दास और दस्यु यद्यपि अपने प्रारम्भिक रूप में समानार्थक है ।
वैदिक कालीन सन्दर्भ सूची में दास का अर्थ देव संस्कृति के विरोधी असुरों के लिए बहुतायत से हुआ है ।
और जो दक्षता की पराकाष्ठा पर प्रतिष्ठित होकर अपने अधिकारों के लिए बागी या द्रोही हो गये वे दस्यु कहलाऐ और जिन्होंने उत्तर वैदिक काल में आते -आते देव संस्कृति के अनुयायीयों की अधीनता स्वीकार कर ली वे दास या शूद्र कहलाए '
परन्तु पश्चिमी एशिया में दास शब्द दाहे अथवा डेसिया के रूप में रूस के उपनिवेश दागेस्तान के निवासीयों का वाचक है ।
दास का बहुवचन रूप ही दस्यु हो गया
दास के सन्दर्भ में आगे यथास्थान चर्चा करेंगे ...
यदि ऋग्वेद में 'दास' और 'दस्यु' शब्द के प्रयोग की आपेक्षिक मात्रा से कोई निष्कर्ष निकाला जा सके, तो जान पड़ता है कि दस्युगण, जिनकी चर्चा चौरासी बार हुई है,
जिनका और दास शब्द की उल्लेख इकसठ बार हुआ है।
दस्युओं के साथ युद्ध में अधिक रक्तपात हुआ।
अपने विस्तार की आरम्भिक अवस्था में देव संस्कृति के अनुयायी आर्यों को जीविकोपार्जन के लिए पशुधन की अकांक्षा रहती थी।
इसलिए स्वभावतया उन्होंने नागर जीवन और संगठित कृषि का महत्व समझा।
ऐसा जान पड़ता है कि देव संस्कृति के अनुयायी आर्यों के आने के पहले ही नगर बस्तियाँ पूर्णत: ध्वस्त हो गई थीं।
युद्ध में शत्रुओं से अपहृत वस्तुओं, ख़ासकर मवेशियों के कारण सरदारों और पुरोहितों की शक्ति बढ़ी होगी और वे ‘विश्’ से ऊपर उठे होंगे।
बाद में क्रमश: उन्होंने समझा होगा कि पुरानी संस्कृति के किसानों से श्रमिकों का कार्य लिया जा सकता है और उनसे कृषि कार्य कराया जा सकता है।
साथ ही अपनी जनजाति के लोगों से भी श्रमिकों का काम लेना उन्होंने धीरे-धीरे आरम्भ किया होगा।
आर्यों और उनके शत्रुओं के बीच तो संघर्ष चल ही रहा था, आर्य जनजातीय समाज में भी आन्तरिक द्वन्द्व विद्यमान था।
एक युद्धगीत में ‘मन्यु’,-मूर्तिमान क्रोध से याचना की गई है कि वे आर्य और दास दोनों तरह के शत्रुओं को पराजित करने में सहायक हों।
इन्द्र से अनुरोध किया गया है कि वे ईश्वर से आस्था नहीं रखने वालों दासों और आर्यों से युद्ध करें;
ये इन्द्र के अनुयायियों के शत्रु के रूप में वर्णित है
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[ ऋग्वेद में एक स्थल पर कहा गया है कि इन्द्र और वरुण ने सुदास के विरोधी दासों और आर्यों का संहार कर उसकी रक्षा की।
सज्जन और धर्मपरायण लोगों की ओर से दो मुख्य ऋग्वैदिक देवताओं, अग्नि और इन्द्र से प्रार्थना की गई है कि वे आर्यों और दासों के दुष्टतापूर्ण कार्यों और अत्याचारों का शमन करें।
क्योंकि आर्य स्वयं मानवजाति के दुश्मन थे, अत: आश्चर्य नहीं की इन्द्र ने दासों के साथ-साथ आर्यों का भी विनाश किया होगा।
आर्य्य चरावाहे ही थे और यह आर्य्य शब्द "अरि" देवता से
सम्बद्ध है- अरि युद्ध का देवता था जिसका रूपान्तरण सैमेटिक संस्कृतियों में एल अथवा इलु के रूप में है ।
यूनानी पुराणों में वर्णित अरीज् युद्ध का देवता है ।
ईरानी असुर संस्कृति के अनुयायी थे 'परन्तु आर्य्य कहलाते थे ।
विल्सन ने ऋग्वेद के एक परिच्छेद का जैसा अनुवाद किया है, उसे यदि स्वीकार किया जाए तो उसमें इन्द्र की भरपूर प्रशंसा की गई है, क्योंकि उन्होंने सप्त सिंधु के तट पर राक्षसों और आर्यों से लोगों की रक्षा की।
उनसे यह भी अनुरोध किया गया है कि वे दासों को अस्त्र-शस्त्र विहीन कर दें।
ऋग्वेद में आर्य शब्द का प्रयोग छत्तीस बार हुआ है, जिनमें से नौ स्थलों पर बताया गया है कि स्वयं आर्यों में भी आपसी मतभेद थे।
शत्रु आर्यों की दस्युओं के साथ एक स्थल पर चर्चा है और पाँच स्थलों पर दासों के साथ, जिससे यह पता चलता है कि आर्यों के एक समूह से दस्युओं की अपेक्षा दासों का सम्बन्ध अच्छा था।
आर्यों के अपने आपसी संघर्ष में दास स्वभावत: आर्यों के मित्र और सहयोगी थे।
इसीलिए आर्यों के समाज का जनजातीय आधार धीरे-धीरे क्षीण होने लगा और आर्यों तथा दासों के विलयन की क्रिया को बल मिला।
ऋग्वेद के आरम्भिक भाग में ऐसे पाँच प्रसंग आए हैं, जिनसे पता चलता है कि आन्तरिक संघर्षों की परम्परा बहुत ही पुरानी थी।
दाशराज्ञ युद्ध
आर्यों में बहुत पहले जो आन्तरिक संघर्ष हुए थे, उनका सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण ‘दाशराज्ञ’ युद्ध है, जो ऋग्वेद में एकमात्र महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है।
यूरोपीय इतिहास लेखकों में गेल्डनर के अनुसार ऋग्वेद, मण्डल सात का तैंतीसवाँ सूक्त, जिसमें इस युद्ध की चर्चा की गई है, प्रारम्भिक काल से सम्बन्धित है।
दस राजाओं का युद्ध मुख्यत: ऋग्वेद कालीन आर्यों की दो मुख्य शाखाओं ‘पुरुओं’ और ‘भारतों’ के बीच हुआ था, जिसमें आर्येतर लोग भी सहायक के रूप में सम्मिलित हुए होंगे।
ऋग्वेद का सुविख्यात नायक सुदास भारतों का नेता था और पुरोहित वसिष्ठ उसके सहायक थे।
वशिष्ठ का वर्णन सुमेरियन मिथकों और ईरानी मिथकों में भी वहिश्त के रूप में बहुतायत से है ।
इनके शत्रु थे, पाँच प्रसिद्ध जनजातियाँ यथा, ‘अनु’, ‘द्रुह्यु’, ‘यदु’, ‘तुर्वशस्’ और ‘पुरु’ तथा पाँच गौण जनजातियाँ यथा, ‘अलिन’, ‘पक्थ’, ‘भलानस्’, ‘शिव’ और ‘विषाणिन’ के दस राजा।
विरोधी गुट के सूत्रधार ऋषि विश्वामित्र थे और उसका नेतृत्व पुरुओं ने किया था।
दास काले रंग के होते थे।
ऐसा प्रतीत होता है कि इस युद्ध में आर्यों की लघुतर जनजातियों ने अपना अलग अस्तित्व बनाए रखने का स्मरणीय प्रयास किया।
पर सुदास के नेतृत्व में भारतों ने पुरुष्णि नदी के किनारे पर उन्हें पूरी तरह से हरा दिया।
इन पराजित आर्यों के साथ कैसा व्यवहार किया गया, इसका कोई संकेत नहीं मिलता, किन्तु अनुमान है कि उनके प्रति भी वैसा ही व्यवहार किया गया होगा, जैसा आर्येत्तर लोगों के साथ किया गया था।
यह असम्भव नहीं कि इस तरह के और भी कई अंतर्जातीय संघर्ष हुए हों, जिनका कोई वृत्तांत हमें उपलब्ध नहीं।
ऐसे संघर्षों के संकेत उन प्रसंगों में मिलते हैं, जिनमें आर्यों को देवताओं द्वारा प्रतिष्ठित व्रतों का भंजक माना है
सेवक, दास , दस्यु और शूद्र शब्दों की ऐैतिहासिक व्युत्पत्तियाँ स्वयं एक जीवन्त दस्तावेज है इतिहास की गूढ़ताओं का वैदिक सन्दर्भों के अनुसार दास से ही कालान्तरण दस्यु शब्दः का विकास हुआ हैं।
