंतु यह मत भाषाशास्त्रीय दृष्टि से त्रुटिपूर्ण है।
इस तरह दलपति विजय, नरपति नाल्ह, चन्द्र -बरदाई और नल्लसिंह भाट की रचनाओं को भी "डिंगल" साहित्य में मान लेना अवैज्ञानिकता है।
इनमें नाल्ह की रचना "कथा" राजस्थानी की है, कृत्रिम डिंगल शैली में निबद्ध नहीं और शेष तीन रचनाएँ निश्चित रूप से पिंगल शैली में हैं।
वस्तुत: "डिंगल" के सर्वप्रथम कवि ढाढी कवि बादर हैं।
इस कृत्रिम साहित्यिक शैली में पर्याप्त रचनाएँ उपलब्ध हैं जिनमें अधिकांश फुटकर दोहे तथा राजप्रशस्तिपरक गीत हैं।
"डिंगल" के प्रमुख कवियों में बादर, प्रिथीराज, ईसरदास जी, दुरसा जी आढा, करणीदान कविया, मंछाराम सेवक, बाँकीदास आशिया, किशन जी आढा, मिश्रण कवि सूर्यमल्ल और महाराजा चतुरसिंह जी हैं।
अन्तिम कवि की रचनाएँ वस्तुत: कृत्रिम डिंगल शैली में न होकर कश्म मेवाड़ी बोली में है।
साहित्यिक भाषाशैली के लिये "डींगल" शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग बाँकीदास ने कुकवि बतीसी (1871 विक्रम सम्ब) में किया है :
'डींगलियाँ मिलियाँ करै, पिंगल तणो प्रकास'।
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शब्द व्युत्पत्ति:- इस शब्द की व्युत्पत्ति एवं अर्थवत्ता के विषय में अनेक मत प्रचलित हैं।
1. "डिंगल" शब्द का अर्थ अनियमित अथवा गँवार डिग्री है।
साहित्यशास्त्र एंव व्याकरण के नियमों का अनुसरण न करने के कारण यह शैली "डिंगल" कही जाती है (तेस्सितोरी)।
2. पहले मरुदेश की भाषा को "डगल" कहा जाता था, बाद में "पिंगल" के वजन पर इसे "डिंगल" कहा जाने लगा (हरप्रसाद शास्त्री)।
3. 'ड' वर्णबहुला होने के कारण इसे "डिंगल" कहा जाता है (गजराज ओझा)।
4. डम डिग्री की ध्वनि के सादृश्य पर ओजोगुणप्रचुर वीररसात्मक पद्यों की इस भाषाशैली को "डिंगल" (डिमोगल) कहा जाता है (पुरुषोत्तमदास स्वामी)।
5. मेनारिया इन सभी मतों से असहमत हैं। उनके मतानुसार "डींगल" शब्द, जो इसका वास्तविक रूप है, डींगे शब्द के साथ स्वार्थे प्रत्यय "ल" के योग से बना है। इसका वास्तविक अर्थ एक ओर डींग से युक्त (अतिरंजनापूर्ण) और दूसरी ओर अनगढ़ या अव्यवस्थित है।
डिंगल की ध्वनिसंघटना तथा व्याकरण मारवाड़ी या पश्चिमी राजस्थानी के ही अनुरूप है, किन्तु इसका शब्दकोश अनेक ऐसे तद्भव, अर्धतत्सम तथा देशज शब्दों से भरा पड़ा है, जो उसी रूप में व्यवहृत नहीं पाए जाते।
मिश्रण कवि सूर्यमल्ल के पुत्र मुरारिदान ने एक डिंगलकोष की रचना की है जिसमें डिंगल में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ दिए हैं।
वाचन और गायन- डींगल गीतों का वाचन और गायन बहुत सरल नहीं है।🐞
इसमें विकटबंध गीत और भी कठिन माना जाता है। डॉक्टर कविया एक विकटबंध गीत की मिसाल देते हैं जिसमें पहली पंक्ति में 54 मात्राएँ थीं,
फिर 14-14 मात्राओं की 4-4 पंक्तियाँ एक जैसा वर्ण और अनुप्रास ।
इसे एक स्वर और साँस में बोलना पड़ता था और कवि गीतकार इसके लिए अभ्यास करते थे।
वर्तमान स्थिति- राजस्थान में भक्ति, शौर्य और श्रृंगार रस की भाषा रही डींगल अब चलन से बाहर होती जा रही है।
अब हालत ये है कि डींगल भाषा में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध प्राचीन ग्रन्थों को पढ़ने की योग्यता रखने वाले बहुत कम लोग रह गए हैं।
कभी डींगल के ओजपूर्ण गीत युद्ध के मैदानों में रणबाँकुरों में उत्साह भरा करते थे।
लेकिन वक़्त ने ऐसा पलटा खाया कि राजस्थान, गुजरात और पाकिस्तान के सिंध प्रांत के कुछ भागों में सदियों से बहती रही डींगल की काव्यधारा अब ओझल होती जा रही है।
साहित्यकार पूनमचंद बिश्नोई कहते हैं कि पहले डींगल को सरकारी सहारा मिलता था और यह रोज़गार से जुड़ी हुई थी पर अब ऐसा नहीं है।
अनेक जैन मुनियों ने भी डींगल में रचनाएं की हैं।
थार मरुस्थल में आज भी अनपढ़ लोग डींगल की कविता करते मिल जाएंगे. __________________________________________
डिंगल और पिंगल साहित्यिक राजस्थानी के दो प्रकार हैं डिंगल पश्चिमी राजस्थानी का साहित्यिक रूप है इसका अधिकांश साहित्य चारण कवियों द्वारा लिखित है जबकि पिंगल पूर्वि राजस्थानी का साहित्यिक रूप है।
और इसका अधिकांश साहित्य भाट जाति के कवियों द्वारा लिखित है।
चारण भारत के पश्चिमी गुजरात राज्य में रहने वाले व हिन्दू जाति की वंशावली का विवरण रखने वाले वंशावलीविद, भाट और कथावाचक।
उत्पत्ति:- चारण लोग राजस्थान की राजपूत जाति से अपनी उत्पत्ति का दावा करते हैं और संभवत: मिश्रित ब्राह्मण तथा राजपूत वंश से उत्पन्न हो सकते हैं।🌱☘
जैसा कि चारण बन्जारों की एक शाखा राजस्थान में जादौन कहलाती है ।
ये लोग पहले राजाओं की वंशावलीयों गाते थे ;परन्तु कालान्तरण में ये भी स्वयं को राजपूत कहने लगे ।
आज चारण या भाट्ट बंजारों ने स्वयं को राजपूत कहना प्रारम्भ कर दिया है ।
इनके कई रिवाज उत्तरी भारत में उनके प्रतिरूप भाटों से मिलते-जुलते हैं।
दोनों समूह वचन भंग के बजाय मृत्यु के वरण को अधिक महत्त्व देने के लिए विख्यात हैं।
यही प्रवृत्ति इनको राजपूतों से विरासत में प्राप्त हुई।
चारण:-१. वंश की कीर्ति गानेवाला भाट ।
बंदीजन ।
२. राजस्थान की एक जाति विशेष— सह्याद्रिखंड में लिखा है कि जिस प्रकार वैतालिकों की उत्पत्ति वैश्य और शूद्रा से है, उसी प्रकार चारणों की भी है;
