१-साहित्य गूँगे इतिहास का वक्ता है ।
परन्तु इसे नादान कोई नहीं समझता है ।।
साहित्य किसी समय विशेष का प्रतिबिम्ब तथा तत्कालिक परिस्थितियों का खाका है ।
ये पूर्ण चन्द्र की धवल चाँदनी है
जैसे अतीत कोई राका है ।।
इतिहास है भूत का एक दर्पण।
गुजरा हुआ कल गुजरा हुआ क्षण -क्षण ।।
२- कोई नहीं किसी का मददगार होता है ।
आदमी भी मतलब का यार होता है ।।
छोड़ देते हैं सगे भी अक्सर मुसीबत में ।
मुफ़लिसी में जब कोई लाचार होता है ।।
बात ये अबकी नहीं सदीयों पुरानी है ।
स्वार्थ से लिखी हर जीवन कहानी है ।।
स्वार्थ है जीवन का वाहक ।
अहं जीवन की सत्ता है ।।
अहंकार और स्वार्थ ही है हर प्राणी की गुणवत्ता ।।
३- विश्वास को भ्रम ,
और दुष्कर्म को श्रम कह रहे ।
आज लूट के व्यवसाय को ,
कुछ लोग उपक्रम कह रहे।।
व्यभिचार है,पाखण्ड है।
वासनाओं की ज्वाला प्रचण्ड है ।
रूढ़ियों को भी कुछ लोग धर्म कह रहे ।।
४- इन्तहा जिसकी नहीं, उसका कहाँ आग़ाज है ।
ना जान पाया तू अभी तक जिन्द़गी क्या राज है ।।
५- धड़कनों की ताल पर , श्वाँसों की लय में ढ़ाल कर । स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को ।। साज़ लेकर संवेदनाओं का ।
दु:ख सुख की ये सरग़में ।
आहों के आलाप में ।
ये कुछ सुनाती हैं हम्हें ।।
सुने पथ के ओ!
पथिक तुम सीखो जीवन रीति को ।।
स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को ।। सिसकियों की तान जिसमें
एक राग है अरमान का ।।
प्राणों के झँकृत तार पर ।
उस चिर- निनादित गान का ।।
विस्तृत मत कर देना तुम इस दायित पुनीत को ।।
स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को ।। ताप न तड़पन रहेगी।
जब श्वाँस से धड़कन कहेगी ।।
हो जोश में तनकर खड़ा।
विद्युत - प्रवाह सी प्रेरणा ।
बनती हैं सम्बल बड़ा ।।
तुम्हेें जीना है अपने ही बल पर ।
तुम लक्ष्य बनाओं जीत को ।।
स्वर बनाकर प्रीति को तब गाओ जीवन गीत को ।। ६- खो गये कहीं बेख़ुदी में ।
हम ख़ुद को ही तलाशते ।।
लापता हैं मञ्जिलें ।
अब मिट गये सब रास्ते ।।
न तो होश है न ही जोश है ।।
ये जिन्द़गी बड़ी खामोश है ।।
बिखर गये हैं अरमान मेरे सायद बदनशीं के वास्ते ।।
ये दूरियाँ ये फासिले , बेतावीयों के सिलसिले !!
एक साद़गी की तलाश में ,
हम परछाँयियों सेआ मिले ।।
दूर से भी काँच हमको।
मणियों जैसे भासते ।।
सज़दा किया मज्दा किया ।।
कुर्बान जिसके वास्ते।।
हम मानते उनको ख़ुदा ।।
--जो कभी न हमारे ख़ास थे ।।
किश्ती किनारा पाएगी कहाँ मिल पाया ना ख़ुदा ।।
वो खुद होकर हमसे ज़ुदा ।
ओझल हो गया आस्ते ।।
खो गये कहीं बेख़ुदी में ।
हम ख़ुद को ही तलाशते ।।
७- जिन्द़गी की किश्ती ! आशाओं के सागर ।।
बीच में ही डूब गये ; कुछ लोग तो घबराकर ।। किसी आश़िक को पूछ लो ।
अरे तुम द़िल का हाल जाकर ।।
दुपहरी सा जल रहा है ; बैचारा तमतमाकर ।।
किसी कँवारी से मत पूछना
सहानुभूति थोड़ी भी दिखाकर ।।
तड़फड़ाती फिरती है 'वह जैसे खोई प्यासी लहर ।। असीमित आशाओं के डोर में ।
बँधी पतंग है जिन्द़गी कोई ।।
मञ्जिलों से पहले ही यहाँं ,
भटक जातों हैं अक्सर बटोही
क्यों कि ! बख़्त की राहों पर !
