असली यदुवंशी कौन ? अहीर अथवा जादौन ! एक विश्लेषण --भाग प्रथम
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भारत में जादौन ठाकुर तो जादौन पठानों का छठी सदी में हुआ क्षत्रिय करण रूप है ।
क्योंकि अफगानिस्तान अथवा सिन्धु नदी के मुअाने पर बसे हुए जादौन पठानों का सामन्तीय अथवा जमीदारीय खिताब था तक्वुर ! जो भारतीय भाषाओं में ठक्कुर , ठाकुर ,टैंगॉर तथा ठाकरे रूपों में प्रकाशित हुआ।
जमीदारी खिताबों के तौर पर भारत में इस शब्द का प्रयोग उन लोगों के लिए सबसे पहले हुआ।
जो तुर्की काल में जागीरों के अथवा
भू-खण्डों के मालिक थे ।
उस समय पश्चिमीय एशिया तथा भारतीय प्राय द्वीप में इस्लामीय विचार धाराओं का भी आग़ाज (प्रारम्भ) नहीं हुआ था। केवल ईसाई विचार धाराओं का प्रचार था ।
तब जादौन पठान कबीलों के रूप में ईरानी संस्कृति को आत्मसात् किये हुए थे ।
यद्यपि ये वंशगत रूप से स्वयं यहूदीयों से सम्बद्ध थे ।
उसके लगभग एक शतक बाद ई०सन् 712 में मौहम्मद बिन-काशिम अरब़ से चल कर ईरान में होता हुआ भारत में सिन्धु के मुहाने पर उपस्थित होता है।
तब भारत में इस्लामीय विचार धाराओं का प्रसार होता है । जब मौहम्मद बिन काशिम के साथ आए इस्लामीय मज़हब के नुमाइन्दों ने देखा कि यहाँ तो अादमी -आदमी को जातिवाद के तराजू में तौला जा रहा है ।
यहाँ तो गरीब व निचले स्तर के इन्सानों को शूद्रों का नाम देकर ; उनके साथ पशुओं से भी बदतर व्यवहार किया जाता है ।
फिर इस्लामीय विचार धारा तो साम्य वाद पर आश्रित थी ।
इस समय छूआ-छूत एवं जातिगत भेद भावना अपनी पराकाष्ठा पर थे । ब्राह्मण हिन्दू-समाज का सर्वेसर्वा थे तथा राजपूत जो विदेशीयों का क्षत्रिय करण रूप था । वे
उन ब्राह्मणों के संरक्षक बन गया थे ।
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सरे आम जब निम्न समझी जाने वाली जन-जातियों की सुन्दर कन्याओं को अपनी हवश आपूर्ति के लिए उच्च वर्ग के लोगों द्वारा अपहरण कर लिया जाता था तब वह दृश्य मानवीय नारी सत्ता के लिए बड़े दु:खद था ।
निम्न वर्ग भूमिहीन ,व गुलाम होकर स्वाभिमान शून्य जीवन जी रहा था।
हीन भावना से ग्रसित होकर अपना दुर्भाग्य समझ कर वह निरन्तर अपमानों के कड़वे घूँट पी रहा था । निराशा वाद में श्वाँसें गिन गिन कर जी रहा था ।
इस्लामीय विचार धाराओं का उदय भारत में
ऐैसे समय पर इन लोगों को आशा की किरण बन गया ।
इन लोगों ने स्वेैच्छिक रूप से इस्लाम को स्वीकार किया।
परन्तु 15 वीं सदी में तलवार के बल पर भी बुतसिकन बन कर इस्लामीय शरीयत को मुगलों द्वारा प्रसारित किया गया ।
और कुछ गौण मान्यताओं के अनुसार तो केरल के मालावार से भी मौहम्मद बिन काशिम के एक सदी पहले ही इस्लामीय शरीयत का आग़ाज अरब सागर के व्यापारियों द्वारा हुआ ।
परन्तु 712 ई० सन् की घटना को ही ऐैतिहासिक मान्यताऐं हैं ।
इस समय विदेशीयों को यह एहशास हो गया था कि हिन्दुस्तान को जीतना आसान है ।
क्योंकि यहाँ समाज में कौम़परस्ती हावी है ।
हिन्दुस्तान को जीतने का माद्दा तो दारा प्रथम के समय ईरानीयों में भी था ।
यह घटना सिकन्दर से पहले की अर्थात् ई०पू० चतुर्थ सदी की है ।
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भारत में आने वाले प्रथम विदेशी तो हखामनी ईरानी लोग ही थे।
विदेशी भारत को जीतकर गुलाम बनाने में सफल इस लिए भी रहे ; कि उस समय जिन जन-जातियाें को शूद्रों के रूप में श्रेणि बद्ध किया गया ।
उनसे सारे अधिकार जब्त कर लिए गये ।
उन्हें न पढ़ने का अधिकार था ।
न लड़ने का और नाहीं कोई धर्म कर्म करने का
विदेशीयों से युद्ध काल में भी निम्न समझी जाने वाली जन-जातियाें के प्रति तिरस्कार व हीनता की भावना ब्राह्मणों तथा राजपूतों द्वारा होने के कारणये लोग शान्त रहते
क्योंकि विधानों के अनुसार क्षत्रिय ही लड़ सकता है ।
शूद्रों का कार्य तो केवल दौनों वर्णों की केवल सेवा करना है ।
स्मृति-ग्रन्थों का सृजन ही शूद्रों के आधिकारिक प्रतिबन्ध को दृष्टि गत कर के हुआ।
फिर जब ये लोग समाज से अलग-थलग पड़ गये; तब देश गुलाम बन गया ।
और आज भी समाज की स्थित ग्राम्य-स्तर पर इसी प्रकार की परिलक्षित होती है ।
धार्मिक रूढि वादी अनुष्ठानों की आढ़ में वस्तुतः आज भी अन्ध-विश्वास व व्यभिचार पूर्ण मान्यताओं व क्रिया कलापों का सम्पादन ग्राामीण तथा शहरी स्तर पर देखा जा सकता है ।
राजस्थान में एैसा देखने को अधिक मिलता है।
क्योंकि यहाँ राजपूतों में अभिमान पूर्वक अन्धक मान्यताओं को धर्मानुष्ठानों के रूप में बड़ी अनिवार्यता से लागू किया जाता है ।
जहाँ वस्तुतः शिक्षा नहीं होता वहाँ गरीबी तो होती ही है । वहाँ की जनता भी अन्ध-विश्वासी व रूढ़ि वादी परम्पराओं का निर्वहन करती रहती है ।
राजस्थान राजपूतों का प्रथम गढ़ है । जहाँ पाकिस्तान की कुछ सीमाऐं स्पर्श करती हैं।
विदित हो कि राजपूत विदेशीयों का वह वर्ग है।
जिसके अन्तर्गत कुषाण ,हूण , हित्ती, शक , सिथियन, जॉर्जियन तथा पठान आदि थे ।
जिन्हें स्वीडन ,नार्वे से चल कर सुमेरियन बैबीलॉनियन संस्कृतियों से परिपुुष्ट हुए इन ब्राह्मणों ने इस भारत में आगमन काल में अपने ब्राह्मण धर्म के लिए समायोजित किया ।
तब यहाँ भरत, किरात, कोल , भील आदि द्रविड जन-जातियाँ निवास कर रहीं थी ।
यहाँ के इन पूर्व वासीयों को दमन करने के लिए पुरोहित समाज ने इन विदेशीयों का समायोजन क्षत्रियों के रूप में किया।
क्योंकि बुद्ध के प्रादुर्भाव से वैदिक कर्म काण्ड परक ब्राह्मण धर्म मन्द पड़ गया था ।
अत: बौद्ध श्रमणों के विध्वंस के लिए भी एैसा हुआ।
सबने माउण्ट आबू की कथा भाटौं की मुखार बिन्दु से श्रवण की गयी होगी ।
राजपूतों की उत्पत्ति के सम्बन्ध मे इतिहास में दो मत प्रचलित हैं।
कर्नल टोड व स्मिथ आदि के अनुसार राजपूत वह विदेशी जातियाँ है ;
जिन्होंने भारत पर आक्रमण किया था और ---जो ब्राह्मणों के समानान्तर भारत में आये और यहाँ की भरत अथवा व्रात्य ---जो वृत्र से सम्बद्ध थी ।
उन जातियों को परास्त किया ।
वे उच्च श्रेणी के विदेशी राजपूत कहलाए, चन्द्रबरदाई लिखते हैं ।
कि परशुराम द्वारा क्षत्रियों के संपूर्ण विनाश के बाद ब्राह्मणों ने माउण्ट आबू पर यज्ञ किया व यज्ञ कि अग्नि से चौहान, परमार, गुर्जर-प्रतिहार व सोलंकी राजपूत वंश उत्पन्न हुये।
यहाँ गुर्जर शब्द जॉर्जिया (गुर्जिस्तान) से आगत विदेशीयों का रूप है ।
न कि गौश्चर: या गूज़र का वाचक ---जो अहीरों की एक शाखा है।
गुर्जर शब्द की प्राच्य और पाश्चात्य व्युत्पत्ति-पर आगे विश्लेषण (Etymological Analization)किया गया है
उपर्युक्त माउण्ट आबू की घटना को इतिहासकार विदेशियों के हिन्दू समाज में विलय हेतु यज्ञ द्वारा शुद्धिकरण की पारम्परिक घटना के रूप मे देखते हैं।
इन्हीं राजपूतों के रूप में जादौन पठानों को भी वर्गीकृत किया गया हैं ।
---जो राजस्थान में बंजारों की एक शाखा है ।
आज भी भूबड़िया बञ्जारे स्वयं को राजपूतों के रूप में मानते हैं ।
राजपूतों में जादौन जन-जाति तो अपने प्रारम्भिक काल में बञ्जारा वृत्ति का निर्वहन करती थी।
ये जादौन पठान थे ।
ये भी यौद्धा व सहासी तो थे ही ।
इन्होंने स्वयं को यहूदी माना तो बाद में यदुवंशी क्षत्रिय मानने लगे ।
परन्तु यहाँ समस्या यह है कि वैदिक सन्दर्भों में यदुस्तुर्वश्च ( यदु और तुर्वसु को दास स्वीकार किया है । और दास वैदिक सन्दर्भों में असुर अथवा अदैवीय रूप है तथा इन्हें जीतने के लिए पुरोहितों ने इन्द्र से प्रार्थना भी हैं । इस लिए जादौन राजपूत
प्रत्यक्षत: वैदिक यदु से सम्बद्ध नहीं हैं।
क्योंकि दूसरा बडा़ कारण यह है कि जादौन ठाकुर अपने को कभी भी गोपों से सम्बन्धित नहीं मानते हैं ।
जबकि सम्पूर्ण यदुवंश की पृष्ठ-भूमि गोपालन वृत्ति से सम्बद्ध हैं ।
इसके लिए ऋग्वेद की यह प्राचीनत्तम ऋचा प्रमाण भूत है कि यदु को ऋग्वेद में गोप रूप वर्णन किया है ।👇
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद-१० /६२ /१०
इस लिए ब्राह्मणों ने इन्हें राजपूतों के रूप में समायोजित किया।
उस समय जादौन पठानों के कबीलों में अपने रुतबे का इज़हार करने के लिए सामन्तीय अथवा जमीदारीय खिताब के रूप में तक्वुर( tekvur) शब्द का प्रचलन था ।
तब जादौन पठान ईरानी एवं यहूदी विचार धारा से ओत-प्रोत थे ।
यद्यपि मनु (नूह) ए-ब्राहम (ब्रह्मा) विश-नु (देवन) इशहाक( इक्ष्वाकु) इत्यादि नाम भारतीय पुराणों में भी हैं।
ब्राह्मणों को भी ईरानी धर्म-ग्रन्थों में बरहमन कहा गया तथा सुमेरियन पुरातन कथाओं बरम ( Baram )
यहूदीयों की बहुत सी पृथा ब्राह्मणों जैसी थीं ।
क्योंकि देवर -विवाह जिसे लैविरेट (levirate) पृथा के रूप में भी जाना जाता है ।
यहूदीयों में प्रचलित थी ; वह ब्राह्मणों में यथावत् रही ।
परन्तु नियोग पृथा तो ब्राह्मणों की - मौलिक सृष्टि है।
-जैसे बाद में इस्लामीय शरीयत में हलाला की रश्म जो विवाह-विच्छेदन के पुन: समायोजन हेतु ज़िना के तौर पर बनायी गयी ।
परन्तु इस समय पश्चिमीय एशिया तथा भारतीय धरातल पर सर्वत्र ईसाई विचार धारा का बोल-बाला था ।
जादौन शब्द (Joda) शब्द से विकसित हुआ है ।
जिसका अर्थ है यहुदह् अथवा Yehudah की सन्तानें
विदित हो कि ईसाई मज़हब यहूदीयों की विकसित विचार धारा है यह हमने ऊपर बताया ।😘
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यहाँ हम ठाकुर शब्द की व्युत्पत्ति पर भी एक प्रमाण प्रस्तुत करते हैं; कि इसका प्रयोग जादौन पठानों के साथ कब से जुड़ा हुआ है?
देखें नीचें (तुर्की ऐैतिहासिक विवरणों से उद्धृत तथ्य )👇
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Origin and meaning of tekvur name in pathan Tribes...
The Turkish name, Tekfur Saray, means "Palace of the Sovereign" from the Persian word meaning "Wearer of the Crown".
It is the only well preserved example of Byzantine domestic architecture at Constantinople.
The top story was a vast throne room. The facade was decorated with heraldic symbols of the Palaiologan Imperial dynasty and it was originally called the House of the Porphyrogennetos - which means "born in the Purple Chamber".
It was built for Constantine, third son of Michael VIII and dates between 1261 and From Middle Armenian (թագւոր ) (tʿagwor) टैंगॉर , from Old Armenian թագաւոր (tʿagawor). Attested in Ibn Bibi's works...... (Classical Persian) /tækˈwuɾ/ (Iranian Persian) /tækˈvoɾ/ تکور • (takvor) (plural تکورا__ن_
हिन्दी उच्चारण ठक्कुरन)
(takvorân) or تکورها (takvor-hâ)) alternative form of Persian in Dehkhoda Dictionary
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तुर्कों की कुछ शाखाऐं सातवीं से बारहवीं सदी के बीच में मध्य एशिया से यहाँ हिन्दुस्तान में आकर बसीं।
इससे पहले यहाँ से पश्चिम में देव संस्कृति के अनुयायी आर्य(आयोनियन , हेलेनिक) और पूर्व में कॉकेशियाइ जातियों का बसाव रहा था।
भारत में हर्षवर्धन (590-647 ई० सन्) प्राचीन भारत में एक कान्यकुब्ज (कन्नौज) का राजा था ;
जिसने उत्तरी भारत में अपना एक सुदृढ़ साम्राज्य स्थापित किया था ;
उसके राज्यविस्तार के पतन के बाद यहाँ विदेशीयों विशेषत: हूणों ,कुषाणों , तुर्कों एवं सीथियन (Scythian) जन-जातियाें का राजपूतीकरण हुआ । और फिर नये सिरे से ब्राह्मणों की कर्म काण्ड परक वैदिक क्रियाऐं प्रारम्भ हुईं।🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺🌺
इन राजपूतों में सिन्धु और अफगानिस्तान के गादौन / जादौन पठानों की भी बड़ी संख्या थी।
ठाकुर शब्द के मूल रूप के विषय में हम आपको बताऐं! कि तुर्किस्तान में (तेकुर अथवा टेक्फुर ) परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी।
ये लोग तुर्की होने से खाँन अथवा पठान अथवा तक्वुर tekvur टाइटल लगाते थे ।
बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द ही संस्कृत भाषा में ठक्कुर शब्द के रूप में उदित हुआ ।
संस्कृत शब्दकोशों में इसे ठक्कुर के रूप में लिखा गया है। कुछ समय तक ब्राह्मणों के लिए भी इसका प्रयोग किया जाता रहा है ।
क्योंकि ब्राह्मण भी जागीरों के मालिक होते थे ।
जो उन्हें राजपूतों द्वारा दान रूप में मिलती थी। और आज भी गुजरात तथा पश्चिमीय बंगाल में ठाकुर ब्राह्मणों की ही उपाधि है।
तुर्की ,ईरानी अथवा आरमेनियन भाषाओ का तक्वुर शब्द एक जमींदारों की उपाधि थी ।
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समीप वर्ती उस्मान खलीफा के समय का हम इस सन्दर्भों में उल्लेख करते हैं। कि " जो तुर्की राजा स्वायत्त अथवा अर्द्ध स्वायत्त होते थे ; वे ही तक्वुर अथवा ठक्कुर कहलाते थे " उसमान खलीफ का समय (644 - 656 ) ईस्वी सन् के समकक्ष रहा है भारत में यहाँ हर्षवर्धन का शासन तब क्षीण होता जा रहा था ।
बौद्ध श्रमणों के पलायन तथा संहार के लिए पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मण ब्राह्मण धर्म के विस्तार के लिए विदेशीयों को सम्मोहित कर रहे थे ।
उस्मान फलीफा के नैतृत्व में इस्लामीय विचार धाराओं का प्रसार पश्चिमीय एशिया में निरन्तर हो रही था ।
उस्मान को शिया लोग ख़लीफा मानने को तैयार नहीं
थे।
सत्तर साल के तीसरे खलीफा उस्मान (644- से 656 राज्य करते रहे हैं) उनको एक धर्म प्रशासक के रूप में निर्वाचित किया गया था। उन्होंने राज्यविस्तार के लिए अपने पूर्ववर्ती शासकों- की नीति प्रदर्शन को जारी रखा ।
इन्हीं के मार्ग दर्शन में तुर्कों ने इस्लामीय मज़हब को स्वीकार किया।
ठाकुर शब्द विशेषत तुर्की अथवा ईरानी संस्कृति में अफगानिस्तान के पठान जागीर-दारों में भी प्रचलित था
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पख़्तून लोक-मान्यता के अनुसार यही जादौन पठान जाति ‘बनी इस्राएल’ यानी यहूदी वंश की है। इस कथा की पृष्ठ-भूमि के अनुसार पश्चिमी एशिया में असीरियन साम्राज्य के समय पर लगभग 2800 साल पहले बनी-इस्राएल के दस कबीलों को देश -निकाला दे दिया गया था।
और यही कबीले पख़्तून थे ।
मुग़ल काल में भी अकबर से लेकर अन्तिम मुग़ल बादशाह बहादुर शाह जफ़र तक , हर मुग़ल शासक अकबर के बाद और तक़रीबन सारे बादशाह राजपूत कन्याओ से ही पैदा हुए ।
-जैसे जहाँगीर , शाहजहाँ , औरंगजेब आदि ।
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विदित हो कि मुस्लिम काल में हजारों राजपूतो ने इस्लाम स्वीकार किया -और कुछ इस्लामीय विचार धाराओं के खिलाफ रहे ।
इस्लाम धर्म स्वीकार करने वाले राजपूत
जैसे- कायमखानी , खानजादे , मेव ,रांघड , चीता , मेहरात , राजस्थान के रावत जो फिर हिन्दू बन गए आदि सब राजपूत मुस्लमान ही तो है।
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और जादौन अफगानिस्तान मूल के ईरानी यहूदीयों का कबीला था ।
---जो सातवीं सदी के आसपास कुछ मुसलमान हो गये मणिकार अथवा पण्यचारी का व्यवसाय करने वाले मनिहार तथा बंजारे भी थे ।
---जो हिन्दू भी हैं और मुसलमान भी अत: राजस्थान के बंजारा समाज में जादौन कबीला भी है । जिनका ऐैतिहासिक विवरण निम्न है👇
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As Follows (1) Dharawat (2)ghuglot (3)Badawat (4) Boda (5)Malod (6)Ajmera (7) Padya (8)Lakhavat (9) Nulawat... All the above Come under the jadon (jadhav) Sub-Group of the Charan Banjara also called as Gormati in the area. from the same area among the Labhana banjara the following clan are reported : 1- kesharot 2-dhirbashi 3- Gurga 4- Rusawat 5- Meghawat 6- khachkad 7-Pachoriya 8 Alwat 9- khasawat 10 bhokan 11- katakwal 12- Dhobda 13 Machlya 14 -khaseriya 15-Gozal 16- borya 17- Ramawat 18 Bhutiya 19 Bambholya 20 Rethiyo 21-Majawat the Rathor and jadon are Charan banjara are more common in the area Among the sonar Banjara clan names like medran are found but the type is rare. A Sub-Group by name Banjara (the drum -beater are also found in the pusad area having topical clan names like (1) Hivarle, ( 2) karkya (3)Failed (4) Shelar (5) kamble (6) Deopate (7) Dhawale. These clan names unlike the other given above Do not sound akin to Rajput clan names and are similar to those among the pardhan or other lower castes in the area who are traditionally enged in drum- beating at the time marriage or other ceremonies. it is likely that these lower castes were assimilated in the Banjara community as there drum-beater or the lowest in ranks among the Banjara adopted the function along with the clan names/surnames of the local lower castes engaged in the function. Rathod is also used as a clan name among the Gormati Banjaras which is very common another common surname is jadhav which sound akin the Maratha surname in Maharashtra. madren is a clan name reported from the Sonar Banjara....