परन्तु चारणों का वृषलत्व कम है ।
इनका व्यवसाय राचाओं ओर ब्राह्मणों का गुण वर्णन करना तथा गाना बजाना है ।
चारण लोग अपनी उत्पत्ति के संबंध में अनेक अलौकिक कथाएँ कहते हैं ।
चारण का अर्थ है भ्रमणकारी ।
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चारण:- योद्धा तथा राजाओं से संबंधित कथा- गीतों की रचना एक विशिष्ट पश्चिमी राजस्थानी बोली में करते हैं, जिसे 'डिंगल' कहा जाता है,
जिसका प्रयोग किसी अन्य उद्देश्य के लिए नहीं किया जाता।
चारण-भाट :- 'चारण' एवं 'भाट' को अलग-अलग जाति में वर्गीकृत किया जा सकता है, किन्तु दोनों वर्गों के सामाजिक अन्तर को देखते हुए उन्हें एक ही जाति की दो उप-जातियाँ कहा जा सकता है।
भाट शब्द भरत का विकसित रूप है।
--जो संस्कृत में भट्ट है ।
चारण जाति में ब्राह्मण और राजपूत के गुणों का सामन्जस्य मिलता है।
पठन-पाठन तथा साहित्यिक रचनाओं के कारण उनकी तुलना ब्राह्मणों से की जाती है।
चारण लोग राजपूत जाति तथा राजकुल से सम्बन्धित थे तथा वे शिक्षित होते थे।
अपने शैक्षिक ज्ञान की अधिकता के कारण वे राजस्थानी वात, ख्यात, रासो और साहित्य के लेखक रहे थे। __________________________________________
वहीं दूसरी ओर भाट लोग जनसाधारण से सम्बन्धित थे, अधिकतर पढ़े-लिखे नहीं थे।
लालसायुक्त याचक-प्रवृति ने उनकी प्रतिष्ठा को धुमिल किया।
शिक्षा की कमी के कारण वे चारणों से अलग पीढ़ीनामा, वंशावली तथा कुर्सीनामा के संग्रहकर्ता थे।
[सं० भट्ट] राजाओं का यश वर्णन करनेवाला कवि। चारण।
बंदी। उदाहरण— सुभग द्वार सब कुलिस कपाटा।
भूप भीर नट मागध भाटा।— तुलसी (शब्दावली)।
२. एक जाति का नाम। उदाहरण— चली लोहारिन बाँकी नैना।
भाटिन चली मधुर अति बैना।
— जायसी (शब्द०)।
विशेष— इस जाति के लोग राजाओ के यश का वर्णन और कविता करते हैं।
यह लोग ब्राह्मण के अंतर्गत माने और दसौंधी आदि के नाम से पुकारे जाते हैं।
इस जाति की अनेक शाखाएँ उत्तरीय भारत में बंगाल से पंजाब तक फैली हुई हैं।
३. खुशामद करनेवाला पुरुष। खुशामदी। ४. राजदूत।
परन्तु भाट शब्द का विकास भट्ट शब्द से और भट्ट शब्द का भी विकास भरत शब्द से हुआ है ।
जिसके सूत्र यूरोपीय भाषाओं के बरड (Bard )शब्द से स्पष्ट रूप से हैं ।
भाटों के विषय में निश्चयपूर्वक कुछ नहीं कहा जा सकता।
भट्ट शब्द भी भाट जाति का अवबोधक है।
राजस्थान में चारणों की भाँति भाटों की जातियाँ है।
उत्तर प्रदेश में भी इनकी श्रेणियाँ हैं, लेकिन थोड़े बहुत ये समस्त उत्तर भारत में पाए जाते हैं।
दक्षिण में अधिक से अधिक हैदराबाद तक इनकी स्थिति है।
इनके वंश का मूलोद्गम क्या रहा होगा, यह कहना कठिन है।
जनश्रुतियों में भाटों के संबंध में कई प्रचलित बातें कही जाती हैं।
इनकी उत्पत्ति क्षत्रिय पिता और विधवा ब्राह्मणी माता से हुई बताई जाती है।
सामाजिक सर्वेक्षक नेस्फील्ड के अनुसार ये पतित ब्राह्मण थे, बहुधा राजदरबारों में रहते, रणभूमि के वीरों की शौर्यगाथा जनता को सुनाते और उनका वंशानुचरित बखानते थे।
किंतु समाज शास्त्री रिजले का इससे विरोध है।
पर इन बातों द्वारा सही निर्णय पर पहुँचना कठिन है।
वस्तुत: यह एक याचकवर्ग है जो दान लेता था।
चारणों के भी भाट होते हैं। जैसे राजस्थान की रामासरी तहसील साजत में चारणों के भाट चतुर्भुज जी थे।
हरिदान अब भी चारणों के भाट हैं।
भाटों के संबंध में एक कथा प्रचलित है।
जोधपुर के महाराज मानसिंह महाराज अहमदनगर से तख्तसिंह को गोद लाए।
तख्तसिंह के साथ एक भाट आया जिसका नाम बाघाजी भाट था। यहाँ लाकर चारणों को नीचा दिखाने के लिये उसे कविवर की पदवी दी। दो गावँ भी दिए।
परंतु बाघा को कविता के नाम पर कुछ भी नहीं आता था। आजकल उसी बाघा के लिये राजस्थान में यह छप्पय बड़ा प्रचलित है : जिण बाघे घर जलमगीत छावलियाँ गाया।
जिण बाघे घर जलम थरों घर चंग घुराया॥
जिण बाघे घर जलम लदी बालम लूणाँ री।
जिण बाघे घर जलम गुँथी तापड़ गूणां री॥
बेला केइ बणबास देओ सारा ही हूनर साझिया।
गत राम तणी देखो गजब बाघा कविवर बाजिया॥
इस तरह इस छप्पय में बालदिया चंग बजानेवाले, छावलियाँ गानेवाले, तापड़ों की गूण गूँथनेवाले, बिणजोर, बासदेव के स्वाँग लानेवाले, काबडिया, तथा कूगरिया (मुसलमान), आदि अनेक भाट पेशों के अनुकूल भाट बने हुए हैं।
डिंगल साहित्य में चारणों की भाँति कोई भी गीत या छंद भाटों द्वारा लिखा हुआ नहीं मिलता, ऐसी स्थिति में भाटों का नाम चारणों के साथ कैसे लिया जाने लगा, यह समझ में नहीं आता।
निश्चित रूप से यह चारण जाति को उपेक्षित करने लिये किसी चारणविरोधी का कार्य रहा होगा।
अन्यथा वंशावलियाँ पढ़कर भरमान पोषण करनेवाले प्रत्येक पेशा और व्यापार करनेवाले सैकड़ों प्रकार की जातियों के विविध भाटों की क्या चारणों से समता हो सकती हैं ?
चारण स्वाभिमानी और सत्यनिष्ठता की प्रतीक जाति रही हैं। भाट समाज का अपना अलग गुणधर्म हैं।
चारण लोग अपने साथ भाट शब्द को जोड़ना कतई पसंद नहीं करते।
चारण समाज और राजपूत: राजपूतों के इतिहास को चारण कवियों के बिना अधूरा ही माना जाये।
चारण एक ऐसी जाती है जिसने समय समय पर सचेतक की भूमिका निभा पथ भ्रस्ट राजपूतों को सही मार्ग दिखाया है.
स्वतंत्रता उपरांत चारण जाती ने भी राजनैतिक षड्यंत्रों का शिकार हो राजपूतों की भांति नुकसान उठाया है.
