यदुवंशी क्षत्रिय नहीं शूद्र हैं ; क्षत्रिय तो ब्राह्मणों की अवैध सन्तानें हैं
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जब यदु को ही वेदों में दास अथवा शूद्र कहा है ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है। वह भी गोपों को रूप में
तो यदुवंशी कब से क्षत्रिय हो गये ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत ।
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है।
गो-पालक ही गोप होते हैं ।
मह् आत्मने पदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप में वर्णित है। वैदिक सन्दर्भों में मह् धातु का अधिकतर अर्थ वर्णन करना अथवा कहना ही है।
प्रशंसा करना अर्थ लौकिक संस्कृत में रूढ़ हो गया है।
क्योंकि कि देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ।
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन
नकारात्मक रूप में ही हुआ है ।
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प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ
नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७)
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हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान
अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !
(ऋग्वेद ७/१९/८)
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ऋग्वेद में भी यथावत् यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो ।
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और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है ।...
देखें---
अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय ,
शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था ।
उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया ।
यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा
जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज- असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज- हैं
भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया ।
यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है देखें--और भी
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सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७)
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हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ।
अर्थात् उनका हनन कर डाला ।
अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
निह्नवाकर्त्तरि ।
“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है ।
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किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं
त्वां श्रृणोमि ।।
अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/
हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो ।
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो ।
तुम मुझे क्षीण न करो ।
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यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे ।
यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है ।
अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है ।
ईरानी असुर संस्कृति में दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।
यदु एेसे स्थान पर रहते थे।
जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था
ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है ।
यह स्था (उष ष्ट्रन् किच्च )
ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )।
(ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् । “हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति” “नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम्
देखें---ऋग्वेद में
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शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे ।
राधांसि यादवानाम्
त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६।
उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा यादवं जनम् ।४८।१७।
यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया !
ऋग्वेद ८/६/४६
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इन वर्णों मे यदु को क्षत्रिय नहीं कहा गया
तो फिर यदुवंशी कब से क्षत्रिय हो गये ।
और ---जो खुद को क्षत्रिय अथवा राजपूत अथवा ठाकुर कहता है वह विदेशी अवश्य है ।
यदुवंशी कभी नहीं वेदों मे कभी यदु वंशीयों के आदि पुरुष यदु को सम्मान से कभी और कहीं याद ही नहीं किया गया।
और फिर क्षत्रिय तो ब्राह्मणों की अवैध सन्तानें हैं।
सर्व-प्रथम यदि स्वयं को ही यदुवंशी घोषित कर रहे हो तो आप ठाकुर हो और ठाकुर शब्द और उसके उपाधि धारक दौनों तुर्की, आरमेनियन तथा ईरानी मूल के हैं।
ठाकुर शब्द बारहवीं सदी में उदित हुआ ।
पुराणों अथवा वेदों या संस्कृत के किसी श्रेण्य साहित्य में यह शब्द है ही नहीं फिर तुम सनातनी कहाँ हो यह तो केवल तनातनी है ।
अफगानिस्तान में ईरानी मूल के जादौन पठान तक्वुर उपाधि से अपने को नवाज़ते हैं ।
इस विषय पर आपको यह जानकारी प्रस्तुत की जाती है ।
शास्त्रार्थ के वाग्युद्ध में प्रमाणों की ढ़ाल और तर्क के वाण ही रक्षक हैं ।
ठाकुर शब्द का विकास हुआ
तुर्की तक्वुर शब्द से बारहवीं सदी में !
जानिए इसका सम्पूर्ण इतिहास---
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हिन्दी भाषा के मध्य-काल में ठाकुर एक सम्मान सूचक उपाधि रही है ।
और जन-जाति गत रूप में परम्परागतगत रूप में राजपूतों का विशेषण है।
तुर्किस्तान में (तेकुर अथवा टेक्फुर ) परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी।
बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द ही संस्कृत भाषा में ठक्कुर शब्द के रूप में उदिय हुआ ।
संस्कृत शब्दकोशों में इसे
ठक्कुर के रूप में लिखा गया है।
कुछ समय तक ब्राह्मणों के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता रहा है ।
क्योंकि ब्राह्मण भी जागीरों के मालिक होते थे ।
जो उन्हें राजपूतों द्वारा दान रूप में मिलता थी।
और आज भी गुजरात तथा पश्चिमीय बंगाल में ठाकुर ब्राह्मणों की ही उपाधि है।
तुर्की ,ईरानी अथवा आरमेनियन भाषाओ का तक्वुर शब्द एक जमींदारों की उपाधि थी ।
समीप वर्ती उस्मान खलीफा के समय का हम इस सन्दर्भों में उल्लेख करते हैं।
कि " जो तुर्की राजा स्वायत्त अथवा अर्द्ध स्वायत्त होते थे ; वे ही तक्वुर अथवा ठक्कुर कहलाते थे "
उसमान खलीफ का समय (644 - 656 ) ई०सन् के समकक्ष रहा है ।
भारतीय मध्य कालीन इतिहास में ठाकुर हिन्दू -व्यवस्था के प्रवर्तक ब्राह्मणों द्वारा प्रदत्त एक जमींदारीय उपाधि थी। जमीदार तो ये लोग इस लिए बन गये कि इन्होंने वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत शूद्र वर्णित में आने वाली जन-जातियाँ की सारी ज़मीने अधि ग्रहीत करली गयीं थी ।
क्या ये विदेश मध्य एशिया से ज़मीने लाये ? कदापि नहीं ।
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उस्मान को शिया लोग ख़लीफा नहीं मानते थे।
सत्तर साल के तीसरे खलीफा उस्मान (644-656 राज्य करते रहे हैं) उनको एक धर्म प्रशासक के रूप में निर्वाचित किया गया था।
उन्होंने राज्यविस्तार के लिए अपने पूर्ववर्ती शासकों- की नीति प्रदर्शन को जारी रखा.