हिन्दी अनुवाद:---निम्नलिखित के अनुसार (1) धारवत (2) घुह्लोट (3) बदावत (4) बोडा (5) मालोड (6) अजमेरा (7) पद्या (8) लखवत (9) नुलावत ... उपरोक्त सभी चरन बंजारा के जादौन (जाधव) उप-समूह के तहत आते हैं । जिन्हें क्षेत्र में गोर्मती भी कहा जाता है। लैबाना (लभाना) बंजारा के बीच एक ही क्षेत्र से निम्नलिखित कबीलों की सूचना दी गई है: 1- केशारोट 2-धीरबाशी 3- गुड़गा 4- रसवत 5- मेघावत 6- खचकड़ 7-पचोरिया 8 अलवत 9- खसावत 10 भोकन 11- कटकवाल 12- ढोबा 13 मच्छिया 14-चेकेसरिया 15-गोज़ल (गोयल) 16- बोर्य 17- रामावत 18 भूटिया 1 9 बंबोल्या 20 रेथियो 21-माजावत आदि.. राठौर और जादौन क्षेत्र में चारन बंजारा अधिक आम हैं सोनार बंजारा कबीले के नाम जैसे मेद्रान में पाए जाते हैं लेकिन यह प्रकार दुर्लभ है। बंजारा नाम से एक उप-समूह (ड्रम -बीटर नगाड़ा बजाने वाला ) पुसाड क्षेत्र में भी पाए जाते हैं ; जिसमें सामयिक कबीलों के नाम होते हैं (1) हिवरले, (2) करका (3) असफल (4) शेलर (शिलार) (5) कॉम्बले (6) द्योपेत ( 7) धवले। ऊपर दिए गए दूसरे के विपरीत ये कबीले नाम राजपूत कबीले के नामों की तरह नहीं लगते हैं और वे उस क्षेत्र में क्षमा या अन्य निचली जातियों के समान हैं जो पारम्परिक रूप से शादी या अन्य समारोहों में ड्रम को पीटते हैं।
यह सम्भावना है कि बंजारा समुदाय में इन निचली जातियों को समेकित (समायोजित) किया गया था क्योंकि बंजारा के बीच ड्रम-बीटर या सबसे कम रैंक समारोह में लगे स्थानीय निचली जातियों के कबीलों के नामों / उपनामों के साथ समारोह को अपनाया था।
राठोड़ और जादौन गोर्मती के बीच एक कबीले के नाम के रूप में भी प्रयोग किया जाता है।
जो कि आम बात है, एक आमनाम जाधव है ।
जो महाराष्ट्र में मराठा उपनाम जैसा लगता है। जादौन पठान---जो अफगानिस्तानी मूल के उनमें मणिकार अथवा मनिहार भी बंजारा वृत्ति से जीवन यापन करते थे ।
पश्चिमीय एशिया के यहूदीयों के ऐैतिहासिक दस्ताबेज़ों में यहूदीयों को सोने - चाँदी तथा हीरे जवाहरात का सफल व्यापारी भी बताया गया है मदर सोनार बंजारा से एक कबीले का नाम है जादौन ।
मिश्र में कॉप्ट Copt यहूदीयों की सोने -चाँदी का व्यवसाय करने वाली शाखा है।
जो भारतीय गुप्ता वार्ष्णेय गोयल आदि यदुवंशी वैश्य शाखा से साम्य परिलक्षित करती है। मनिहार-- मनिहार (अंग्रेजी: Manihar) हिन्दुस्तान में पायी जाने वाली एक मुस्लिम बिरादरी की जाति है। इस जाति के लोगों का मुख्य पेशा चूड़ी बेचना है। इसलिये इन्हें कहीं-कहीं चूड़ीहार भी कहा
जाता है। मुख्यतः यह जाति उत्तरी भारत और पाकिस्तान के सिन्ध प्रान्त में पायी जाती है।
यूँ तो नेपाल की तराई क्षेत्र में भी मनिहारों के वंशज मिलते हैं। ये लोग अपने नाम के आगे जातिसूचक शब्द के रूप में अब प्राय: सिद्दीकी ही लगाते हैं।
मुसलमान होने से.. मणिकार अथवा पण्यचारि दौनों शब्द वैदिक हैं -
--जो कालान्तरण में मनिहार तथा बंजारा रूप में परिवर्तित हुए ।
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उत्पत्ति का इतिहास-- इन जातियों की उत्पत्ति के विषय में दो सिद्धान्त हैं ; एक भारतीय, दूसरा मध्य एशियाई।
भारतीय सिद्धान्त के अनुसार ये मूलत: राजपूत थे जो सत्ता को त्याग कर मुसलमान बने। इसका प्रमाण यह है कि इनकी उपजातियों के नाम राजपूत उपजातियों से काफी कुछ मिलते हैं जैसे-भट्टी, सोलंकी, चौहान, बैसवारा, जादौन आदि।
इसीलिये इनके रीति रिवाज़ हिन्दुओं से मिलते हैं; दूसरी ओर मध्य एशियाई सिद्धान्त के अनुसार ये वो लोग है जिनका गजनी में शासकों के यहाँ घरेलू काम करना था ; और इनकी महिलायें हरम की देखभाल करती थी जो 1000 ई० में महमूद गज़नवी क़े साथ भारत आये और फिरोजाबाद के आस-पास नारखी, बछिगाँव आदि के क्षेत्रों में बस गये।
इन पठानों की कुछ उपजातियाँ --- (1)शेख़ (2) इसहानी, (3) कछानी, (4) लोहानी, (5) शेख़ावत, (6) ग़ोरी, (7) कसाउली, (8) भनोट, (9) चौहान, (10) पाण्ड्या, (11) मुग़ल, (12) सैय्यद, (13) खोखर, (14) बैसवारा और (15) राठी (16) गादौन अथवा जादौन । पश्चिमीय पाकिस्तान तथा अफगानिस्तान के पठानों में जादौन पठानों की एक शाखा है जिसकी कद- काठी जादौन राजपूतों तथा जादौन बन्जारों से मिलती है ।
-जो पश्तो भाषा बोलते हैं - जैसे राजस्थानी पिंगल डिंगल उपभाषाओं के सादृश्य- पश्तून लोगों के प्राचीन इस्राएलियों के वंशज होने की अवधारणा-- पश्तून लोगों के प्राचीन इस्राएलियों के वंशज होने की अवधारणा ।
(Theory of Pashtun descent from Israelites)
19 वीं सदी के बाद से बहुत से पश्चिमी इतिहासकारों में एक विवाद का विषय बना हुआ है।
पश्तून लोक मान्यता के अनुसार यह समुदाय इस्राएल के उन दस क़बीलों का वंशज है; जिन्हें लगभग २,८०० साल पहले असीरियाई साम्राज्य के काल में देश-निकाला मिला था।
सम्भवत वैदिक सन्दर्भों में दाशराज्ञ वर्णन इसकी संकेत है ।
ऐैतिहासिक विवरण के सन्दर्भों में - पख़्तूनों के बनी इस्राएल होने की बात सोलहवीं सदी ईस्वी में जहाँगीर के काल में लिखी गयी किताब “मगज़ाने अफ़ग़ानी” में भी मिलती है।
अंग्रेज़ लेखक अलेक्ज़ेंडर बर्न ने अपनी बुख़ारा की यात्राओं के बारे में सन् १८३५ में भी पख़्तूनों द्वारा ख़ुद को बनी इस्राएल मानने के बारे में लिखा है। यद्यपि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल तो कहते हैं लेकिन धार्मिक रूप से वह मुसलमान हैं, यहूदी नहीं।
अलेक्ज़ेंडर बर्न ने ही पुनः सन् 1837 में लिखा कि जब उसने उस समय के अफ़ग़ान राजा दोस्त मोहम्मद से इसके बारे में पूछा तो उसका जवाब था ; कि उसकी प्रजा बनी इस्राएल है ।
इसमें कोई सन्देह नहीं ! लेकिन इसमें भी सन्देह नहीं कि वे लोग मुसलमान हैं एवं आधुनिक यहूदियों का समर्थन नहीं करते हैं।
विलियम मूरक्राफ़्ट ने भी १८१९ व १८२५ के बीच भारत, पंजाब और अफ़्ग़ानिस्तान समेत कई देशों के यात्रा-वर्णन में लिखा कि पख़्तूनों का रंग, नाक-नक़्श, शरीर आदि सभी यहूदियों जैसा है।
यहूदी होने से ये स्वयं को जूडान अथवा जादौन पठान कहते हैं ।
इधर भारतीय जादौन समुदाय भी स्वयं को यदुवंशी कहता है ।
जे. बी . फ्रेज़र ने अपनी १८३४ की 'फ़ारस और अफ़्ग़ानिस्तान का ऐतिहासिक और वर्णनकारी वृत्तान्त' नामक किताब में कहा कि पख़्तून ख़ुद को बनी इस्राएल मानते हैं और इस्लाम अपनाने से पहले भी उन्होंने अपनी धार्मिक शुद्धता को बरकरार रखा था। जोसेफ़ फ़िएरे फ़ेरिएर ने सन् 1858 ईस्वी में अपनी अफ़ग़ान इतिहास के बारे में लिखी किताब में कहा कि वह पख़्तूनों को बनी इस्राएल मानने पर उस समय मजबूर हो गया ;जब उसे यह जानकारी मिली कि नादिरशाह भारत-विजय से पहले जब पेशावर से गुज़रा तो यूसुफ़ज़ाई कबीले के प्रधान ने उसे इब्रानी भाषा (हिब्रू) में लिखी हुई बाइबिल व प्राचीन उपासना में उपयोग किये जाने वाले कई लेख साथ भेंट किये।
इन्हें उसके ख़ेमे में मौजूद यहूदियों ने तुरंत पहचान लिया। जार्ज मूरे द्वारा इस्राएल की दस खोई हुई जातियों के बारे में जो शोधपत्र 1861 में प्रकाशित किया गया है, उसमे भी उसने स्पष्ट लिखा है कि बनी इस्राएल की दस खोई हुई जातियों को अफ़ग़ानिस्तान व भारत के अन्य हिस्सों में खोजा जा सकता है ।
वह लिखता है कि उनके अफ़्गानिस्तान में होने के पर्याप्त सबूत मिलते हैं। और वह आगे यह भी लिखता है कि पख्तून की सभ्यता संस्कृति, उनका व उनके ज़िलों ,गावों आदि का नामकरण सभी कुछ बनी इस्राएल जैसा ही है।
ॠग्वेद के चौथे खंड के 44 वें सूक्त की ऋचाओं में भी पख़्तूनों का वर्णन ‘पृक्त्याकय अर्थात् (पृक्ति आकय) नाम से मिलता है ।
इसी तरह ऋग्वेद के तीसरे खण्ड की 91 वीं ऋचा में आफ़रीदी क़बीले का ज़िक्र ‘आपर्यतय’ के नाम से मिलता है।
भारत में कान्यकुब्ज के राजा हर्षवर्धन के उपरान्त कोई भी ऐसा शक्तिशाली राजा नहीं हुआ जिसने भारत के बृहद भाग पर एकछत्र राज्य किया हो।
इस युग मे भारत अनेक छोटे बड़े राज्यों में विभाजित हो गया जो आपस मे लड़ते रहते थे।
तथा इसी समय के शासक राजपूत कहलाते थे ; तथा सातवीं से बारहवीं शताब्दी के इस युग को राजपूत युग कहा गया है। राजपूतों के दो विशेषण और हैं ठाकुर और क्षत्रिय ये ब्राह्मणों द्वारा प्रदत्त उपाधियाँ हैं।
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कर्नल टोड व स्मिथ आदि विद्वानों के अनुसार राजपूत वह विदेशी जन-जातियाँ है ।
जिन्होंने भारत के आदिवासी जन-जातियों पर आक्रमण किया था ; और अपनी धाक जमाकर कालान्तरण में यहीं जम गये इनकी जमीनों पर कब्जा कर के जमीदार के रूप "
और वही उच्च श्रेणी में वर्गीकृत होकर राजपूत कहलाए ।
ब्राह्मणों ने इनके सहयोग से अपनी कर्म काण्ड परक धर्म -व्यवस्था कायम की और बौद्ध श्रमणों के विरुद्ध प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से युद्ध छेड़ दिया ।
बारहवीं सदी में
"चंद्रबरदाई लिखता हैं कि परशुराम द्वारा क्षत्रियों के सम्पूर्ण विनाश के बाद ब्राह्मणों ने माउंट-आबू पर्वत पर यज्ञ किया व यज्ञ कि अग्नि से चौहान, परमार, प्रतिहार व सोलंकी आदि राजपूत वंश उत्पन्न हुये।
इसे इतिहासकार विदेशियों के हिन्दू समाज में विलय हेतु यज्ञ द्वारा शुद्धिकरण की पारम्परिक घटना के रूप में देखते हैं " जितने भी ठाकुर उपाधि धारक हैं वे राजपूत ब्राह्मणों की इसी परम्पराओं से उत्पन्न हुए हैं ।
सत्य का प्रमाणीकरण इस लिए भी है कि ठाकुर शब्द तुर्कों की जमींदारीय उपाधि थी।
और संस्कृत भाषा में भी ठक्कुर शब्द जमीदार का विशेषण है ।
संस्कृत ग्रन्थ अनन्त संहिता में श्री दामनामा गोपाल: श्रीमान सुन्दर ठक्कुर: का उपयोग भी किया गया है, जो भगवान कृष्ण के सन्दर्भ में है।
यह समय बारहवीं सदी ही है । इसके कुछ समय बाद पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय में श्रीनाथजी के विशेष विग्रह के साथ कृष्ण भक्ति की जाने लगी । जिसे ठाकुर जी सम्बोधन दिया गया । पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय का जन्म पन्द्रवीं सदी में हुआ है । और यह शब्द का आगमन छठी से बारहवीं सदी में तक्वुर शब्द के रूप में और भारतीय धरा पर इसका प्रवेश तुर्कों के माध्यम से हुआ ।
वल्लभाचार्य भक्तिकालीन सगुणधारा की कृष्णभक्ति शाखा के आधार स्तम्भ एवं पुष्टिमार्ग के प्रणेता माने जाते हैं।
जिनका प्रादुर्भाव ईः सन् 1479, वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षिण भारत के कांकरवाड ग्रामवासी तैलंग ब्राह्मण श्री लक्ष्मणभट्ट जी की पत्नी इलम्मागारू के गर्भ से काशी के समीप हुआ।
इन्होंने ने ही कृष्ण के विग्रह को ठक्कुर नाम दिया।
महमूद गजनबी ने 1000-1030 र्इ. और मुहम्मद गोरी ने 1175-1205 र्इ०सन् के मध्य भारत पर आक्रमण किए थे ; ये भी मंगोलियन तुर्की थे ।
तभी से तक्वुर ,ठक्कुर रूप धारण कर संस्कृत भाषा में समाविष्ट हो गया था ।
और इसका प्रचलन विस्तारित रूव से तक्वुर tekvur खिताब के तौर पर 16 वीं सदी की संस्कृत भाषा में ठक्कुर शब्द रूप में ;
संस्कृत और फारसी बहिन बहिन होने से जादौन लोगों की बोली (क्षेत्रिय भाषा) डिंगल और पिंगल प्रभाव वाली राजस्थानी व्रज उपभाषा का ही रूप है ।
जो राजस्थान करौली( कुकुरावली) क्षेत्रों की रही है । और जादौन पठानों की भाषा पश्तो , पहलवी पर जिनका पूरा प्रभाव है ।
जादौन पठान यहूदीयों की शाखा होने से यदुवंशी तो हैं ही ।
परन्तु गोपों या अहीरों से स्वयं को सम्बद्ध न मानना इनको जादौन पठानों की भारतीय शाखा सूचित करता है ।
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ये कहते हैं कि हमारा गोपों से कोई सम्बन्ध नहीं है परन्तु इतिहास कार अहीरों को ही यादव मानने के पक्ष में ।
क्योंकि यादव ही सदीयों से गोपालन करने वाले रहे हैं । इसी लिए गोप विशेषण केवल यादवों को रूढ़ हो गया । संस्कृत भाषा में गोप शब्द का अर्थ:- (गां गौर्जातिं पाति रक्षतीति गोप: ।
(गो पा कः) जातिविशेषः यादव । गोयल इति हिन्दी भाषा में॥
तत् पर्य्यायः १ गोसंख्यः २ गोधुक् ३ आभीरः ४ वल्लवः ५ गोपालः ६ गोप:। इति अमरःकोश ।२।९ ।५७
अमरकोशः में गोप के पर्याय वाची रूप हैं ।
गोसंख्य ,गोधुक, अहीर,वल्लभ (जाट) , गौश्चर: (गुर्जर)
हम आप को बताऐं कि अमरकोश संस्कृत के कोशों में अति लोकप्रिय और प्रसिद्ध है।
इसे विश्व का पहला समान्तर कोश (थेसॉरस्) कहा जा सकता है।
इसके रचनाकार अमरसिंह बताये जाते हैं जो चन्द्रगुप्त द्वितीय (चौथी शब्ताब्दी) के नवरत्नों में से एक थे।
कुछ लोग अमरसिंह को विक्रमादित्य (सप्तम शताब्दी) का समकालीन बताते हैं।
इस कोश में प्राय: दस हजार नाम हैं, जहाँ मेदिनी में केवल साढ़े चार हजार और हलायुध में आठ हजार हैं। इसी कारण पण्डितों ने इसका आदर किया और इसकी लोकप्रियता बढ़ती गई।
और अमर सिंह ने आभीर तथा गोप परस्पर पर्याय वाची रूप में वर्णित कर यादवों के व्यवसाय परक विशेषण माने हैं । परन्तु हिन्दू समाज की रूढि वादी ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था में तो देखिए! कि यहाँ अहीरों को क्षत्रिय कभी नहीं माना जाना !
निश्चित रूप में यादवों के इतिहास को विकृत करने में हिन्दू धर्म के उन ठेकेदारों का हाथ है ।
स्मृति-ग्रन्थों का निर्माण रूढि वादी ब्राह्मणों ने की है । जिनमें आँशिक नैतिक मूल्यों की आढ़ में अनेक अनैतिकताओं से पूर्ण बातों का भी समायोजन कर दिया गया है ।
गोपों की काल्पनिक मनगढ़न्त व्युत्पत्ति का वर्णन स्मृति-ग्रन्थों में भिन्न भिन्न प्रकार से है ।
कहीं “मणिबन्ध्यां तन्त्रवायात् गोपजातेश्च सम्भवः ” इति पराशरपद्धतिः ॥
अर्थात् मणि बन्ध्या में तन्त्रवाय्यां से गोप उत्पन्न हुए! तो मनु-स्मृति कार कहीं गोपों का वर्णन बहेलियों , चिड़ीमार , कैवट , तथा साँप पकड़ने वालों के साथ वनचारियों के रूप में वर्णित किया है।
मनुः स्मृति में अध्याय -८ / २६० / “व्याधाञ्छाकुनिकान् गोपान् कैवर्त्तान् मूल खानकान् ।
व्यालग्राहानुञ्छवृत्तीनन्यांश्च वनचारिणः )
अहीरों या गोपों ने ब्राह्मणों की इस अवैध -व्यवस्था को स्वीकार नहीं किया ।
इनकी गुलामी (दासता) स्वीकार न करके दस्यु अथवा विद्रोही बनना स्वीकार कर लिया है !
आइए देखें--- यादवों को कैसे वीर अथवा यौद्धा जन जाति से शूद्र बनाया गया है ?
एक वार सभी अहीर वीर इस सन्देश को ध्यान पूर्वक पढ़ें! और उसके वाद सुझावात्मक प्रति क्रिया दें ! आपका भाई यादव योगेश कुमार 'रोहि'
ग्राम-आज़ादपुर
पत्रालय-पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़-उ०प्र०
ब्राह्मण समाज तथा ख़ुद को असली यदुवंशी क्षत्रिय कहने वाले जादौन तथा अन्य राज-पूत सभी अहीरों को यादव नहीं मानते हैं और उन्हें चोर , लुटेरा मानकर परोक्ष रूप में गालियाँ देते रहते हैं अहीरों के विषय में ये कहते हैं कि अहीरों अथवा गोपों ने प्रभास क्षेत्र में यदुवंशी स्त्रीयों सहित अर्जुन को लूट लिया था ।
इस लिए ये गोप यदुवंशी नहीं होते हैं ।
अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि गोपों ने प्रभास क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर गोपिकाओं को क्यों लूट लिया था ? और अहीरों के यदुवंशी न होने के लिए ये इसी बात को प्रमाणों के तौर पर पेश करते हैं ।
अब हम इसी प्रश्न का पौराणिक सन्दर्भों पर आधारित उत्तर प्रस्तुत करते हैं !