चारणो के बारे में जोधपुर महाराज मान सिंह जी द्वारा बनाया गया छंद :
"करण मुहर महलीक क्रतारथ परमारथ ही दियण पतीज
चारण कहण जथारथ चौड़े चारण बड़ा अमोलक चीज"
चारण हिंदू हैं, वे किसी संप्रदायविशेष से संबंधित नहीं है, करणी माता उनकी कुलदेवी हैं।
बीकानेर के पास देशनोक में उनका मंदिर है।
आज भी चारण "जयमाताजी" कहकर ही बात करते हैं।
ये "माता" के पूजक और शाक्त हैं।
चारणों ने पर्याप्त साहित्यसृजन किया है।
15वीं शताब्दी के जोधायन से लेकर वंशभास्कर जैसे ग्रंथों की रचना का श्रेय चारणों को ही है।
डिंगल शैली और गीतिरचना चारणों की मूल विशेषता कही जा सकती है।
यूरोपीय भाषाओं में बरड शब्द संस्कृत भरत का सहवर्ती रूप है ।
देखें---उसका यूरोपीय विवरण:-👇
bard (noun)
"ancient Celtic minstrel-poet,"
mid-15c., from Scottish, from Old Celtic bardos "poet, singer,"
from Celtic *bardo-,
possibly from PIE *gwredho- "he who makes praises,"
suffixed form of root *gwere- (2) "to favor."
In historical times, a term of great respect among the Welsh, but one of contempt among the Scots (who considered them itinerant troublemakers).
Subsequently idealized by Scott in the more ancient sense of "lyric poet, singer."
Poetic use of the word in English is from Greek bardos, Latin bardus, both from Gaulish.
*gwere-
bardic
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बार्ड (संज्ञा)
"प्राचीन सेल्टिक टकसाल-कवि,"
पुराने केल्टिक बार्डोस से स्कॉटिश, मिड 15 सी, "कवि, गायक,"
सेल्टिक * बार्डो से,
संभवतः PIE * gwredho से- "वह जो प्रशंसा करता है,"
प्रत्यय का मूल रूप * gwere- (2) "का पक्ष लेने के लिए।"
ऐतिहासिक समय में, वेल्श के बीच बहुत सम्मान है, लेकिन स्कॉट्स के बीच अवमानना करने वालों में से एक (जो उन्हें परेशान करने वाले परेशान मानते थे)।
बाद में स्कॉट द्वारा और अधिक प्राचीन अर्थ में "गीत कवि, गायक।"
अंग्रेजी में इस शब्द का काव्यात्मक उपयोग ग्रीक बार्डोस, लैटिन बर्दस, दोनों गॉलिश से है।
* gwere-
bardic
bardolatry
चारण और भट्ट दौनों की समाज में प्रतिष्ठा बराबर की रही थी।
चारण तथा भाटों को अपनी सेवा के बदले राज्य अथवा जागीरों से कर मुक्त भूमि, गाँव आदि प्राप्त होते थे।
तभी से ये स्वयं को तक्वुर (ठक्कुर) सरनेम लगाने लगे यह तुर्की आरमेनियन व फारसी भाषाओं का शब्द है ।
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डिंगल से सम्बन्धित कुछ शब्दों का विवरण:-
डागर संज्ञा पुंल्लिंग [देशज] हिसार, रोहतक और करनाल का प्रांत नामान्तरण ।
खादर के विरुद्ध वह भूमि जो कुछ ऊँचे पर अवस्थित हो।
बागर:-वह भूमि जो नदी, झील आदि के बढ़ने पर भी कभी पानी में न डूबे।
नदी किनारे के वह ऊँची भूमि जहाँ तक नदी का पानी कभी पहुँचता ही नहीं।
उदाहरण-—बागर ते सागर करि राखै चहुँदिसि नीर भरै। पाहन बीच कमल बिकसाहीं जल में अगिनि जरै।
सूर (शब्दावली )।
अवहट्ठ अपभ्रंश के ही परवर्ती रूप को 'अवहट्ट' नाम दिया गया है।
ग्यारहवीं से लेकर चौदहवीं शती के अपभ्रंश रचनाकारों ने अपनी भाषा को अवहट्ट कहा।
परिचय कालक्रम से अपभ्रंश साहित्य की भाषा बन चुका था, इसे 'परिनिष्ठित अपभ्रंश' कह सकते हैं।
यह परिनिष्ठित अपभ्रंश उत्तर भारत में राजस्थान से असम तक काव्यभाषा का रूप ले चुका था।
लेकिन यहाँ यह भूल नहीं जाना चाहिए कि अपभ्रंश के विकास के साथ-साथ विभिन्न क्षेंत्रों की बोलियों का भी विकास हो रहा था और बाद में चलकर उन बोलियों में भी साहित्य की रचना होने लगी।
इस प्रकार परवर्ती अपभ्रंश और विभिन्न प्रदेशों की विकसित बोलियों के बीच जो अपभ्रंश का रूप था और जिसका उपयोग साहित्य रचना के लिए किया गया उसे ही 'अवहट्ठ' कहा गया है।
डॉ॰ सुनीतिकुमार चटर्जी ने बतलाया है कि शौरसेनी अपभ्रंश अर्थात् अवहट्ठ मध्यदेश के अलावा बंगाल आदि प्रदेशों में भी काव्यभाषा के रूप में अपना आधिपत्य जमाए हुए था।
ब्रजबुलि उस काव्यभाषा का नाम है जिसका उपयोग उत्तर भारत के पूर्वी प्रदेशों अर्थात् मिथिला, बंगाल, आसाम तथा उड़ीसा के भक्त कवि प्रधान रूप से कृष्ण की लीलाओं के वर्णन के लिए करते रहे हैं।
नेपाल में भी ब्रजबुलि में लिखे कुछ काव्य तथा नाटकग्रंथ मिले हैं।
इस काव्यभाषा का उपयोग शताब्दियों तक होता रहा है।
ईसवी सन् की 15वीं शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी तक इस काव्यभाषा में लिखे पद मिलते हैं।
यद्यपि "ब्रजबुलि साहित्य" की लंबी परंपरा रही हैं, फिर भी "ब्रजबुलि" शब्द का प्रयोग ईसवी सन् की 19वीं शताब्दी में मिलता है।
इस शब्द का प्रयोग अभी तक केवल बंगाली कवि ईश्वरचंद्र गुप्त की रचना में ही मिला है।
व्युत्पत्ति "ब्रजबुलि" शब्द की व्युत्पत्ति तथा ब्रजबुलि भाषा की उत्पत्ति को लेकर विद्वानों में बहुत मतभेद है। यहाँ एक बात को स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ब्रजबुलि, ब्रजभाषा नहीं है।
व्याकरण संबंधी दोनों की अपनी-अपनी अलग-अलग विशेषताएँ हैं, वैसे भाषातत्तव की दृष्टि से यह स्वीकार किया जाता है ;
कि ब्रजबुलि का संबंध ब्रजभाषा से है।
ब्रजबुलि के पदों में ब्रजभाषा के शब्दों का प्रयोग अधिक देखने को मिलता है।
ब्रजबुलि की उत्पत्ति अवहट्ठ से हुई।
अवहट्ठ संबंधी थोड़ी सी जानकारी प्राप्त कर लेना आवश्यक है।
कालक्रम से अपभ्रंश साहित्य की भाषा बन चुका था, इसे 'परिनिष्ठित अपभ्रंश' कह सकते हैं।
यह परिनिष्ठित अपभ्रंश उत्तर भारत में राजस्थान से असम तक काव्यभाषा का रूप ले चुका था।
लेकिन यहाँ यह भूल नहीं जाना चाहिए कि अपभ्रंश के विकास के साथ-साथ विभिन्न क्षेंत्रों की बोलियों का भी विकास हो रहा था और बाद में चलकर उन बोलियों में भी साहित्य की रचना होने लगी।