मनुस्मृति मे दास को शूद्र अथवा सेवक के रूप में उद्धृत करने के मूल में उनका वस्त्र उत्पादन अथवा सीवन करने की अभिक्रिया कभी प्रचलन में थी।
मनुःस्मृति पुष्य-मित्र सुंग कालीन अर्थात् ई०पू० 184 की रचना है ।
यह किसी मनु की रचना नहीं है ;और शूद्र शब्द भी इण्डो -यूरोपीयन है ।
वस्त्रों के कलात्मक सर्जक शम्बर असुर के वंशज कोल अधिकतर रहे हैं; यह तो भारतीय इतिहास कार भी जानते हैं।
कोलों को भार वाहक या कुली बनाना भी उनकी दासता को सूचित करता है।
पश्चिमी एशिया में दास एक काकेशस जन-जाति है जो गेटे (गूती) अवर तथा कज्जर जन-जातियों की सहवर्ती हैं
वैसे सेवक शब्द का अर्थ अपने मौलिक व्युत्पत्ति रूप में "सीवन (सिलाई) करने वाला" है ।
संस्कृत में सिव धातु सीवन (करना सिलाई करना )
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सीवनम् :--(सिव्यु तन्तुसन्ताने ल्युट् ।
षिवु सिव्योर्ल्युटि वा दीर्घः इति सीवनं ।।
मुग्धबोधमते “ष्ठीवनसीवने वा ।
इति सूत्रात् निपातितः )
तन्तुसन्तानम् सूचीकर्म्म । सेयानी इति सिलायी क्रिया इति हिन्दीभाषा में ।
(सिव तन्तुसन्ताने ल्युट् । ) सूच्यादिना वस्त्रादिसीवनम् । सेलाइ इति च भाषा ।
तत्पर्य्यायः । सीवनम् २ सूतिः ३ । इत्यमरः । ३ । २ । ५ ॥ ऊतिः ४ व्यूतिः ५ । इति शब्दरत्नावली ॥ (यथा सुश्रुते । १ । ८ । “ सूच्यः सेवने ।
इत्यष्टविधे कर्म्मण्युपयोगः शस्त्राणां व्याख्यातः ॥
सेवृ सेवने ल्युट् । ) उपास्तिः । उपासना । इति मेदिनी ॥ (यथा भागवते । ४ । १९ । १६ ।
तमन्वीयुर्भागवता ये च तत्सेवनोत्सुकाः ॥
आथयः । यथा भागवते । ७ । १२ । २० ।
सत्यानृतञ्च वाणिज्यं श्ववृत्तिर्नीचसेवनम् ।
वर्ज्जयेत् तां मदा विप्रो राजन्यश्च जुगुप्सिताम् ॥
उपभोगः । यथा मनुः । ११ । १७९ ।
“ यत् करोत्येकरात्रेण वृषलीसेवनात् द्विजः ।
तद्भक्ष्यभुग्जपन्नित्यं त्रिभिर्व्वर्षैर्व्यपोहति )
तत्पर्य्यायः । सेवनम् २ स्यूतिः ३ । इत्यमरः कोश । ३ । २ । ५ ॥ ऊतिः ४ व्यूतिः ५ । इति शब्दरत्नावली ॥
(यथा, सुश्रुते । ४ । १ ।
शब्दरत्नावली -- मथुरेश की शब्द-कोशिय रचना है । (इसका समय १७वी शताब्दी)
यथोक्तं सीवनं तेषु कार्य्यं सन्धानमेव च ॥)
अमरकोशः
सीवन नपुं।
सूचीक्रिया
समानार्थक:सेवन,सीवन,स्यूति
3।2।5।2।2
पर्याप्तिः स्यात्परित्राणं हस्तधारणमित्यपि।
सेवनं सीवनं स्यूतिर्विदरः स्फुटनं भिदा॥
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वाचस्पत्यम्
सी(से)वन :- न॰ सिव--ल्युट् नि॰ वा दीर्घः। सीवने तन्तु-सन्ताने ( सिलने की क्रिया) अमरः कोश
२ लिङ्गमण्यधस्थसूत्रे स्त्रीहेमच॰ ङीप्।
शब्दसागरः
सीवन noun (-Neuter)
1. Sewing, stitching.
2. A seam, a suture. (feminine.) (-नी)
1. The frenum of the prepuce.
2. A needle. E. षिव् to sew, ल्युट् aff.; also सेवन |
Apte
सीवनम् [sīvanam], 1 Sewing, stitching; सीवनं कञ्चुकादीनां विज्ञानं हि कलात्मकम् Śukra.4.329.
A seam, suture.
Monier-Williams
सीवन n. sewing , stitching
सीवन n. a seam , suture।
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लौकिक संस्कृत में दास शब्द का अर्थ गुलाम के समकक्ष अधिक है ।
परन्तु ऋग्वेद मे पुरोहित याचना तो कर रहे हैं कि यादवो को दास रूप में अधीन बनाने की परन्तु सफल तो वे पुरोहित हुए नही यही कारण है कि उन्होनें यहीं से घृणास्पद होकर दास शब्द अर्थ बदल देने की चेष्टा की परन्तु यादवों ने वर्ण-बद्ध व्यवस्था के प्रति विद्रोही रबैया अपनाकर अपनी दस्यु सार्थकता सिद्ध की है।
वैदिक सन्दर्भों में दस्यु और दास समानार्थक रूप हैं ।
और ये प्राय : असुरों के वाचक हैं ।
वर्ण व्यवस्था का यहा मतलब है वर्ण व्यवस्था के जरिए पुरोहित यादवों को अधीन कर दास बनाना चाहते थे। परन्तु यादव दास नही बने दस्यु बन गये।
वर्ण व्यवस्था ई०पू० 800 में ईरानीयों की वर्ग - व्यवस्था से आयात है ।
ऋग्वेद का दशम मण्डल बुद्ध के समकालिक है।
नवम मण्डल में
""कारूरहम ततो भिषग् उपल प्रक्षिणी नना।।
'मैं कारीगर हूँ पिता वैद्य हैं और माता पसीने वाली है।
।ऋग्वेद ९। ११२। ३“ के रूप में वर्ग-व्यवस्था को ध्वनित करता है ।
अब जो वर्ण व्यवस्था के जरिये खुद को क्षत्रिय शूद्र तय कर रहे है वो यदुवंशीय धर्म के विरोधी हैं।
कारण कि क्षत्रिय शब्द वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत
ब्राह्मणों तथा उनके सिद्धान्तों के संरक्षक के रूप में परिभाषित है ।
अब वैदिक सन्दर्भ में यदु के जव पुरोहित दास शब्द द्वारा शूद्र अथवा असुर या 'कहें' देव संस्कृति के अनुयायीयों के विरोध में उपस्थित करते हैं तब !
तब यह और भी विचारणीय है कि यादवों या अहीरों कों आधुनिक पुरोहित समाज और उनके अनुयायी राजपूत या अन्य वैश्य वर्ग के 'लोग' क्यों हेय या घृणास्पद दृष्टि से देखते हैं ।
यद्यपि चारण या भाट जो परम्परागत रूप से वंशावलियों को गाने का व्यवसाय करते थे ।
अब वे स्वयं को राजपूत कहते हैं ।
और स्वयं को तथाकथित क्षत्रिय मानते भी हैं 'परन्तु
पुराणों में तथा स्मृतियों में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय के द्वारा करणी कन्या से अवैध रूप से दर्शायी है ।
राजपूत वर्णसंकर जातियों का समाहार रूप है ।
जादौन,भाटी राठोड़ आदि चारण बंजारे समाज के राजपूत हैं ।
जो स्वयं को यदुवंशीयों के रूप में घोषित कर रहे हैं ।
कुछ इतिहास का जादौन राजपूतों को अहीरों या गुज्जरों से उत्पन्न मानते हैं । 💒
देखें निम्नलिखित सन्दर्भ सूची में👇
जैसे जादौन ,भाटी आदि छोटा राठौर और बड़ा राठौर के अन्तर्गत समायोजित बंजारे समुदाय हैं ।
राजपूतों का जन्म करणी कन्या और क्षत्रिय पुरुष के द्वारा हुआ यह ब्रह्मवैवर्त पुराण के दशम् अध्याय में वर्णित है ।
परन्तु ये मात्र मिथकीय मान्यताऐं हैं
जो अतिरञ्जना पूर्ण हैं ।
👇
इसी करण कन्या को चारणों ने करणी माता के रूप में अपनी कुल देवी स्वीकार कर लिया है ।
जिसका विवरण हम आगे देंगे -
ब्रह्मवैवर्त पुराण में राजपूतों की उत्पत्ति के विषय में वर्णन है।👇
< ब्रह्मवैवर्तपुराणम् (खण्डः १ -(ब्रह्मखण्डः)
← अध्यायः ०९ ब्रह्मवैवर्तपुराणम्
अध्यायः १०
_________
क्षत्रात्करणकन्यायां राजपुत्रो बभूव ह ।।
राजपुत्र्यां तु करणादागरीति प्रकीर्तितः।।
1/10।।
"ब्रह्म वैवर्तपुराण में राजपूतों की उत्पत्ति क्षत्रिय के द्वारा करण कन्या से बताई "🐈!