गोपों ने अर्जुन को इसलिए परास्त कर लूटा ---
एक दिन जब दुर्योधन श्री कृष्ण से भावी युद्ध के लिए सहायता प्राप्त करने हेतु द्वारिकापुरी जा पहुँचा। जब वह पहुँचा उस समय श्री कृष्ण निद्रा मग्न थे ;अतएव वह उनके सिरहाने जा बैठा !
इसके कुछ ही देर पश्चात पाण्डु पुत्र अर्जुन भी इसी कार्य से उनके पास पहुँचा !
और उन्हें सोया देखकर उनके पैताने बैठ गया।
जब श्री कृष्ण की निद्रा टूटी तो पहले उनकी दृष्टि अर्जुन पर पड़ी। पहली दृष्टि का फल---- अर्जुन से कुशल क्षेम पूछने के भगवान कृष्ण ने उनके आगमन का कारण पूछा।
अर्जुन ने कहा, “भगवन्! मैं भावी युद्ध के लिये आपसे सहायता लेने आया हूँ।” अर्जुन के इतना कहते ही सिरहाने बैठा हुआ दुर्योधन बोल उठा, “हे कृष्ण! मैं भी आपसे सहायता के लिये आया हूँ।
क्योंकि मैं अर्जुन से पहले आया हूँ इसलिये सहायता माँगने का पहला अधिकार मेरा है।
” दुर्योधन के वचन सुनकर भगवान कृष्ण ने घूमकर दुर्योधन को देखा और कहा, “हे दुर्योधन!
मेरी दृष्टि अर्जुन पर पहले पड़ी है, और तुम कहते हो कि तुम पहले आये हो।
अतः मुझे तुम दोनों की ही सहायता करनी पड़ेगी। मैं तुम दोनों में से एक को अपनी पूरी सेना दे दूँगा और दूसरे के साथ मैं स्वयं रहूँगा।
किन्तु मैं न तो युद्ध करूँगा और न ही शस्त्र धारण करूँगा।
अब तुम लोग निश्चय कर लो कि किसे क्या चाहिये ? अर्जुन ने श्री कृष्ण को अपने साथ रखने की इच्छा प्रकट की जिससे दुर्योधन प्रसन्न हो गया क्योंकि वह तो श्री कृष्ण की विशाल गोप यौद्धाओं की नारायणी सेना लेने के लिये ही आया था।
इस प्रकार श्री कृष्ण ने भावी युद्ध के लिये दुर्योधन को अपनी एक अक्षौहिणी नारायणी सेना दे दी और स्वयं पाण्डवों के साथ हो गये।
अब हम घटना काआगे वर्णन करने से पूर्व एक अक्षौहिणी सेना का मान बताते हैं -- 21870 रथ तथा 21870 हाथी तथा 65610 अश्वारोहि तथा 109350 पदाति ( पैदल सैनिक ) यह एक अक्षौहिणी सेना का मान होता था ।
संस्कृत भाषा जिसकी व्युत्पत्ति- इस प्रकार वर्णित है👇 अक्ष ऊहः समूहः संविकल्पकज्ञानं वा सोऽस्यामस्ति इनि, अक्षाणां रथानां सर्व्वेषामिन्द्रियाणाम् “वा ऊहिनीणत्वं वृद्धिश्च । रथगजतुरङ्गपदाति संख्याविशेषान्विते सेनासमूहे । “अक्षौहिण्यामित्यधिकैः सप्तत्या चाष्टभिः शतैः । संयुक्तानि सहस्राणि गजानामेकविंशतिः।
एवमेव रथानान्तु संख्यानं कीर्त्तितं बुधैः ।
पञ्चषष्टिः सहस्राणि षट् शतानि दशैव तु । संख्यातास्तुरगास्तज्ज्ञैर्विना रथ्यतुरङ्गमैः ।
नॄणां शतसहस्रं तु सहस्राणि न वैवतु ।
शतानि त्रीणिचान्यानि पञ्चाशच्च पदातय इति ।
गोपों की अक्षौहिणी सेना में कुछ गोप यौद्धाओं का संहार भी हुआ ।
और कुछ शेष भी बच गए थे इन्हीं गोपों ने प्रभास क्षेत्र में परास्त कर गोपिकाओं सहित लूट लिया था 👇।
इसी बात को बारहवीं शताब्दी में रचित ग्रन्थ -भागवत पुराण के प्रथम अध्याय स्कन्ध एक में श्लोक संख्या 20 में आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द के प्रयोग द्वारा अर्जुन को परास्त कर लूट लेने की घटना का वर्णन किया गया है । इसे भी देखें---👇 _________________________________________
"सो८हं नृपेन्द्र रहित: पुरुषोत्तमेन सख्या प्रियेण सुहृदा हृदयेन शून्य: ।।
अध्वन्युरूक्रम परिग्रहम् अंग रक्षन् ।
गौपै: सद्भिरबलेव विनिर्जितो८स्मि ।२०।
हे राजन् ! जो मेरे सखा अथवा प्रिय मित्र -नहीं ,नहीं मेरे हृदय ही थे ; उन्हीं पुरुषोत्तम कृष्ण से मैं रहित हो गया हूँ ।
कृष्ण की पत्नीयाें को द्वारिका से अपने साथ इन्द्र-प्रस्थ लेकर आर रहा था ।
परन्तु मार्ग में दुष्ट गोपों ने मुझे एक अबला के समान हरा दिया।
और मैं अर्जुन कृष्ण की गोपिकाओं अथवा वृष्णि वंशीयों की पत्नीयाें की रक्षा नहीं कर सका! (श्रीमद्भगवद् पुराण अध्याय एक श्लोक संख्या २०)
पृष्ठ संख्या --१०६ गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण देखें- इसी बात को महाभारत के मूसल पर्व अष्टम् अध्याय में वर्णन किया है परन्तु निश्चित रूप से यहाँ पर युद्ध की पृष्ठ-भूमि का वर्णन ही नहीं है अत: यह प्रक्षिप्त नकली श्लोक हैं। देखें👇
ततस्ते पापकर्माणो लोभोपहतचेतस ।
आभीरा मन्त्रामासु समेत्यशुभ दर्शना ।।
अर्थात् उसके बाद उन सब पाप कर्म करने वाले लोभ से युक्त अशुभ दर्शन अहीरों ने अापस में सलाह करके एकत्रित होकर वृष्णि वंशीयों गोपों की स्त्रीयों सहित अर्जुन को परास्त कर लूट लिया ।।
महाभारत मूसल पर्व का अष्टम् अध्याय का यह 47 श्लोक है।
महाभारत के मूसल पर्व में गोप के स्थान पर आभीर शब्द का प्रयोग सिद्ध करता है। कि गोप शब्द ही अहीरों का विशेषण है।
हरिवंश पुराण यादवों का गोप (अहीर) अथवा आभीर रूप में ही वर्णन करता है ।
यदुवंशीयों का गोप अथवा आभीर विशेषण ही वास्तविक है ; क्योंकि गोपालन ही इनकी शाश्वत वृत्ति (कार्य) वंश परम्परागत रूप से आज तक अवशिष्ट रूप में मिलती है ।
अर्जुन के प्रति यादवों का दूसरा बड़ा विरोध का कारण सुभद्रा का हरण था ---- जब एक बार वृष्णि संघ, भोज और अन्धक वंश के समस्त यादव लोगों ने रैवतक पर्वत पर बहुत बड़ा उत्सव मनाया।
इस अवसर पर हज़ारों रत्नों और अपार सम्पत्ति का दान -गरीबों को दिया गया।
बालक, वृद्ध और स्त्रियाँ सज-धजकर घूम रही थीं। अक्रूर, सारण, गद, वभ्रु, विदूरथ, निशठ, चारुदेष्ण, पृथु, विपृथु, सत्यक, सात्यकि, हार्दिक्य, उद्धव, बलराम तथा अन्य प्रमुख यदुवंशी अपनी-अपनी पत्नियों के साथ उत्सव की शोभा बढ़ा रहे थे।
गन्धर्व और बंदीजन उनका विरद बखान रहे थे।
गाजे-बाजे, नाच तमाशे की भीड़ सब ओर लगी हुई थी।
इस उत्सव में कृष्ण और अर्जुन भी बड़े प्रेम से साथ-साथ घूम रहे थे।
वहीं कृष्ण की बहन सुभद्रा भी थीं।
उनकी रूप राशि से मोहित होकर अर्जुन एकटक उनकी ओर देखने लगा।
कदाचित अर्जुन काम-मोहित हो गया ।
एक दिन जब सुभद्रा रैवतक पर्वत पर देवपूजा करने गईं। पूजा के बाद पर्वत की प्रदक्षिणा की। ब्राह्मणों ने मंगल वाचन किया।
जब सुभद्रा की सवारी द्वारका के लिए रवाना हुई,
तब अवसर पाकर अर्जुन ने बलपूर्वक उसे उठाकर अपने रथ में बिठा लिया और अपने नगर की ओर चल दिया। गोप सैनिक सुभद्राहरण का यह दृश्य देखकर चिल्लाते हुए द्वारका की सुधर्मा सभा में गए !
और वहाँ सब हाल कहा।
सुनते ही सभापाल ने युद्ध का डंका बजाने का आदेश दे दिया।
वह आवाज़ सुनकर भोज, अंधक और वृष्णि वंशों के समस्त यादव योद्धा अपने आवश्यक कार्यों को छोड़कर वहां इकट्ठे होने लगे।
सुभद्राहरण का वृत्तान्त सुनकर सभी यादवों की आंखें चढ़ गईं।
उनका स्वाभिमान डगमगाने लगा उन्होंने सुभद्रा का हरण करने वाले अर्जुन को उचित दण्ड देने का निश्चय किया।
कोई रथ जोतने लगा, कोई कवच बांधने लगा, कोई ताव के मारे ख़ुद घोड़ा जोतने लगा, युद्ध की सामग्री इकट्ठा होने लगी। तब बलराम ने विचार किया कि अभी युद्ध का उचित समय नहीं है ।
इसलिए बलराम ने गोपों से कहा- "हे वीर योद्धाओ ! कृष्ण की राय सुने बिना ऐसा क्यों कर रहे हो ?"
फिर उन्होंने कृष्ण से कहा- "जनार्दन!
तुम्हारी इस चुप्पी का क्या अभिप्राय क्या है ?
तुम्हारा मित्र समझकर अर्जुन का यहाँ इतना सत्कार किया गया और उसने जिस पत्तल में खाया, उसी में छेद किया।
यह दुस्साहस करके उसने हम समस्त यादवों को अपमानित किया है।
मैं यह कदापि नहीं सह सकता।
" तब कृष्ण बोले- भाई बलराम
"अर्जुन ने हमारे कुल का अपमान नहीं, सम्मान किया है।
क्योंकि यादवों में तो ये वधू-अपहरण परम्परा है ही उन्होंने हमारे वंश की महत्ता समझकर ही हमारी बहन का हरण किया है।
क्योंकि उन्हें स्वयंवर के द्वारा उसके मिलने में संदेह था।
उसके साथ संबंध करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
सुभद्रा और अर्जुन की जोड़ी बहुत ही सुन्दर होगी।" कृष्ण की यह बात सुन कर कुछ यादव लोग कसमसाए और अर्जुन---से बदला लेने के लिए संकल्प बद्ध हो गये वही नारायणी सेना के गोप रूप में यादव यौद्धा ही थे --- जैसा कि हमने ऊपर वर्णन किया है ।
सन्दर्भित ग्रन्थ-- ↑ महाभारत, आदिपर्व, अ0 217-220 ↑ श्रीमद् भागवत, 10।86।1-12
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गोप निर्भाक होने से ही अभीर कहलाते थे ।
गोप यादवों का व्यवसाय परक विशेषण है ; गो-पालक होने से तथा यादव वंशगत विशेषण है ।
यदु की सन्तान होने से " यदोर्पत्यं इति यादव" और अभीर यादवों का ही स्वभाव गत विशेषण है ।
क्योंकि ये कभी किसी से डरते नहीं हैं ।
हिब्रू बाइबिल में भी इनके इसी विशेषण को अबीर रूप में वर्णित किया है जिसका अर्थ है: वीर ,सामन्त अथवा यौद्धा मार्शलआर्ट का विशेषज्ञ ।
संस्कृत भाषा में अभीर शब्द की व्युत्पत्ति-मूलक विश्लेषण इस प्रकार है👇
अ = नहीं भीर: = भीरु अथवा कायर अर्थात् अहीर या अभीर वह है जो कायर न हो इसी का अण् प्रत्यय करने पर आभीर रूप बनता है ---जो समूह अथवा सन्तान वाची है । इसी लिए दुर्योधन ने इन अहीरों(गोपों) का नारायणी सेना के रूप में चुनाव किया ! और समस्त यादव यौद्धा तो अर्जुन से तो पहले से ही क्रुद्ध थे ! यही कारण था कि ; गोपों (अहीरों)ने अपने इस अपमान का बदला लेने के लिए प्रभास क्षेत्र में अर्जुन को परास्त कर लूट लिया था । क्योंकि नारायणी सेना के ये यौद्धा दुर्योधन के पक्ष में थे और कृष्ण का देहावसान हो गया था और बलदाऊ भी नहीं रहे थे ।
क्योंकि फिर इनको निर्देशन करने वाले बलराम तथा कृष्ण दौनों में से कोई नहीं था ।
फिर तो इन यदुवंशी गोपों ने अर्जुन पर तीव्रता से आक्रमण कर तीर कमानों से उसे परास्त कर दिया बहुत से यादव यौद्धा तो पहले ही आपस में लड़ कर मर गये थे ।
ये केवल कृष्ण से सम्बद्ध थे ।
नारायणी सेना के इन गोपों ने केवल अर्जुन से ही युद्ध किया था ।
नकि कृष्ण की रानियों अथवा यदुवंशी गोपिकाओं के रूप में वधूओं को लूटा था !
लूटपाट के वर्णन अतिरञ्जना पूर्ण व अहीरों के प्रति द्वेष भाव को अभिव्यञ्जित करने वाले लेखकों के हैं । केवल यदुवंश की सभी स्त्रीयों को अर्जुन के साथ न जाने के लिये कहा !
परन्तु ---जो साथ चलने के लिए सहमत नहीं हुईं थी उन्हें प्रताडित कर चलने के लिए कहा !
बहुत सी गोपिकाऐं स्वेैच्छिक रूप से गोपों के साथ वृन्दावन तथा हरियाणा में चलीं गयी ।
यहाँ यह तथ्य भी उद्धरणीय है कि -👇
भगवान कृष्ण ने अपने अवसान काल से पूर्व अर्जुन को निर्देश दिया था कि ---हे अर्जुन आप इन सभी यदु वंशी गोप स्त्रीयों को यादव यौद्धाओं के संहार के पश्चात् अपने साथ ही ले जाना सम्भवत: कृष्ण अर्जुन के साथ गोपियों को जानबूझ कर भेजा था ।
क्योंकि वह इस बात को भली भांति जानते थे कि यादव योद्धा अर्जुन को बिल्कुल भी पसन्द नहीं करते हैं ! जब से उसने सुभद्रा का हरण किया है ।
किन्तु यादवों के बल पौरुष और प्रभाव को अर्जुन इसीलिए झेल पा रहा था क्योंकि उसके साथ भगवान् कृष्ण थे !
किन्तु अर्जुन यह समझता था कि मैं परम शक्तिशाली हूं मैंने नारायणी सेना को भी परास्त कर दिया है । तो ये अर्जुन का भ्रम था ।
नारायणी सेना शान्त थी कृष्ण के प्रभाव से क्योंकि वह कृष्ण की ही सेना थी ! आज उनके इसी अहंकार को तोड़ने के लिए भगवान कृष्ण ने अपने शरीरान्त काल में गोपियों को अर्जुन के साथ भेजा था ; ताकि आज उसका यह अहंकार भी खण्ड खण्ड हो जाए कि अहीरों को भी वह हरा सकता है !
कृष्ण इस तथ्य को भली-भांति जानते थे ; कि अहीर योद्धा अर्जुन को युद्ध में अवश्य ही परास्त कर देंगे और गोपियों को अपने साथ उनको ले जाएंगे और प्रभास क्षेत्र में यही हुआ। और अहीरो को अपने यदुवंश का मान रखना था ।
और इधर कृष्ण का भी मान रखना था । क्योंकि कृष्ण ही नारायणी सेना के अधिपति थे । कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में सर्व-प्रथम सभी के सम्मुख कहा था ये नारायणी सेना अपराजेय है इस पर कोई विजय प्राप्त नहीं कर सकता ; परन्तु उधर कृष्ण पाण्डवों के भी सारथी थे ।
कृष्ण के रथेष्ठा अर्जुन को हराना यदुवंश और कृष्ण के ही मान का घटाना था ।
इसलिए कृष्ण के रहते गोपों ने अर्जुन को कुछ नहीं कहा और अन्त समय में कृष्ण के अवसान काल में गोपों ने अर्जुन का भी मान मर्दन कर दिया और नारायणी सेना के अपराजेयता का संकल्प अहीरों ने अखण्ड बनाए रखा ।
और फिर यादव अथवा अहीर स्वयं ही ईश्वरीय शक्तियों (देवों) के अंश थे ; गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत , हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है ; देखें 👇
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" अंशेन त्वं पृथिव्या वै , प्राप्य जन्म यदो:कुले । भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र , गोपालत्वं करिष्यसि ।१४ अर्थात् अपने अंश से तुम पृथ्वी पर गोप बनकर यादव कुल में जन्म ले ! और अपनी भार्या के सहित अहीरों के रूप में गोपालन करेंगे।।
वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं ! तब प्रभास क्षेत्र में अर्जुन इनका मुकाबला कैसे कल सकता था ? क्योंकि अहीरों का मुकाबला तो त्रेता युग में राम भी नहीं कर पाये थे ।
इति ---
असली यदुवंशी कौन ? (2) अहीर अथवा जादौन भाग दो --
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पुष्य-मित्र सुंग ई०पू०184 के समकालीन पाखण्डी ब्राह्मणों ने वाल्मीकि-रामायण के युद्ध काण्ड के 22 में सर्ग में राम के द्वारा समु्द्र के कहने पर अहीरों को उत्तर में स्थित द्रुमकुल्य देश में अमोघ वाणों से मार दिया था ।
ऐसी काल्पनिक मनगढ़न्त कथाओं का समायोजन किया ।
परन्तु अहीरों को राम फिर भी नहीं मार पाये अत:
यह राम की पराजय ही सिद्ध होती है । क्योंकि अहीर तो आज भी जिन्दा हैं।👇
वास्तविक रूप में माना जाय ये सारी काल्पनिक मनगढ़न्त कथाऐं मात्र हैं जो वाल्मीकि-रामायण में अहीरों को आधार करके लिखी गयी हैं। इस कारण से की इन बातों को सत्य का आधार प्राप्त हो सके ।
यद्यपि अवान्तर काल में बहुत सी काल्पनिक घटनाओं का समायोजन पुराणों के रूप में भी हुआ है ;जो अहीरों को हेय सिद्ध करने के लिए जोड़ा गया । ________________________________________
अहीर वस्तुत पापी , लोभी या चोर उच्चके कभी नहीं होते हैं । दो चार व्यक्ति तो हर समाज में गलत मिल ही जाते हैं । केवल दो-चार व्यक्तियों के आधार पूरे समाज का आकलन केवल मूर्खता है । यदि अहीर, लोभी ,पापी या अशुभ दर्शन वाले होते तो तुलसी दास भी अहीरों की प्रशंसा कभी नहीं करते ।
क्योंकि तुलसी जैसे रूढ़ वादी सन्त कवि से भी नहीं रहा गया ; तो वह भी अहीरों के विषय में कह गये "निर्मल मन अहीर निज दासा तुलसी अर्थात् मन का शुद्ध और अपनी मर्जी का मालिक होता है अहीर ।
इस प्रकार तुलसी जैसे-रूढि वादी कवि भी अहीरों की प्रशंसा करने से अपने आप को नहीं रोक पाए हैं
देखें-रामचरित मानस का उत्तर काण्ड --👇
तेइ तृन हरित चरै जब गाई।
भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई॥
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा।
निर्मल मन अहीर निज दासा॥6॥
भावार्थ:-उन्हीं (धर्माचार रूपी) हरे तृणों (घास) को जब वह गो चरे और आस्तिक भाव रूपी छोटे बछड़े को पाकर वह पेन्हावे।
निवृत्ति (सांसारिक विषयों से और प्रपंच से हटना) नोई (गो के दुहते समय पिछले पैर बाँधने की रस्सी) है, विश्वास (दूध दुहने का) बरतन है, निर्मल (निष्पाप) मन जो स्वयं अपना दास है। (अपने वश में है), दुहने वाला अहीर है॥6॥
यहाँ भी तुलसी दास ने संकेत किया है ;कि अहीर किसी का गुलाम नहीं होता वह तो अपना ही मन मौजी है ।
और हरियाणा के जाट , अहीर तथा गुजरात के गूज़र (गौश्चर:) इन्हीं यदुवंशी गोपों की बिखरी हुई शाखाऐं हैं ।
अहीर(अभीर) नाम प्राचीनत्तम है ।
विदित हो कि अहीर और गूज़र तो लोक मान्यताओं में समानार्थक ही हैं।
गौ - गाय तथा पृथ्वी इन दौनो से सम्बद्ध होने से ही तो ये गौश्चर: से गुर्जर तथा गूज़र शब्दों का विकास हुआ।
---जो गौ- चारण करते करते आज कृषि कार्य भी करते हैं ।
---जो गुर्जर परिहार राजपूत समुदाय है ।
वह जॉर्जिया के अधिवासी हैं ।
जबकि गुर्जर गौश्चर शब्द का परिवर्तित ---जो रूप है ।
वह गोपों की शाखा है।
और ये ही भारतीय कृषि का आधार स्तम्भ हैं।
---जो परम्परागत रूप से गौ- चारण करते रहे हैं ।
---जो अहीरों की एक शाखा हैं ।
आधुनिक काल में भी कुछ रूढि वादी काशी ब्राण्ड ब्राह्मण तथा राजपूत अहीर ,जाट तथा गूजरों को हीनता की दृष्टि से देखते हैं ।
अहीर शब्द प्राचीनत्तम है ;
जब जाट और गुर्जर जैसे- शब्द भी अस्तित्व में नहीं थे।
१.गुर्जर - प्रतिहार राजपूत राजवंश को गुज्जर जाति ने गुज्जरो का वंश बताया है -
अगर एसा होता तो पृथ्वीराज रासौ में गुज्जरो के दूध -दही बेचने का प्रकरण क्यों होता ?👇
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'' पै सक्करि सूबभत्तौ एकत्तो
कणय राइ भाइसी ,
कर कस्सी गुज्जरियं ।
रब्बरियं नेव जीवंती ''
इस प्राकृत भाषाओं के दोहे मे लिखा है।
इन गुज्जरियों के हाथ की बनी चीज
कोइ नहीं खाता था -
उसमें
अगर गुर्जर राजा होते तो दूध - दही बेचकर गुजारा क्यों करते ? गुर्जर जाति का नाम भारत मे गोचर (गौश्चर) क्यौं हैं ? और
सबसे बडी बात ---
मिली अगर गुर्जर राजा थे तो जंगलो मे जीवन क्यों
बिता रहे थे ? गोपों का पर्याय वाची रूप गौश्चर: वल्लभ , आभीर ,यादव आदि ..