इस प्रकार परवर्ती अपभ्रंश और विभिन्न प्रदेशों की विकसित बोलियों के बीच जो अपभ्रंश का रूप था और जिसका उपयोग साहित्य रचना के लिए किया गया उसे ही अवहट्ठ कहा गया है।
डॉ॰ सुनीतिकुमार चटर्जी ने बतलाया है कि शौरसेनी अपभ्रंश अर्थात् अवहट्ठ मध्यदेश के अलावा बंगाल आदि प्रदेशों में भी काव्यभाषा के रूप में अपना आधिपत्य जमाए हुए था।
यहाँ एक बात की ओर ध्यान दिलाना आवश्यक है कि यद्यपि अवहट्ठ काव्यभाषा के रूप में ग्रहण किया गया था फिर भी यह स्वाभाविक था कि प्रांत विशेष की छाप उसपर लगती, इसीलिए काव्यभाषा होने पर भी विभिन्न अंचलों के शब्द, प्रकाशनभंगी आदि को हम उसमें प्रत्यक्ष करते हैं।
"ब्रजबुलि" शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में कुछ लोगों ने अनुमान लगाया है कि "ब्रजावली बोलि" का रूपांतर "ब्रजाली बुलि" में हुआ और "ब्रजाली बुलि" "ब्रजबुलि" बना।
यह क्लिष्ट कल्पना है।
वास्तव में अधिक तर्कसंगत यह लगता है कि इस भाषा में कृष्ण की लीलाओं का वर्णन है अतएव कृष्ण की लीलाभूमि "ब्रज" के साथ इसका संबंध जोड़ इस भाष को "ब्रजबोली" समझा गया होगा जो बँगला के उच्चारण की विशिष्टता के कारण "ब्रजबुलि" बन गया होगा।
साहित्य ब्रजबुलि में लिखे पद मिथिला, बंगाल, असम और ओडिशा में पाए गए हैं।
असमी साहित्य में ब्रजबुलि का प्रमुख स्थान है।
असम की ब्रजबुलि की रचनाओं में असमी भाषा का स्वभावत: सम्मिश्रण है।
असम के वैष्णव भक्त कवियों में दास्य भाव की प्रधानता है।
वे ब्रज से अधिक प्रभावित थे।
बंगाल तथा उड़ीसा के भक्त कवियों में भी कहीं-कहीं दास्य भाव के दर्शन होते हैं लेकिन उनमें सख्य और मधुर भाव की प्रधानता है।
बंगाल और उड़ीसा का वैष्णव-शक्ति-साहित्य राधा और कृष्ण की लीलाओं से ओतप्रोत है, लेकिन असमी के ब्रजबुलि साहित्य में राधा का वैसा स्थान नहीं दिया गया है।
मिथिला में विद्यापति के पदों में राधा की प्रमुखता है। ब्रजबुलि के कुछ नाटक भी मिले हैं लेकिन ये नाटक केवल नेपाल और असम में ही प्राप्त हुए है।
बंगाल या उड़ीसा में ब्रजबुलि के नाटक अभी तक नहीं मिले हैं।
असम के भक्त कवियों में शंकरदेव (1449 ई.-1568 ई.) तथा उनके शिष्य माधवदेव (1498 ई.-1596 ई.) का मुख्य स्थान है।
असम के जनजीवन तथा साहित्य पर शंकरदेव तथा उनके अनुयायियों का गहरा प्रभाव पड़ा।
ब्रजबुलि को इन लोगों ने अपने प्रचार का साधन बनाया।
उड़ीसा के भक्त कवियों में राय रामानंद का प्रमुख स्थान था।
ये उड़ीसा के गजपति राजा प्रताप रुद्र (राजत्वकाल 1504 ई.-1532 ई.) के एक उच्च अधिकारी थे। चैतन्य महाप्रभु और राय रामानंद के मिलन का जो वर्णन चैतन्य संप्रदाय के कृष्णदास कविराज ने "चैतन्य चरितामृत" में किया है ।
उससे पता चलता है कि मधुर भक्ति के रहस्यों से दोनों पूर्ण परिचित थे।
उड़ीसा के अन्य कवियों में प्रतापरुद्र, माधवीदासी, राय चंपति के नाम आते हैं।
बंगाल में गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के भक्त कवियों की संख्या बहुत अधिक है।
उनमें कुछ के नाम यों हैं : यशोराज खान (16वीं शताब्दी का प्रारम्भ), मिथिला प्राचीन भारत में एक राज्य था।
मिथिला वर्तमान में एक सांस्कृतिक क्षेत्र है जिसमे बिहार के तिरहुत, दरभंगा, मुंगेर, कोसी, पूर्णिया और भागलपुर प्रमंडल तथा झारखंड के संथाल परगना प्रमंडल के साथ साथ नेपाल के तराई क्षेत्र के कुछ भाग भी शामिल हैं।
मिथिला की लोकश्रुति कई सदियों से चली आ रही है जो अपनी बौद्धिक परम्परा के लिये भारत और भारत के बाहर जानी जाती रही है।
इस क्षेत्र की प्रमुख भाषा मैथिली है।
हिन्दू धार्मिक ग्रंथों में सबसे पहले इसका संकेत शतपथ ब्राह्मण में तथा स्पष्ट उल्लेख वाल्मीकीय रामायण में मिलता है।
मिथिला का उल्लेख महाभारत, रामायण, पुराण तथा जैन एवं बौद्ध ग्रन्थों में हुआ है।
नामकरण : प्राचीन उल्लेखों के सन्दर्भ में पौराणिक उल्लेखों के अनुसार इस क्षेत्र का सर्वाधिक प्राचीन नाम मिथिला ही प्राप्त होता है; साथ ही विदेह नाम से भी इसे संबोधित किया गया है।
तीरभुक्ति (तिरहुत) नाम प्राप्त उल्लेखों के अनुसार अपेक्षाकृत काफी बाद का सिद्ध होता है।
मिथिला एवं विदेह विदेह और मिथिला नामकरण का सर्वाधिक प्राचीन संबंध शतपथ ब्राह्मण में उल्लिखित विदेघ माथव से जुड़ता है।
मिथिला के बसने के आरंभिक समय का संकेत उक्त कथा में प्राप्त होता है।
विदेघ माथव तथा उसके पुरोहित गोतम राहूगण सरस्वती नदी के तीर से पूर्व की ओर चले थे।
उनके आगे-आगे अग्नि वैश्वानर नदियों का जल सुखाते हुए चल रहे थे।
सदानीरा (गण्डकी) नदी को अग्नि सुखा नहीं सके और विदेघ माथव द्वारा यह पूछे जाने पर कि अब मेरा निवास कहाँ हो, अग्नि ने उत्तर दिया कि इस नदी के पूर्व की ओर तुम्हारा निवास हो।
शतपथ ब्राह्मण में स्पष्ट रूपेण उल्लिखित है कि पहले ब्राह्मण लोग इस नदी को पार नहीं करते थे तथा यहाँ की भूमि उपजाऊ नहीं थी।
उसमें दलदल बहुत था क्योंकि अग्नि वैश्वानर ने उसका आस्वादन नहीं किया था।
परंतु अब यह बहुत उपजाऊ है क्योंकि ब्राह्मणों ने यज्ञ करके उसका आस्वादन अग्नि को करा दिया है।
गण्डकी नदी के बारे में यह भी उल्लेख है कि गर्मी के बाद के दिनों में भी, अर्थात् काफी गर्मी के दिनों में भी, यह नदी खूब बहती है।
इस विदेघ शब्द से विदेह का तथा माथव शब्द से मिथिला का संबंध प्रतीत होता है।
शतपथ में ही गंडकी नदी के बारे में उल्लेख करते हुए स्पष्ट रूप से विदेह शब्द का भी उल्लेख हुआ है।
वहाँ कहा गया है कि अब तक यह नदी कोसल और विदह देशों के बीच की सीमा है; तथा इस भूमि को माथव की संतान (माथवाः) कहा गया है।
वाल्मीकीय रामायण तथा विभिन्न पुराणों में मिथिला नाम का संबंध राजा निमि के पुत्र मिथि से जोड़ा गया है।
न्यूनाधिक अंतरों के साथ इन ग्रंथों में एक कथा सर्वत्र प्राप्त है कि निमि के मृत शरीर के मंथन से मिथि का जन्म हुआ था।
वाल्मीकीय रामायण में मिथि के वंशज के मैथिल कहलाने का उल्लेख हुआ है !