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ठाकुर शब्द विशेषत तुर्की अथवा ईरानी संस्कृति
में अफगानिस्तान के पठान जागीर-दारों में प्रचलित था
पख़्तून लोक-मान्यता के अनुसार यही जादौन पठान जाति ‘बनी इस्राएल’ यानी यहूदी वंश की है।
इस कथा की पृष्ठ-भूमि के अनुसार पश्चिमी एशिया में असीरियन साम्राज्य के समय पर लगभग 2800 साल पहले बनी-इस्राएल के दस कबीलों को देश -निकाला दे दिया गया था।
और यही कबीले पख़्तून हैं।
ॠग्वेद के चौथे खंड के 44 वें सूक्त की ऋचाओं में भी पख़्तूनों का वर्णन ‘पृक्त्याकय अर्थात् (पृक्ति आकय) नाम से मिलता है ।
इसी तरह तीसरे खंड का 91 वीं ऋचा में आफ़रीदी क़बीले का ज़िक्र ‘आपर्यतय’ के नाम से मिलता है।
भारत में हर्षवर्धन के उपरान्त कोई भी ऐसा शक्तिशाली राजा नहीं हुआ जिसने भारत के बृहद भाग पर एकछत्र राज्य किया हो।
इस युग मे भारत अनेक छोटे बड़े राज्यों में विभाजित हो गया जो आपस मे लड़ते रहते थे। तथा
इसी समय के शासक राजपूत कहलाते थे ;
तथा सातवीं से बारहवीं शताब्दी के इस युग को राजपूत युग कहा गया है।
राजपूतों के दो विशेषण और हैं ठाकुर और क्षत्रिय
ये ब्राह्मणों द्वारा प्रदत्त उपाधियाँ हैं।
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कर्नल टोड व स्मिथ आदि विद्वानों के अनुसार राजपूत वह विदेशी जन-जातियाँ है ।
जिन्होंने भारत के आदिवासी जन-जातियों पर आक्रमण किया था ; औरअपनी धाक जमाकर कालान्तरण में यहीं जम गये इनकी जमीनों पर कब्जा कर के जमीदार के रूप "
और वही उच्च श्रेणी में वर्गीकृत होकर राजपूत कहलाए
ब्राह्मणों ने इनके सहयोग से अपनी -व्यवस्था कायम की
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"चंद्रबरदाई लिखते हैं कि परशुराम द्वारा क्षत्रियों के सम्पूर्ण विनाश के बाद ब्राह्मणों ने माउंट-आबू पर्वत पर यज्ञ किया व यज्ञ कि अग्नि से चौहान, परमार, प्रतिहार व सोलंकी आदि राजपूत वंश उत्पन्न हुये।
इसे इतिहासकार विदेशियों के हिन्दू समाज में विलय हेतु यज्ञ द्वारा शुद्धिकरण की पारम्परिक घटना के रूप मे देखते हैं "
जितने भी ठाकुर उपाधि धारक हैं वे राजपूत ब्राह्मणों की इसी परम्पराओं से उत्पन्न हुए हैं
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सत्य का प्रमाणीकरण इस लिए भी है कि ठाकुर शब्द तुर्कों की जमींदारीय उपाधि थी ।
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संस्कृत ग्रन्थ अनन्त संहिता में श्री दामनामा गोपाल: श्रीमान सुन्दर ठाकुर: का उपयोग भी किया गया है, जो भगवान कृष्ण के संदर्भ में है।
यह समय बारहवीं सदी ही है ।
पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय में श्रीनाथजी के विशेष विग्रह के साथ कृष्ण भक्ति की जाती है।
जिसे ठाकुर जी सम्बोधन दिया गया है ।
पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय का जन्म पन्द्रवीं सदी में हुआ है । और यह शब्द का आगमन बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द के रूप में और भारतीय धरा पर इसका प्रवेश तुर्कों के माध्यम से हुआ ।
ये संस्कृत भाषा में प्राप्त जो ठक्कुर शब्द है वह निश्चित रूप से मध्य कालीन विवरण हैं ।
अनन्त-संहिता बाद की है ; इसमें विष्णु के अवतार की देव मूर्ति को भी ठाकुर कह दिया हैं और उनके मन्दिर को हवेली दौनों शब्द पैण्ट-कमी़ज की तरह साथ साथ हैं।
उच्च वर्ग के क्षत्रिय आदि की प्राकृत उपाधि ठाकुर भी इसी से निकली है।
किसी भी प्रसिद्ध व्यक्ति को ठाकुर या ठक्कुर कहा जा सकता है।
बशर्ते वह जमीदार हो । __________________________________________ इन्हीं विशेषताओं और सन्दर्भों के रहते भगवान कृष्ण के लिए भक्त गण ठाकुर जी सम्बोधन का उपयोग करते हैं। विशेषकर श्री वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित पुष्टिमार्गी संप्रदाय के अनुयायी भगवान कृष्ण के लिए ठाकुर जी संबोधन देते हैं।
इसी सम्प्रदाय ने उन्हें कृष्ण जी को ठाकुर का प्रथम सम्बोधन दिया ।
यद्यपि किसी पुराण अथवा शास्त्र में ठक्कुर शब्द का प्रयोग कृष्ण के लिए नहीं है।
परन्तु इस सम्बोधन के मूल में कालान्तरण में यह भावना प्रबल रही कि " कृष्ण को यादव सम्बोधन न देकर केवल आभीर (गोप) जन-जाति को हेय सिद्ध किया जा सके ।
अब देखिए हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण को गोप (आभीर) कहा!
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गोपायनं य: कुरुते जगत: सर्वलौककम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९। (हरिवंश पुराण )
अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।
वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९। हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।
तथा और भी देखें---यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है ।
देखें :- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण..