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गोपों अथवा अहीरों ने दुर्योधन के साथ विश्वास घात कभी नहीं किया था।
क्यों कि यह क्षात्र-धर्म के विरुद्ध भी था ।
गर्ग संहिता अश्व मेध खण्ड अध्याय 60,41,में यदुवंशी गोपों ( अहीरों) की कथा सुनने और गायन करने से मनुष्यों के सब पाप नष्ट हो जाते हैं ; एेसा वर्णन है ।
" गोप "शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं ।
जैसा की संस्कृति साहित्य का इतिहास 368 पर वर्णित है👇
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अस्त्र हस्ताश्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।। श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे :
मुक्ति यदूनां गोपानं सर्व पापै: प्रमुच्यते ।102।
अर्थात् जिसके हाथों में अस्त्र एवम् धनुष वाण हैं ---जो युद्ध को प्रारम्भिक काल में ही विजित कर लेते हैं वह गोप क्षत्रिय ही कहे जाते हैं ।
जो मनुष्य गोप अर्थात् आभीर (यादवों )के चरित्रों का श्रवण करता है ।
वह समग्र पाप-तापों से मुक्त हो जाता है ।।102।
महाभारत के मूसल पर्व में आभीर शब्द के द्वारा अर्जुन को परास्त कर लूट लेने की घटना वर्णित की गयी है ।
इससे कुछ लोग समझते हैं कि अहीर यादव नहीं होते !
परन्तु भागवतपुराण के प्रथम स्कन्ध के प्रथम अध्याय के 20 वें श्लोक में अहीर के स्थान पर गोप शब्द कर दिया है ।
परन्तु कृष्ण का जन्म भी गोपों में हुआ ।
तो फिर गोप ही गोप को लूटने वाले हुए ।
निश्चित रूप से यह वर्णन मूल घटना की पृष्ठ-भूमि से मेल नहीं खाता है ।
क्योंकि यहाँ अर्जुन और यादवों (गोपों) के युद्ध की पृष्ठ-भूमि का वर्णन नहीं है ; और अहीरों को अशुभ-दर्शी तथा पापकर्म करनेवाला, लोभी के रूप में वर्णन करना महाभारत कार की अहीरों के प्रति विकृतिपूर्ण अभिव्यक्ति मात्र है ।
इसी प्रकार का वर्णन विष्णु पुराण आदि में भी है । इतना ही नहीं भागवतपुराण में तो पुराण कार ने आभीर शब्द के स्थान पर गोप शब्द के प्रयोग द्वारा गोपों को अर्जुन सहित गोपिकाओं को लूटने वाला बता गया है । और गोपों को दुष्ट विशेषण से अभिव्यक्ति किया है । अहीरों अथवा गोपों ने अर्जुन सहित कृष्ण की 16000 गोपिकाओं के रूप में पत्नियों को लूटा था अथवा नहीं एेसा वर्णन मात्र कल्पना रञ्जित ही है ।
निश्चित रूप से गोपों द्वारा अर्जुन को परास्त करने की घटना तो रही होगी ; परन्तु स्त्रीयाँ लूटने और धन लूटने की घटना काल्पनिक व मनगढ़न्त ही हैं ।
कुछ मूर्ख रूढ़ि वादी ब्राह्मणों ने यादवों के प्रति द्वेष स्वरूप गलत रूप में उन्हें प्रस्तुत करने के लिए ही बहुत सी काल्पनिक घटनाओं का समायोजन इनके साथ कर दिया है।
क्योंकि अर्जुन और यादवों (गोपों) के मध्य पूर्व -युद्ध की पृष्ठ-भूमि को वर्णित ही नहीं किया है ।
यादवों की किसी कन्या का अपहरण उस समय उनकी प्रतिष्ठा का विषय था ।
जैसा कि हर स्वाभिमानी समाज का होता भी है । अब गोपों ने भी एक स्त्री के अप हरण में अर्जुन के साथ चलने वाली हजारों स्त्रीयों का अपहरण किया !
और वे स्त्रीयाँ वृष्णि वंशी गोपों की पत्नी रूप में गोपिकाऐं ही थीं ।
तब भी आश्चर्य क्या ? परन्तु इनकी घटनाओं के विस्तार में कल्पना मात्र ही है ।
क्योंकि गोप गोपिकाओं का अपहरण क्यों करने लगे ? और आपको बतादें कि नन्द ही गोप नहीं थे अपितु यदुवंशी होने से वसुदेव और कृष्ण भी गोप थे महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में इसका प्रमाण देखें---👇 प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है। नन्द को तो गोप रूप में सभी जानते हैं।
कुछ पुराणों में वसुदेव को भी गोप ( आभीर)रूप में वर्णित किया है। देखें---नीचे👇
यहाँ हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया जाता है ।
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वसुदेवदेवक्यौ च कश्यपादिती।
तौच वरुणस्य गोहरणात् ब्रह्मणः शापेन गोपालत्वमापतुः।
यथाह (हरिवंश पुराण :- ५६ अध्याय )
"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१
येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२
द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण:
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले । गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।
तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।
देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७। सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति। __________________________________________ गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें--- अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय।
उपर्युक्त संस्कृत भाषा का अनुवादित रूप इस प्रकार है :-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा ।२१।
कि हे कश्यप अापने अपने जिस तेज से प्रभावित होकर वरुण की उन गायों का अपहरण किया है ।
उसी पाप के प्रभाव-वश होकर तुम भूमण्डल पर तुम अहीरों (गोपों) का जन्म धारण करें ।२२।
तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ जन्म धारण करेंगी।२३।
इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।
हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं।
मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है; उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं।
कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं २४-२७। (उद्धृत सन्दर्भ --) यादव योगेश कुमार' रोहि' की शोध श्रृंखलाओं पर आधारित---
पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण) अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया गया है।
देखें👇
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गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९।
अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की रक्षा करनें में समर्थ है । वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ? अर्थात् अहीरों के घर में जन्म क्यों ग्रहण किया ? ।९।
हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४
(ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)
सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य .
तथा गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में भी वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय में है ।
और इतना ही नहीं समस्त ब्राह्मणों की आराध्या ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी सत्ता गायत्री भी नरेन्द्र सेन अहीर की कन्या हैं ।
और उसका वर्णन भी आभीर तथा गोप शब्द के पर्याय वाची रूप में वर्णित किया है ।
तथा हरिवंश पुराणों में ही अन्यत्र भी कृष्ण ने अपना जन्म अहीरों में माना है ।👇
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एतदर्थं च वासो८यं वज्रे८स्मिन् गोप जन्म च। अमीषामुत्पथस्थानां निग्रहार्थ दुरात्मनाम्।। 58।। इस लिए व्रज में मेरा निवास हुआ और इसलिए मैेने अहीरों (गोपों)में अवतार ग्रहण किया है;
कुमार्ग पर स्थित हुए सभी दुरात्माओं का दमन करने के लिए यहाँ मेरा अवतार हुआ है ।।
हरिवंश पुराण -विष्णु पर्व बाल चरित यमुना वर्णन नामक ग्यारह वाँ अध्याय )पृष्ठ संख्या 318 गीता प्रेस गोरखपुर संस्करण
और इतना ही नहीं समस्त ब्राह्मणों की आराध्या ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी गायत्री भी नरेन्द्र सेन अहीर की ही कन्या हैं ।
और उसका वर्णन भी आभीर तथा गोप शब्द के पर्याय वाची रूप में वर्णित किया है ।
और अनेक भारतीय पुराणों में जैसे अग्नि- पुराण,पद्मपुराण आदि में अहीरों को देवताओं के रूप में अवतरित किया है ; और ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी गायत्री को भी नरेन्द्र सेन अहीर की कन्या के रूप में भी वर्णन किया गया है।
वहाँ भी अहीर (आभीर) तथा गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची रूप में वर्णित हैं।
पद्म पुराण के सृष्टि खण्ड के अध्याय 16 में गायत्री को नरेन्द्र सेन आभीर (अहीर)की कन्या के रूप में वर्णित किया गया है ।
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" स्त्रियो दृष्टास्तु यास्त्व ,
सर्वास्ता: सपरिग्रहा :
आभीरः कन्या रूपाद्या
शुभास्यां चारू लोचना ।७।
न देवी न च गन्धर्वीं ,
नासुरी न च पन्नगी ।
वन चास्ति तादृशी कन्या ,
यादृशी सा वराँगना ।८।
अर्थात् जब इन्द्र ने पृथ्वी पर जाकर देखा तो वे पृथ्वी पर कोई सुन्दर और शुद्ध कन्या न पा सके ;
परन्तु एक नरेन्द्र सेन आभीर की कन्या गायत्री को सर्वांग सुन्दर और शुद्ध देखकर
आश्चर्य चकित रह गये ।७।
उसके समान सुन्दर कोई देवी न कोई गन्धर्वी न सुर और न असुर की स्त्री ही थी और नाहीं कोई पन्नगी
(नाग कन्या ) ही थी।
इन्द्र ने तब उस कन्या गायत्री से पूछा कि तुम कौन हो ?
और कहाँ से आयी हो ?
और किस की पुत्री हो ८।
गोप कन्यां च तां दृष्टवा , गौरवर्ण महाद्युति:। एवं चिन्ता पराधीन ,यावत् सा गोप कन्यका ।।९ ।।
पद्म पुराण सृष्टि खण्ड अध्याय १६ १८२ श्लोक में इन्द्र ने कहा कि तुम बड़ी रूप वती हो , गौरवर्ण वाली महाद्युति से युक्त हो इस प्रकार की गौर वर्ण महातेजस्वी कन्या को देखकर इन्द्र भी चकित रह गया कि यह गोप कन्या इतनी सुन्दर है !👇
यहाँ विचारणीय तथ्य यह भी है कि पहले आभीर-कन्या शब्द गायत्री के लिए आया है फिर गोप कन्या शब्द ।
अत: अहीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय हैं । वस्तुत आभीर और गोप शब्द परस्पर पर्याय वाची हैं पद्म पुराण में पहले आभीर- कन्या शब्द आया है फिर गोप -कन्या भी गायत्री के लिए .. तथा अग्नि पुराण मे भी आभीरों (गोपों) की कन्या गायत्री को कहा है ।
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और सुनो ! गोै-पालन यदु वंश की परम्परागत वृत्ति ( कार्य ) होने से ही भारतीय इतिहास में यादवों को गोप ( गो- पालन करने वाला ) कहा गया है ।
वैदिक काल में ही यदु को दास सम्बोधन के द्वारा असुर संस्कृति से सम्बद्ध मानकर ब्राह्मणों की अवैध वर्ण-व्यवस्था ने शूद्र श्रेणि में परिगणित किया था ।
तो यह दोष ब्राह्मणों का ही है यादवों का कदापि नहीं यदु की गोप वृत्ति को प्रमाणित करने के लिए ऋग्वेद की ये ऋचा सम्यक् रूप से प्रमाण है ।
ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है ।
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी
गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे । (ऋ०10/62/10)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ; गो-पालन शक्ति के द्वारा सौभाग्य शाली हैं हम उनका वर्णन करते हैं । (ऋ०10/62/10/)
विशेष:- व्याकरणीय विश्लेषण -
उपर्युक्त ऋचा में दासा शब्द प्रथमा विभक्ति के अन्य पुरुष का द्विवचन रूप है ।
क्योंकि वैदिक भाषा ( छान्दस् ) में प्राप्त दासा द्विवचन का रूप पाणिनीय द्वारा संस्कारित भाषा लौकिक संस्कृत में दासौ रूप में है ।
परिविषे:-परित: चारौ तरफ से व्याप्त ( घिरे हुए) स्मद्दिष्टी स्मत् दिष्टी सौभाग्य शाली अथवा अच्छे समय वाले द्विवचन रूप ।
गोपर् ईनसा सन्धि संक्रमण रूप गोपरीणसा :- गो पालन की शक्ति के द्वारा ।
गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा जिसका अर्थ है ।
शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला ।
अथवा गो परिणसा गायों से घिरा हुआ यदु: तुर्वसु: च :-
यदु और तुर्वसु दौनो द्वन्द्व सामासिक रूप ।
मामहे :- मह् धातु का उत्तम पुरुष आत्मने पदीय बहुवचन रूप अर्थात् हम सब वर्णन करते हैं ।
अब हम इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या करते हैं ।
यहाँ एक तथ्य विचारणीय है कि असुर शब्द का पर्याय वैदिक सन्दर्भों में दास शब्द है ।
दास शब्द देव संस्कृति के विरुद्ध रहने वाले दाहिस्तान Dagestan को निवासीयों का विशेषण है । ---जो ईरानी असुर संस्कृति के अनुयायी तथा अहुर-मज्दा (असुर महत्) में आस्था रखने वाले हैं । पुराणों में भी कहीं गोपों को क्षत्रिय कहा गया है; तो स्मृति-ग्रन्थों में उन्हीं गोपो को शूद्र रूप में वर्णित कर दिया है ।
अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है। यह भी देखें--- इसकी आँशिक वर्णन हम ऊपर कर चुके हैं ।
यहाँ भी कुछ देखें---👇 व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है । स्मृति-ग्रन्थों की रचना काशी में में बारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में लिखीं गयी ।
गोपों में हीन भावना भरने के लिए उन्हें शूद्र कन्या में क्षत्रिय से उत्पन्न कर दिया ।
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" क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत:
स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय:
अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।
और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमें संशय नहीं .... फिर पाराशर स्मृति में वर्णित है कि..गोप अर्थात् अहीर शूद्र हैं ।👇
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वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: ।
वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। चा
ण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।।
एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना: एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।।
वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं ।
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।
और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।
👇
जब रूढि वादी ब्राह्मणों को लगा कि अहीरों की प्रतिष्ठा हम ब्राह्मणों से भी अधिक हो रही है ।तब ब्राह्मणों ने कपट प्रपञ्च के द्वारा अहीरों को शूद्र, दस्यु अथवा हेय रूप में वर्णित किया। स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
देखें--- निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में..👇
" वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् । पप्रच्छुमुर्नयोSभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।। अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा । निश्चित रूप इन विरोधाभासी तथ्यों से ब्राह्मणों के विद्वत्व की पोल खुल गयी है ।
जिन्होंने योजना बद्ध विधि से समाज में ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित कर के लिए सारे -ग्रन्थों पर व्यास की मौहर लगाकर अपना ही स्वार्थ सिद्ध किया है ।
देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
अत:मह् धातु का अर्थ प्रशंसायाम् के सन्दर्भों में नहीं है ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है !
दास शब्द ईरानी भाषाओं में दाहे शब्द के रूप में विकसित है ।
नि:सन्देह जिस यदु वंश में गायत्री सदृश्या ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी का जन्म नरेन्द्र सेन अहीर के घर में हुआ हो ।
और उन्हीं अहीरों के समाज में कृष्ण का जन्म हुआ हो फिर अहीरों को मूर्खों की उपधियाँ क्यों दी गयी ? अहीरों को पृथ्वी पर ईश्वरीय शक्तियाँ का रूप माना गया है ।
समस्त ब्राह्मणों की साधनाऐं गायत्री के द्वारा सिद्ध होने वाली हैं और वह गायत्री नरेन्द्र सेन अहीर की कन्या है । कुछ पुराणों ने गोपों (यादवों ) को क्षत्रिय भी स्वीकार किया है ।
ब्रह्म पुराण में वर्णन है कि 👇
" नन्द क्षत्रियो गोपालनाद् गोप : अर्थात् नन्द क्षत्रिय गोपलन करने ही गोप कहलाते हैं ।
( इति ब्रह्म पुराण) और भागवतपुराण में भी यही संकेत मिलता है गर्ग संहिता का उद्धरण हम लिख चुके हैं ।
भागवतपुराण के यद्यपि बहुतायत अंश प्रक्षिप्त (नकली) है ।
कुछ यादव विरोधी भागवतपुराण के प्रक्षिप्त नकली अंश उद्धृत करके कहते हैं कि वसुदेव और नन्द भाई नहीं थे !