जबकि पौराणिक ग्रंथों में मिथि के द्वारा ही मिथिला के बसाये जाने की बात स्पष्ट रूप से कही गयी है।
शब्दान्तरों से यह बात अनेक ग्रंथों में कही गयी है कि स्वतः जन्म लेने के कारण उनका नाम जनक हुआ, विदेह (देह-रहित) पिता से उत्पन्न होने के कारण वे वैदेह कहलाये तथा मंथन से उत्पन्न होने के कारण उनका नाम मिथि हुआ।
इस प्रकार उन्हीं के नाम से उनके द्वारा शासित प्रदेश का नाम विदेह तथा मिथिला माना गया है।
महाभारत में प्रदेश का नाम 'मिथिला' तथा इसके शासकों को 'विदेहवंशीय' (विदेहाः) कहा गया है। ________________________________________
मध्यदेश संघीय नेपाली राज्य मध्यदेश (नेपाली भाषा : मधेश) उत्तर में हिमालय और दक्षिणमे विन्ध्य पर्वत तक पुर्वमे प्रयाग ,पस्चिममे सरस्वती नदीतक फैला सम भुभागोको कहाँ जाता है।
इस नाम का प्रयोग पुरातनकाल में भारत और नेपाल के एक भौगोलिक क्षेत्र के लिए किया गया था और आजके आधूनिक युगमे नेपालके तराई-दुआर सवाना और घासभूमिके लिये किया जाता हे।
इसका क्षेत्र संपूर्ण आर्यावर्त के क्षेत्र का एक भाग है।
कैथी एक ऐतिहासिक लिपि है जिसे मध्यकालीन भारत में प्रमुख रूप से उत्तर-पूर्व और उत्तर भारत में काफी बृहत रूप से प्रयोग किया जाता था।
खासकर आज के उत्तर प्रदेश एवं बिहार के क्षेत्रों में इस लिपि में वैधानिक एवं प्रशासनिक कार्य किये जाने के भी प्रमाण पाये जाते हैं ।
इसे "कयथी" या "कायस्थी", के नाम से भी जाना जाता है।
पूर्ववर्ती उत्तर-पश्चिम प्रांत, मिथिला, बंगाल, उड़ीसा और अवध में।
इसका प्रयोग खासकर न्यायिक, प्रशासनिक एवं निजी आँकड़ों के संग्रहण में किया जाता था।
उत्पत्ति 'कैथी' की उत्पत्ति 'कायस्थ' शब्द से हुई है जो कि उत्तर भारत का एक सामाजिक समूह (हिन्दू जाति) है।
इन्हीं के द्वारा मुख्य रूप से व्यापार संबधी ब्यौरा सुरक्षित रखने के लिए सबसे पहले इस लिपी का प्रयोग किया गया था।
कायस्थ समुदाय का पुराने रजवाड़ों एवं ब्रिटिश औपनिवेशिक शासकों से काफी नजदीक का रिश्ता रहा है।
ये उनके यहाँ विभिन्न प्रकार के आँकड़ों का प्रबंधन एवं भंडारण करने के लिये नियुक्त किये जाते थे। कायस्थों द्वारा प्रयुक्त इस लिपि को बाद में कैथी के नाम से जाना जाने लगा।
इतिहास कैथी एक पुरानी लिपि है जिसका प्रयोग कम से कम 16 वी सदी मे धड़ल्ले से होता था।
मुगल सल्तनत के दौरान इसका प्रयोग काफी व्यापक था। 1880 के दशक में ब्रिटिश राज के दौरान इसे प्राचीन बिहार के न्यायलयों में आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया गया था।
इसे खगड़िया जिले के न्यायालय में वैधानिक लिपि का दर्ज़ा दिया गया था।
कैथी के विलोप का खतरा कैथी लिपि को कभी कभी 'बिहार लिपि' भी कहा जाता है।
अभी भी बिहार समेत देश के उत्तर पूर्वी राज्यों में इस लिपि में लिखे हजारों अभिलेख हैं।
समस्या तब होती है जब इन अभिलेखों से संबंधित कानूनी अडचनें आती हैं।
दैनिक जागरण के पटना संस्करण में नौ सितंबर 2009 को पेज बीस पर बक्सर से छपी कंचन किशोर की एक खबर का संदर्भ लें तो इस लिपि के जानकार अब उस जिले में केवल दो लोग बचे हैं।
दोनों काफी उम्र वाले हैं।
ऐसे में निकट भविष्य में इस लिपि को जानने वाला शायद कोई न बचेगा और तक इस लिपि में लिखे भू-अभिलेखों का अनुवाद आज की प्रचलित लिपियों में करना कितना कठिन होगा इसका सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।
भाषा के जानकारों के अनुसार यही स्थिति सभी जगह है।
ऐसे में जरूरत है इस लिपि के संरक्षण की।
हिमालय के दक्षिण में जो भी मानवीय विकास की वस्तुएें प्राप्त हुई हैं, उनकी जड़ें कहीं ना कहीं से वैदिक काल से जुड़ी होती हैं।
जैसे की हिंदी के विकास की गाथा भी यही से प्रस्फुटित हुई है। इतिहासविदों के अनुसार, वैदिक संस्कृत का अस्तित्व १५००-८०० ईसा पूर्व में हुआ करता था,पर पहली बार जब पाणिनि ने इसके व्याकरण व संहिताबद्ध रूप पर कार्य किया तो यह शास्त्रीय संस्कृत के रूप में जाना जाने लगा।
यह वैदिक रूपों का अपेक्षा कृत सरल और संस्कारित रूप था वैदिक छान्दस् से शास्त्रीय संस्कृत का जन्म हुआ, यह आगे चल के राजाओं गुणी की भाषा बन गयी, ठीक उसी समय, वैदिक संस्कृत से एक और भाषा ने जन्म लिया यह भाषा आगे चल के प्राकृत के नाम से जानी जाने लगी।
देखें--- संस्कृत कोशो में अर्थ -
प्राकृत नाम 🌹 अमरकोशः में इस अर्थ में है ।
प्राकृत पुँल्लिंग
नीचः समानार्थक:विवर्ण,पामर,नीच,प्राकृत,पृथग्जन,निहीन,अपसद,जाल्म,क्षुल्लक,चेतर,इतर 2।10।16।1।4।
विवर्णः पामरो नीचः प्राकृतश्च पृथग्जनः।
निहीनोऽपसदो जाल्मः क्षुल्लकश्चेतरश्च सः॥
पदार्थ-विभागः : , द्रव्यम्, पृथ्वी, चलसजीवः, मनुष्यः वाचस्पत्यम् '''प्राकृत''' त्रि॰ प्रकृष्टमकृतमपकार्य्यं यस्य। १ नीचे। प्रकृतेरयम्अण्।
२ प्रकृतिसम्बन्धिनि। प्रकृत्या स्वभावेन निर्वृत्तःअण्।
३ स्वभावसिद्धे “बभूव प्राकृतः शिशुः” भाग॰ १० ।
प्रकृतेः संस्कृतशब्दात् आगतः अण्।