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" इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।२२।।
द्या च सा सुरभिर्नाम् अदितिश्च सुरारिण: ते८प्यमे तस्य भुवि संस्यते ।।२४।।
वसुदेव: इति ख्यातो गोषुतिष्ठति भूतले ।
गुरु गोवर्धनो नामो मधुपुर: यास्त्व दूरत:।।२५।।
सतस्य कश्यपस्य अंशस्तेजसा कश्यपोपम:।
तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य कर दायक: तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्चते ।।२६।।
देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्य धीमत:
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अर्थात् हे विष्णु ! महात्मा वरुण के एैसे वचन सुनकर
तथा कश्यप के विषय में सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके
उनके गो-अपहरण के अपराध के प्रभाव से
कश्यप को व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करने का शाप दे दिया ।।२६।।
कश्यप की सुरभि और अदिति नाम की पत्नीयाँ क्रमश:
रोहिणी और देवकी हुईं ।
यद्यपि पुराण कारों ने कृष्ण के लिए ठाकुर सम्बोधन कभी प्रयुक्त नहीं किया । __________________________________________ क्योंकि ठाकुर शब्द संस्कृत भाषा का नहीं अपितु ये तुर्की , ईरानी तथा आरमेनियन मूल का है ।
अतः शास्त्र कार इस शब्द के प्रयोग से बचते रहे । __________________________________________ पुराणों में तथा महाभारत के अन्तर्गत शान्ति - पर्व से उद्धृत श्रीमद्भगवद् गीता में भी कृष्ण को यादव ही कह कर सम्बोधित किया गया है , ठाकुर नहीं । देखें--- _______________________________________
सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति। अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥११- ४१॥
(श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय ११ श्लोक संख्या ४१) ________________________________________ अर्थात् हे भगवन्, आप को केवल अपना मित्र ही मान कर, मैंने प्रमादवश अथवा प्रेम वश आपको जो यह हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा (मित्र) कह कर सम्बोधित किया, वह आप की महिमा को न जानते हुए ही किया हैे।
________________________________________
और ठाकुर शब्द तुर्कों और ईरानियों के साथ भारत आया ।
ठाकुर जी सम्बोधन का प्रयोग वस्तुत : स्वामी भाव को व्यक्त करने के निमित्त है ।
न कि जन-जाति विशेष के लिए ।
कृष्ण को ठाकुर सम्बोधन का क्षेत्र अथवा केन्द्र नाथद्वारा ही प्रमुखत: है।
यहाँ के मूल मन्दिर में कृष्ण की पूजा ठाकुर जी की पूजा ही कहलाती है।
यहाँ तक कि उनका मन्दिर भी हवेली कहा जाता है।
विदित हो कि हवेली (Mansion)और तक्वुर (ठक्कुर)
" A person who wearer of the crown is called Takvor " दौनों शब्दों की पैदायश ईरानी भाषा से है
कालान्तरण में भारतीय समाज में ये शब्द रूढ़ हो गये ⛺⛺.🌲☘🌴 🌉 ..................................
पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय के देशभर में स्थित अन्य मन्दिरों में भी भगवान को ठाकुर जी कहने का परम्परा रही है। __________________________________________ तुर्किस्तान में (तेकुर अथवा टेक्फुर )परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी । यहाँ पर ही इसका जन्म हुआ । _________________________________________ "तब निस्सन्देह इस्लाम धर्म का आगमन नहीं हो पाया था मध्य एशिया में ।
वहाँ सर्वत्र ईसाई विचार धारा ही प्रवाहित थी , केवल छोटे ईसाई राजा होते थे ।
ये स्थानीय बाइजेण्टाइन ईसाई सामन्त (knight) अथवा माण्डलिक ही होते थे तब तुर्की भाषा में इन्हें तक्वुर (ठक्कुर) ही कहा जाता था ! उस समय एशिया माइनर (तुर्की) और थ्रेस में ही इस प्रकार की शासन प्रणाली होती थी "
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आइए देखें--- ठाकुर शब्द के विशेष सन्दर्भों को तुर्की इतिहास के आयने में -----
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तेकफुर एक सेलेजुक के उत्तरार्ध में इस्तेमाल किया गया एक विशेषण था।
और ओटोमन (उस्मान)काल के प्रारम्भिक चरण या समय में स्वतंत्रता या अर्ध-स्वतंत्र नाबालिग (वयस्क) ईसाई शासकों या एशिया माइनर और थ्रेस में स्थानीय बायज़ान्टिन राज्यपालों का तक्वुर (ठक्कुर) रूप में उल्लेख किया गया था।
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उत्पत्ति और अर्थ ---
तुर्की नाम, टेकफुर सराय, "ताज के धारक" का अर्थ है "शासक के महल" का अर्थ है इसी फ़ारसी शब्द से है । यह कांस्टेंटिनोपल में बीजान्टिन घरेलू वास्तुकला का एकमात्र अच्छा संरक्षित उदाहरण भी है ।
शीर्ष कहानी के अनुसार :-
एक विशाल सिंहासन कक्ष तथा मुखौटे से (Palaiologan) इंपीरियल राजवंश के हेरलडीक प्रतीकों से जिसे सजाया गया था।
और इसे मूल रूप से पोरफिरोगनेनेट्स हाउस कहा जाता था -
जिसका अर्थ है "बैंगनी चेंबर में पैदा हुआ"।
यह महल कॉन्सटेंटाइन, माइकल आठवीं का तीसरा पुत्र द्वारा और 1261 और 12 91 के बीच की तारीखों के लिए बनाया गया था।
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मध्य आर्मीनियाई թագւոր (t'agwor) से, पुरानी अर्मेनियाई թագաւոր (टीगवायर) रूप से
इब्न बीबी के कामों में सत्यापित ...
(शास्त्रीय फ़ारसी) / त्केवुर /
(ईरानी फारसी) / टीएकेवोर/
تکور • (takvor) (बहुवचन تکورا__n_ हिन्दी उच्चारण थाकुरन) (takvorân) या تکورها (takvor-hâ)
फ़ारसी(Dehkhoda )शब्दकोश से उद्धृत-
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एंग्लो-नोर्मन ऑन-लाइन हब पर तफ़ूर
पुरानी पुर्तगाली (पुर्तगाल की भाषा)
वैकल्पिक रूप (क्रमिक रूप)
एंग्लो-नोर्मन ऑन-लाइन हब पर तफ़ूर
पुरानी पुर्तगाली (पुर्तगाल की भाषा)
वैकल्पिक रूप (क्रमिक रूप)
taful
व्युत्पत्ति (शब्द निर्वचनता)
पार्थियन से ओल्ड आर्मेनियाई թագաւոր (टी'गवायर, "राजा") से, अरबी तक्कीफुर (takfur, "अर्मेनियाई राजा") से, मध्य अर्मेनियाई թագւոր (t'agwor, "राजा") से, (एक इरानी भाषा का हिस्सा)
पुरानी स्पैनिश तफ़ूर (आधुनिक तहुर) के साथ संज्ञानात्मक रूप -
उच्चारण
: /ta.fuɾ/
संज्ञा -
tafurm
(जुआरी )
13 वीं शताब्दी, कैस्टिले के अल्फोंसो एक्स को जिम्मेदार ठहराया गया इस अर्थ रूप के लिए
तक्वुर शब्द के अर्थ व्यञ्जकता में एक अहंत्ता पूर्ण भाव ध्वनित है।
व्युत्पन्न शर्तों के अनुसार-
तफ़ूरिया (तफ़ूरिया)
वंशज
गैलिशियन: तफ़ूर
पुर्तगाली: सख्त वैकल्पिक रूप
թագվոր (t'agvor) हिन्दी: - टेगुँरु तथा बाँग्ला- टैंगोर रूप ...