करणी मिश्रित या वर्ण- संकर जाति की स्त्री होती है
ब्रह्मवैवर्तपुराण के अनुसार करण जन-जाति वैश्य पुरुष और शूद्रा-कन्या से उत्पन्न है।
और ये करण लिखने का काम करते थे ।
ये करण ही चारण के रूप में राजवंशावली लिखते थे ।
एेसा समाज-शास्त्रीयों ने वर्णन किया है ।
तिरहुत में अब भी करण पाए जाते हैं ।
लेखन कार्य के लिए कायस्थों का एक अवान्तर भेद भी करण कहलाता है ।
करण नाम की एक आसाम, बरमा और स्याम की जंगली जन-जाति भी है ।
क्षत्रिय पुरुष से करण कन्या में जो पुत्र पैदा होता उसे राजपूत कहते हैं।
वैश्य पुरुष और शूद्रा कन्या से उत्पन्न हुए को करण कहते हैं ।
और ऐसी करण कन्या से क्षत्रिय के सम्बन्ध से राजपुत्र (राजपूत) पैदा हुआ।
वैसे भी राजा का वैध पुत्र राजकुमार कहलाता था राजपुत्र नहीं ;इसी लिए राजपूत शब्द ब्राह्मणों की दृष्टि में क्षत्रिय शब्द की अपेक्षा हेय है ।
चारण जो कालान्तरण में राजपूतों के रूप में ख्याति-लब्ध हुए और अब इसी राजपूती परम्पराओं के उत्तराधिकारी हैं ।
करणी चारणों की कुल देवी है ।
जिसका मिथकीय परिचय इस प्रकार है 🚩
करणी मांँ एक सामान्य ग्रामीण कन्या थी लेकिन उनके संबंध में अनेक चमत्कारी घटनाएं भी जुड़ी बताई जाती हैं, जो उनकी उम्र के अलग-अलग पड़ाव से संबंध रखती हैं।
किंवदन्तियों के अनुसार बताते हैं कि संवत 1595 की चैत्र शुक्ल नवमी गुरुवार को करणी माँ ज्योति में लीन हो गयी ।
संवत 1595 की चैत्र शुक्ला 14वीं से राजस्थान के राजपूतों में श्री करणी माता की पूजा आज तक होती चली आ रही है।
करणी का जन्म चारण बंजारों के कुल में विक्रम संवत :- 14 44 अश्विनी शुक्ल सप्तमी शुक्रवार तदनुसार 20 सितम्बर, 1387 ई० को सुआप (जोधपुर) में मेहाजी किनिया चारण के घर में हुआ था।
करणी ने जन्म लेकर तत्कालीन जांगल प्रदेश को अपनी कार्यस्थली बनाया।
करणी ने ही राजा बीका को जांगल प्रदेश में राज्य स्थापित करने का आशीर्वाद दिया था।
जो कालान्तरण में बीकानेर (बीका - नगर ) कहलाया
करणी माता ने मानव मात्र एवं पशु-पक्षियों के संवर्द्धन के लिए देशनोक में दस हजार बीघा 'ओरण' (पशुओं की चराई का स्थान ) की स्थापना की थी।
करणी माता ने पूगल के राव शेखा को मुल्तान (वर्तमान में पाकिस्तान में स्थित) के कारागृह से मुक्त करवा कर उसकी पुत्री रंगकंवर का विवाह राव बीका से संपन्न करवाया था।
करणी की गायों का चरवाहा दशरथ मेघवाल था।
इसी दौरान डाकू पेंथड़ और पूजा महला से गायों की रक्षार्थ जूझ कर दशरथ मेघवाल ने अपने प्राण गवां दिए थे।
करणी माता ने डाकू पेंथड़ व पूजा महला का अंत कर दशरथ मेघवाल को पूज्य बनाया जो सामाजिक समरसता का प्रतीक है
करणी का सन्दर्भ:-
Deshnok – Kani Mata Temple India, by Joe Bindloss, Sarina Singh, James Bainbridge, Lindsay Brown, Mark Elliott, Stuart Butler. Published by Lonely Planet, 2007. ISBN 1-74104-308-5. Page 257.
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'परन्तु राजपूत अहीरों को सदैव से विरोधी के रूप में देखते हैं ।
अत: उन्हें स्वयं को यदुवंशीय बोलने का कुछ अधिकार नही है।
क्यों कि यदुवंशीयों ने कभी भी वर्ण-व्यवस्था को स्वीकार ही नहीं किया ।
ये ब्राह्मणों द्वारा स्थापित व्यवस्था के बागी थे ।
ब्राह्मणों द्वारा स्थापित वर्ण-बद्ध-जाति-व्यवस्था में
क्षत्रिय होता है ? ब्राह्मण का संरक्षक !
लौकिक भाषाओं में दास और दस्यु अलग अलग अर्थों को व्यक्त करने लगे ।
फिर आज के अर्थों में यदु के वंशजों ने दास बनना स्वीकार नही किया तो फिर वे दस्यु बन गये ।
दस्यु का अर्थ पहले चोर या लुटेरा नहीं था ।
दस्यु का सही अर्थ ब़ागी या विद्रोही है।
क्यों कि चोर न कभी नैतिकता का पालन करता है और न कभी धार्मिक होकर गरीबों की सेवा करता है ।
आप चम्बल के डाकुओं की बात करें तो वे जमींदारों और शोषकों के विरुद्ध लड़ने वाले थे ।
1987 में निर्मित हिन्दी फिल्म "डकैत"
भी डकैतों के जमींदारों और शोषकों के विरुद्ध विद्रोही प्रवृत्तियों का दर्शाती है ।
जिसका नायक भी अर्जुुनयादव ( सनी दियोल )है जो
एक किसान परिवार से है ।
ठाकुर जिसकी जमीन को अंग्रेजों से मिलकर हड़प लेते हैं ।
जिसके परिवार में माँ बहिन आदि के साथ अश्लीलता करते हैं ।
तब 'वह अर्जुुन यादव चम्बल के
डाकुओं से मिलकर बदला लेता है ।
वैसे भी यहाँं की पूर्वागत जन-जातियों ने
अपने जीविकोपार्जन के लिए अर्थव्यवस्था का आधार स्तम्भ पशुपालन और कृषि को चुना कबीलाई व्यवस्था बनाई ।
एक भी यादव उपनाम के साथ आप राजा नही दिखा सकते है इतिहास में
हाँ स्वायत्त राजा तो हो सकता है ।
चक्र वर्ती नहीं क्यों की चक्र वर्ती होने के लिए ब्राह्मणों की अनुमति आवश्यक है ।।
क्यों कि ब्राह्मणों ने राजा को क्षत्रिय माना ।
और क्षत्रिय ब्राह्मणों के संरक्षक थे ।
अग्रिम सन्दर्भों में हम बताऐंगे कि राम का सम्बन्ध सुमेरियन मिथकों में वर्णित है ।
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राजपूत समाज के 'लोग' विशेषत: कुशवाह या शाक्य स्वयं को राम का वंशज कभी सिद्ध नहीं कर सकते हैं ।
क्यों की कृषिवाह वाले ( कृषि वहन करने वाले) तथा शाक सब्जियाँ उत्पन्न करने वाले राम के वंशज कैसे हो सकते है ?
आगे राम का वर्णन सुमेरियन मिथकों के हबाले से प्रस्तुत किया जाएगा ...
राम ने शम्बूक शूद्र का वध किया था अथवा इस गटना को पुष्यमित्र सुंग के अनुयायीयों ने जोड़ा था
और हम आगे शूद्र शब्द पर विस्तृत विश्लेषण करेंगे ।
शूद्र कौन थे ?