परन्तु भागवतपुराण में ही वसुदेव नन्द को अपना भाई कहते हैं।👇
यदुकुलावतंस्य वरीयान् गोप: के रूप में वर्णित किया है ।
भागवतपुराण के दशम् स्कन्ध अध्याय 5 में नन्द के विषय में वर्णन है ।
यदुकुलावतंस्य वरीयान् गोप: पञ्च प्राणतुल्येषु । पञ्चसुतेषु मुख्यमस्य नन्द राज:। 67।
प्रसिद्ध पर्जन्य गोप के प्रणों के सामान -प्रिय पाँच पुत्र थे जिसमें नन्द राय मुख्य थे ।
👇 वसुदेव उपश्रुत्वा,भ्रातरं नन्दमागतम् । पूज्य:सुखमाशीन: पृष्टवद् अनामयम् आदृत:।47। भागवतपुराण(10/5/20/22)
यहाँ स्मृतियों के विधान के अनुसार अनामयं शब्द से कुशल-क्षेम क्षत्रिय जाति से पूछी जाती है ।
ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् बाहु जात: अनामयं ।
वैश्य सुख समारोग्यं , शूद्र सन्तोष नि इव च।63। ब्राह्मण: कुशलं पृच्छेत् क्षात्र बन्धु: अनामयं ।
वैश्य क्षेमं समागम्यं, शूद्रम् आरोग्यम् इव च।64।
संस्कृत ग्रन्थ नन्द वंश प्रदीप में वर्णित है कि नन्द का जन्म यदुवंशी देवमीढ़ के वंश में हुआ । नन्द का जन्म यदुवंशी देवमीढ़ के वंश में हुई ।
👇
" नन्दोत्पत्तिरस्ति तस्युत, यदुवंशी नृपवरं देवमीढ़ वंशजात्वात ।65।
अब ब्रह्माण्डपुराण के उत्तरखण्ड राधा - हृदय अध्याय 6 में वर्णित है कि
" जज्ञिरे वृष्णि कुलस्थ, महात्मनो महोजस: नन्दाद्या वेशाद्या: श्री दामाश्च सबालक: ।68। अर्थात् यदुवंश की वृष्णि शाखा में उत्पन्न नन्द आदि गोप तथा श्री दामा गोप आदि बालक सहित थे ब्रह्म वैवर्त पुराण श्री कृष्ण जन्म खण्ड अ०13,38,39,में सर्वेषां गोप पद्मानां गिरिभानुश्च भाष्कर:
पत्नी पद्मावते समा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।।
तस्या: कन्या यशोदात्वं लब्धो नन्दश्च वल्लभा: ।94। जब गर्गाचार्य नन्द जी के घर गोकुल में राम और श्याम का नामकरण संस्कार करने गए थे ;
तब गर्ग ने कहा कि नन्द जी और यशोदा तुम दोनों उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो;
यशोदा तुम्हारे पिता का नाम गिरिभानु गोप है और माता का नाम पद्मावती सती है तुम नन्द जी को पति रूप पाकर कृतकृत्य हो गईं हो! __________________________________________ कुछ कथा- वाचक ---जो कृष्ण चरित्र के विवरण के लिए भागवतपुराण को आधार मानते हैं तो भागवतपुराण भी स्वयं ही परस्पर विरोधाभासी तथ्यों को समायोजित किए हुए है ।👇
रोहिण्यास्तनय: प्रोक्तो राम: संकर्षस्त्वया ।
देवक्या गर्भसम्बन्ध: कुतो देहान्त विना ।।८ (भागवतपुराण दशम् स्कन्ध अध्याय प्रथम)
भगवन् आपने बताया कि बलराम रोहिणी के पुत्र थे ।इसके बाद देवकी के पुत्रों में आपने उनकी गणना क्यों की ? दूसरा शरीर धारण किए विना दो माताओं का पुत्र होना कैसे सम्भव है ?
तब द्वित्तीय अध्याय श्लोक संख्या 8 में शुकदेव परिक्षित को इसका उत्तर देते हुए कहते हैं ।👇
भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजं भयम् ।
यदूनां निजनाथानां योग मायां समादिशत् ।6। गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोप गोभिरलंकृतम्।
रोहिणी वसुदेवस्य भार्या८८स्ते नन्द गोकुले ।। अन्याश्च कंस संविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ।।7 देवक्या जठरे गर्भं शेषाख्यं धाम मामकम् ।
तत् संनिकृष्य रोहिण्या उदरे संनिवेशय ।।8 अथाहमंशभागेन देवक्या: पुत्रतां शुभे !
प्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नन्दपत्न्यां भविष्यसि ।9।
अर्थात् विश्वात्मा भागवान् ने देखा कि मुझे हि अपना स्वामी और सब कुछ मानने वाले यदुवंशी गोप कंस के द्वारा बहुत ही सताए जी रहे हैं।
तब उन्होंने अपनी योगमाया को आदेश दिया।6।
कि देवि ! कल्याणि तुम व्रज में जाओ वह प्रदेश गोपों और गोओं से सुशोभित है ।
वहाँ नन्द बाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी गुप्त स्थान पर रह रही हैं।
कंस के भय से उनकी और भी पत्नियाँ कंस से डर कर नन्द के सानिध्य में छिपकर रह रहीं हैं ।7।
इस समय मेरा अंश जिसे शेष कहते हैं ; देवकी के उदर में गर्भ रूप में स्थित है !
उस गर्भ को तुम वहाँ से निकाल कर गोकुल में रोहिणी के उदर में रख दो ।8।
कल्याणि ! अब ---मैं अपने समस्त ज्ञान बल आदि अंशों के साथ देवकी का पुत्र बनूँगा और तुम नन्द की पत्नी यशोदा के गर्भ से जन्म लेना !9।
प्रथम बात तो यहाँ यह प्रक्षिप्त है कि(गर्भ अन्तरण )की घटना प्राकृतिक नियमों के विपरीत हो गयी !
---जो कि उस समय में कठिन ही नहीं अपितुअसम्भव है।
उस युग में वह भी प्राकृतिक सिद्धान्तों के पूर्णत विरुद्ध ! अब भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी प्रसंग वर्णित करते हैं ---जो संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति-के सन्दर्भ में है ।
👇 गर्भ संकर्षणात् तं वै प्राहु: संकर्षणं भुवि । रामेति लोकरमणाद् बलं बलवदुच्छ्रयात् ।13। अर्थात् देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में खींच खींचे जाने के कारण शेष जी को लोग संसार में संकर्षण कहेंगे ।
अब दशम् स्कन्ध के अष्टम् अध्याय में पहले क्या लिखा है --दौनों की तुलना करें !
भागवतपुराण में गर्गाचार्य संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति-मूलक विश्लेषण (Etymological Analization ) ही अवैज्ञानिक व असंगत है प्रस्तुत करते हैं । 👇
अयं हि रोहिणी पुत्रो रमयन् सुहृदो गुणै:!
आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद् बलं विदु: यदूनामपृथग्भावात् संकर्षणमुशन्त्युत।।12
गर्गाचार्य कहते हैं कि यह रोहिणी का पुत्र है इसलिए इसका नाम रौहिणेय भी होगा ।
यह अपने लगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा !
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इति ---
असली यदुवंशी कौन ? (3) अहीर अथवा जादौन ! एक विश्लेषण -- भाग तृतीय
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"इतिहास के बिखरे हुए पन्ने "नामक शोध श्रृंखला से संग्रहीत तथ्यों पर आधारित एक एैतिहासिक आलेख-
कुछ कथा- वाचक ---जो कृष्ण चरित्र के विवरण के लिए भागवतपुराण को आधार मानते हैं ;तो उन महानुभावों से मेरा कहना है ; कि वे जिस भागवतपुराण को कृष्ण चरित्र का प्रमाणित विवरण मानते हैं ;तो वह भागवतपुराण भी स्वयं ही परस्पर विरोधाभासी तथ्यों को समायोजन करने से अमान्य सिद्ध होता है ।
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रोहिण्यास्तनय: प्रोक्तो राम: संकर्षस्त्वया ।
देवक्या गर्भसम्बन्ध: कुतो देहान्त विना ।।८ (भागवतपुराण दशम् स्कन्ध अध्याय प्रथम) जब कोई जिज्ञासु भक्त अर्थात् जिसको परिक्षित के रूप में आरोपित किया गया है शुकदेव जी से पूछता है ।कि भगवन् आपने बताया कि बलराम रोहिणी के पुत्र थे । इसके बाद देवकी के पुत्रों में आपने उनकी गणना क्यों की ? दूसरा शरीर धारण किए विना दो माताओं का एक पुत्र होना कैसे सम्भव है?
तब द्वित्तीय अध्याय श्लोक संख्या 8 में शुकदेव परिक्षित को इसका उत्तर देते हुए कहते हैं ।👇
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भगवानपि विश्वात्मा विदित्वा कंसजं भयम् ।
यदूनां निजनाथानां योग मायां समादिशत् ।6। गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोप गोभिरलंकृतम्।
रोहिणी वसुदेवस्य भार्या८८स्ते नन्द गोकुले । अन्याश्च कंस संविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ।।7 देवक्या जठरे गर्भं शेषाख्यं धाम मामकम् ।
तत् संनिकृष्य रोहिण्या उदरे सन्निवेशय ।।8 अथाहमंशभागेन देवक्या: पुत्रतां शुभे !
प्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नन्दपत्न्यां भविष्यसि ।9। अर्थात् विश्वात्मा भागवान् ने देखा कि मुझे हि अपना स्वामी और सब कुछ मानने वाले यदुवंशी गोप कंस के द्वारा बहुत ही सताए जी रहे हैं।
तब उन्होंने अपनी योगमाया को आदेश दिया।6।
कि देवि ! कल्याणि तुम व्रज में जाओ वह प्रदेश गोपों और गोओं से सुशोभित है ।
वहाँ नन्द बाबा के गोकुल में वसुदेव की पत्नी रोहिणी गुप्त स्थान पर रह रही हैं।
कंस के भय से उनकी और भी पत्नियाँ कंस से डर कर नन्द के सानिध्य में छिपकर रह रहीं हैं ।7।
इस समय मेरा अंश जिसे शेष कहते हैं ;
देवकी के उदर में गर्भ रूप में स्थित है !
उस गर्भ को तुम वहाँ से निकाल कर गोकुल में रोहिणी के उदर में रख दो ।8।
कल्याणि ! अब ---मैं अपने समस्त ज्ञान बल आदि अंशों के साथ देवकी का पुत्र बनुँगा और तुम नन्द की पत्नी यशोदा के गर्भ से जन्म लेना !9।
प्रथम बात तो यहाँ यह प्रक्षिप्त है कि(गर्भ अन्तरण )की घटना प्राकृतिक नियमों के विपरीत हो गयी !
---जो कि दुष्कर ही नहीं असम्भव भी है। उस युग में वह भी प्राकृतिक सिद्धान्तों के पूर्णत विरुद्ध !
अब भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी प्रसंग वर्णित करते हैं ।
---जो संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति-के सन्दर्भ में है ।👇
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गर्भ संकर्षणात् तं वै प्राहु: संकर्षणं भुवि ।
रामेति लोकरमणाद् बलं बलवदुच्छ्रयात् ।13। अर्थात् देवकी के गर्भ से रोहिणी के गर्भ में खींच खींचे जाने के कारण शेष जी को लोग संसार में संकर्षण कहेंगे ।
अब दशम् स्कन्ध के अष्टम् अध्याय में पहले क्या लिखा है --दौनों की तुलना करें !
भागवतपुराण में गर्गाचार्य के द्वारा संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति-मूलक विश्लेषण (Etymological Analization) ही अवैज्ञानिक व असंगत है
प्रस्तुत करते हैं ।
नीचेे देखें---
अयं हि रोहिणी पुत्रो रमयन् सुहृदो गुणै:!
आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद् बलं विदु: यदूनामपृथग्भावात् संकर्षणमुशन्त्युत।।12
गर्गाचार्य कहते हैं कि यह रोहिणी का पुत्र है ! इसलिए इसका नाम रौहिणेय भी होगा ।
यह अपने लगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से अत्यन्त आनन्दित करेगा !
इसलिए इसका नाम राम भी होगा ।
इसके बल की कोई सीमा नहीं है इस लिए इसका नाम बल भी होगा।
परन्तु संकर्षण व्युत्पत्ति- ही यहाँ पूर्ण रूपेण काल्पनिक व असंगत है ।
---जो भागवतपुराण की प्रमाणिकता व प्राचीनता को संदिग्ध करती है ।
👇 संकर्षण व्युत्पत्ति-के सन्दर्भों में भागवतपुराण कार ने कहा कि इसका नाम संकर्षण इस लिए होगा कि " यह यादवों और गोपों में कोई भेद भाव नहीं करेगा !
और लोगों में फूट पड़ने पर मेल कराएगा इसी लिए इसका नाम संकर्षण भी होगा 👈👅
यह उपर्युक्त व्युत्पत्ति- पूर्ण रूपेण मिथ्या है । सङ्कर्षणम्, आकर्षणम् ।
सम्यक्प्रकारेण कर्षणम् ।
संपूर्व्वकृष् धातोर्ल्युट्प्रत्ययेन निष्पन्नम् इति सङ्कर्षणम्॥ (यथा, भागवते । १० । २ । १३ ।
“गर्भसंकर्षणात् तं वै प्राहुः सङ्कषणं भुवि ॥ एकीकरणम् । इति स्वामी ॥
यथा, भागवते । ५ । २५ । १ ।
“तस्य मूलदेशे त्रिंशयोजनसहस्रान्तरे आस्ते या वै कला भगवतस्तामसी समाख्याता अनन्त इति सात्वतीया द्रष्टृदृश्ययोः सङ्कर्षणं अहमित्यभिमानलक्षणं यं सङ्कर्षण इत्याचक्षते” सङ्कर्षणः, पुल्लिंग (सम्यक् कर्षतीति । सं कृष् ल्युट् ) बलदेवः ।
इति अमरःकोश ॥
(अस्य नामनिरुक्तिर्यथा, हरिवंशे । ५९ । ६ । “कर्षणेनास्य गर्भस्य स्वगर्भाच्चावितस्य वै ।
सङ्कर्षणो नाम शुभे तव पुत्त्रो भविष्यति ॥
” तथा च भागवते । १० । २ । १३ ।
“गर्भसंकर्षणात् तं वै प्राहुः सङ्कर्षणं भुवि )
संकर्षण शब्द की व्युत्पत्ति वैय्याकरणिक दृष्टि से तो हरिवंश पुराण में ठीक है ; परन्तु प्राकृतिक घटना के रूप से सही नहीं है ! ________________________________________ परन्तु मेरी शोध मान्यताओं के अनुसार कृष्ण तथा संकर्षण -जैसे शब्द कृषि संस्कृति मूलक हैं ।
बल राम के हाथों में हल और उनका संकर्षण नाम इस तथ्य को सूचित करता है कि यादवों ने गोचारण क्रिया से ही कृष्ण पद्धति का विकास किया ।
दौनों शब्द कृष् धातु मूलक हैं।
_______________________________________ भागवतपुराण में अन्य विक्षिप्तताओं की श्रृंखला में एक स्थान पर पहले ही गोविन्द शब्द का प्रयोग हुआ है तब इन्द्र और कृष्ण का मिलन भी नहीं होता है दशम् स्कन्ध अध्याय ६ में 👇 ।
पृश्निगर्भस्तु ते बुद्धि मात्मानं भगवान् पर:।
क्रीडन्तं पातु गोविन्द: शयानं पातु माधव 25।
पृश्निगर्भ तेरी बुद्धि की , परमात्मा भगवान् तेरे अहंकार की रक्षा करे ।
खेलते समय गोविन्द रक्षा करे !
लेते समय माधव रक्षा करे !
अब कृष्ण को इन्द्र ने गोविन्द नाम किस प्रकार दिया ? दशम् स्कन्ध अध्याय 28 में वर्णन है
👇
• शुकवाच- • एवं कृष्णमुपामन्त्र्य सुरभि: पयसा८८त्मन:। जलैराकाशगंगाया एरावतकरोद्धृतै: 22।
इन्द्र: सुरषिर्भि: साकं नोदितो देवमातृभि:। अभ्यषिञ्चित दाशार्हं गोविन्द इति चाभ्यधात् ।।23।
अर्थात्:- शुकदेव जी कहते हैं हे राजन् परिक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण से एेसा कहकर कामधेनु ने अपने दूध से और देव माताओं की प्रेरणाओं से देव राज इन्द्र ने एरावत की सूँड़ के द्वारा लाए हुए आकाश गंगा के जल से देवर्षियों के साथ यदुनाथ श्रीकृष्ण का अभिषेक किया और उनको गोविन्द नाम प्रदान किया ! और सबसे बडा़ प्रमाण कि भागवतपुराण बारहवीं सदी की रचना है यह है कि भागवतपुराण में महात्मा बुद्ध का वर्णन है। _______________________________________ भागवतपुराण में महात्मा बुद्ध का वर्णन सिद्ध करता है-कि भागवतपुराण बुद्ध के बहुत बाद की रचना है ।
दशम् स्कन्ध अध्याय 40 में श्लोक संख्या 22 पर वर्णन है कि 👇
______________________
नमो बुद्धाय शुद्धाय दैत्यदानवमोहिने ।
म्लेच्छ प्राय क्षत्रहन्त्रे नमस्ते कल्कि रूपिणे ।।22
दैत्य और दानवों को मोहित करने के लिए आप शुद्ध अहिंसा मार्ग के प्रवर्तक बुद्ध का जन्म ग्रहण करेंगे ---मैं आपके लिए नमस्कार करता हूँ ।
और पृथ्वी के क्षत्रिय जब म्लेच्छ प्राय हो जाऐंगे तब उनका नाश करने के लिए आप कल्कि अवतार लोगे ! मै आपको नमस्कार करता हूँ 22।
भागवतपुराण में अनेक प्रक्षिप्त (नकली) श्लोक हैं जैसे- 👇
सर्वान् स्वाञ्ज्ञातिसम्बन्धान् दिग्भ्य: कंसभयाकुलान् ( पाठान्तरण-भयार्दितान्)। यदुवृष्णयन्धकमधुदाशार्हकुकुरादिकान् ।।15। सभाजितान् समाश्वास्य विदेशावासकर्शितान् । न्यवायत् स्वगेगेषु वित्तै:संतर्प्य विश्वकृत् ।।16
अर्थात् श्रीकृष्ण ने ---जो कंस के भय से व्याकुल होकर इधर उधर भाग गये थे ;उन यदुवंशी ,वृष्णि वंशी ,अन्धक वंशी ,मधुवंशी ,दाशार्हं वंशी ,और कुकुर आदि वंशों में उत्पन्न समस्त सजातीय सम्बन्धियों को ढूँढ़ ढूँढ़ कर कृष्ण ने बुलाया ! __________________________________________ अब यहाँ विचारणीय तथ्य यह है कि क्या वृष्णि अन्धक मधु दाशार्हं और कुकुर वंशी यादव नहीं थे !
👅 इसी प्रकार के प्रक्षिप्त नकली श्लोक यादवों के इतिहास को विकृत करने के लिए बीच बीच में डाले गये ।
एक स्थान पर काल्पनिक रूप से भागवतपुराण कार ने वर्णित किया है कि श्रीकृष्ण ने अपनी बुआ श्रुतकीर्ति की पुत्री भद्रा से विवाह स्वीकार कर लिया ।
अर्थात् केकय देश में ब्याही थी उसकी पुत्री भद्रा थी उसका भाई सन्तर्दन आदि ने उसे स्वयं ही कृष्ण के साथ विवाह कर दिया।👇
__________________________________________
श्रुतकीर्ति: सुतां भद्रामुपयेमे पितृष्वसु: ।
कैकेयीं भ्रातृभिर्दत्तां कृष्ण: सन्तर्दनादिभि:।।56।
क्या यह यादवों की संस्कृति नष्ट करने की साजिश नहीं क्योंकि कि बुआ की लड़की को भारतीय समाज में -बहिन से भी बड़कर माना जाता है ।
और यादवों अथवा अहीरों में भी यह परम्परा नहीं है ।
क्योंकि भाञ्जा , भाञ्जी को मामा और मामी दौनों ही पूज्य माने जाते हैं।
कृष्ण को रास लीला का नायक बनाने वाले भी यही धूर्त लोग हैं।
और ---जो लोग कहते हैं कि सभी यदुवंशी तो शंखोद्धार तीर्थ में ही आपस में नष्ट हो गये थे ।
तो ये बातें भी भ्रान्ति पूर्ण हैं।
क्योंकि भागवतपुराण में ही यह वर्णन है 👇
भागवतपुराण में एकादश स्कन्ध के 31वें अध्याय के 24 वें श्लोक में वर्णन है कि "
हतशेषान् स्त्री बाल वृद्धानाय धनञ्जय: ।
इन्द्रप्रस्थं समावेश्य वज्रं तत्राभ्यषेचयत् ।।24
अर्थात् पिण्डदान के अनन्तर बची कुची स्त्रीयों बच्चों और बूढ़ों को लेकर अर्जुन इन्द्र प्रस्थ आये।
वहाँ सबको बसाकर अनिरुद्ध के पुत्र वज्र का राज्याभिषेक करके हिमालय की वीर यात्रा की !