թագուոր (t'aguor)
व्युत्पत्ति (व्युत्पत्ति)
ओल्ड आर्मीनियाई թագաւոր (टीगवायर) से
संज्ञा ।
թագւոր • (t'agwor), यौतिक एकवचन शब्द (t'agwori)
राजा के अर्थ में।
दुल्हन के अर्थ में (क्योंकि वह शादी के दौरान एक मुकुट पहना करती है)
व्युत्पन्न शर्तों से -
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թագուորանալ (t'aguoranal)
թագւորական (t'agworakan)
թագւորացեղ (t'agworac'eł)
թագվորորդի (t'agvorordi)
वंशज
अर्मेनियाई: թագվոր (t'agvor)
संदर्भ -----
लज़ारियन, Ṙ एस .; Avetisyan, एच.एम. (200 9), "üyühsur", में Miine hayereni baaran
[मध्य अर्मेनियाई के शब्दकोश] (अर्मेनियाई में), 2 संस्करण, येरेवन: विश्वविद्यालय प्रेस
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टक्फुर (तक्वुर) शब्द एक तुर्की भाषा में रूढ़ माण्डलिक का विशेषण शब्द है.
जिसका अर्थ होता है
" किसी विशेष स्थान अथवा मण्डल का मालिक अथवा स्वामी ।
तुर्की भाषा में भी यह ईरानी भाषा से आयात है ।
इसका जडे़ भी वहीं है ।
ईरानी संस्कृति में ताजपोशी जिसकी की जाती वही तेकुर अथवा टेक्फुर कहलाता था ।
" A person who wearer of the crown is called Takvor "
यह ताज केवल उचित प्रकार से संरक्षित होता था, केवल बाइजेण्टाइन गृह सम्बन्धित उदाहरण- के निमित्त विशेष अवसरों पर इसका प्रदर्शन भी होता था ।
पुरातात्विक साक्ष्यों ने ये प्रमाणित कर दिया गया है।
कि सिंहासन कक्ष एक उच्चाट्टालिका के रूप में होता था
राजा की मुखाकृति को शौर्य शास्त्रीय प्रतीकों द्वारा. सुसज्जित किया जाता था ।
शाही ( राजकीय) पुरालेखों में इस कक्ष को राजा के वंशज व्यक्तियों की धरोहरों से युक्त कर संरक्षित किया जाता था ।
और इसे पॉरफाइरो जेनेटॉस का कक्ष कह कर पुकारा जाता था ।
जिसका अर्थ होता है :- बैंगनी कक्ष से उत्पन्न "
इसे अनवरत रूप से माइकेल तृतीय के पुत्र द्वारा बन बाया गया ।
यद्यपि व्युत्पत्ति- की दृष्टि से तक्वुर शब्द अज्ञात है परन्तु आरमेनियन ,अरेबियन (अरब़ी) तथा हिब्रू तथा तुर्की आरमेनियन भाषाओं में ही यह प्रारम्भिक चरण में उपस्थिति है ।
जिसकी निकासी ईरानी भाषा से हुई ।
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आरमेनियन भाषा में यह
शब्द तैगॉर रूप में वर्णित है ।
जिसका अर्थ होता है :- ताज पहनने वाला ।
The origin of the title is uncertain. It has been suggested that it derives from the Byzantine imperial name Nikephoros, via Arabic Nikfor. It is sometimes also said that it derives from the Armenian taghavor, "crown-bearer".
The term and its variants (tekvur, tekur, tekir, etc.
( History of Asia Minor)📍
Translated by Yadav Yogesh Kumar Rohi
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Identityfied of This word with Sanskrit Word Thakkur "
It Etymological thesis Explored by Yadav Yogesh kumar Rohi -
began to be used by historians writing in Persian or Turkish in the 13th century, to refer to "denote Byzantine lords or governors of towns and fortresses in Anatolia (Bithynia, Pontus) and Thrace.
It often denoted Byzantine frontier warfare leaders, commanders of akritai, but also Byzantine princes and emperors themselves", e.g. in the case of the Tekfur Sarayı , the Turkish name of the Palace of the Porphyrogenitus in Constantino
(मॉद इस्तानबुल " के सन्दर्भों पर आधारित तथ्य )
Thus Ibn Bibi refers to the Armenian kings of Cilicia as tekvur,(ठक्कुर )while both he and the Dede Korkut epic refer to the rulers of the Empire of Trebizond as "tekvur of Djanit".
In the early Ottoman period, the term was used for both the Byzantine governors of fortresses and towns, with whom the Turks fought during the Ottoman expansion in northwestern Anatolia and in Thrace, but also for the Byzantine emperors themselves, interchangeably with malik ("king") and more rarely, fasiliyus (a rendering of the Byzantine title basileus).
Hasan Çolak suggests that this use was at least in part a deliberate choice to reflect current political realities and Byzantium's decline, which between
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1371–94 and again between 1424 and the Fall of Constantinople in 1453 made the rump Byzantine state a tributary vassal to the Ottomans. 15th-century Ottoman historian Enveri somewhat uniquely uses the term tekfur also for the Frankish rulers of southern Greece and the Aegean islands.
References--( सन्दर्भ तालिका )
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^ a b c d Savvides 2000, pp. 413–414.
^ a b Çolak 2014, p. 9.
^ Çolak 2014, pp. 13ff..
^ Çolak 2014, p. 19.
^ Çolak 2014, p. 14.