४ नाटकादौ प्रसिद्धे अपभ्रंशशब्दभेदे अमरः। प्राकृतभा-धायाः संस्कृतशब्दप्रकृतिकत्वात् तथात्वं प्राकृतकङ्केश्व-स्वादौ वररुच्यादिप्रणीते ग्रन्वेऽस्य विस्तरो दृश्यः।
स्वभावतः सिद्धयोः वि० १. प्रकृति से उत्पन्न या प्रकृति संबंधी।
२. स्वाभाविक। नैसर्गिक।
३. भौतिक।
४. स्वाभाविक।
सहज।
५. साधारण। मामूली।
६. संसारी। लौकिक।
७. नीच। असंस्कृत। अनपढ़। ग्रामीण। फूहड़। बोलचाल की भाषा जिसका प्रचार किसी समय किसी प्रांत में हो अथवा रहा हो।
उ०—जे प्राकृत कवि परम सयाने।
भाषा जिन हरिकथा बखाने।
—तुलसी (शब्द०)।
२. एक प्राचीन भाषा जिसका प्रचार प्राचीन काल में भारत में था और जो प्राचीन संस्कृत नाटकों आदि में स्त्रियों, सेवकों और साधारण व्यक्तियों की बोलचाल में तथा अलग ग्रंथों में पाई जाती है।
भारत की बालचाल की भाषाएँ बोलचाल की प्राकृतों से बनी हैं।
विशेष—हेमचंद्र ने संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति कहकर सूचित किया है कि प्राकृत संस्कृत से निकलती है, पर प्रकृति का यह अर्थ नहीं है।
केवल संस्कृत का आधार रखकर प्राकृत व्याकरण की रचना हुई है।
पर अनुमान है कि ईसवी सने से प्रायः ३०० वर्ष पहलै यह भाषा प्राकृत रूप में आ चुकी थी।
उस समय इसके पश्चिमी और पूर्वी दो भेद थे।
यह पूर्वी प्राकृत ही पाली भाषा के नाम से प्रसिद्ध हुई (दे० 'पाली')।
बौद्ध धर्म के प्रचार के साथ इस मागधी या पाली भाषा की बहुत अधिक उन्नति हुई, क्योंकि पहले उस धर्म के सभी ग्रंथ इसी भाषा में लिखे गए।
धीरे धीरे प्राचीन प्राकृतों के विकास से आज से प्रायः १००० वर्ष पहले देश- भाषाओं का जन्म हुआ था।
जिस प्रकार संस्कृत भाषा का सबसे पुराना रूप वैदिक भाषा है, उसी प्रकार प्राकृत भाषा का भी जो पूराना रूप मिलता है उसे आर्ष प्राकृत कहते हैं।
कुछ बौद्ध तथा जैन विद्वानों का मत है कि पाणिनि ने इस आर्ष प्राकृत का भी एक व्याकरण बनाया था। पर कुछ लोगों को यह संदेह है कि कदाचित् पाणिनि के समय प्राकृत भाषा का जन्म ही नहीं हुआ था।
मार्कडेय ने प्राकृत के इस प्रकार भेद किए हैं—
(१) भाषा (महाराष्ट्रा, शौरसेनी, प्राच्या, आवंती, मागधी, अद्धंमागधी), (२) विभाषा (शाकारी, चांडाली, शावरी, आभीरी, टाक्की, औड्री, द्रविडी), (३) अपभ्रंश, और (४) पैशाची।
चूलिका पैशाची आदि कुछ निम्न श्रेणी की प्राकृतें भी हैं।
सबसे प्राचीन काल में मागधी की भाषा पाली के नाम से साहित्य की ओर अग्रसर हुई।
बौद्ध ग्रंथ पहले इसी भाषा में लिखे गए। यह मागधी व्याकरणों की मागधी से पृथक् और प्राचीन भाषा है। पीछे जैनों के द्वारा अद्धमागधी और महाराष्ट्री का आदर हुआ।
महाराष्ट्री साहित्य की प्राकृत हुई जिसके एक कृत्रिम रूप का व्यवहार संस्कृत के नाटकों में हुआ।
इन प्राकृतों से आगे चलकर और घिसकर जो रूप हुआ वह अपभ्रंश कहलाया।
इसी अपभ्रंश के नाना रूपों से आजकल की आर्य शाखा की देशभाषाएँ निकली हैं।
इसके अतिरिक्त ललितविस्तर में एक प्रकार की और प्राकृत मिलती है जो संस्कृत से बहुत कुछ मिलती जुलती है।
प्राकृत भाषा में द्विवचन नहीं है और उसकी वर्णमाला में ऋ ऋ लृ लृ ऐ और औ स्वर तथा श ष और विसर्ग नहीं हैं।
३. पराशर मुनि के मत से बुध ग्रह की सात प्रकार की गतियों में पहली और उस समय की गति जब वह स्वाती भरणी और कृत्तिका में रहता है।
यह चालीस दिन की होती है और इसमें आरोग्य, वृष्टि, धान्य की वृद्धि और मंगल होता है।
हिंदी के जनम की गाथा यहीं से आरम्भ होती है। प्राकृत ने आगे चल के बहुत से रूप लिए, और यह कई बोलियों में बोली जानी लगी, ओर हर स्थान पे इसका अपना प्रारूप था, पर सब मूलतः प्राकृत ही थे।
आपका ध्यान मैं अपनी जनमस्थली ‘मगध’ की ओर आकर्षित करना चाहूँगा।
हिंदी के प्रादुर्भाव की जड़ें भी यहीं हैं।
आगे जाके प्राकृत की दो मूलतः शाखायें बनी, एक थी मगधि प्राकृत, दूसरी मगधन जिसे पाली कहा जाता है। मगधि प्राकृत: मगधि प्राकृत, जिसे अर्धमगधि से भी जाना जाता है,
यह भाषा है, जिसमें जैन धर्म के सारे ग्रंथ लिखे गए, यह गौतम बुद्धा और महावीर की भी भाषा थी।
अगर आप प्राकृत सिखना चाहे तो आपको यही मगधि प्राकृत ही सिखनी होगी।
पाली: इतिहासकारों की इसपे मतभेद है कि पाली को शुद्ध प्राकृत माना जाए या नहीं, पाली वह भाषा बनी जिसे बुद्ध धर्म ग्रंथों में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। थेरवदा बुद्धिस्म व सम्राट अशोक की सारी शिलालेख इसी भाषा में लिखी गयीं हैं।
वह दौर ऐसा था जब प्राकृत ने संस्कृत को देववानी होने के पद ने हटा दिया था।
बात प्राकृत की हो रही तो आपको एक रुचिगत बात बताता हूँ, प्राकृत के एक प्रारूप का नाम है “पिशाची” इसे पिशाचों की भाषा भी कहा जाता है, अब आप जान गए ना, मरने के बाद आपको क्या सिखना पड़ेगा? हाहाहा।
मगधी प्राकृत, आगे चलके बहुत से बोलियों में विकसित हुई, जिनमे प्रसिद्ध हैं, मगधी(मेरी मातृभाषा), अवधि, मैथिली, बेंगॉली, उड़िया और भी हैं।