यह शब्द वर्ण व्यवस्था का आधार कैसे बना ? इन बिन्दुओं पर एक नवीनत्तम व्याख्या
--जो रूढ़िवादी और संकीर्ण विचार धारणाओं से पृथक है
भारतीय इतिहास ही नहीं अपितु विश्व इतिहास का यह प्रथम अद्भुत् शोध है सत्य का भी बोध है ।👇
विश्व सांस्कृतिक अन्वेषणों के पश्चात् एक तथ्य पूर्णतः प्रमाणित हुआ है जिस वर्ण व्यवस्था को मनु का विधान कह कर भारतीय संस्कृति के प्राणों में प्रतिष्ठित किया गया था ।
न तो 'वह मनु की व्यवस्था थी और न भारतीय धरा पर मनु नाम का कोई पूर्व पुरुष हुआ।
परन्तु मनु भारतीय धरा की विरासत नहीं थे ।
और ना हि अयोध्या उनकी जन्म भूमि थी।
वर्तमान में अयोध्या भी थाईलेण्ड में "एजोडिया" के रूप में है ।
सुमेरियन सभ्यताओं में भी अयोध्या को एजेडे "Agede" (अक्काड) नाम से वर्णन किया है।
सुमेर के अक्काड ( अवध) में ही मनु ( नूह) की प्रलय के अवशेष प्रसिद्ध पुरातत्व वेत्ता (ल्योनार्ड वूली) को प्राप्त हुए थे ।
ईरान, मध्य एशिया, बर्मा, थाईलैंड, इण्डोनेशिया, वियतनाम, कम्बोडिया, चीन, जापान और यहां तक कि फिलीपींस में भी मनु की पौराणिक कथाऐं लोकप्रिय थीं।
विद्वान ब्रिटिश संस्कृतिकर्मी, जे. एल. ब्रॉकिंगटन के अनुसार "राम" को विश्व साहित्य का एक उत्कृष्ट शब्द मानते हैं।
यद्यपि वाल्मीकि रामायण महाकाव्य का कोई प्राचीन इतिहास नहीं है।
यह बौद्ध काल के बाद की रचना ही है
फिर भी इसके पात्र का प्रभाव सुमेरियन और ईरानीयों की प्राचीनत्तम संस्कृतियों में देखा जा सकता है।
राम के वर्णन की विश्वव्यापीयता का अर्थ है कि राम एक महान ऐतिहासिक व्यक्ति रहे होंगे।
इतिहास और मिथकों पर औपनिवेशिक हमला सभी महान धार्मिक साहित्यों का अभिन्न अंग है।
लेकिन स्पष्ट रूप से एक ऐतिहासिक पात्र के बिना रामायण कभी भी विश्व की श्रेण्य-साहित्यिक रचना नहीं बन पाएगी।
राम, मेडियंस और ईरानीयों के एक नायक हैं
मित्रा, अहुरा मज़्दा आदि जैसे सामान्य देवताओं को वरीयता दी गई है।
टी० क्यूइलर यंग, एक प्रख्यात ईरानी विद्वान हैं ।
जो कैम्ब्रिज प्राचीन इतिहास और प्रारम्भिक विश्वकोश में ईरान के इतिहास और पुरातत्व पर लिखा है:-👇
वह उप-महाद्वीप के बाहर प्रारम्भिक भारतीयों और ईरानीयों को सन्दर्भों की विवेचना करते हैं ।
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💐 राम ’पूर्व-इस्लामी ईरान में एक पवित्र नाम था; जैसे आर्य "राम-एन्ना" दारा-प्रथम के प्रारम्भिक पूर्वजों में से थे।
जिसका सोना टैबलेट( शील या मौहर )पुरानी फ़ारसी में एक प्रारम्भिक दस्तावेज़ है;
राम जोरास्ट्रियन कैलेंडर में एक महत्वपूर्ण नाम है;
"रेमियश" राम और वायु को समर्पित है
संभवतः हनुमान की एक प्रतिध्वनि; सुमेरियन पात्र इलुमन में है ।
कई राम-नाम पर्सेपोलिस (ईरानी शहर) में पाए जाते हैं।
राम बजरंग फार्स की एक कुर्दिश जनजाति का नाम है।
राम-नामों के साथ कई सासैनियन शहर: राम अर्धशीर, राम होर्मुज़, राम पेरोज़, रेमा और रुमागम -जैसे नाम प्राप्त होते हैं ।
राम-शहरिस्तान सूरों की प्रसिद्ध राजधानी थी।
राम-अल्ला यूफ्रेट्स (फरात) पर एक शहर है और यह फिलिस्तीन में भी है।
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उच्च प्रामाणिक सुमेरियन राजा-सूची में राम और भरत सौभाग्य से प्राप्त होते हैं।
सुमेरियन इतिहास का एक अध्ययन राम का एक बहुत ही ज्वलन्त चित्र प्रदान करता है।
उच्च प्रामाणिक सुमेरियन राजा-सूची में भारत (वारद) (warad)सिन और (रिमसिन )जैसे पवित्र नाम दिखाई देते हैं।
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राम मेसोपोटामिया वर्तमान (ईराक और ईरान)के सबसे लम्बे समय तक शासन करने वाले सम्राट थे
जिन्होंने 60 वर्षों तक शासन किया।
भारत सिन ने 12 वर्षों तक शासन किया (1834-1822 ई.पू.)का समय
जैसा कि बौद्धों के दशरथ जातक में कहा गया है।
जातक का कथन है, "साठ बार सौ, और दस हज़ार से अधिक, सभी को बताया, / प्रबल सशस्त्र राम ने"
केवल इसका मतलब है कि राम ने साठ वर्षों तक शासन किया, जो अश्शूरियों (असुरों) के आंकड़ों से बिल्कुल सहमत हैं।
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अयोध्या सरगोन की राजधानी अगाडे (अवध) हो सकती है ।
जिसकी पहचान अभी तक नहीं हुई है।
यह संभव है कि एजेड (Agade) (अबध -अयोध्या) डेर या हारुत के पास हरयु या सरयू नदी के पास सुमेर में थी।👇
(सीर दरिया) का साम्य सरयू से है ।
इतिहास लेखक डी. पी. मिश्रा जैसे विद्वान इस बात से अवगत थे कि राम हेरात क्षेत्र से हो सकते हैं।
प्रख्यात भाषाविद् सुकुमार सेन ने यह भी कहा कि राम ईरानीयों को धर्म ग्रन्थ अवेस्ता में एक पवित्र नाम है।
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सुमेरियन माइथॉलॉजी में (दूर्मा) नाम धर्म की प्रतिध्वनि है ।जो रोमन संस्कृति में टर्मिनस तथा ग्रीक में टर्मिनस
सुमेरियन माइथॉलॉजी के मितानियन ( मितज्ञु )राजाओं का तुसरत नाम दशरथ की प्रतिध्वनि प्रतीत होता है।
ऋग्वेद की एक ऋचा में मितन्नी (मितज्ञु )का वर्णन है ।
ऋग्वेद के सप्तम मण्डल के पिच्यानबे वें सूक्त की ऋचा बारह में (7/95/12 ) में मितन्नी जन-जाति का उल्लेख मितज्ञु के रूप में वर्णित है ।
मितन्नी शब्द मितज्ञु से राज्ञी से रान्नी के भाषा-वैज्ञानिक क्रिया के सदृश्य पर विकसित शब्द रूप है।
देखें ऋग्वेद में मितन्नी का वर्णन👇
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उतस्यान: सरस्वती जुषाणो उप श्रवत्सुभगा:
यज्ञे अस्मिन् मितज्ञुभि: नमस्यैरि याना राया यूजा:
चिदुत्तरा सखिभ्य: ।
ऋग्वेद-(7/95/12
वैदिक सन्दर्भों में वर्णित मितज्ञु जन-जाति के सुमेरियन पुरातन कथाओं में मितन्नी कहा है ।
अब यूरोपीय इतिहास कारों के द्वारा मितन्नी जन-जाति के विषय में उद्धृत तथ्य ----
मितानी हित्ताइट शब्द है जिसे हनीगलबाट भी कहा जाता है ।
मिस्र के ग्रन्थों में अश्शूर या नाहरिन में, उत्तरी सीरिया में एक तूफान-स्पीकिंग राज्य और समु्द्र से दक्षिण पूर्व अनातोलिया था ।
1500 से 1300 ईसा पूर्व में मितन्नी अमोरियों बाबुल के हित्ती विनाश के बाद एक क्षेत्रीय शक्ति बन गई और अप्रभावी अश्शूर राजाओं की एक श्रृंखला ने मेसोपोटामिया में एक बिजली निर्वात बनाया।
मितानी का राज्य समय
ई०पू०1500 - 1300 ईसा पूर्व तक
जिसकीव
राजधानी
वसुखानी
भाषा हुर्रियन
(Hurrian)
इससे पहले इसके द्वारा सफ़ल
पुराना अश्शूर साम्राज्य
(Yamhad) जमशद
मध्य अश्शूर साम्राज्य
अपने इतिहास की शुरुआत में, मितन्नी का प्रमुख प्रतिद्वंद्वी मिस्र थूट्मोसिड्स के अधीन था।
हालांकि, हित्ती साम्राज्य की चढ़ाई के साथ, मितानी और मिस्र ने हित्ती वर्चस्व के खतरे से अपने पारस्परिक हितों की रक्षा के लिए गठबंधन किया।
अपनी शक्ति की ऊंचाई पर, 14 वीं शताब्दी ईसा पूर्व के दौरान, मितानी के पास अपनी राजधानी वासुखानी पर केंद्रित चौकी थी, जिसका स्थान पुरातत्त्वविदों द्वारा खाबर नदी के जल मुख्य जल पर रहने के लिए निर्धारित किया गया था।
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भारतीयों में प्राचीनत्तम ऐैतिहासिक तथ्यों का एक मात्र श्रोत ऋग्वेद के 2,3,4,5,6,7, मण्डल है ।
आर्य समाज के विद्वान् भले ही वेदों में इतिहास न मानते हों ।
क्यों की ये 'लोग' जानबूझ कर अर्थ का अनर्थ करते हैं
हो सकता है कि इनकी इन क्रियाओं के पीछे अपना कोई निहित साम्प्रदायिक स्वार्थ हो !