शीर्षक का मूल अनिश्चित है । यह सुझाव दिया गया है कि यह बीजान्टिन शाही नाम निकेफोरोस से निकला है, अरबी निकफो के माध्यम से यह
कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि यह अर्मेनियाई तागवर, "मुकुट-धारक" से निकला है।
शब्द और इसके विकसित प्रकार (tekvur, tekur, tekir, आदि)
(एशिया माइनर का इतिहास)
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संस्कृत शब्द ठाकुर के साथ इस शब्द की पहचान "
यादव योगेश कुमार रोही द्वारा खोजखोजी गयी उत्पत्ति सम्बन्धी थीसिस -
यह शब्द 13 वीं शताब्दी में फ़ारसी या तुर्की में लिखे जा रहे इतिहासकारों द्वारा इस्तेमाल किया जाने लगा, जिसका अर्थ है "बीजान्टिन प्रभुओं या एनाटोलिया ( तुर्की) के बीथिनीया, पोंटस) और थ्रेस में कस्बों और किले के गवर्नरों (राजपालों )का निरूपण करना।
यह प्रायः बीजाण्टिन सीमावर्ती युद्ध के नेताओं, अकराति के कंडरों, लेकिन बीजान्टिन राजकुमारों और सम्राटों को स्वयं को भी निरूपित करता है ", उदाहरण के लिए, कॉन्स्टेंटिनो में पोर्कफिरोजनीटस के पैलेस के तुर्की नाम, टेक्फुर सरायि के मामले में
( देखें--- तुर्की लेखक "मोद इस्तानबूल "के सन्दर्भों पर आधारित तथ्य)
इस प्रकार इब्न बीबी ने सिल्किया के अर्मेनियाई राजाओं को टेक्विर के रूप में संदर्भित किया है,
(थक्कुर) जबकि वे दोनों और डेड कॉर्कुट महाकाव्य ट्रेबिज़ंड के साम्राज्य के शासकों को "डीजित के टेक्क्वुर" के रूप में कहते हैं।
शुरुआती तुर्क की अवधि में, इस किले का इस्तेमाल किलों और कस्बों के दोनों राज्यों के लिए किया गया था, जिनके साथ तुर्क ने उत्तर-पश्चिम अनातोलिया और थ्रेस में तुर्क साम्राज्य के दौरान संघर्ष किया था, लेकिन साथ ही बीजान्टिन सम्राटों के लिए खुद भी, मलिक ("राजा ") और शायद ही कभी, फासीलीयस (बीजान्टिन शीर्षक बेसिलियस का प्रतिपादन किया गया हो )
हसन Çolak का सुझाव है कि इस उपयोग में कम से कम हिस्सा था एक वर्तमान चुनाव में वर्तमान राजनैतिक वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करने और बीजाण्टियम की गिरावट है जो बीच में आयी।
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1371-94 और फिर 1424 के बीच और 1453 में कॉन्सटिनटिनोप के पतन ने ओट्टोमन्स के लिए एक दमन बीजान्टिन राज्य को एक सहायक नदी बना दिया गया।
15 वीं शताब्दी के तुर्क इतिहासकार एनवेरी कुछ विशिष्ट रूप से दक्षिणी ग्रीस के फ्रैन्शिश शासकों और एजियन द्वीपों के लिए भी तकनीकी रूप से इस शब्द का उपयोग करते हैं।
संदर्भ - (संदर्भ खंड)
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^ ए बी सी डी साविवेड्स 2000, पीपी। 413-414
^ ए बी Çolak 2014, पी। 9।
^ Çolak 2014, पीपी 13ff ..
^ Çolak 2014, पी। 19।
^ Çolak 2014, पी। 14।
शीर्षक का मूल अनिश्चित है ।
यह सुझाव दिया गया है कि यह बीजाण्टिन शाही नाम निकेफोरोस से निकला है, अरबी निकफो के माध्यम से, और कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि यह अर्मेनियाई तागावर, "मुकुट-धारक" के अर्थ से निकला है।
शब्द और इसके प्रकार (tekvur, tekur, tekir, आदि)
(एशिया माइनर का इतिहास)
सातवीं से बारहवीं सदी के बीच में मध्य एशिया से तुर्कों की कई शाखाएँ यहाँ आकर बसीं।
इससे पहले यहाँ से पश्चिम में आर्य (यवन, हेलेनिक) और पूर्व में कॉकेशियाइ जातियों का पढ़ाब रहा था।
तुर्की में ईसा के लगभग ७५०० वर्ष पहले मानवीय आवास के प्रमाण मिले हैं।
हिट्टी साम्राज्य की स्थापना (१९००-१३००) ईसा पूर्व में हुई थी।
ये भारोपीय वर्ग की भाषा बोलते थे ।
१२५० ईस्वी पूर्व ट्रॉय की लड़ाई में यवनों (ग्रीक) ने ट्रॉय शहर को नेस्तनाबूद (नष्ट) कर दिया और आसपास के क्षेत्रों पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया।
१२०० ईसापूर्व से तटीय क्षेत्रों में यवनों का आगमन आरम्भ हो गया।
छठी सदी ईसापूर्व में फ़ारस के शाह साईरस (कुरुष) ने अनातोलिया पर अपना अधिकार कर लिया।
इसके करीब २०० वर्षों के पश्चात ३३४ ई० पूर्व में सिकन्दर ने फ़ारसियों को हराकर इस पर अपना अधिकार किया।
ठक्कुर अथवा ठाकुर शब्द का इतिहास भारतीय संस्कृति में यहीं से प्रारम्भ होकर आज तक है ।
कालान्तरण में सिकन्दर अफ़गानिस्तान होते हुए भारत तक पहुंच गया था।
तब तुर्की और ईरानी सामन्त तक्वुर उपाधि( title)
लगाने लग गये थे ।
यहीं से भारत में राजपूतों ने इसे ग्रहण किया ।