दोनो, प्राकृत व पाली समय के साथ विकसित हुई और जनम दिया एक नयी भाषा को जिसे “अपभ्रंश(५००-१००० इशा बाद )” कहा गया, जिससे बनी खड़ी बोली(९००-१२०० ईसा बाद)।
इसका विकास भारत के उत्तर में दिल्ली और उत्तर प्रदेश के इर्द गिर्द हुआ था।
खड़ी बोली ही वह भाषा बनी, जिससे हिंदी ओर उर्दू का जनम हुआ।
वैसे तबसे अब तक के हिंदी में बड़े बदलाव हो चुके हैं। अगर हम हिंदी के पहले साहित्य की बात करे तो यह थी, “पृथ्वीराज रासो” जो की महान पृथ्वीराज चौहान के दरबारी कवि के द्वारा उनके गुणगान में रचित की गयी थी।
यद्यपि भारतेंदु हरीशचंद्र को आधुनिक हिंदी का पिता माना जाता हैं।
अंततः, यह जान ले की, आप की भाषा मगधी हो या अवधि, भोजपुरी हो या ब्रज, आप सभी हिंदी से काफ़ी पुरानी भाषा में बात कर रहे हैं।
पर हर वो चीज़ पुरानी हो अच्छी हो ज़रूरी नहीं। लहन्दा (لہندا, ਲਹੰਦਾ) या लाहन्दा (لاہندا, ਲਾਹੰਦਾ) पंजाबी भाषा की पश्चिमी उपभाषाओं के समूह को कहा जाता है।
पंजाबी में 'लहन्दा' शब्द का मतलब 'पश्चिम' होता है, जिस से इन भाषाओं का यह नाम पड़ा है - तुलना के लिए हिन्दी की पूर्वी उपभाषाओं को पारम्परिक रूप से अक्सर 'पूरबिया' कहा जाता है।
लहन्दा समूह में हिन्दको, पोठोहारी और सराईकी जैसी कई उपभाषाएँ शामिल हैं।
सराईकी जैसी दक्षिणी लहन्दा भाषाओं में कुछ सिन्धी भाषा से मिलते-जुलते लक्षण हैं जबकि हिन्दको जैसी उत्तरी लहन्दा भाषाओं में दार्दी भाषाओं से कुछ मिलती-जुलती चीज़ें मिलती हैं।
लहन्दा لہندا, ਲਹੰਦ बोलने का स्थान पाकिस्तान व भारत क्षेत्र पंजाब, ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा और पाक-अधिकृत कश्मीर मातृभाषी वक्ता – भाषा परिवार हिन्द-यूरोपीय हिन्द-ईरानी हिन्द-आर्य पश्चिमोत्तरी हिन्द-आर्य लहन्दा भारत में विश्व के सबसे चार प्रमुख भाषा परिवारों की भाषाएँ बोली जाती है।
सामान्यत: उत्तर भारत में बोली जाने वाली भारोपीय परि वार की भाषाओं को आर्य भाषा समूह, दक्षिण की भाषाओं को द्रविड़ भाषा समूह, ऑस्ट्रो-एशियाटिक परिवार की भाषाओं को मुण्डारी भाषा समूह तथा पूर्वोत्तर में रहने वाले तिब्बती-बर्मी, नृजातीय भाषाओं को चीनी-तिब्बती (नाग भाषा समूह) के रूप में जाना जाता है।
हिन्द आर्य भाषा परिवार यह परिवार भारत का सबसे बड़ा भाषाई परिवार है।
इसका विभाजन 'इन्डो-युरोपीय' (हिन्द यूरोपीय) भाषा परिवार से हुआ है, इसकी दूसरी शाखा 'इन्डो-इरानी' भाषा परिवार है जिसकी प्रमुख भाषायें फारसी, ईरानी, पश्तो, बलूची इत्यादि हैं।
भारत की दो तिहाई से अधिक आबादी हिन्द आर्य भाषा परिवार की कोई न कोई भाषा विभिन्न स्तरों पर प्रयोग करती है।
जिसमें संस्कृत समेत मुख्यत:
उत्तर भारत में बोली जानेवाली अन्य भाषायें जैसे: हिन्दी, उर्दू, मराठी, नेपाली, बांग्ला, गुजराती, कश्मीरी, डोगरी, पंजाबी, उड़िया, असमिया, मैथिली, भोजपुरी, मारवाड़ी, गढ़वाली, कोंकणी इत्यादि भाषायें शामिल हैं।
द्रविड़ भाषा परिवार
यह भाषा परिवार भारत का दूसरा सबसे बड़ा भाषायी परिवार है।
इस परिवार की सदस्य भाषायें ज्यादातर दक्षिण भारत में बोली जाती हैं।
इस परिवार का सबसे बड़ा सदस्य तमिल है जो तमिलनाडु में बोली जाती है।
इसी तरह कर्नाटक में कन्न्ड़, केरल में मलयालम और आंध्रप्रदेश में तेलुगू इस परिवार की बड़ी भाषायें हैं। इसके अलावा तुलू और अन्य कई भाषायें भी इस परिवार की मुख्य सदस्य हैं।
अफ़गानिस्तान, पाकिस्तान और भारतीय कश्मीर के सीमावर्ती क्षेत्रों में इसी परिवार की ब्राहुई भाषा भी बोली जाती है जिसपर बलूची और पश्तो जैसी भाषाओं का असर देखने को मिलता है।
आस्ट्रो-एशियाटिक भाषा परिवार
यह प्राचीन भाषा परिवार मुख्य रूप से भारत में झारखंड, छत्तिसगढ, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल के ज्यादातर हिस्सों में बोली जाती है।
संख्या की दृष्टि से इस परिवार की सबसे बड़ी भाषा संथाली या संताली है।
यह पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, झारखंड और असम में मुख्यरूप से बोली जाती है।
इस परिवार की अन्य प्रमुख भाषाओं में हो, मुंडारी, संथाली या संताली, खड़िया, सावरा इत्यादी भाषायें हैं।
चीनी-तिब्बती भाषा परिवार
इस परिवार की ज्यादातर भाषायें भारत के सात उत्तर-पूर्वी राज्यों जिन्हें 'सात-बहनें' भी कहते हैं,
में बोली जाती है।
इन राज्यों में अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मणिपुर, नागालैंड, मिज़ोरम, त्रिपुरा और असम का कुछ हिस्सा शामिल है।
इस परिवार पर चीनी और आर्य परिवार की भाषाओं का मिश्रित प्रभाव पाया जाता है।
और सबसे छोटा भाषाई परिवार होने के बावज़ूद इस परिवार के सदस्य भाषाओं की संख्या सबसे अधिक है।
इस परिवार की मुख्य भाषाओं में नगा, मिज़ो, म्हार, मणिपुरी, तांगखुल, खासी, दफ़ला, तथा आओ इत्यादि भाषायें शामिल हैं।
अंडमानी भाषा परिवार
जनसंख्या की दृष्टि से यह भारत का सबसे छोटा भाषाई परिवार है।
इसकी खोज पिछले दिनों मशहूर भाषा विज्ञानी प्रो॰ अन्विता अब्बी ने की।