तो भी उनका यह मत पूर्व-दुराग्रहों से प्रेरित ही है।
यह यथार्थ की असंगत रूप से व्याख्या करने की चेष्टा है
परन्तु हमारी मान्यता इससे सर्वथा विपरीत ही है ।
व्यवस्थित मानव सभ्यता के प्रथम प्रकाशक के रूप में ऋग्वेद के कुछ सूक्त साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत हैं ।
सच्चे अर्थ में ऋग्वेद प्राप्त सुलभ पश्चिमीय एशिया की संस्कृतियों का ऐैतिहासिक दस्ताबेज़ है ।
ऋग्वेद में जिन जन-जातियाें का विवरण है; वो धरा के उन स्थलों से सम्बद्ध हैं जहाँ से विश्व की श्रेष्ठ सभ्यताऐं पल्लवित , अनुप्राणित एवम् नि:सृत हुईं ।
भारत की प्राचीन धर्म प्रवण जन-जातियाँ स्वयं को कहीं देव संस्कृति की उपासक तो कहीं असुर संस्कृति की उपासक मानती थी -जैसे देव संस्कृति के अनुयायी भारतीय आर्य तो असुर संस्कृति के अनुयायी ईरानी आर्य थे।
अब समस्या यह है कि आर्य शब्द को कुछ पाश्चात्य इतिहास कारों ने पूर्वाग्रह से प्रेरित होकर जन-जातियों का विशेषण बना दिया ।
वस्तुत आर्य्य शब्द जन-जाति सूचक उपाधि नहीं था।
यह तो केवल जीवन क्षेत्रों में यौद्धिक वृत्तियों का द्योतक व विशेषण था ।
आर्य शब्द का प्रथम प्रयोग ईरानीयों के लिए तो सर्व मान्य है ही परन्तु कुछ इतिहास कार इसका प्रयोग मितन्नी जन-जाति के हुर्री कबींले के लिए स्वीकार करते हैं ।
परन्तु मेरा मत है कि हुर्री शब्द ईरानी शब्द हुर ( सुर) का ही विकसित रूप है।
क्यों कि ईरानीयों की भाषाओं में संस्कृत "स" वर्ण "ह" रूप में परिवर्तित हो जाता है ।
सुर अथवा देव स्वीडन ,नार्वे आदि स्थलों से सम्बद्ध थे परन्तु वर्तमान समय में तुर्की ---जो मध्य-एशिया या अनातोलयियो के रूप है वहीं की संस्कृतियों में भी देव संस्कृति के दर्शन होते है।
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वंश ने सी के बीच मितन्नी उत्तरी यूफ्रेट्स-टिग्रीस क्षेत्र पर शासन किया। यह समय1475 ईसा० पूर्वऔर । 1275 ईसा पूर्व है ।
आखिरकार, और मितन्नी हिट्टाइट के अश्शूर के हमलों के शिकार हो गए और मध्य अश्शूर साम्राज्य के एक प्रांत की स्थिति में कमी आई।
जबकि मितानी राजा भारतीय-ईरानियों में थे, उन्होंने स्थानीय लोगों की भाषा का उपयोग किया, जो उस समय एक गैर -इंडो-यूरोपीय भाषा, Hurrian थी।
प्रभाव का उनका क्षेत्र Hurrian स्थान के नाम, व्यक्तिगत नाम और सीरिया के माध्यम से फैला हुआ है और एक अलग मिट्टी के बर्तन प्रकार के (Levant) पूर्व की संस्कृतियों में दिखाया गया है।
मितन्नी ने खबूर के नीचे वाले क्षेत्र और वहां से फरात नदी के ऊपर व्यापार मार्गों को नियंत्रित किया।
एक समय के लिए उन्होंने निनवे , अरबील , असुर और नुज़ी में ऊपरी टिग्रीस और उसके हेडवाटर के अश्शूरियाई क्षेत्रों को भी नियंत्रित किया।
पाश्चात्य इतिहास विद "मार्गरेट .एस. ड्रावर ने तुसरत के नाम का अनुवाद 'भयानक रथों के मालिक' के रूप में किया है।
लेकिन यह वास्तव में 'दशरथ ( रथों का मालिक' )या 'दस गुना रथ' हो सकता है
जो दशरथ के नाम की प्रतिध्वनि है।
दशरथ ने दस राजाओं के संघ का नेतृत्व किया।
इस नाम में आर्यार्थ जैसे बाद के नामों की प्रतिध्वनि है।
सीता और राम का ऋग्वेद में वर्णन है।
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राम नाम के एक असुर (शक्तिशाली राजा) को संदर्भित करता है, लेकिन कोसल का कोई उल्लेख नहीं करता है।
वास्तव में कोसल नाम शायद सुमेरियन माइथॉलॉजी में "खश-ला" के रूप में था ।
जो खश या कैस्साइट जन-जातियों का की नगरी था ।
और सुमेरियन अभिलेखों के मार-कासे (बार-कासे) के अनुरूप हो सकता है।👇
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refers to an Asura (powerful king) named Rama but makes no mention of Kosala.♨
In fact the name Kosala was probably Khas-la and may correspond to Mar-Khase (Bar-Kahse) of the Sumerian records.
कई प्राचीन संस्कृतियों में मिथकों में साम्य हैं।
प्रस्तुत लेख मनु के जीवन की प्रधान घटना बाढ़ की कहानी का विश्लेषण करना है।
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सुमेरियन संस्कृति में 'मनु'का वर्णन जीवसिद्ध के रूप में-
महान बाढ़ आई और यह अथक थी और मछली जो विष्णु की मत्स्य अवतार थी, ने मानवता को विलुप्त होने से बचाया।
ज़ीसुद्र सुमेर का एक अच्छा राजा था और देव एनकी ने उसे चेतावनी दी कि शेष देवताओं ने मानव जाति को नष्ट करने का दृढ़ संकल्प किया है ।
उसने एक बड़ी नाव बनाने के लिए ज़ीसुद्र को बताया। बाढ़ आई और मानवता बच गई।
सैमेटिक संस्कृतियों में प्राप्त मिथकों के अनुसार
नूह (मनु:)को एक बड़ी नाव बनाने और नाव पर सभी जानवरों की एक जोड़ी लेने की चेतावनी दी गई थी।
नाव को अरारात पर्वत जाना था ।
और उसके शीर्ष पर लंगर डालना था जो बाढ़ में बह गया था।
इन तीन प्राचीन संस्कृतियों में महान बाढ़ के बारे में बहुत समान कहानियाँ हैं।
बाइबिल के अनुसार इज़राइल में इस तरह की बड़ी बाढ़ का कारण कोई महान नदियाँ नहीं हैं, लेकिन हम जानते हैं कि इब्रानियों ने उर के इब्राहीम से अपनी उत्पत्ति का पता लगाया जो मेसोपोटामिया में है।
भारतीय इतिहास में यही इब्राहीम ब्रह्मा है।
जबकि टिगरिस (दजला)और यूफ्रेट्स (फरात) नदीयाँ बाढ़ और अक्सर बदलते प्रवेश में, होती थीं।
उनकी बाढ़ उतनी बड़े पैमाने पर नहीं होती है।
एक दिलचस्प बात यह है कि अंग्रेजी क्रिया "Meander "का अर्थ है, जिसका उद्देश्य लक्ष्यहीनता से एक तुर्की नदी के नाम से आता है ।
जिसमें मनु शब्द का समाहार है ।
जो अपने परिवेश को बदलने के लिए कुख्यात है।
सिंधु और गंगा बाढ़ आती हैं लेकिन मनु द्वारा वर्णित प्रलय जैसा कुछ भी नहीं है।
अत: प्रलय का सम्बन्ध सुमेरियन संस्कृति से है ।
महान जलप्रलय 5000 ईसा पूर्व के आसपास हुआ जब भूमध्य सागर काला सागर में टूट गया।
इसने यूक्रेन, अनातोलिया, सीरिया और मेसोपोटामिया को विभिन्न दिशाओं में (littoral) निवासियों के प्रवास का नेतृत्व किया।
ये लोग अपने साथ बाढ़ और उसके मिथक की अमिट स्मृति को ले गए।
अक्कादियों ने कहानी को आगे बढ़ाया क्योंकि उनके लिए सुमेरियन वही थे जो लैटिन यूरोपीयों के लिए थे।
सभी अकाडियन शास्त्रियों को सुमेरियन, एक मृत भाषा को सीखना था, जैसे कि सभी शिक्षित यूरोपीय मध्य युग में लैटिन सीखते हैं।
ईसाइयों ने मिथक को शामिल किया क्योंकि वे पुराने नियम को अवशोषित करते थे क्योंकि उनके भगवान जन्म से यहूदी थे।
बाद में उत्पन्न हुए धर्मों ने मिथक को शामिल नहीं किया।
जोरास्ट्रियनवाद जो कि भारतीय वैदिक सन्दर्भों में साम्य के साथ दुनियाँ के रंगमञ्च पर उपस्थित होते है; उन्होंने मनु के मिथक को छोड़ दिया।
अर्थात् पारसी धर्म ग्रन्थ अवेस्ता में जल प्रलय के स्थान पर यम -प्रलय ( हिम -प्रलय ) का वर्णन है ।
जैन धर्म, बौद्ध धर्म और सिख धर्म इसी तरह इस्लाम जो यहूदी धर्म, ईसाई धर्म और कुछ स्थानीय अरब रीति-रिवाजों का मिश्रण है, जो मिथक को छोड़ देता है।
अन्यथा सभी मनु के जल प्रलय के मिथकों में विश्वास करते हैं ।
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सुमेरियन और भारतीयों के बीच एक और आम मिथक है सात ऋषियों का है।
सुमेरियों का मानना था कि उनका ज्ञान और सभ्यता सात ऋषियों से उत्पन्न हुई थी।
हिंदुओं में सप्त ऋषियों का मिथक है जो इन्द्र से अधिक शक्तिशाली थे।
यह सुमेरियन कैलेंडर से है कि हमारे पास अभी भी सात दिन का सप्ताह है।
उनके पास एक दशमलव प्रणाली भी नहीं थी जिसे भारत ने शून्य के साथ आविष्कार किया था।
उनकी गिनती का आधार दस के बजाय साठ था ।
और इसीलिए हमारे पास अभी भी साठ सेकंड से एक मिनट, साठ मिनट से एक घंटे और एक सर्कल में 360 डिग्री है।
सीरिया में अनदेखी मितन्नी राजधानी को वासु-खन्नी अर्थात समृद्ध -पृथ्वी का नाम दिया गया था।
मनु ने अयोध्या को बसाया यह तथ्य वाल्मीकि रामायण में वर्णित है।
वेद में अयोध्या को ईश्वर का नगर बताया गया है,👇
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"अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या"
अथर्ववेद १०/२/३१ में वर्णित है।
वास्तव में यह सारा सूक्त ही अयोध्या पुरी के निर्माण के लिए है।
नौ द्वारों वाला हमारा यह शरीर ही अयोध्या पुरी बन सकता है।
अयोध्या का समानार्थक शब्द "अवध" है ।
सुमेरियन मिथकों में नूह का सम्बन्ध अक्काड या अगडे से है ।
और यहांँ से जो जनजातियाँ पूर्व की और गयीं तो उन्होंने अपनेे इन्हीं स्थानों के नाम पर वहाँ भी यही नाम रखे...