कदाचित यहाँ गोपिकाओं को लूटने का प्रकरण नहीं है अत: ये भागवतपुराण भी महात्मा बुद्ध के बहुत बाद की रचना है लगभग बारहवीं सदी की --- जिसमें कथाओं का कोई तारतम्य नहीं है ।
क्योंकि पुराणों को लिखने वाले प्रत्यक्ष दृष्टा तो थे नहीं केवल जन श्रुतियों के आधार पर कथाऐं लिपिबद्ध की गयीं और सब पर बाद में व्यास की मौहर लगा दी गयी भागवतपुराण के दशम् स्कन्ध में केवल कृष्ण चरित्र को दूषित करने का ही उपक्रम किया गया है ।
__कामी वासनामयी मलिन हृदय ब्राह्मणी संस्कृति ने हिन्दूधर्म के नाम पर अहीर, गोपों को कृष्ण नामक कथित भगवान का रूप देकर भी एक कामी और भोगी पुरुष बना कर केवल समाज को व्यभिचार की प्रेरणाऐं दी है ।
..... ब्रह्मवैवर्तपुराण ने अश्लीलता की सारी हदें पार कर दी है ; पुराण कारों ने कहा है कि:-
"चतुर्णमपि वेदानां पाठादपि वरम् फलम् "
(कृष्णजन्म खण्ड अध्याय-133)
अर्थात- चारो वेद पठने से भी अधिक श्रेष्ठ फल इस पुराण पढ़ने से होगा।
इस पुराण में अश्लीलता की सम्पूर्ण सीमा उल्लंघित होती है ।
ब्रह्मा विश्वम् विनिर्माणाय सावित्र्यां वर योषिति।
चकार वीर्यधानम् च कामुक्या कामुको यथा।।
सा दिव्यं शतवर्ष च धृत्वा गर्भं सुदुःसहम् ।।
सुप्रसूता च सुषुवे चतुर्वेदान्मनोहरात् ।।
(ब्रह्मखण्ड अध्याय-9/1-2) अर्थात-ब्रह्मा ने विश्व का निर्माण करने के लिए सावित्री में उसी प्रकार वीर्यस्थापन किया जैसे एक कामुक पुरुष कामुक स्त्री में करता है, तब सावित्री ने दिव्य सौ वर्षो के बाद चारो वेदों को जन्म दिया ! ______________________________________
इस पुराण में वेद भी सावित्री के गर्भ से पैदा हुआ है ! प्रकृतिखण्ड अध्याय-8/29 मे लिखा है कि विष्णु ने वाराह रूप मे पृथ्वी से सम्भोग किया और बेचारी पृथ्वी बेहोश हो गयी!
इसलिये पृथ्वी विष्णु की पत्नि कही गयी!
यहाँ ब्रह्मा और सावित्री विलास पुरुष -स्त्रीयों के रूप में वर्णित हैं।
पृथ्वी का प्रातःस्मरणीय श्लोक भी यही कहता है:- सुमेरियन पुरातन कथाओं में वर्णित देव का विष्णु को यही नही छोड़ा और तुलसी (वृन्दा) से भी सहवास का दोषी बताया।
"शङ्खचूङस्य रूपेण जगाम तुलसी प्रति।
गत्वा तस्यां मायया च वीर्यधानं चकार।।" (प्रकृतिखण्ड-20/12)
अर्थात- तुलसी भी जान गयी थी कि मेरे पति का रूपधारण करके कोई अन्य पुरुष (विष्णु) मेरे साथ सहवास कर रहा है !
शिव को भी इस पुराण ने नही छोड़ा, शिव का सती के साथ अश्लील वर्णन इस पुराण मे है!
सती के मरने के बाद भी जो श्लोक लिखे गये जरा उस पर नजर डालो-
"अधरे चाधरं दत्वा वक्षो वक्षसि शङ्कर:।
पुनः पुनः समाश्लिपुनर्मूछामवाप सः।।"
अर्थात- अधरो पर अधर और वक्ष पर वक्ष मिला कर शंकर ने उस मृतक शरीर का आलिंगन किया!
अब जब ब्रह्मा,विष्णु और शिव नही बचे तो भला कृष्ण कहाँ से बचते !
इस पुराण ने कृष्ण की इज्जत उतारने मे कोई कसर नही छोड़ी।
जरा इस पुराण के प्रकृतिखण्ड का कुछ श्लोक देखिये- "करे घृत्वा च तां कृष्णः स्थापयामास वक्षसि। चकार शिथिल वस्त्रं चुम्बन च चतुर्विधम् ।।
बभूव रतियुद्धेन विच्छिन्नां क्षुद्रघण्टिका। चुम्बननोष्ठेंरागश्च ह्याश्लेषेण च पत्रकम् ।।
मूर्छामवाप सा राधा बुपुधेन दिवानिषम् ।।
" अर्थात- कृष्ण ने राधा का हाथ पकड़कर वक्ष से लगा लिया,और उसके वस्त्र हटाकर चतुर्विध चुम्बन किया ! फिर जो रतियुद्ध हुआ उससे राधा की करधनी टूट गयी और चुम्बन से होठों का रंग उड़ गया, तथा इस संगम से राधा मूर्छित हो गयी और उसे रात-दिन तक होश नही आया।
कृष्ण की इज्जत उतारने में इन व्यभिचारीयों ने कोई कस़र नहीं छोड़ी ।
भागवतपुराण में प्राय: श्रोता में ज्ञान और वैराग्य तो उत्पन्न होता नहीं कामभावना ( वासना ) अवश्य उत्पन्न हो जाती है । __________________________________________ यही नही कृष्ण जन्मखण्ड (अध्याय-106/22) मे लिखा है कि-
"कुब्जा मृता संभोगद्वाससा रजकोमृतः"
यहाँ रुक्मि कृष्ण से कहता है कि "
तुमने कुब्जा से ऐसा सम्भोग किया कि वह बेचारी मर ही गयी" कुब्जा के साथ जन्मखण्ड (अध्याय-72) मे और भी कई अश्लील श्लोक है जिसमे नाना प्रकार के सम्भोग का वर्णन है, जिसे शब्दों की मर्यादा में लिखने असम्भव है ! हाँ कृष्ण जन्मखण्ड अध्याय-27/83 श्लोक भी कम अश्लील नही है-
देखें--- 👇
"प्रजग्मुर्गोपिका नग्नाः योनिमाच्छाद्व पाणानि"
यहाँ बताते हैं कि गोपिकाऐं अपनी हाथ से योनि को ढ़ककर पानी के बाहर निकली!
वैसे इस अध्याय के सारे श्लोक अति अश्लील है
, जिसे लिखना सम्भव नही।
खैर कृष्ण का गुणगान तो और भी है,
जन्मखण्ड (अध्याय-3/59-62) मे लिखा है कि गोलोक मे कृष्ण विरजा नाम की एक महिला से सहवास कर रहे थे, तभी राधा ने पकड़ लिया और फटकारते हुये कहा कि-
"हे कृष्ण तू पराई औरत मे व्यभिचार करते हो, तुम चंचल और लम्पट हो, तुम मनुष्यो की भाँति मैथुन करते हो! तुम मेरे सामने से चले जाओ, और तुम्हे श्राप देती हूँ कि तुम्हे मनुष्य योनि मिले" पुराणकर्ता यही नही रुके, गणपतिखण्ड (अध्याय-20/44-46) मे इन्द्र और रम्भा के सम्भोग का ऐसा वृतान्त है
कि कोई ब्लू फिल्मकार भी इसे महापतन स्वीकार करे !
देखें--- ब्रह्मखण्ड (अध्याय-10/85-87) मे विश्वकर्मा और घृताची के सम्भोग का अति अश्लील वर्णन है,
आगे इसी अध्याय के श्लोक-127-128 मे एक ब्राह्मणी से अश्विनीकुमार के बालात्कार ऐसा वर्णन है कि कामशास्त्री वात्स्यायन भी फीका पड़ जाऐ।
यह सम्पूर्ण पुराण ही अश्लीलता से परिपूर्ण है, कई प्रकरण तो ऐसे है कि लगता है कि यह पुराण न होकर वात्स्यायन का काम शास्त्र है ।
पुराणों में बड़ी कुशलता से रास लीला के नाम पर यादवों के महानायक कृष्ण की इज्जत उतारी गयी है ।
क्योंकि ये धूर्त सदीयों से यादवों के प्रतिद्वन्द्वी रहे हैं आगे इसी सन्दर्भों में कुछ तथ्यों का प्रकाशन करते हुए हमने कृष्ण के पुराणों से इतर चरित् विवरणों पर विवेचना की है ।
कृष्ण के वास्तविक जीवन पर भी प्रकाशन ।
क्योंकि कि कृष्ण देवों के नेता इन्द्र के प्रतिद्वन्द्वी तो थे ही ये देव संस्कृति के भी विरोधी थे ।
पुराणों में तो ये कथाऐं हैं ही परन्तु हम आपको ऋग्वेद कृष्ण चरित्र का विवरण देते हैं ।👇
ऋग्वेद -में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटवर्ती प्रदेश में रहता था । और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था ऐसा वर्णन है विदित हो कि अंशुमान् सूर्य का वाचक है देखें--- अंशु अस्त्यर्थे मतुप् । सूर्य्ये,
अंशुशाल्यादयोप्यत्र ।
सूर्य्यवंश्ये असमञ्जःपुत्रे दिलीपजनके राजभेदे तत्कथा रा० आ० ४३ अ० ।
अंशुमति पदार्थमात्रे त्रि० ।
पुराणों में यमुना ओर यम को अंशुमान् के सन्तति रूप में वर्णित किया है ।
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96के श्लोक- (13,14,15,)पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसी वर्णित है । ________________________________________ " आवत् तमिन्द्र: शच्या
धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ।
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या: न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि वो वृषणो युध्य ताजौ ।14।
अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण: विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।। ______________________________________ ऋग्वेद कहता है ---" कि कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको (ग्वालो) के साथ रहता था ।
यहाँ चरन्ती: पद विचारणीय है अर्थात् चरावाहे
उसे अपने बुद्धि -बल से इन्द्र ने खोज लिया ,
और उसकी सम्पूर्ण सेना तथा गोओं का हरण कर लिया ।
इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है जो यमुना के एकान्त स्थानों पर घूमता रहता है ।
अमरकोश में क्षत्रिय के पर्याय वाची
रूप हैं 2।8।1।1।4
मूर्धाभिषिक्तो राजन्यो बाहुजः क्षत्रियो विराट्. राजा राट्पार्थिवक्ष्माभृन्नृपभूपमहीक्षितः॥
और पुष्यमित्र सुंग ई०पू० १८४ के शासन काल में जाति मूलक वर्ण -व्यवस्था को अधिक परिपुुष्ट करने हेतु अनेक ग्रन्थ वैदिक साहित्य में समायोजित किए गये जैसे पुरुष सूक्त की निम्न ऋचा
"ब्राह्मणोsस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: उरू तदस्ययद् वैश्य: पद्भ्याम् शूद्रोsजायत।।
(ऋग्वेद १०/९०/१२) फिर प्राय : अधिकतर पुराणों में कृष्ण चरित्र को षड्यन्त्र पूर्वक भ्रष्ट करने की ही कुचेष्टा की है ।
यद्यपि हरिवंश पुराण इन सभी परम्पराओं से पृथक कृष्ण के यथार्थोन्मुख गोप चरित् की व्याख्या करता है परन्तु भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी व काल्पनिकता की मर्यादा ही भंग कर दी है । भागवतपुराणकार की बाते कहाँ तक संगत हैं।
-- बुद्धि जीवि पाठक स्वयं ही निर्णय कर सकता है । पहले तो कृष्ण को यदु वंश का होने से क्षत्रिय( राजा) के रूप में निषिद्ध घोषित करता है ।
परन्तु यदु वंश का होने पर भी उग्रसेन को राजा के रूप में मान्य किया जाता है । क्या यह विरोधाभासी प्रसंग नहीं ।
एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:।
मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२
आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि ।
ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।।१३ श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय _________________________________________ देवकी नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार अपने माता पिता को सान्त्वना देकर अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशीयों का राजा बना दिया।१२।
और उन उग्रसेन से कहा कि महाराज हम आपकी प्रजा हैं।
आप हम लोगो पर शासन कीजिए क्योंकि राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राज सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं यद्यपि उग्रसेन भी यदु वंशी थे तो फिर यह तथ्य असंगत ही है। कि यादव राज सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं।
कदाचित वेदों में यदु को दास कहा गया है ।
और दास का अर्थ असुर है ।
लौकिक संस्कृत में दास को शूद्र कहा गया।
एक तथ्य और किसी भी पुराण में कृष्ण को क्षत्रिय नहीं कहा गया है।
क्योंकि क्षत्रिय राजा होता है ।
और स्वयं वैदिक ऋचाओं में यदु को दास अर्थात् शूद्र के रूप वर्णन ही प्रमाण है और यदुवंशी अपने को क्षत्रिय घोषित करें तो वह यदुवंशी कदापि नहीं है। परन्तु यदि क्षत्रिय का अर्थ शत्रु का क्षरण करने वाला स्वीकार किया जाता है तो आभीर अथवा यादव सबसे बड़े क्षत्रिय हैं ।
परन्तु क्षत्रिय शब्द ब्राह्मणों की वर्ण-व्यवस्था के रूप में रूढ़ बद्ध होकर मान्य कर दिया गया है ।
अत: अहीर अपने को इसके अर्थ में क्षत्रिय कभी स्वीकार नहीं करते हैं ।
और फिर अहीरों को किसी क्षत्रिय प्रमाण पत्र की भी आवश्यकता नहीं ।
वे तो जन्म से ही यौद्धा अथवा वीर प्रवृत्तियों से समन्वित हैं ।
देखिए क्षत्रिय शब्द का अर्थ क्षत् से त्राण करने वाला वीर अथवा यौद्धा होता है ।
और यह कोई जातिगत उपाधि नहीं है विशेषत: वैदिक सन्दर्भों में - परन्तु लौकिक साहित्य में इसे जातिगत उपाधि ही बना दिया है ।
---जो कि एक रूढ़ि वादी मान्यता ही है ।
यदि क्षत्रिय शब्द का व्युत्पत्ति- मूलक विश्लेषण करें तो अहीर असली क्षत्रिय हैं ;
और इस अर्थ में अहीर तो सबसे पहले क्षत्रिय ही हैं सुमेरियन पुरातन कथाओं में खत्री या खत्ती (हिट्टी) जैसे शब्द भी हैं और भारतीय पुराणों में प्राय: कथाओं का सृजन वेदों के अर्थ -अनुमानों से ही किया गया है ।
फिर आप अहीरों को किस रूप में मानते हो ?
आप भी बताऐं ! श्री कृष्ण एक ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं जिनका सम्बन्ध असीरियन तथा द्रविड सभ्यता से भी है ।
द्रविड (तमिल) रूप अय्यर अहीर से विकसित रूप है। कहीं कहीं अहीरों को ब्राह्मणों ने उनकी अलौकिकताओं से प्रभावित होकर ब्राह्मण भी स्वीकार कर लिया है ।
परन्तु द्वेष फिर भी वरकरार रहा ।
कृष्ण को इतिहास कारों ने द्रविड संस्कृति का नायक स्वीकार किया है।
कृष्ण का स्पष्ट प्रमाण हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक श्लोक में मिलता है।
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छान्दोग्य उपनिषद :--(3.17.6 ) कल्पभेदादिप्रायेणैव “तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच” इत्युक्तम् । वस्तुतस्तस्य भगवदवतारात् भिन्नत्वमेव तस्य घोरा- ङ्गिरसशिष्यत्वोक्तेः _________________________________________ कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि घोर- आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी ! जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे।
श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था और गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है। परन्तु पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१४८ के अनुयायी ब्राह्मणों ने कुछ बातें जोड़ दी हैं।
जैसे "चातुर्य वर्णं मया सृष्टं गुण कर्म स्वभावत:" तथा वर्णानां ब्राह्मणोsहम"
क्योंकि पुष्यमित्र सुंग के निर्देशन में ब्राह्मण वर्चस्व वर्धन को लक्ष्य करके वैदिक धर्म के कर्म-काण्ड परक रूप की स्थापना हुई।
परन्तु कृष्ण का सम्पूर्ण आध्यात्मिक दृष्टि कोण प्राचीनत्तम द्रविड संस्कृति से अनुप्राणित है ।
---जो मैसॉपोटमिया की संस्कृति में द्रुज़ (Druze) कैल्ट संस्कृति में ड्रयूड (Druids) कहे गये ।
द्रविड दर्शन ही कृष्ण का दर्शन है ।
एक साम्य दौनों का
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।। जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |(6)
यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।।
किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा
कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |।।7।।
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।।
उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |18। -------------------------------------------------------------- आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं ।
जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids) कहते थे ।
जो यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ,कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे ।
पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी ... इतिहास कारों की कुछ एैसी ही मान्यताऐं हैं । ------------------------------------------------------------ Alexander Cornelius polihystor--referred to the Druids as philosopher and called their doctrine of the immortality of the Soul and reincarnation or metaphychosis " Pythagorean " _______________________________________ The pathyagorean doctrine prevails among the goals teaching that the souls of men are immortal , and that After a fixed Number of years they Will enter into Another body " ज्यूलियस सीज़र आगे लिखता है , ------------------------------------------------------------ Julius Caesar, De Bello Gllic, VI, 13.. _______________________________________
कि ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों का मुख्य बिन्दु था, कि आत्मा मरती नहीं है ।
( Philosophyof Druids About Soul) Alexander Cornelius Polyhistor referred to the druids as philosophers and called their doctrine of the immortality of the soul and reincarnation or metempsychosis "Pythagorean": "The Pythagorean doctrine prevails among the Gauls' teaching that the souls of men are immortal, and that after a fixed number of years they will enter into another body." Caesar remarks:
"The principal point of their doctrine is that the soul does not die and that after death it passes from one body into another"
(see metempsychosis).