ईसापूर्व १३० ईसवी सन् में अनातोलिया (एशिया माइनर अथवा तुर्की ) रोमन साम्राज्य का अंग बन गया था ।
ईसा के पचास वर्ष बाद सन्त पॉल ने ईसाई धर्म का प्रचार किया और सन ३१३ में रोमन साम्राज्य ने ईसाई धर्म को अपना लिया।
इसके कुछ वर्षों के अन्दर ही कान्स्टेंटाईन साम्राज्य का अलगाव हुआ और कान्स्टेंटिनोपल इसकी राजधनी बनाई गई।
सन्त शब्द भारोपीय मूल से सम्बद्ध है ।
यूरोपीय भाषा परिवार में विद्यमान (Saint) इसका प्रति रूप है ।
रोमन इतिहास में सन्त की उपाधि उस मिसनरी missionary' को दी जाती है ।
जिसने कोई आध्यात्मिक चमत्कार कर दिया हो ।
छठी सदी में बिजेन्टाईन साम्राज्य अपने चरम पर था पर १०० वर्षों के भीतर मुस्लिम अरबों ने इस पर अपना अधिकार जमा लिया।
बारहवी सदी में धर्मयुद्धों में फंसे रहने के बाद बिजेन्टाईन साम्राज्य का पतन आरम्भ हो गया।
सन् १२८८ में ऑटोमन साम्राज्य का उदय हुआ ,और सन् १४५३ में कस्तुनतुनिया का पतन।
इस घटना ने यूरोप में पुनर्जागरण लाने में अपना महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
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वर्तमान तुर्क पहले यूराल और अल्ताई पर्वतों के बीच बसे हुए थे।
जलवायु के बिगड़ने तथा अन्य कारणों से ये लोग आसपास के क्षेत्रों में चले गए।
लगभग एक हजार वर्ष पूर्व वे लोग एशिया माइनर में बसे।
नौंवी सदी में ओगुज़ तुर्कों की एक शाखा कैस्पियन सागर के पूर्व बसी और धीरे-धीरे ईरानी संस्कृति को अपनाती गई।
ये सल्जूक़ तुर्क ही जिनकी उपाधि title तेगॉर थी ।
और ईरानियों में भी तेगुँर उपाधि प्रचलित थी )
इसके साथ ही कैस्पियन सागर के पश्चिम में वे मध्य तुर्की के कोन्या में स्थापित हो गए।
( सन् 1071) में उन लोगों ने बिजेंटाइनों को परास्त कर एशिया माइनर पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया।
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मध्य टर्की में कोन्या को राजधानी बनाकर उन्होंने इस्लामी संस्कृति को अपनाया।
ये लगभग ग्यारह वीं सदी की घटना है ।
इससे पहले तुर्क ईरानी असुर आर्यों की संस्कृति के अनुयायी थे ।
ईरानी भाषा में असुर शब्द अहुर हो गया असुर का अर्थ असु राति इति असुर: कथ्यते अर्थात् जो असु (जीवन) अथवा प्राण देता है :-वह असुर है ।
असीरियन संस्कृति असुरों से सम्बद्ध थी ।
वैदिक सन्दर्भों में ..
यदु और तुर्वसु को साथ-साथ वर्णित किया हैं ।
देखें---ऋग्वेद का दशम् मण्डल का ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा :---
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।१०/६२/१०ऋग्वेद।
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असुर अथवा दास ईरानी आर्यों से सम्बद्ध थे ।
आज भी दौनों शब्दों का उच्च अर्थ विद्यमान है ।
अहुर मज्दा और दय्यु तथा दाहे रूप में --
और दएव (देव) शब्द का अर्थ पश्तो तथा ईरानी भाषा में दुष्ट अथवा धूर्त है ।
जिसके सन्दर्भ ईरानी धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता ए झन्द में विद्यमान हैं।
पुराणों में यदु और तुर्वसु को
शूद्र (दास)ही वर्णित किया है ।
तुर्वसु ने तुर्किस्तान को आबाद किया ।
तुर्कों ने ईरानी संस्कृति के अपनाया अब
हिब्रू बाइबिल के सृष्टि-खण्ड Genesis में यहूदीयों के पूर्व-पिता यहुदह् तथा तुरबजु का वर्णन है ।
हिब्रू लेखक आब्दी - हाइबा के एक पत्र से उद्धृत अंश
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देखें---, तुरवसु को मार दिया गया है
जिला के द्वार में, फिर भी राजा स्वयं को वापस ले लेता है!
देखिए, लकिसी के ज़िम्रिडा - नौकर,
जो हबीरु के साथ जुड़ गए हैं, उन्होंने उसे मारा है।
(अब्दी-हाइबा के पत्र, यरूशलेम के राजा के पास
फिरौन - एल अमरना पत्र को बताएँ - नंबर 4)...
, Turabuzu has been killed
In the gate of the district, the king still withdraws himself
Look, Lizzie's Zimrida - Servant,
Who has joined Habiru, has killed him.
(Letters from Abdi-Haiba, near the King of Jerusalem
Pharaoh - Tell El Ararna Letter - Number 4)...
तथा तुर्बाजु (फिलीस्तीन कबीले) का नाम तुवरजु (इंडो-हिब्रू जनजाति) भारतीय वेदों में वर्णित तुर्वसु के वंशज ।
And Turbabu (Palestinian tribe) name Tuvarju (Indo-Hebrew tribe) descendants of Tervasa described in the Indian Vedas.