जैसे काशी ,अवध औरप्रयाग आदि इन नामों में इनकी अतीव श्रृद्धा समाहित थी
प्राचीन काल में एशिया - माइनर ---(छोटा एशिया), जिसका ऐतिहासिक नाम -करण अनातोलयियो के रूप में भी हुआ है ।
यूनानी इतिहास कारों विशेषत: होरेडॉटस् ने अनातोलयियो के लिए एशिया माइनर शब्द का प्रयोग किया है ।
जिसे आधुनिक काल में तुर्किस्तान
अथवा टर्की नाम से भी जानते हैं ।
.. यहाँ की पार्श्व -वर्ती संस्कृतियों में मनु की प्रसिद्धि उन सांस्कृतिक-अनुयायीयों ने अपने पूर्व-पिता
{ Pro -Genitor } के रूप में स्वीकृत की है ।
मनु को पूर्व- पुरुष मानने वाली जन-जातियाँ प्राय: भारोपीय वर्ग की भाषाओं का सम्भाषण करती रहीं हैं ।
वस्तुत: भाषाऐं सैमेटिक वर्ग की हो अथवा हैमेटिक वर्ग की अथवा भारोपीय , सभी भाषाओं मे समानता का कहीं न कहीं सूत्र अवश्य है।
जैसा कि मिश्र की संस्कृति में मिश्र का प्रथम पुरुष जो देवों का का भी प्रतिनिधि था ,
वह था "मेनेस्" (Menes)अथवा मेनिस् (Menis) इस संज्ञा से अभिहित था ।
मेनिस ई०पू० 3150 के समकक्ष मिश्र का प्रथम शासक और मेंम्फिस (Memphis) नगर में जिसका निवास था
"मेंम्फिस "प्राचीन मिश्र का महत्वपूर्ण नगर जो नील नदी की घाटी में आबाद है ।
तथा यहीं का पार्श्ववर्ती देश फ्रीजिया (Phrygia)के मिथकों में भी मनु की जल--प्रलय का वर्णन मिअॉन (Meon)के रूप में है ।
मिअॉन अथवा माइनॉस का वर्णन ग्रीक पुरातन कथाओं में क्रीट के प्रथम राजा के रूप में है ।
जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र है ।
और यहीं एशिया- माइनर के पश्चिमीय समीपवर्ती लीडिया( Lydia) देश वासी भी इसी मिअॉन (Meon) रूप में मनु को अपना पूर्व पुरुष मानते थे।
इसी मनु के द्वारा बसाए जाने के कारण लीडिया देश का प्राचीन नाम मेअॉनिया "Maionia" भी था ।
ग्रीक साहित्य में विशेषत: होमर के काव्य में "मनु" को (Knossos) क्षेत्र का का राजा बताया गया है ।
कनान देश की कैन्नानाइटी(Canaanite ) संस्कृति में बाल -मिअॉन के रूप में भारतीयों के बल और मनु (Baal- meon) और यम्म (Yamm) देव के रूप मे वैदिक देव यम से साम्य संयोग नहीं अपितु संस्कृतियों की एकरूपता की द्योतक है ।
यम और मनु दौनों को सजातिय रूप में सूर्य की सन्तानें बताया है।
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विश्व संस्कृतियों में यम का वर्णन --- यहाँ भी कनानी संस्कृतियों में भारतीय पुराणों के समान यम का उल्लेख यथाक्रम नदी ,समुद्र ,पर्वत तथा न्याय के
अधिष्ठात्री देवता के रूप में हुआ है ।
कनान प्रदेश से ही कालान्तरण में सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं का विकास हुआ था ।
स्वयम् कनान शब्द भारोपीय है , केन्नाइटी भाषा में कनान शब्द का अर्थ होता है मैदान अथवा जड्•गल यूरोपीय कोलों अथवा कैल्टों की भाषा पुरानी फ्रॉन्च में कनकन (Cancan)आज भी जड्.गल को कहते हैं ।
और संस्कृत भाषा में कानन =जंगल सर्वविदित ही है। परन्तु कुछ बाइबिल की कथाओं के अनुसार कनान एक पूर्व पुरुष था --जो हेम (Ham)की परम्पराओं में एनॉस का पुत्र था।
जब कैल्ट जन जाति का प्रव्रजन (Migration) बाल्टिक सागर से भू- मध्य रेखीय क्षेत्रों में हुआ।
तब मैसॉपोटामिया की संस्कृतियों में कैल्डिया के रूप में इनका विलय हुआ ।
तब यहाँ जीव सिद्ध ( जियोसुद्द )अथवा नूह के रूप में मनु की किश्ती और प्रलय की कथाओं की रचना हुयी ।
और तो क्या ? यूरोप का प्रवेश -द्वार कहे जाने वाले ईज़िया तथा क्रीट ( Crete ) की संस्कृतियों में मनु आयॉनिया लोगों के आदि पुरुष माइनॉस् (Minos)के रूप में प्रतिष्ठित हए।
भारतीय संस्कृति की पौराणिक कथाऐं इन्हीं घटनाओं ले अनुप्रेरित हैं।
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भारतीय पुराणों में मनु और श्रृद्धा का सम्बन्ध वस्तुत: मन के विचार (मनन ) और हृदय की आस्तिक भावना (श्रृद्धा ) के मानवीय-करण (personification) रूप है ।
शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में मनु को श्रृद्धा-देव
(श्रृाद्ध -देव) कह कर सम्बोधित किया है।
तथा बारहवीं सदी में रचित श्रीमद्भागवत् पुराण में वैवस्वत् मनु तथा श्रृद्धा से ही मानवीय सृष्टि का प्रारम्भ माना गया है। 👇
सतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में " मनवे वै प्रात: "वाक्यांश से घटना का उल्लेख आठवें अध्याय में मिलता है।
सतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में मनु को श्रृद्धा-देव कह कर सम्बोधित किया है।👇
--श्रृद्धा देवी वै मनु (काण्ड-१--प्रदण्डिका १) श्रीमद्भागवत् पुराण में वैवस्वत् मनु और श्रृद्धा से मानवीय सृष्टि का प्रारम्भ माना गया है--
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"ततो मनु: श्राद्धदेव: संज्ञायामास भारत श्रृद्धायां जनयामास दशपुत्रानुस आत्मवान"(9/1/11) ---------------------------------------------------------------
छन्दोग्य उपनिषद में मनु और श्रृद्धा की विचार और भावना रूपक व्याख्या भी मिलती है।
"यदा वै श्रृद्धधाति अथ मनुते नाSश्रृद्धधन् मनुते " __________________________________________
जब मनु के साथ प्रलय की घटना घटित हुई तत्पश्चात् नवीन सृष्टि- काल में :– असुर (असीरियन) पुरोहितों की प्रेरणा से ही मनु ने पशु-बलि दी थी।
" किल आत्आकुलीइति ह असुर ब्रह्मावासतु:।
तौ हो चतु: श्रृद्धादेवो वै मनु: आवं नु वेदावेति।
तौ हा गत्यो चतु:मनो वाजयाव तु इति।।
असुर लोग वस्तुत: मैसॉपोटमिया के अन्तर्गत असीरिया के निवासी थे।
सुमेर भी इसी का एक अवयव है ।
अत: मनु और असुरों की सहवर्तीयता प्रबल प्रमाण है मनु का सुमेरियन होना ।
बाइबिल के अनुसार असीरियन लोग यहूदीयों के सहवर्ती सैमेटिक शाखा के थे।
सतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में मनु की वर्णित कथा हिब्रू बाइबिल में यथावत है --- देखें एक समानता !