जिन्द़गी वो मुसाफिर है ।।
जिसकी मञ्जिल नहीं "रोहि" कहीं ।
और न कोई सफ़र ही आखिर है ।।
आशाओं के कुछ पढ़ाब जरूर हैं ।
'वह भी अभी हमसे बहुत दूर हैं ।।
बस ! चलते रो चलते रहो " चरैवेति चरैवेति !
८- अपनों ने कहा पागल हमको ।
ग़ैरों ने कहा आवारा है ।
जिसने भी देखा पास हम्हें ।
उसने ही हम्हें फटकारा है ।।
९- कोई तथ्य असित्व में होते हुए भी उसी मूल-रूप में नहीं होता ; जिस रूप में कालान्तरण में उसके अस्तित्व को लोगों द्वारा दर्शाया जाता है ।
क्यों कि इस परिवर्तित -भिन्नता का कारण लोगों की भ्रान्ति पूर्ण जानकारी, श्रृद्धा प्रवणता तथा अतिरञ्जना कारण है ।
और परम्पराओं के प्रवाह में यह अस्त-व्यस्त होने की क्रिया स्वाभाविक ही है ।
देखो !
आप नवीन वस्त्र और उसी का
अन्तिम जीर्ण-शीर्ण रूप !
अतः उसके मूल स्वरूप को जानने के लिए केवल अन्त:करण की स्वच्छता व सदाचरण व्रत आवश्यक है क्यों कि दर्पण के स्वच्छ होने पर ज्ञान रूप प्रकाश स्वत: ही परावर्तित होता है ।
और यह ज्ञान वही प्रकाश है ।
जिससे वस्तु अथवा तथ्यों का मूल वास्तविक रूप दृष्टि गोचर होता है ।
और ज्ञान की सिद्धि के लिए अन्त:करण चतुष्टय की शुद्धता परमावश्यक है ।
फिर आपसे बड़ा कोई ज्ञानी नहीं । समझे !
अभी नहीं समझे !
अनुभव उम्र की कषौटी है ।
ज्ञान की मर्यादा उससे कुछ छोटी है ।
क्योंकि अनुभव प्रयोगों के आधार पर अपने आप में सिद्ध होता है और ज्ञान केवल एक सैद्धान्तिक स्थति है
भक्तों आप ही बताइए कि प्रयोग बड़ा होता है या सिद्धांत !
परिस्थितियों के साँचे में ।
रोहि व्यक्तित्व ढलता है ।
बदलती है दुनियाँ उनकी जिनका मन बदलता है।
मेरे विचार मेरे भाव यही मेरे ठिकाने हैं ।
हर कर्म है इनकी व्याख्या ही हमने जाने
जन्म जन्मान्तरण के अहंकारों का सञ्चित रूप ही तो नास्तिकता है ।
जो जीवन को निराशाओं के अन्धेरों से आच्छादित कर देती है ।
समझने की आवश्यकता है कि नास्तिकता क्या है ?
अपने अस्तित्व को न मानना ही नास्तिकता है ।
क्यों कि लोग अहं में जीते है ।
परन्तु यदि वे स्वयं में जी कर देखें तो
वे परम आस्तिक हैं ।
बुद्ध ने भी स्वको महत्ता दी अहं को नहीं !
दर्शन ( Philosophy) से विज्ञान का जन्म हुआ !
दर्शन वस्तुत सैद्धान्तिक ज्ञान है ।
और विज्ञान प्रायौगिक है --जो किसी वस्तु अथवा तथ्य के विश्लेषण पर आधारित है ।
ताउम्र बुझती नहीं "रोहि "
जिन्द़गी 'वह प्यास है ।
आनन्द की एक बूँद के लिए भी .
कोई करता रहा वह प्रयास है।।
आस जब तलक छोड़ी नहीं
थीं धड़कने और श्वाँस ।
जीवन किसी पहाड़ सा दुर्गम
और स्वप्न झरना काोई खा़स..
ये नींद सरिता की अविरल धारा.
जहाँ मिलता नहीं कोई किनारा।
हर श्वाँस में है अभी जीने की चाह ...
ये जीवन है अनन्त जन्मों का प्रवाह ....
शिक्षा का व्यवसायी करण
दु:खद व पतनकारी ! भगवन् !