इसके अंतर्गत अंडबार-निकाबोर द्वीप समूह की भाषाएं आती हैं, जिनमें प्रमुख हैं- अंडमानी, ग्रेड अंडमानी, ओंगे, जारवा आदि।
राजस्थानी आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं में से एक है, जिसका वास्तविक क्षेत्र वर्तमान राजस्थान प्रान्त तक ही सीमित न होकर मध्यप्रदेश के कतिपय पूर्वी तथा दक्षिणी भाग में और पाकिस्तान के वहावलपुर जिले तथा दूसरे पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी सीमा प्रदेशों में भी है।
अधिकांश विद्वानों के मतानुसार, मध्यदेशीय प्राकृत या शौरसेनी से हुआ है, किंतु डॉ॰ चाटुर्ज्या इसका विकास अशोककालीन सौराष्ट्री प्राकृत से मानते हैं।
जो "शौरसेनी या मध्यदेशीय प्राकृत से कुछ विभिन्न थी"।
इसी प्राकृत का क्षेत्र गुजरात प्रान्त तथा मारवाड़ प्रान्त था ।
और यह बोली यहाँ मध्यप्रदेश से न आकर "उत्तर-भारत के किसी और प्रांत या जनपद से आई थी।
इसी आधार पर डॉ॰ चाटुर्ज्यां गुजराती मारवाड़ी को पश्चिमी पंजाब की लँहदा तथा सिंध की सिंधी से विशेष संबद्ध मानते हैं।
वैसे इस प्रदेश की बोलियों को मध्ययुग में शौरसेनी ने काफी प्रभावित किया है।
ईसा की तीसरी-चौथी सदियों में स्वात प्रदेश के गुर्जर गुजरात, राजस्थान तथा मालवा में आ बसे थे।
पिछले दिनों इन लोगों ने यहाँ कई राज्य स्थापित किए और ये लोग ही वर्तमान अग्निवंशी राजपूतों में बदल गए।
गुर्जर जाति की मूल बोलियों ने इस प्रदेश की प्राकृत को पर्याप्त प्रभावित किया है ; तथा अपभ्रंश के विकास में, खास तौर पर उसके शब्दकोश के विकास में, इस जाति का महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
दंडी ने तो "अपभ्रंश" भाषा को आभीरादि की ही बोलियाँ माना है।
नागर अपभ्रंश के ही परवर्ती रूप से, जिसे माकोबी जैसे विद्वान् गुर्जर अपभ्रंश या श्वेतांबर अपभ्रंश कहना अधिक ठीक समझते हैं, गुजराती-राजस्थानी का विकास हुआ है।
गुजराती मूलत: राजस्थानी (पश्चिमी राजस्थानी) का ही एक विभाषा थी, जो सोलहवीं सदी तक अविभक्त थी, किंतु बाद में चलकर सांस्कृतिक, प्रांतीय तथा साहित्यिक कारणों से स्वतंत्र भाषा बन बैठी।
पश्चिमी राजस्थानी या मारवाड़ी जहाँ गुजराती और सिंधी के अधिक निकट है वहाँ पूर्वी राजस्थानी (जैपुरी हाड़ौती) ब्रजभाषा (पश्चिमी हिंदी) से पर्याप्त रूप में प्रभावित है।
फिर भी पूर्वी राजस्थानी में भी स्पष्ट भेदक तत्त्व मौजूद हैं जो इसे हिंदी की विभाषा मानने से इंकार करते हैं। राजस्थानी भाषा की भाषाशास्त्रीय स्थिति रिहारी तथा पहाड़ी की तरह उन भाषाओं में है,।
जिन्हें हिंदी की विभाषा नहीं माना जा सकता, किंतु हिंदी के सांस्कृतिक तथा साहित्यिक इतिहास के साथ इसका गठबंधन इतना दृढ़ हो गया है कि साहित्यिक दृष्टि से राजस्थानी भाषा की स्वतंत्र सत्ता न रह पाई और यह उसकी विभाषासी बन गई।
साहित्य
राजस्थानी में पर्याप्त प्राचीन साहित्य उपलब्ध है।
जैन यति रामसिंह तथा हेमचंद्राचार्य के दोहे राजस्थानी गुजराती के अपभ्रंश कालीन रूप का परिचय देते हैं। इसके बाद भी पुरानी पश्चिमी राजस्थानी में जैन कवियों के फागु, रास तथा चर्चरी काव्यों के अतिरिक्त अनेक गद्य कृतियाँ उपलब्ध हैं।
प्रसिद्ध गुजराती काव्य पद्मनाभकविकृत "कान्हडदेप्रबंध" वस्तुत: पुरानी पश्चिमी राजस्थानी या मारवाड़ी की ही कृति है।
इसी तरह "प्राकृतपैंगलम्" के अधिकांश छंदों की भाषा पूर्वी राजस्थानी की भाषा-प्रकृति का संकेत करती है। यदि राजस्थानी की इन साहित्यिक कृतियों को अलग रख दिया जाए तो हिंदी और गुजराती के साहित्यिक इतिहास को मध्ययुग से ही शुरु करना पड़ेगा।
पुरानी राजस्थानी की पश्चिमी विभाषा का वैज्ञानिक अध्ययन डॉ॰ एल. पी. तेस्सितोरी ने "इंडियन एंटिववेरी" (1914-16) में प्रस्तुत किया था, जो आज भी राजस्थानी भाषाशास्त्र का अकेला प्रामाणि ग्रंथ है। हिंदी में डॉ॰ चाटुर्ज्यां की ""राजस्थानी भाषा"" (सूर्यमल्ल भाषणों) के अतिरिक्त राजस्थानी भाषा के विशय में कोई प्रामाणिक भाषाशास्त्रीय कृति उपलब्ध नहीं है।
वैसे दो तीन पुस्तकें और भी हैं, पर उनका दृष्टिकोण परिचयात्मक या साहित्यिक है, शुद्ध भाषाशास्त्रीय नहीं।
ग्रियर्सन की लिंग्विस्टिक सर्वे में राजस्थानी बोलियों का विस्तृत परिचय अवश्य मिलता है।
पश्चिमी राजस्थानी का मध्ययुगीन साहित्य समृद्ध है। राजधानी की ही एक कृत्रिम साहित्यिक शैली डिंगल है, जिसमें पर्याप्त चारण-साहित्य उपलब्ध है।
"ढोला मा डिग्री रा दोहा जैसे लोक-काव्यों ने और "बेलि क्रिसन रुकमणी री" जैसी अलंकृत काव्य कृतियों ने राजस्थानी की श्रीवृद्धि में योग दिया है।
भाषागत विकेंद्रीकरण की नीति ने राजस्थानी भाषाभाषी जनता में भी भाषा संबंधी चेतना पैदा कर दी है और इधर राजस्थानी में आधुनिक साहित्यिक रचनाएँ होने लगी है।
राजस्थानी नागरी लिपि में लिखी जाती है। इसके अतिरिक्त यहाँ के पुराने लोगों में अब भी एक भिन्न
प्रस्तुति करण :- यादव योगेश कुमार "रोहि"
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