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हिब्रू बाइबिल में नूह का वर्णन:-👇
बाइबिल उत्पत्ति खण्ड (Genesis)- "नूह ने यहोवा (ईश्वर) कहने पर एक वेदी बनायी ;
और सब शुद्ध पशुओं और सब शुद्ध पक्षियों में से कुछ की वेदी पर होम-बलि चढ़ाई।(उत्पत्ति-8:20) ।👇
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" And Noah builded an alter unto the Lord Jehovah and took of the every clean beast, and of every clean fowl or birds, and offered ( he sacrificed ) burnt offerings on the alter
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Genesis-8:20 in English translation... -------------------------------------------------------------------
हृद् तथा श्रृद् शब्द वैदिक भाषा में मूलत: एक रूप में ही हैं ; रोम की सांस्कृतिक भाषा लैटिन आदि में क्रेडॉ "credo" का अर्थ :--- मैं विश्वास करता हूँ ।
तथा क्रिया रूप में credere---to believe लैटिन क्रिया credere--- का सम्बन्ध भारोपीय धातु
"Kerd-dhe" ---to believe से है ।
साहित्यिक रूप इसका अर्थ "हृदय में धारण करना –(to put On's heart-- पुरानी आयरिश भाषा में क्रेटिम cretim रूप --- वेल्स भाषा में (credu ) और संस्कृत भाषा में श्रृद्धा(Srad-dha)---faith,
इस शब्द के द्वारा सांस्कृतिक प्राक्कालीन एक रूपता को वर्णित किया है ।
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श्रृद्धा का अर्थ :–Confidence, Devotion आदि हार्दिक भावों से है ।
प्राचीन भारोपीय (Indo-European) रूप कर्ड (kerd)--हृदय है ।
ग्रीक भाषा में श्रृद्धा का रूप "Kardia" तथा लैटिन में "Cor " है ।
आरमेनियन रूप ---"Sirt" पुरातन आयरिश भाषा में--- "cride" वेल्स भाषा में ---"craidda" हिट्टी में--"kir" लिथुअॉनियन में--"sirdis" रसियन में --- "serdce" पुरानी अंग्रेज़ी --- "heorte". जर्मन में --"herz" गॉथिक में --hairto " heart" ब्रिटॉन में---- kreiz "middle" स्लेवॉनिक में ---sreda--"middle ..
यूनानी ग्रन्थ "इलियड तथा ऑडेसी "महा काव्य में प्राचीनत्तम भाषायी साम्य तो है ही देवसूचीयों मेंभी साम्य है ।
आश्चर्य इस बात का है कि ..आयॉनियन भाषा का शब्द माइनॉस् तथा वैदिक शब्द मनु: की व्युत्पत्तियाँ (Etymologies)भी समान हैं।
जो कि माइनॉस् और मनु की एकरूपता(तादात्म्य) की सबसे बड़ी प्रमाणिकता है।
क्रीट (crete) माइथॉलॉजी में माइनॉस् का विस्तृत विवेचन है, जिसका अंग्रेजी रूपान्तरण प्रस्तुत है ।👇
------------------------------------------------------------- .. Minos and his brother Rhadamanthys
जिसे भारतीय पुराणों में रथमन्तः कहा है ।
And sarpedon wereRaised in the Royal palace of Cnossus-... Minos Marrieged pasiphae- जिसे भारतीय पुराणों में प्रस्वीः प्रसव करने वाली कहा है !
शतरूपा भी इसी का नाम था यही प्रस्वीः या पैसिफी सूर्य- देव हैलिअॉस् (Helios) की पुत्री थी।
क्यों कि यम और यमी भाई बहिन ही थे ।
जिन्हें मिश्र की संस्कृतियों में पति-पत्नी के रूप में भी वर्णित किया है ।
... उसकी प्राचीनता भी पूर्णतः संदिग्ध ही है .मिथ्या वादीयों ने वर्ण व्यवस्था को ईश्वरीय विधान घोषित भी किया तो इसके मूल में केवल इसकी प्राचीनता है वर्ण व्यवस्था प्राचीन तो है पर ईश्वरीय विधान कदापि नहीं है ..
..... मैं यादव योगेश कुमार 'रोहि' वर्ण व्यवस्था के विषय में केवल वही तथ्य उद्गृत करुँगा
..जो सर्वथा नवीन हैं ,...
वर्ण व्यवस्था के विषय में आज जैसा आदर्श प्रस्तुत किया जाता है वह यथार्थ की सीमाओं में नहीं है ...वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का स्वरूप स्वभाव प्रवृत्ति और कर्म गत भले ही हो !
......
कालान्तरण में वर्ण व्यवस्था की विकृति -पूर्ण परिणति जाति वाद के रूप में हुई.. मनु -स्मृति तथा आपस्तम्ब गृह्य शूत्रों ने भी प्रायः जाति गत वर्ण व्यवस्था का ही अनुमोदन किया है
वर्ण व्यवस्था का वैचारिक उद्भव अपने बीज वपन रूप में आज से सात हज़ार वर्ष पूर्व बाल्टिक सागर के तट- वर्ती स्थलों पर
............जर्मन के आर्यों तथा यहीं बाल्टिक सागर के दक्षिण -पश्चिम में बसे हुए ..गोैलॉ .वेल्सों .ब्रिटों (व्रात्यों ) के पुरोहित ड्रयडों (Druids )के सांस्कृतिक द्वेष के रूप में हुआ था...यह मेरे प्रबल प्रमाणों के दायरे में है.प्रारम्भ में केवल दो ही वर्ण थे !
आर्य और शूद्र ..जिन्हें यूरोपीयन संस्कृतियों में क्रमशः Ehre एर "The honrable people in Germen tribes ".......
जर्मन भाषा में आर्य शब्द के ही इतर रूप हैं ...Arier तथाArisch आरिष यही एरिष Arisch शब्द जर्मन भाषा की उप शाखा डच और स्वीडिस् में भी विद्यमान है.........
और दूसरा शब्द शाउटर Shouter. है शाउटर शब्द का परवर्ती उच्चारण साउटर Souter शब्द के रूप में भी है शाउटर यूरोप की धरा पर स्कॉटलेण्ड के मूल निवासी थे ., इसी का इतर नाम आयरलेण्ड भी था ।
.शाउटर लोग गॉल अथवा ड्रयूडों की ही एक शाखा थी जो परामपरागत से चर्म के द्वार वस्त्रों का निर्माण और व्यवसाय करती थी ...
.Shouter ---a race who had sewed Shoes and Vestriarium..for nordic Aryen Germen tribes......
...यूरोप की संस्कृति में वस्त्र बहुत बड़ी अवश्यकता और बहु- मूल्य सम्पत्ति थे ...क्यों कि शीत का प्रभाव ही अत्यधिक था.... उधर उत्तरी-जर्मन के नार्वे आदि संस्कृतियों में इन्हेैं सुटारी (Sutari ) के रूप में सम्बोधित किया जाता था यहाँ की संस्कृति में इनकी महानता सर्व विदित है ।
यूरोप की प्राचीन सांस्कृतिक भाषा लैटिन में यह शब्द ...सुटॉर.(Sutor ) के रूप में है ....तथा पुरानी अंग्रेजी (एंग्लो-सेक्शन) में यही शब्द सुटेयर -Sutere -के रूप में है.. जर्मनों की प्राचीनत्तम शाखा गॉथिक भाषा में यही शब्द सूतर (Sooter )के रूप में है... विदित हो कि गॉथ जर्मन आर्यों का एक प्राचीन राष्ट्र है।
जो विशेषतः बाल्टिक सागर के दक्षिणी किनारे पर अवस्थित है ईसा कीतीसरी शताब्दी में डेसिया राज्य में प्रस्थान किया डेसिया का समावेश इटली के अन्तर्गत हो गया !