आज के अधिकतर शिक्षा संस्थान (एकेडमी) एक ब्यूटी-पार्लर से अधिक कुछ नहीं हैं ।
जिनमें केवल डिग्रीयों का श्रृँगार करके विद्या - अरथी नकलते हैं ।
ये योग्यता या विद्या का अरथी ले जारहे हों
ऐसा लगता है ।
जिनमें योग्यता रूपी सुन्दरता का प्राय: अभाव ही रहता है
केवल आँखों में सबको चूसने का भाव रहता है।
इन्हें -जब समझ में आये
कि सुन्दरता कोई श्रृँगार नहीं !
-जैसे साक्षरता शिक्षाकार नहीं ।
योग्यता एक तपश्चर्या है ।
--जो नियम- और संयम के पहरे दारी में रहती है ।
वैसे भी योग्य व्यक्ति दुनियाँ का सबसे शक्ति शाली व्यक्ति है ।
यदि स्त्रीयाँ सुन्दर न हों केवल श्रृँगार सर्जरी कराई कर
रुतबा बिखेरती हों तो विद्वानों की दृष्टि में कभी भी सम्माननीया नहीं रहती ।
जिन्हें अपने संसारी पद का ,
"रोहि" हद से ज्यादा मद है ।
सन्त और विद्वान समागम ,
उनका छोटा क़द है ।
उनके पास कुछ टुकड़े हैं ।
क्षण-भङ्गुर चन्द कनक के ,
उन्मुक्त कर रहे स्वर उनको ,
बड़ते पैसों की खनक के
उनकी उपलब्धियों की भी ,
संसार में यही सरहद है ।
ये लौकिक यात्रा का साधन धन !
जिसकी टिकट भी अब तो रद है ।
जीवात्मा की अनन्त यात्रा ।
जिसका पाथेय उपनिषद् है ।
पढ़ाबों से वही बढ़ पाता है रोहि ।
--जो राहों का गहन विशारद है ...
सच कहने में संकोच खौंच दीवार की आँसे !
व्यक्ति की छोटी शोच , मोच पैरों की नाँसे !!
बातचीत करके और व्यवहार परख कर
चलने वाले कभी नहीं पाते झांसे !
सभी दूध के धुले भी कहाँ निर्विवाद होते हैं ।
नियमों में भी अक्सर यहाँं अपवाद होते हैं ।।
कार्य कारण की बन्दिशें , उसके भी निश्चित दायरे।
नियम भी सिद्धान्तों का तभी, अनुवाद होते हैं ।
महानताऐं घूमती हैं "रोहि" गुमनाम अँधेरों में ।
चमत्कारी तो लोग प्रसिद्धियों के बाद होते हैं ।।
भव सागर है कठिन डगर है ।
हम कर बैठे खुद से समझौते !
डूब न जाए जीवन की किश्ती ।
यहाँ मोह के भंवर लोभ के गोते ।
मन का पतवार बीच की धार।
रोही उम्र बीत गई रोते-रोते।
प्रवृत्तियों के वेग प्रबल हैं ।
लहरों के भी कितने छल हैं ।
बस बच गए हैं हम खोते खोते।
सद्बुद्धि केवटिया बन जा ।
इन लहरों पर सीधा तंजा ।
प्रायश्चित के फेनिल से चमकेगा।
रोही अन्तर घट ये धोते-धोते।।
तन्हाईयों के सागर में खयालों की बाड़ हैं ।
जिन्दगी की किश्ती लहरें प्रगाढ़ हैं ।
पतवार छूट गये मेरे ज्ञान और कर्म के ।
हर तरफ मेरे मालिक ! घोर स्वार्थो की दहाड़ है ।
जिसकी दृष्टि में भय मिश्रित छल है।
रोही वह निश्चित ही कोई अपराध कर रहा है और उसे अपराध बोध भी है।
परन्तु वह दुर्भावनाओं से प्रेरित है ।
यह मेरा निश्चित मत है और जो व्यक्ति हमसे भयभीत है हम्हें उनसे भी भयभीत रहें।
क्योंकि यह अपने भय निवारण के लिए हमारा अवसर के अनुकूल अनिष्ट कर सकते हैं।
व्यक्तित्व तो रोहि परिस्थितियों के साँचे में ढलते हैं ।
अभावों की आग में तप कर भत्त भी फौलाद में बदलते हैं ।
_____________________________________ आपका दास ! रूढ़िवादी यों से हताश ! यादव योगेश कुमार "रोहि" सम्पर्क-सूत्र:–807716219../