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प्राचीन होने से कथाओं में मान्यताओं के
व्यतिक्रम से भेद भी सम्भव है , और यह हुआ भी
अतः इतिहास के चिन्ह ही शेष रह गये हैं ।
मध्य टर्की के कन्या से सम्बद्ध साम्राज्य को 'रुम सल्तनत' भी कहते रहे हैं ।
क्योकि इस इलाके़ में पहले इस्तांबुल के रोमन शासकों का अधिकार था ।
जिसके नाम पर इस इलाक़े को जलालुद्दीन ने रुमी ही कहा था ।
यह वही समय था , जब तुर्की के मध्य (और धीरे-धीरे उत्तर) भाग में ईसाई रोमनों (और ग्रीकों) का प्रभाव घटता जा रहा था ।
इसी क्रम में यूरोपीयों का उनके पवित्र ईसाई भूमि, अर्थात् येरुशलम और आसपास के क्षेत्रों से सम्पर्क टूट गया - क्योकि अब यहाँ ईसाइयों के बदले मुस्लिम शासकों का राज हो गया था।
अपने ईसाई तीर्थ स्थानों की यात्रा का मार्ग सुनिश्चित करने और कई अन्य कारणों की वजह से यूरोप में पोप ने धर्म युद्धों का आह्वान किया।
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यूरोप से आए धर्म योद्धाओं ने यहाँ पूर्वी तुर्की पर अधिकार बनाए रखा पर पश्चिमी भाग में सल्जूक़ों का साम्राज्य बना रहा ये सेल्जुक तक्वुर (सामन्त) (knight)
होते थे ।
लेकिन इनके दरबार में फ़ारसी (ईरानी) भाषा और संस्कृति को बहुत महत्व दिया गया।
अपने समानान्तर के पूर्वी सम्राटों, गज़नी के शासकों की तरह, इन्होंने भी तुर्क शासन में फ़ारसी भाषा को दरबार की भाषा बनाया।
सल्जूक़ दरबार में ही सबसे बड़े सूफ़ी कवि कवि रूमी (जन्म 1215) को आश्रय मिला और उस दौरान लिखी शाइरी को सूफ़ीवाद की श्रेष्ठ रचना माना जाता है।
सन् (1220 )के दशक से मंगोलों ने अपना ध्यान इधर की तरफ़ लगाया।
कई मंगोलों के आक्रमण से उनके संगठन को बहुत क्षति पहुँची और 1243 में साम्राज्य को मंगोलों ने जीत लिया।
यद्यपि इसके शासक 1308 तक शासन करते रहे पर साम्राज्य बिखर गया।
ये शासक अपने लिए तक्वुर (ठक्कुर) उपाधि ही लगाते थे ।
अतः हिन्दू शब्द के समान ठाकुर शब्द भी फारसी मूल का है ।
संस्कृत भाषा में ठक्कुर शब्द के कुछ उद्धरण-
देवता । ठाकुर इति ख्यातः । यथा “श्रीदामनामगोपालः श्रीमान् सुन्दरटक्कुरः ।। ” इत्यनन्तसंहिता इति ब्राह्मणानाम् उपाधय: --
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ठक्कुर:
देवपतिमायां, २ द्विजोपाधिभेदे च । यथा गोविन्द- ठक्कुरः काव्यप्रदीपकर्त्ता । ३ देवतायाञ्च । “सुदामा नाम गोपालः श्रीमान् सुन्दरठक्वुरः” अनन्तसंहिता । इति वाचस्पत्ये ठकारादिशब्दार्थसङ्कलनम् ।
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गुजरात में भी ठाकुर ब्राह्मण समाज की उपाधि है ।
यद्यपि ठाकरे शब्द महाराष्ट्र के कायस्थों का वाचक है, जिनके पूर्वजों ने कभी मगध अर्थात् वर्तमान विहार से ही प्रस्थान किया था ।
कायस्थों का कुछ साम्य यादवों के मराठी जाधव कबींले से है ।
जो जादव तथा जादौन के रूप में है ।
यद्यपि इस ठाकुर शब्द का साम्य तमिल शब्द (तेगुँर )से भी प्रस्तावित हैै ।
तमिल की एक बलूच शाखा है बलूच ईरानी और मंगोलों के सानिध्य में भी रहे है ।
जो वर्तमान बलूचिस्तान की ब्राहुई भाषा है ।
परन्तु सिंह और ठाकुर लिखने की परम्पराऐं उन राजपूतों के लिए हैं , जो पहले शूद्र रूप में विदेशी थे ,अर्थात् शक और सीथियन (Scythian) हूण जो ईरानी मूल के थे ।
और तुर्कों के लिए भी ब्राह्मण ने ठाकुर सम्बोधन किया ।
उनकी दृष्टि में ये शूद्र ही थे ।
क्योंकि तुर्की सरदार स्वयं को तक्वुर कहते ही थे ।
राजस्थान के आबू पर्वत पर छठी सदी ईसवी में जिनका ब्राह्मणों द्वारा अपने धर्म की रक्षा के लिए क्षत्रिय करण किया गया था ।
वे हूण , कुषाण ,तुर्क सीथियन आदि थे ...
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ये लोग ठाकुर अथवा क्षत्रिय उपाधि से विभूषित किये गये थे ।
जिसमे अधिकतर अफ़्ग़ानिस्तान के जादौन पठान भी थे, जो ईरानी मूल के यहूदीयों से सम्बद्ध थे।
यहुदह् ही यदु: रूप है ।
एेसा वर्णन ईरानी इतिहास में मिलता है ।
जादौन पठानों की भाषा प्राचीन अवेस्ता ए झन्द से निकली भाषा थी , जो राजस्थानी पिंगल डिंगल के रूप में विकसित हुई है।
,क्योंकि संस्कृत भाषा का ही परिवर्तित निम्न रूप फ़ारसी है ।
अत: सभी संस्कृत भाषा के ही शब्द हैं ।
इस्लाम धर्म तो बहुत बाद में सातवीं सताब्दी में आया ।
यहूदी वस्तुतः फलस्तीन के यादव ही थे ।
ईसवी सन् ५७१ में तो इस्लाम मत के प्रवर्तक सलल्लाहू अलैहि वसल्लम शरवर ए आलम मौहम्मद साहिब का जन्म हुआ है ।
इजराइल में अबीर (Abeer)इन यहूदीयों की ही एक युद्ध -प्रिय शाखा है ।
जिसका मिलान भारतीय अहीरों से है ।
भारतीय जादौन समुदाय अहीरों को अपने समुदाय में नहीं मानता है । जो अज्ञानता जनक भ्रान्तपूर्ण मान्यता है । जाधव, जादव, तथा जादौन सभी यादव शब्द से विकसित हुए ।
जो यहूदीयों में जूडान (Joodan )है ।
मराठी शब्द जाधव भी इसी से विकसित हुआ तथा इससे (जाटव शब्द बना , यह घटना सन् १९२२ समकक्ष की है ।
साहू जी महाराज का वंश जादव (जाटव) था ।
ये शिवाजी महाराज के पौत्र तथा शम्भु जी महाराज के पुत्र थे ।
निश्चित रूप से इनमें से मगध के पुष्य-मित्र सुंग के अनुयायीे ब्राह्मणों ने कुछ को शूद्र तथा कुछ को क्षत्रिय बना दिया , जो उनके संरक्षक बन गये वे क्षत्रिय बना दिये गये ।
और जो विद्रोही बन गये वे शूद्र बना दिये --
संस्कृत भाषा में बुद्ध के परवर्ती काल में ठक्कुर: शब्द का प्रयोग द्विज उपाधि रूप में था ।
जो ब्राह्मण क्षत्रिय तथा वैश्य वर्ग का वाचक था ।
परन्तु ब्राह्मणों ने इस शब्द का प्रयोग द्विज उपाधि के रूप में स्वयं के लिए किया ।
जैसे संस्कृत भाषा के ब्राह्मण कवि गोविन्द ठक्कुर: --- काव्य प्रदीप के रचयिता ।
वाचस्पत्यम् संस्कृत भाषा कोश में देव प्रतिमा जिसका प्राण प्रतिष्ठा की गयी हो , उसको ठाकुर कहा जाता है । ध्यान रखना चाहिए कि पुराणों में ठाकुर शब्द प्रयोग कहीं नहीं है ।
हरिवंश पुराण में वसुदेव और नन्द दौनों के लिए केवल गोप शब्द का प्रयोग है ।
इतिहास वस्तुतः एकदेशीय अथवा एक खण्ड के रूप में नहीं होता है , बल्कि अखण्ड और सार -भौमिक तथ्य होता है ।
छोटी-मोटी घटनाऐं इतिहास नहीं,
तथ्य- परक विश्लेषण इतिहास कार की आत्मिक प्रवृति है । और निश्पक्षता उस तथ्य परक पद्धति का कवच है
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सत्य के अन्वेषण में प्रमाण ही ढ़ाल हैं ।
जो वितण्डावाद के वाग्युद्ध हमारी रक्षा करता है ।
अथवा हम कहें ;कि विवादों के भ्रमर में प्रमाण पतवार हैं।
अथवा पाँडित्यवाद के संग्राम में सटीक तर्क "रोहि " किसी अस्त्र से कम नहीं हैं।
मैं दृढ़ता से अब भी कहुँगा कि ...