गॉथ राष्ट्र की सीमाऐं दक्षिणी फ्रान्स तथा स्पेन तक थी .. उत्तरी जर्मन में यही गॉथ लोग ज्यूटों के रूप में प्रतिष्ठित थे और भारतीय आर्यों में ये गौडों के रूप में परिलक्षित होते हैं...
...ये बातें आकस्मिक और काल्पनिक नहीं हैं क्यों कि यूरोप में जर्मन आर्यों की बहुत सी शाखाऐं प्राचीन भारतीय गोत्र-प्रवर्तक ऋषियों के आधार पर हैं
जैसे अंगिरस् ऋषि के आधार पर जर्मनों की ऐञ्जीलस् Angelus या Angle.
जिन्हें पुर्तगालीयों ने अंग्रेज कहा था ईसा की पाँचवीं सदी में ब्रिटेन के मूल वासीयों को परास्त कर ब्रिटेन का नाम- करण आंग्ल -लेण्ड कर दिया था... जर्मन आर्यों में गोत्र -प्रवर्तक भृगु ऋषि के वंशज Borough...उपाधि अब भी लगाते हैं ।
वंशज बेस्त कह लाते हैं समानताओं के और भी स्तर हैं ...परन्तु हमारा वर्ण्य विषय शूद्रों से सम्बद्ध है ।
लैटिन भाषा में शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति लैटिन क्रिया स्वेयर -- Suere = to sew सीवन करना ,वस्त्र -वपन करना
.......
विदित हो कि संस्कृत भाषा में भी शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति मूलक अर्थ वस्त्रों का सीवन करने बाला ..सेवक .....जैसा कि सेवक का मूल अर्थ है सीवन करने बाला ..यह शोध प्रबन्ध योगेश कुमार रोहि के विश्व सांस्कृतिक शोधों पर आधारित है ।
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संस्कृत में शूद्र शब्द का वास्तविक अर्थ संस्कृत की शुच् धातु से रक् प्रत्यय करने पर बना है ...शुच् तापने परिस्कारे वस्त्रस्सीवने च ...
आर्यों ने शूद्र विशेषण सर्व
प्रथम यहाँ के पूर्व वासी कोलों के विशेषण रूप में किया जो पुश्तैनी रूप से आज भी कोरिया जन जाति के रुप में आज भी वस्त्रों का निर्माण करते हैं ।
दास एक जन जाति थी असीरियनों से सम्बद्ध थी...
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
सायण ने इस ऋचा का अर्थ किया " कल्याण करने वाले गायें से युक्त यदु और तुर्वसु नामक राजा मनु के भोजन के लिए पशु देतें हैं (सायण अर्थ१०/६२)१०)
वास्तव में उपर्युक्त ऋचा का अर्थ असंगत ही है क्यों की वैदिक सन्दर्भ में दास का अर्थ सेवा करने वाला गुलाम या भृत्य नहीं है👇
अन्यथा शम्बर के लिए दास किस अर्थ में है।
उत् दासं कौलितरं बृहत पर्वतात् अधि आवहन् इन्द्र: शम्बरम् ऋग्वेद-२ /३ /६
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असुर शब्द दास का पर्याय वाची है ।
क्योंकि ऋग्वेद के द्वित्तीय मण्डल के २/३/६ में शम्बर नामक असुर को दास कह कर वर्णित किया गया है ।
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उत् दासं कौलितरं बृहत पर्वतात् अधि आवहन् इन्द्र: शम्बरम् ऋग्वेद-२ /३ /६
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कुलितरस्यापत्यम् ऋष्यण् इति कौलितर शम्बरासुरे
“उत दासं कौलितरं वृहतः पर्व्वतादधि ।
अवाहान्निन्द्र” शम्ब- रम्” ऋ० ४ । ३ । ०१४ कुलितरनाम्नोऽपत्यं शम्बरमसुरम्” मा०
असुर संस्कृति में दास शब्द का अर्थ--श्रेष्ठ तथा कुशल होता है ।
ईरानी आर्यों ने दास शब्द का उच्चारण दाहे के रूप में किया है ।
इसी प्रकार असुर शब्द को अहुर के रूप में वर्णित किया है।
असुर शब्द का प्रयोग ऋग्वेद के अनेक स्थलों पर
वरुण ,अग्नि , तथा सूर्य के विशेषण रूप में हुआ है ।
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पाणिनीय व्याकरण के अनुसार असु (प्राण-तत्व)
से युक्त ईश्वरीय सत्ता को असुर कहा गया है ।
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परन्तु ये लोग असीरियन ही थे ।
जो सुमेरियन , बैबीलॉनियन, से सम्बद्ध थे ।
दास देगिस्तान की जन-जाति है ।
यदु और तुर्वसु नामक दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दासों की प्रशंसा करते हैं।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है।
दास का सही अर्थ देव संस्कृति का विरोधी रूप है ।
! क्यों कि ऋग्वेद के दशम मण्डल के 62 वें सूक्त की दशवीं ऋचा में यदु और तुर्वशु को गोप ही कहा है । 👇
उत् दासा परिविषे स्मत्दृष्टी गोपर् ईणसा यदुस्तुर्वशुश्च मामहे ।। ऋग्वेद 10/62/10
वे गोप गो-पालन की शक्ति के द्वारा ( गोप: ईनसा सन्धि संक्रमण से वर्त्स्य नकार का मूर्धन्य णकार होने से गोपरीणसा रूप सिद्ध होता है )
अर्थात् यदु और तुर्वशु --जो दास अथवा असुर संस्कृति के अनुयायी हैं
वे गोप गायों से घिरे हुए हैं ।
--जो मुस्कराहट पूर्ण दृष्टि वाले हैं हम उनकी प्रशंसा करते हैं ।। ऋग्वेद 10/62/10
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कुछ ग्रन्थों की सन्दर्भ सूची
↑ यह गिनती विश्वबंधु शास्त्री के वैदिक कोश पर आधारित है।
↑ व्हीलर : ‘द इंडस सिविलिजेशन’, सप्लीमेंट वाल्यूम टु केंब्रिज हिस्ट्री ऑफ़ इंडिया, I, पृष्ठ 8. व्हीलर की राय है कि असभ्य खानाबदोशों (अर्थात् आर्यों) की चढ़ाई के कारण संगठित कृषि बिखर गई, पर अभी तक ऐसे प्रमाण नहीं मिले हैं, जिनके आधार पर कहा जाए कि सैंधव शहरी सभ्यता के लोगों और आर्यों के बीच जमकर लड़ाई हुई।
↑ ऋग्वेद, X 83.1. ‘साह्यम दासमार्यं त्वयायुजा सहस्कृतेन सहसा सहस्वता’, जो अथर्ववेद, IV. 32.1 जैसा ही है।
↑ ऋग्वेद, X. 38.3; देखें अथर्ववेद, XX. 36.10.
↑ ऋग्वेद, VII. 83.1. ‘दासाच वृत्रा हतमार्याणि च सुदासम् इन्द्रावरुणावसावतम्’।
↑ ऋग्वेद, VI. 60.6.
↑ ऋग्वेद, VI. 33.3; ऋग्वेद X. 102.3.
↑ सात नदियों
↑ ऋग्वेद, VIII. 24.27. ‘य ऋक्षादंहसो मुचद्योवार्यात् सप्तसिन्धुषु; वधर्दासस्य तुविनृम्ण नीनम्;’ गेल्डनर इस परिच्छेद का अर्थ लगाते हैं कि इंद्र ने दासों के अस्त्रों को आर्यों से विमुख कर दिया है।
↑ ऋग्वेद, VI. 33.3; 60.6; VII. 83.1; VIII. 24.27 (विवादास्पद कंडिका); X. 38.3, 69.6, 83.1, 86.19, 102.3. इनमें से चार निर्देशों को अंबेडकर ने सही रूप में उद्धृत किया है। अंबेडकर : हू वेयर दि शूद्राज़ पृष्ठ 83-4.
↑ वैदिक इंडेक्स, I. , ऋग्वेद, II, 12. 4. ‘येनेमा विश्वा च्यवना कृतानि, यो दासं वर्णमधरं गुहाक:’
↑ ऋग्वेद, VII. 33.2-5, 83.8. वास्तविक युद्ध-स्तुति ऋग्वेद, VII. 18 में है।
↑ आर. सी. मजूमदार और ए. डी. पुसलकर : वैदिक एज, पृष्ठ 245.। अन्य आर्यों के प्रति बैरभाव के कारण पुरुओं को ऋग्वेद, XII. 18.13 में मृध्रवाच: कहा गया है।
↑ रावी नदी
↑ पी. वी. काणे : ‘द वर्ड व्रत इन द ऋग्वेद’, जर्नल ऑफ़ द बॉम्बे ब्रांच ऑफ़ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी, न्यू सीरीज, XXIX. 11.)
↑ अथर्ववेद, V. 11.3; पैप्पलाद, VIII. 1.3. ‘नमे दासोनार्यों महीत्वा व्रतं मीमाय यदहम् धरिष्ये’। (सन्दर्भ-१)