Caesar wrote: With regard to their actual course of studies, the main object of all education is, in their opinion, to imbue their scholars with a firm belief in the indestructibility of the human soul, which, according to their belief, merely passes at death from one tenement to another; for by such doctrine alone, they say, which robs death of all its terrors, can the highest form of human courage be developed. Subsidiary to the teachings of this main principle, they hold various lectures and discussions on astronomy, on the extent and geographical distribution of the globe, on the different branches of natural philosophy, and on many problems connected with religion. — Julius Caesar, De Bello Gallico, VI, 13 )
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आत्मा के बारे में द्रुडों का दर्शन) अलेक्जेंडर कर्नेलियस पॉलीफास्टर ने द्रविडों को दार्शनिकों के रूप में संदर्भित किया और आत्मा और पुनर्जन्म या (मेटाम्प्सीकोसिस )"पायथागॉरियन" की अमरता के अपने सिद्धांत को कहा: "गौल्स (कोल)के बीच पाइथोगोरियन सिद्धान्त प्रचलित हैं ।
कि मानव की आत्माएं अमर हैं, और निश्चित अवधि के बाद वे दूसरे शरीर में प्रवेश करेंगीं।
सीज़र टिप्पणी:
"उनके सिद्धान्त का मुख्य बिन्दु यह है कि आत्मा मर नहीं जाती है और मृत्यु के बाद यह एक शरीर से दूसरे में गुज़रता है"
अर्थात् नवीन शरीर धारण करती है ।( मेटेमस्पर्शिसिस)।
सीज़र ने लिखा: अध्ययन के अपने वास्तविक पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में, सभी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य उनकी राय में, मानव आत्मा की अविनाशी होने में दृढ़ विश्वास के साथ अपने विद्वानों को आत्मसात करने के लिए है, जो उनकी धारणा के अनुसार, केवल मृत्यु से गुजरता है ।
जैसे एक मकान से दूसर मकान में; केवल इस तरह के सिद्धान्त द्वारा वे कहते हैं, जो अपने सभी भयों की मृत्यु को रोकता है, मानव स्वभाव के सर्वोच्च रूप को विकसित किया जा सकता है इस मुख्य सिद्धान्तों की शिक्षाओं के लिए सहायक, वे विभिन्न व्याख्यान और विश्व के भौगोलिक वितरण, प्राकृतिक दर्शन की विभिन्न शाखाओं पर, और धर्म से जुड़े कई समस्याओं पर, खगोल विज्ञान पर चर्चाएं आयोजित करते हैं। - जूलियस सीज़र, डी बेलो गैलिको, VI, 13 )
इतना ही नहीं पश्चिमीय एशिया में यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ एकैश्वरवादी (Monotheistic) थे ।
ये इब्राहीम परम्पराओं के अनुयायी थे ।
जिसे भारतीय संस्कृति में ब्रह्मा कहा गया है ।
परन्तु ये मुसलमान ,ईसाई और यहूदी होते हुए भी ईश्वर को एक मानते थे ।
तथा इनका विश्वास था कि पुनर्जन्म होता है ।
और आत्मा दूसरे शरीर में जाती है । सीरिया ,इज़राएल ,लेबनान और जॉर्डन में बहुसंख्यक रूप से ये लोग आज भी अपनी मान्यताओं का दृढता से अनुपालन कर रहे हैं ।
तथा इनका मानना है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा एक दूसरे शरीर में प्रवेश करती है ,वह भी जीवन में वर्ष की निश्चित संख्या के अन्तर्गत .. ---------------------------------------------------------------
श्रीमद्भगवद् गीता में वस् धातु द्वयर्थक है ।
वस--निवासे आच्छादने वा आधारकर्मादौ घञ् ।
१ गृहे २ वस्त्रे ३ अवस्थाने हेमचन्द्र कोश।
वास--अच् । ४ वासके शब्दरत्नावली ।
तत्रार्थे स्त्रीत्वमपि तत्र टाप् ।
५ सुगन्धे च ।
स्थानभेदेऽवस्थाननिषेधी यथा “तस्मात् सङ्कीर्णवृत्तेषु वासो मम न रोचते ।
पुंसो ये नाभिनन्दन्ति वृत्तेनाभिजनेन च ।
न तेषु च वसेत् प्राज्ञः श्रेयोऽर्थी पापपुद्धिपु ।
ये त्वेवमभिजानन्ति वृत्तेनाभिजनेन च ।
तेषु साधुषु व स्तव्यं सवासः श्रेयसे मतः”
मात्स्ये २८ अध्याय
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“धार्मिकैरावृते ग्रामे न व्याधिबहुले भृशम् ।
न शूद्रराज्ये निवसेत् न पाषण्डजनैर्वृते । हिमवद्बिन्ध्ययोर्मध्यं पूर्वपश्चिमयोः शुभम् ।
मुक्त्वा समुद्रयोर्देशं नान्यत्र निवसेत् द्विजः ।
अर्द्धक्रोशान्नदोकूलं वर्जयित्वा द्विजोत्तमः ।
नान्यत्र निवसेत् पुण्यं नान्त्यजग्रामसन्निधौ ।
न संवसेच्च पतितैर्न चण्डालैर्न पुक्कशैः ।
न मूर्खैर्नावलिप्तैश्च नान्त्यैर्नान्त्यावसायिभिः”
कूर्मपुराण १५ अ० ।
“धनिनः श्रोत्रियो राजा नदी वैद्यश्च पञ्चमः ।पञ्च यत्र न विद्यन्ते तत्र वासं न कारयेत्” चाणक्य 📢
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...सम्पूर्ण सृष्टि में जीव की भिन्नता का कारण प्राणी का चित् अथवा मन ही है ।
हमारा चित्त ही हमारी दृष्टि ज्ञान और वाणी का संवाहक है, हमारी चेतना जितनी प्रखर वाणी उतनी ही स्पष्ट और उज्ज्वल।
कृष्ण का ज्ञान निस्सन्देह आध्यात्मिक ही है;
परन्तु कृष्ण को आधार मानकर काम शास्त्र की व्याख्याऐं इनके चरित्र पर आरोपित की गयीं ।
कृष्ण के जन्म और बाल-जीवन का जो वर्णन हमें प्राप्त है वह मूलतः श्रीमद् भागवत आदि पुराणों का है;
और वह ऐैतिहासिक कम, काल्पनिक अधिक हैं;
और यह बात ग्रन्थ के आध्यात्मिक स्वरूप के अनुसार ही है।
भागवत पुराण बारहवीं सदी की रचना है ।
जिसका निर्माण दक्षिणात्य के उन ब्राह्मणों ने किया जो वात्स्यायन के कामशास्त्र से अनुप्रेरित थे खजुराहो मध्य प्रदेश के मन्दिर काम शास्त्रीय पद्धति पर आरेखित प्रस्तुत चित्र हैं ।
अधिकांश पुराण इसी काल की रचनाऐं हैं ।
आइए देखें--- 👇
उनमे ध्वनित अश्लीलता भागवतपुराण को सन्दर्भित करते हुए।
दक्षिणावर्तलिंगश्च नरो वै पुत्रवान् भवेत |
वामावर्ते तथा लिंगे नर: कन्या प्रसूयते ||१||
स्थूले: शिरालेर्वीषमैर्लिंगैर्दारिद्र्यमादिशेत् | ऋजुभिर्वर्तुलाकारे: पुरुषा: पुत्रभागिन: ||२|| -
भविष्यपुराण ब्राह्म. अध्याय ।२५।
अर्थ –जिस आदमी का लिंग दायी तरफ झुका हुआ हो वह पुत्र पैदा करने वाला होता है|
जिसका लिंग बायीं तरफ झुका हो उसके कन्या पैदा होती है ||१||
मोटे रंगोवाले ,टेढ़े रंगोवाले ,टेड़े लिंगो से दरिद्रता होती है जिन पुरुषो के लिंग सीधे ,गोल होवे ,वे पुत्रो के भागी होते है ||२||
कटुतेल भल्लातन्क बृहतीफलदाडिमम् ||१७ ||
कल्के: साधितैर्लिंप्त लिंग तेन विवर्द्धते ||१८||
-गरुडपुराण .आचार. अध्याय १७६ अर्थ
–कडवा तेल ,भिलावा ,बहेड़ा तथा अनार, इसकी चटनी के लेप करने से लिंग बढ़ता है |
कर्पुर देवदारु च मधुना सह योजयेत् |
लिंगलेपाच्च तेनैव वशीकुर्यात स्त्रिय किल ||२|| - -गरुडपुराण .आचार .अध्याय १८० अर्थ – कपूर ,देवदारु को शहद के साथ मिलाकर लिंग के लेप करे तो स्त्री वश में हो जाती है|
सैन्धव च महादेव पारावतमल मधु |
एभिर्लिंप्ते तु लिंगे वे कामिनीवशकृद भवेत ||१६|| - गरुडपुराण. आचार.अध्याय १८५ अर्थ –हे महादेव ! नमक और कबूतर की बीठ शहद में मिलाकर यदि लिंग के लेप करे तो स्त्री वश में हो जाती है ब्रह्मचर्येsपि वर्तनत्या: साध्व्या ह्मपि च श्रूयते | ह्रद्ंय हि पुरुष दृष्टवा योनि: संक्लिद्यते स्त्रिया: ||२८|| - भविष्यपुराण. ब्राह्म. अ. ७३ ।
ब्रह्मचर्य में रहती साध्वी स्त्री की योनि भी सुन्दर पुरुष को देख कर टपकने लगती है |
बभूव काममत्ताया योनौ कंडूयन जलम् ||२४|| - ब्रह्मवैवर्तपुराण खण्ड ४ अध्याय २३ ।
रोमाञ्चित हुई धर्मयुक्त स्त्री के भी काम में मत्त होने पर योनि में खुजली तथा जल टपकने लगता है २४। कर्पुरमदनफलमधुकै: पूरित: शिव |
योनि: शुभा स्याद वृध्दाया युवत्या: कि पुनर्हर||१६|| - गरुड़पुराण आचार. अ. २०२ ।
हे शिव ! यदि योनि को कपूर ,मैनफल तथा शहद से भर दिया जावे तो बूढी स्त्री की योनि भी बढिया हो जाती है जवान का तो कहना ही क्या ||
इसके अलावा बहुत से ऐसी बाते पुराणों में है|
ऐसा लगता है कि जेसे ये पुराण नही बल्कि कोई यौवनचिकित्सा शास्त्रीय या कामशास्त्रीय ग्रन्थ हों । ________________________________________ भागवतपुराणकार ने भी काम (सेक्स) को केन्द्रित करके इस पुराण की रचना की है । वस्तुतः भागवत में सृष्टि की सम्पूर्ण विकास प्रक्रिया का और उस प्रक्रिया को गति देने वाली परमात्म शक्ति का दर्शन काल्पनिक और कामात्मक (रास लीला परक रूप )में कराया गया है।
ग्रन्थ के पूर्वार्ध (स्कन्ध 1 से 9) में सृष्टि के क्रमिक विकास (जड़-जीव-मानव निर्माण) का और उत्तरार्ध (दशम स्कन्ध) में श्रीकृष्ण की लीलाओं के द्वारा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का वर्णन प्रतीक शैली में किया गया है।
यद्यपि कहीं कहीं सांख्य दर्शन की गम्भीरता तो कहीं वेदान्त दर्शन के अद्वैत वाद की गरिमा भी है ।
भागवत में वर्णित श्रीकृष्ण लीला के कुछ मुख्य प्रसंगों का आध्यात्मिक संदेश पहुचानने का यहाँ प्रयास किया गया है। जो कि उस काल की प्रवृत्ति रही है __________________________________________ भारतीय पुराणों की कालगणना के अनुसार कृष्ण का जन्म आज से लगभग 5,235 ई सन् हुआ था
परन्तु कई वैज्ञानिक कारणों से प्रेरित कृष्ण का जन्म 950 ईसापूर्व मानना है ।
सम्भवतः समीचीन भी है ।
इस समय कृष्ण का वर्णन भोज पत्रों आदि पर हुआ हो परन्तु कृष्ण का युद्ध आर्यों के नेता इन्द्र से हुआ ऐसा ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ९०वें सूक्त का वर्णन कहता है और महाभारत में कृष्ण के दार्शिनिक तथा राजनैतिक रूप का वर्णन है। महाभारत का लेखन बुद्ध के बाद में हुआ है ।
क्योंकि आदि पर्व में बुद्ध का ही वर्णन हुआ है।
बुद्ध का समय ई०पू० 566 के समकक्ष है ।
छान्दोग्य उपनिषद का अनुमान कृष्ण से सम्बद्ध है,
जो 8 वीं और 6 वीं शताब्दी ई०पू० के बीच कुछ समय में रचित हुआ था, प्राचीन भारत में कृष्ण के बारे में अटकलों का एक और स्रोत रहा है।
भागवत महापुराण के द्वादश स्कन्ध के द्वितीय अध्याय के अनुसार कलियुग के आरम्भ के सन्दर्भ में भारतीय गणना के अनुसार कलयुग का शुभारम्भ ईसा से 3102 वर्ष पूर्व 20 फ़रवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकण्ड पर हुआ था ऐसा रूढि वादी ज्योतिषियों का मत है ।।
एेसा तो आनुमानिक रूप से माना है।
परन्तु यह तथ्य प्रमाण रूप नहीं हैं ।
क्योंकि पुराणों में बताया गया है कि जब श्री कृष्ण का गोलोक वास हुआ तब कलयुग का आगमन हुआ,
इसके अनुसार कृष्ण जन्म 4,500 से 3,102 ई०पूर्व के बीच मानना ठीक रहेगा।
इस गणना को सत्यापित करने वाली खोज-
मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई। पुरातत्व वेत्ता मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला है , जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बच्चे का चित्र बना हुआ था, जो भागवत आदि पुराणों के कृष्ण से सम्बद्ध थे।
पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर ले जाता है।
इससे सिद्ध होता है कि कृष्ण 'द्रविड संस्कृति से सम्बद्ध हैं ।
वैसे भी अहीरों (गोपों)में कृष्ण का जन्म हुआ ; और द्रविडों में अय्यर (अहीर) तथा द्रुज़ Druze नामक यहूदीयों में अबीर (Abeer) समन्वय स्थापित करते हैं। _________________________________________ इसके अनुसार महाभारत का युद्ध 950 ई०पूर्व तक होता रहा होगा जो पुरातात्विक सबूत की गणना में सटीक बैठता है।
द्रविड अथवा सिन्धु घाटी की संस्कृतियाँ 5000 से 950 ई०पू० समय तक निर्धारित हैं।
इससे कृष्ण जन्म का सटीक अनुमान मिलता है। __________________________________________
वल्लभाचार्य जी द्वारा स्थापित पुष्टिमार्गी सम्प्रदाय के अनुयायी भगवान कृष्ण के लिए ठाकुर जी सम्बोधन देते हैं।
इसी सम्प्रदाय ने कृष्ण जी को ठाकुर का प्रथम सम्बोधन दिया ।
यद्यपि किसी पुराण अथवा शास्त्र में ठक्कुर शब्द का प्रयोग कृष्ण के लिए कभी नहीं हुआ है।
भ्रान्ति वश बेवजह राजपूत समुदाय के लोग कृष्ण को ठाकुर बिरादरी से सम्बद्ध कर रहे हैं ।
वल्लभाचार्य एक रूढि वादी ब्राह्मण थे ।
और राजपूतों के श्रद्धेय भी थे ।
परन्तु इस सम्बोधन के मूल में कालान्तरण में यह भावना प्रबल रही कि
" कृष्ण को यादव सम्बोधन न देकर केवल आभीर (गोप) जन-जाति को हेय सिद्ध किया जा सके ।
इसलिए ठाकुर जी का सम्बोधन दिया जाने लगा । वस्तुत जादौन भाटी अथवा अन्य राजपूत ---जो स्वयं को यदुवंशी क्षत्रिय कहते हैं ।
अपने आप को गोपों से सम्बद्ध नहीं करते हैं । परन्तु कृष्ण तो गोप ही थे ।
अब देखिए हरिवंश पुराण में वसुदेव तथा उनके पुत्र कृष्ण को गोप (आभीर) कहा!👇 ________________________________________ गोपायनं य: कुरुते जगत: सर्वलौककम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णु: गोपत्वम् आगत ।।९।
(हरिवंश पुराण ) अर्थात् :- जो प्रभु विष्णु पृथ्वी के समस्त जीवों की रक्षा करने में समर्थ है ।
वही गोप (आभीर) के घर (अयन)में गोप बनकर आता है ।९।
हरिवंश पुराण १९ वाँ अध्याय ।
तथा और भी देखें---यदु को गायों से सम्बद्ध होने के कारण ही यदुवंशी (यादवों) को गोप कहा गया है । देखें :- महाभारत का खिल-भाग हरिवंश पुराण.. __________________________________________ " इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेन अहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ: सतेनांशेन जगतीं
गत्वा गोपत्वं एष्यति ।।२२।।
द्या च सा सुरभिर्नाम् अदितिश्च सुरारिण:
ते८प्यमे तस्य भुवि संस्यते ।।२४।।
वसुदेव: इति ख्यातो गोषुतिष्ठति भूतले ।
गुरु गोवर्धनो नामो मधुपुर: यास्त्व दूरत:।।२५।। सतस्य कश्यपस्य अंशस्तेजसा कश्यपोपम:। तत्रासौ गोषु निरत: कंसस्य कर दायक:
तस्य भार्या द्वयं जातमदिति: सुरभिश्चते ।।२६।।
देवकी रोहिणी चैव वसुदेवस्य धीमत: _________________________________________ अर्थात् हे विष्णु ! महात्मा वरुण के एैसे वचन सुनकर तथा कश्यप के विषय में सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त करके उनके गो-अपहरण के अपराध के प्रभाव से कश्यप को व्रज में गोप (आभीर) का जन्म धारण करने का शाप दे दिया ।।२६।।
कश्यप की सुरभि और अदिति नाम की पत्नीयाँ क्रमश: रोहिणी और देवकी हुईं ।
यद्यपि पुराण कारों ने कृष्ण के लिए ठाकुर सम्बोधन कभी प्रयुक्त नहीं किया ।
यह तथ्य पिष्टपेषण अथवा पुनरुक्त करने का यही तात्पर्य है कि कृष्ण को पुराणों में गोप ही कहा गया है। ठाकुर नहीं __________________________________________ क्योंकि ठाकुर शब्द संस्कृत भाषा का नहीं अपितु ये तुर्की , ईरानी तथा आरमेनियन मूल का है ।
अतः शास्त्र कार इस शब्द के प्रयोग से बचते रहे । __________________________________________ पुराणों में तथा महाभारत के अन्तर्गत शान्ति - पर्व से उद्धृत श्रीमद्भगवद् गीता में भी कृष्ण को यादव ही कह कर सम्बोधित किया गया है , ठाकुर नहीं ।
देखें---👇 _______________________________________ सखेति मत्वा प्रसभं यदुक्तं हे कृष्ण हे यादव हे सखेति।
अजानता महिमानं तवेदं मया प्रमादात्प्रणयेन वापि॥११- ४१॥
(श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय ११ श्लोक संख्या ४१) ________________________________________ अर्थात् हे भगवन्, आप को केवल अपना मित्र ही मान कर, मैंने प्रमादवश अथवा प्रेम वश आपको जो यह हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा (मित्र) कह कर सम्बोधित किया, वह आप की महिमा को न जानते हुए ही किया हैे। ________________________________________ और ठाकुर शब्द तुर्कों और ईरानियों के साथ भारत आया ठाकुर जी सम्बोधन का प्रयोग वस्तुत : स्वामी भाव को व्यक्त करने के निमित्त है ।
न कि जन-जाति विशेष के लिए ।
कृष्ण को ठाकुर सम्बोधन का क्षेत्र अथवा केन्द्र नाथद्वारा ही प्रमुखत: है।
यहाँ के मूल मन्दिर में कृष्ण की पूजा ठाकुर जी की पूजा ही कहलाती है।
यहाँ तक कि उनका मन्दिर भी हवेली कहा जाता है।
________________________________________
विदित हो कि हवेली (Mansion)और तक्वुर (ठक्कुर)
" A person who wearer of the crown is called Takvor " दौनों शब्दों की पैदायश ईरानी भाषा से है कालान्तरण में भारतीय समाज में ये शब्द रूढ़ हो गये
⛺⛺.🌲☘🌴 🌉 ..................................
पुष्टिमार्गीय सम्प्रदाय के देशभर में स्थित अन्य मन्दिरों में भी भगवान को ठाकुर जी कहने का परम्परा रही है।
जब वेदों में यदु को ही दास अथवा असुर रूप में वर्णन किया हो ।
तो जाहिर सी बात है कि पुरोहितों का यदु वंश से भी घृणा अथवा द्वेष होगा ही क्यों वेदों के विधानों को पारित व प्रचारित करने के लिए ब्राह्मण भारतीय समाज में हस्तक्षेप करते रहे हैं ।
______________________________________
येन महानघ्न्या जघनमश्विना येन सुरा ।
येनाक्षा अभ्यषिच्यन्त तेनेमां वर्चसावतम् ।३६। अथर्ववेद १५/१/३६
अथर्ववेद में इतिहासस्य च वै स पुराणस्य च गाथानां चनाराशंसीनां
च प्रियं धाम भवति य एवं वेद ।१२।
अथर्ववेद का० १५/अ०१ सू० ६ इस बात को जानने वाला इतिहास पुराण (पुराना)गाथाओं का प्रियधाम होता है ।
स विशो ८नु व्यचलत् ।१।
तं सभा च समितिश्च सेना च सुरा चानुव्यचलन ।२। सभायाश्च वै स समितेश्च सेनायाश्च सुरायाश्च प्रियं धाम भवति य एवं वेद ।
अथर्ववेद (का०१५ अ०२ सूक्त ९ )
उसने प्रजाओं के अनुकूल व्यवहार किया सभा समिति सेना और सुरा उसके अनुकूल हो गये।
इस प्रकार जानने वाला समित सभा सेना और सुरा का -प्रिय धाम होता है । __________________________________________ प्रियास इत् ते मघवन्नभिष्टौ नरो
मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
ऋग्वेद (७/१९/८ )में भी यही ऋचा है अथर्ववेद (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७
हे इन्द्र ! तुम्हारे मित्र रूप यजमान हम अपने घर में प्रसन्नता से रहें।
तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले हो ऋग्वेद में अर्थ किया हे !
इन्द्र तुम अतिथि की सेना करने सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को अपने अधीन करो ।
और भी देखें---
_______________________________________
अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
हो सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों (नगरों) को तोड़ा था ।
उसी रस से युक्त होकर इन्द्र के पाने के लिए प्रवाहित होओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले सोम रस ने ही तुर्वसु सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों को शासन (वश)में किया ।
सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि । ऋग्वेद ८/४६/२७
हे इन्द्र ! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला । अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० । निह्नवाकर्त्तरि ।
“सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ ________________________________________ किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/
हे इन्द्र तुम भोगने वाले हो ।
तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो ।
मुझे क्षीण न करो ।
वेद मेंअश्लील
ता तद् इन्द्राव आ भर येना दसिष्ठ कृत्वने ।
द्विता कुत्साय शिश्नथो नि चोदय !