सांस्कृतिक और ऐतिहासिक गतिविधियाँ कभी भी एक-भौमिक नहीं होती है ।
अपितु विश्व-व्यापी होती है !
क्यों कि इतिहास अन्तर्निष्ठ प्रतिक्रिया नहीं है ।
इतिहास एक वैज्ञानिक व गहन विश्लेषणात्मक तथ्यों का निश्पक्ष विवरण है ""
सम्पूर्ण भारतीय इतिहास का प्रादुर्भाव महात्मा बुद्ध के समय से है ।
प्राय: इतिहास के नाम पर ब्राह्मण समुदाय ने जो केवल कर्म-काण्ड में विश्वास रखता था । उसने काल्पनिक रूप से ही ग्रन्थ रचना की है ।
जिसमें ब्राह्मण स्वार्थों को ध्यान में रखा गया ।
केवल वेदों को छोड़ कर सब बुद्ध के समय का उल्लेख है । फिर भी वेदों में यद्यपि पुरुष सूक्त की प्राचीनता सन्दिग्ध है ,
क्योंकि इसकी भाषा पाणिनीय कालिक ई०पू० ५०० के समकक्ष है ।
भारतीय इतिहास एक वर्ग विशेष के लोगों द्वारा पूर्व- आग्रहों से ग्रसित होकर ही लिखा गया ।
आज आवश्यकता है इसके पुनर्लेखन की ।
और हमारा प्रयास भी उसी श्रृंखला की एक कणि है ।
विद्वान् इस तथ्य पर अपनी प्रतिक्रियाऐं अवश्य दें ... ------------------------------------------------------------
यह एक शोध - लिपि है जिसके समग्र प्रमाण ।
यादव योगेश कुमार 'रोहि' के द्वारा
अनुसन्धानित है ।
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"This is a research paper( Script) whose overall ratio ..
Yadav Yo
Is researched." by Yadav Yogesh Kumar 'Rohi
क्षत्रिय हैं ब्राह्मणों की अवैध सन्तानें --देखें महाभारत में
त्रिसप्तकृत्व : पृथ्वी कृत्वा नि: क्षत्रियां पुरा ।
जामदग्न्यस्तपस्तेपे महेन्द्रे पर्वतोत्तमे ।४।
तदा नि:क्षत्रिये लोके भार्गवेण कृते सति ।
ब्राह्मणान् क्षत्रिया राजन्यकृत सुतार्थिन्य८भिचक्रमु:।५।
ताभ्यां: सहसमापेतुर्ब्राह्मणा: संशितव्रता: ।
ऋतो वृतौ नरव्याघ्र न कामात् अन् ऋतौ यथा ।६।
तेभ्यश्च लेभिरे गर्भं क्षत्रियास्ता: सहस्रश:तत:सुषुविरे राजन्यकृत क्षत्रियान् वीर्यवत्तारान्।७।
कुमारांश्च कुमारीश्च पुन: क्षत्राभिवृद्धये ।
एवं तद् ब्राह्मणै: क्षत्रं क्षत्रियासु तपस्विभि:।८।
जातं वृद्धं च धर्मेण सुदीर्घेणायुषान्वितम्।
चत्वारो८पि ततो वर्णा बभूवुर्ब्राह्ममणोत्तरा: ।९।
(महाभारत आदि पर्व ६४वाँ अध्याय)
अर्थात् पूर्व काल में परशुराम ने (२१ )वार पृथ्वी को क्षत्रिय विहीन कर के महेन्द्र पर्वत पर तप किया ।
तब क्षत्रिय नारीयों ने पुत्र पावन के लिए ब्राह्मणों से मिलने की इच्छा की ।
तब ऋतु काल में ब्राह्मण ने उनके साथ संभोग कर उनको गर्भिणी किया ।
तब उन ब्राह्मणों के वीर्य से हजारों क्षत्रिय राजा हुए ।
और चातुर्य वर्ण-व्यवस्था की वृद्धि हुई। उसमें भी ब्राह्मणों को अधिक श्रेष्ठ माना गया ।
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और सुनो !
---जो स्वयं को क्षत्रिय अथवा राजपूत कहते हैं महाभारत और भागवतपुराण आदि पुराणों के अनुसार ब्राह्मणों की अवैध सन्तानें हैं । इसे हम नहीं महाभारत कहता है ।
जहाँ के मूसल पर्व से तुम अहीरों द्वारा गोपियोंको के लूटने का प्रमाण देते हो और ध्यान रखना तुम हम्हें अपना चिर --प्राचीन शत्रु मानते हो ।
तो हम तुमको अपना शत्रु नहीं मानते क्योंकि शत्रु को कोई इतना ज्ञान प्रद सन्देश नहीं देता ।
हमारे द्वारा ईश्वर ने तुम्हारा अज्ञान तिमिर नष्ट किया है ।
तुम्हें हमारे प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करनी चाहिए !
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