ऋग्वेद ८/२४/२५ चोदयति चोदना, चोद्यम् 55
अर्थात् यूरोपीय संस्कृतियों की तरह ऋग्वेद में भी स्पष्टत अश्लीलता है ।
यदु एेसे स्थान पर रहते हैं ।
जहाँ ऊँटो का बाहुल्य है ।
शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे ।
राधांसि यादवानाम् त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६।
उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।१७।
यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया ! ऋग्वेद ८/६/४६ _______________________________________ ऋतं वोचे नमसा पृच्छ्यमानस्तवाशसा जातवेदो यदीदम् त्वमस्य क्षयसि यद्ध विश्वं दिवि यदु द्रविणं यत् पृथिव्याम् ।।११। ऋग्वेद १/५/११
द्विर्य पञ्च जीजनन् त्वसंवसाना : स्वसारो अग्नि मानुषीषु विक्षु।
ऋ ० १/६/८ स्वसृ (स्त्री) उत् त्या तुर्वशा यदू अस्नातारा शचिपति : ।
इन्द्रो विद्वाँ अपारयत् ।।१७।।
ऋग्वेद-४/३१/१७ अर्थात् शचि पति इन्द्र नें यदु और तुर्वसु को संकट (विद्वाँ )से पार किया ।
त्वमपो यदवे तुर्वन्नाया८रमय: सुदुघा पार इन्द्र । ऋग्वेद ५/३२/७ अर्थात् हे इन्द्र तुमने यदु और तुर्वसु को हमसे बहुत दूर समुद्र के पार कर दिया ।
यदु और तुर्वसु समु्द्र पार रहते हैं।
ऋग्वेद में इसके प्रमाण ---
प्र यत् समुद्रमतिं शूर पर्षि पारया
तुर्वसुं यदुं स्वस्ति ।१२।
ऋग्वेद ६/२०/१२
हे इन्द्र ! तु समु्द्र लाँघने में सफल होते हो !
तब समुद्र के पार रहने वाले यदु और तुर्वसु को समु्द्र के पार भगाते हो ।
अव गिरेर् दासं शम्बरं हन् प्रावो
दिवोदासं चित्राभिरूती ।५।
ऋग्वेद ६/२६/५/ हे इन्द्र तुमने दास शम्बर को पर्वत से नीचे गिराकर मारा और दिवोदास की रक्षा की ।
हरप्पा का वर्णन --
वधीदिन्द्रो वरशिखस्य शेषो८भ्यावर्तिने चायमानाय शिक्षन्।
वृची वतो यद् हरियूपीयायां हन् पूर्वज अर्धे भियसापरो दर्त् ।। ऋ० ६/२७/५ ऋग्वेद में मितन्नीयों का वर्णन भी देखें----जो कि एक सुमेरियन जन-जाति है ।
-- स वह्निभिर्ऋक्वभिर्गोषु शश्वन् मितज्ञुभि: पुरुकृत्वा जिगाय।ऋ०६/३२/३ कहीं कहीं वर्णन है कि जो यदु और तुर्वसु को दूर देशों से यहाँ लाये थे ।
वे इन्द्र हमारे मित्र हों नीचे देखें---
य आनयत् परावत: सुनीती तुर्वशं यदुम् । इन्द्र: स नो युवा सखा ।।ऋ० ६/४५/१ _____________________________________
इति ---
असली यदुवंशी कौन ? (4) अहीर अथवा जादौन -- भाग चतुर्थ
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तुर्किस्तान में (तेकुर अथवा टेक्फुर )परवर्ती सेल्जुक तुर्की राजाओं की उपाधि थी ।
यहाँ पर ही इसका जन्म हुआ ।
असली यदुवंशी कौन ? (4) अहीर अथवा जादौन -- भाग चतुर्थ
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"तब निस्सन्देह इस्लाम धर्म का आगमन नहीं हो पाया था मध्य एशिया में ।
वहाँ सर्वत्र ईसाई विचार धारा ही प्रवाहित थी ,
केवल छोटे ईसाई राजा होते थे ।
ये स्थानीय बाइजेण्टाइन ईसाई सामन्त (knight) अथवा माण्डलिक ही होते थे तब तुर्की भाषा में इन्हें तक्वुर (ठक्कुर) ही कहा जाता था ! उस समय एशिया माइनर (तुर्की) और थ्रेस में ही इस प्रकार की शासन प्रणाली होती थी " __________________________________________ टेकफुर (ठक्कुर ) शब्द का जन्म एक टाइटल (उपाधि) के रूप में हुआ था ।
जो कि सेल्जुक और प्रारम्भिक तुर्क अवधि (शासन काल)में स्वतन्त्र या अर्ध-स्वन्त्र अल्पसंख्यक ईसाई शासकों या एशिया माइनर और थ्रेस में स्थानीय बीजान्टिन गवर्नरों के सन्दर्भों में था।
उत्पत्ति और अर्थ की दृष्टि से भारत में जब विदेशीयों का क्षत्रिय करण ब्राह्मण धर्म के संरक्षण एवं बौद्ध श्रमणों के क्षरण के लिए राजस्थान के माउण्ट आबू पर्वत पर अग्नि संस्कार (यज्ञ) के द्वारा हुआ ।
हूण , कुषाण तथा तुर्की, मंगोलियन तथा ईरानी मूल के गादौन अथवा जादौन पठानों का समायोजन हुआ ।
संस्कृत भाषा में इन्हें प्रस्थ अथवा प्रस्थान अथवा पृक्त कहा । यह समय छठी सदी का उत्तरार्द्ध था तब ठाकुर शब्द का प्रचलन सातवीं से बारह तेरहवीं सदी तक सभी राजपूतों के लिए उनके जमीदारी खिताबो के तौर पर हुआ ।
यद्यपि ठक्कुर शब्द की उत्पत्ति अनिश्चित है।
यह सुझाव दिया गया है कि यह अरबी निकोर (Nikfor )के माध्यम से बीजान्टिन शाही नाम निकेफोरोस (Nikephoros )से निकला है।
कभी-कभी यह भी कहा जाता है कि यह आर्मेनियाई टैघॉवर,( taghavor) :-- मुकुट-धारक से निकला है।
शब्द और इसके रूपों काल परिस्थितियों व जल-वायु प्रभाव से कुछ उच्चारण भेद भी हुआ जैसे-(टेकवुर, टेकुर, तेकिर,(tekvur, tekur, tekir )इत्यादि।
13 वीं शताब्दी में फारसी या तुर्की में लिखने वाले इतिहासकारों द्वारा इस शब्द का उपयोग सामन्त अथवा भू-खण्ड मालिकों के लिए हुआ ।
जैसे- "बीजान्टिन लॉर्ड्स या अनातोलिया (तुर्की) में कस्बों और किले के राजपालों गवर्नरों को संदर्भित करने के लिए हुआ" यह अक्सर बीजान्टिन सीमावर्ती युद्ध के नेताओं, अक्रितई के कमांडरों को दर्शाता है, लेकिन बीजान्टिन राजकुमारों और सम्राटों को भी खुद ", उदाहरण के लिए Tekfur Sarayı के मामले में, इस प्रकार इतिहास कार इब्न बीबी सिक्किशिया के अर्मेनियाई राजाओं को टेकवुर के रूप में सन्दर्भित करते हैं, जबकि वह और डेडे कॉर्कट महाकाव्य ट्रेबीज़ोंड के साम्राज्य के शासकों को "दंजित के टेकवुर" के रूप में सन्दर्भित करते हैं।
प्रारम्भिक तुर्क अवधि में, इस शब्द का इस्तेमाल किले और कस्बों के बीजान्टिन गवर्नर दोनों के लिए किया गया था, जिनके साथ तुर्क उत्तर-पश्चिमी अनातोलिया और थ्रेस में तुर्क विस्तार के दौरान लड़े थे, लेकिन बीजान्टिन सम्राटों के लिए भी, मलिक के साथ एक दूसरे के साथ ("राजा") और शायद ही कभी, फासिलीयस (बीजान्टिन शीर्षक बेसिलस का प्रतिपादन) भी ठक्कुर खिताब से हुआ हो हसन कोलक सुझाव देता है कि यह उपयोग कम से कम वर्तमान राजनीतिक वास्तविकताओं और बीजान्टियम की गिरावट को प्रतिबिम्बित करने के लिए एक जानबूझकर विकल्प के तौर पर था, जो 1371-94 के बीच और फिर 1424 के बीच और 1453 में कॉन्स्टेंटिनोपल के पतन के कारण रंप बीजान्टिन राज्य ओटोमैन को एक सहायक वासल के समय प्रचलन में रहा ।
15 वीं शताब्दी के तुर्क इतिहासकार एनवेरी कुछ हद तक अद्वितीय रूप से दक्षिणी ग्रीस के फ्रैंकिश शासकों और एजियन द्वीपों के लिए टेकफुर शब्द का उपयोग करते हैं। संदर्भ तालिकाऐं --👇
^ ए बी सी डी Savvides 2000, पीपी 413-414। ^ ए बी Çolak 2014, पी। 9। ^ कोलक 2014, पीपी। 13 एफ .. ^ कोलक 2014, पी। 19। ^ कोलक 2014, पी। 14। सूत्रों का कहना है कोलक, हसन (2014)। "Tekfur, Fasiliyus और Kayser: ओटोमन दुनिया में बीजान्टिन इंपीरियल Titulature की अपमान, लापरवाही और स्वीकृति"।
Hadjianastasis, Marios में। ओटोमन इमेजिनेशन के फ्रंटियर: रोड्स मर्फी के सम्मान में अध्ययन। BRILL। पीपी 5-28। आईएसबीएन 978 9 004280 9 15। Savvides, एलेक्सियो (2000)।
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एमपी तग-आवरा (हब्सचमान, आर्मेनिस ग्रेमैटिक देखें। आई आर्मेन। एटिमोलॉजी, लीपज़िग 18 9 7, एसवी; आई मैलिकॉफ-सियार, ले डेस्टान डी उमुर पाचा, पेरिस 19 54, 47 एन 6, और इंडेक्स, 144 बी) या, ग्रीक नाम निकफोरोस> निकोर> टेकफुर से कम संभावना है (ज़ेनकर, तुर्क। अरबी-पर्स देखें। हैंडवॉर्टरबच, लीपज़िग 1866, एसवी; ई। जचरियाडो, हिस्ट और प्रारंभिक सुल्तानों की किंवदंतियों 1300-1400 [जीके में], एथेंस 1 99 1, 215)। यह फारसी में इतिहासकारों द्वारा नियोजित किया गया था ... इस पृष्ठ को उद्धृत करें Savvides, ए, "Tekfur", में: इस्लाम के विश्वकोष, द्वितीय संस्करण, द्वारा संपादित: पी। Bearman, । Bianquis, सीई Bosworth, ई। वैन Donzel, डब्ल्यूपी। Heinrichs। 01 जुलाई 2018 को ऑनलाइन परामर्श पहले ऑनलाइन प्रकाशित: 2012 पहला प्रिंट संस्करण: आईएसबीएन: 978 9 004161214, 1 9 60-2007 __________________________________________ Tekfur was a title used in the late Seljuk and early Ottoman periods to refer to independent or semi-independent minor Christian rulers or local Byzantine governors in Asia Minor and Thrace. Origin and meaning- The origin of the title is uncertain.
It has been suggested that it derives from the Byzantine imperial name Nikephoros, via Arabic Nikfor.
It is sometimes also said that it derives from the Armenian taghavor, "crown-bearer".
The term and its variants (tekvur, tekur, tekir, etc.) began to be used by historians writing in Persian or Turkish in the 13th century, to refer to "denote Byzantine lords or governors of towns and fortresses in Anatolia (Bithynia, Pontus) and Thrace. It often denoted Byzantine frontier warfare leaders, commanders of akritai, but also Byzantine princes and emperors themselves", e.g. in the case of the Tekfur Sarayı , the Turkish name of the Palace of the Porphyrogenitus in Constantinople (mod. Istanbul).
Thus Ibn Bibi refers to the Armenian kings of Cilicia as tekvur, while both he and the Dede Korkut epic refer to the rulers of the Empire of Trebizond as "tekvur of Djanit".
In the early Ottoman period, the term was used for both the Byzantine governors of fortresses and towns, with whom the Turks fought during the Ottoman expansion in northwestern Anatolia and in Thrace,but also for the Byzantine emperors themselves, interchangeably with malik ("king") and more rarely, fasiliyus (a rendering of the Byzantine title basileus).Hasan Çolak suggests that this use was at least in part a deliberate choice to reflect current political realities and Byzantium's decline, which between 1371–94 and again between 1424 and the Fall of Constantinople in 1453 made the rump Byzantine state a tributary vassal to the Ottomans.The 15th-century Ottoman historian Enveri somewhat uniquely uses the term tekfur also for the Frankish rulers of southern Greece and the Aegean islands. References ^ a b c d Savvides 2000, pp. 413–414. ^ a b Çolak 2014, p. 9. ^ Çolak 2014, pp. 13ff.. ^ Çolak 2014, p. 19. ^ Çolak 2014, p. 14. Sources Çolak, Hasan (2014).
"Tekfur, fasiliyus and kayser:
Disdain, Negligence and Appropriation of Byzantine Imperial Titulature in the Ottoman World". In Hadjianastasis, Marios. Frontiers of the Ottoman Imagination: Studies in Honour of Rhoads Murphey. BRILL. pp. 5–28. ISBN 9789004280915. Savvides, Alexios (2000). "Tekfur". The Encyclopedia of Islam, New Edition, Volume X: T–U. Leiden and New York: BRILL. pp. 413–414. ISBN 90-04-11211-1. Tekfur (638 words) , Tekvur , a title used in late Rūm Sald̲j̲ūḳ and early Ottoman times. It is most probably of Armenian origin (< tag̲h̲avor “crown bearer”, MP tāg-āwāra (see Hubschmann, Armenische Grammatik . i. Armen . Etymologie , Leipzig 1897, s.v.; I. Mélikoff-Sayar, Le Destān d’Umūr Pacha , Paris 1954, 47 n. 6, and index, 144b) or, less likely, from the Greek name Nikephoros > Nikfor > Tekfur (see Zenker, Türk. arab.-pers. Handwörterbuch , Leipzig 1866, s.v.; E. Zachariadou, Hist . and legends of the early sultans 1300-1400 [in Gk.], Athens 1991, 215). It was employed by historians in Persi… Savvides, A., “Tekfur”, in: Encyclopaedia of Islam, Second Edition, Edited by: P. Bearman, Th. Bianquis, C.E. Bosworth, E. van Donzel, W.P. Heinrichs. Consulted online on 01 July 2018 First published online: 2012 First print edition: ISBN: 9789004161214, 1960-
Jadoon (जादून)---- जादुून / गादून पाकिस्तान में एक (पश्तूनों) पठानों की जनजाति हैं।
जादौन (हिन्दुस्तान / पश्तो / उर्दू: جدون), जिसे गाडोन (पश्तो: ګدون) भी कहा जाता है, पाकिस्तान में एक पश्तुन जनजाति है।
एक शौकिया नृवंशविज्ञानी और प्रशासन ब्रिट्रिश राज में , होरेस रोज ने उन्हें ईस्वी सन् 1911 में स्वाबी में गादून में आंशिक रूप से उपस्थित किया, और आंशिक रूप से किबर (खैबर) पख्तुनख्वा प्रान्त के एबोटाबाद और हरिपुर जिलों में उपस्थित हुए। दुरन्द रेखा के पार, जनजाति के कुछ सदस्य अफगानिस्तान में नंगारहर और कुनार में रहते हैं। जादौन स्वाबी और अफगानिस्तान और हिंदुको में एबोटाबाद और हरिपुर में पश्तो बोलते हैं। वहाँ नाम जडून को कभी-कभी गदून के रूप में लिखा जाता है और एक उद्धरण में सुडून के रूप में लिखा जाता है।
असल में जडून इहेबेटेंट्स और गैडून क्षेत्र है। गॉडून के लोगों को जडून कहा जाता है। अत: जादौन पठानों की भारतीय शाखा है ।जनजाति की वंशावली तालिका, जैसा कि "तारख-ए-खान जहांनीवा- 1612 ईस्वी में लिखे गए ख्वाजा निमातुल्लाह हरवी द्वारा मखजान-ए-अफगानी, को पुनरुत्पादित किया गया है (परिशिष्ट संख्या 1 में)।
यह पुस्तक मुगल सम्राट जहांगीर के क्षेत्र में लिखी गई थी जिसमें जादौन जनजाति को एक पश्तूनों अथवा पठानों की शाखा के रूप में जाना जाता है पनी अफगान, सर ओलाफ कैरो, गुरघुष्ट की वंशावली तालिका के तहत अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "द पठान" में उल्लेख किया गया है कि जाडोन पन्ना जनजाति के रूप में उतरे थे।
"पाकिस्तान: राजनीतिक विकास की पहेली" पृष्ठ पर लेखक 14 9 और एनडब्ल्यूएफपी 19 54 की साल की पुस्तक की पृष्ठ 14, लिखती है: एनडब्ल्यूएफपी जनसांख्यिकीय और जनजातीय लोगों के बीच जनसांख्यिकीय रूप से विभाजित है। यद्यपि पठान संख्यात्मक रूप से श्रेष्ठ हैं, यह क्षेत्र अवंस, गुजर इत्यादि का घर भी है।
पठान, पर्वत श्रृंखलाओं में प्रमुखों की कई विशिष्ट जनजातीय इकाइयों में विभाजित हैं, यूसुफजई की मलकंद एजेंसी, मोहनैंड्स और अफरीदीस हैं खैबर एजेंसी और कोहट पास, तिराह के ओराकाज़ीस, उत्तर और दक्षिणी वजीरिस्तान के वज़ीर, और दीखान के भित्तिनी और शिरानिस आदि। प्रांत के बसने वाले इलाकों में मार्डन, खालिल्स, मोहम्मद, मुहम्मद-जैस, दौदजाइस, खट्टक, खोहाट के बंगाश, बन्नू के मारवाट और वजीर और डी.आई.खान के गंडापुर, कुंडिस और मिनाखेल के यूसुफजाइस हैं। कुछ महत्वपूर्ण मामूली जनजातियां हजारा और स्वाबी के जादौन हैं, शिनवार और बाबर और दावर्स के शिनवाड़ी और मुल्लागोरियों में।
पुस्तक में "पेशावर जिले के निपटारे पर रिपोर्ट, मेजर एचआर जेम्स, 1868, भाग -2 , परिशिष्ट-डी "पृष्ठ 133 पर, जाडोन वंशावली तालिका में पन्नी अफगान के वंशज के रूप में दिखाए जाते हैं।
जादौन पठानों का इतिहास --- जादौन मूल रूप से पहले अफगानिस्तान के नंगारहर क्षेत्र में स्पिन घर सीमा की पश्चिमी ढलानों पर रहते थे। बाद में, जादौन Kabulregion में स्थानांतरित हो गया।
16 वीं शताब्दी में, जाडोन्स यूसुफज़ई में शामिल हो गए, जिन्हें मुगल सम्राट बाबर के एक मामा मिर्जा उलुग बेग ने काबुल से निकाल दिया था ।
और वे पूर्व में पेशावर क्षेत्र में चले गए और पश्तून के दिलजाक जनजाति में रहने वाले इलाकों में बस गए । वे कटलांग की लड़ाई में दिलजाक्स को पराजित करने में सफल रहे, और उन्हें सिंधु नदी के पूर्व में हजारा क्षेत्र की ओर धकेल दिया।
अंततः जादौन सिंधु में सिंधु नदी के पश्चिमी तट पर बस गए। लेकिन बाद में, कुछ जादौन भी एबोटाबाद और हरिपुर में सिंधु नदी के पूर्वी तट पर बस गए।
जदुून अशरफ से घिरे हुए हैं जो घुरघुष्ट अफगान के पन्नी वंश के जादौन (गादून) भी हैं। पारनी, काकर, नागहर (जिन्होंने नागहर जनजाति और दावी बनाई थी, इस्माइल के पुत्र डेनी के चार बेटे थे, जिन्हें घुरघुश भी कहा जाता था।
उन्होंने थ्रो बनाया जूडॉन इस और इसी तरह के नाम वाले लोगों की सूची के लिए, जूडॉन देखें। जैडन एक हिब्रू नाम है जिसका अर्थ है "भगवान ने सुना है," "आभारी" (स्ट्रॉन्ग कॉनकॉर्डेंस के अनुसार), "एक न्यायाधीश," या "जिसे भगवान ने निर्णय लिया है" और बाइबिल के इतिहास में दो पात्रों का नाम।
मेरोनोथाइट जाडोन जॉर्डन मेरोनोथाइट हिब्रू बाइबिल में नहेम्याह की पुस्तक में यरूशलेम की दीवार के निर्माण करने वालों में से एक था। पैगंबर जादौन फ्लेवियस जोसेफस के मुताबिक, जैडन एक नाबालिग भविष्यद्वक्ता का नाम था जो यहूदियों आठवीं की प्राचीन काल में संदर्भित था। 8,5 जिसे 1 राजा 13: 1 में वर्णित भगवान का व्यक्ति माना जाता है। परन्तु जूडान अथवा जादौन शब्द का सम्बन्ध जूडा अथवा यहुदह् शब्द से है ।
--जो यहूदीयों के पूर्व - पुरुष हैं ।
भारतीय राजपूतों अथवा उन जादौन बंजारों को प्रारम्भिक काल से ही जादौन कहा जाता रहा है । अत: भारतीय पुराणों में प्रचलित यादव शब्द से इसका सम्बन्ध न होकर जूडान अथवा जादौन से अधिक सन्निकट है । _
इति .....
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