यादवों ने कभी वर्ण -व्यवस्था को नहीं माना ।
कारण वह राजतंत्र की व्यवस्था का अंग थी
और ये किसी के द्वारा परास्त नहीं हुए ।
क्योंकि इनकी गोपों'की नारायणी सेना अजेय थी ।
इसी नवीन भागवत धर्म की अवधारणा का भी जन्म हुआ था ।
इसलिए ब्राह्मणों ने द्वेष वश अहीरों या यादवों को शूद्र वर्ण में निर्धारित करने की असफल चेष्टा की ।
ब्राह्मण अहीरों को इसलिए शूद्र मानते हैं ।
क्योंकि उनका वर्चस्व तत्कालीन पुरोहितों से अधिक था ।
द्वेष वश उन्होंने उनका वर्चस्व समाप्त करने के विधान बनाए ।
वस्तुत --जो जन-जाति वर्ण व्यवस्था को ही खारिज करती हो उसे आप नहीं तो क्षत्रिय मान सकते हैं ना ही शूद्र ।
क्योंकि पुराणों से भी प्राचीन वेद हैं ;और उनमें भी ऋग्वेद सबसे प्राचीन है ।
पुराणों का लेखन भी वेदों को उपजीवि( श्रोत) मान कर किया गया है।
और सारे पुराण परछाँईं के समान वेदों के ही अनुगामी हैं ।
---जो बात वेद में है ;
उसी का विस्तार पुराणों में है।
अत: यदु तथा उनके वंशज कृष्ण का वर्णन भी ऋग्वेद में है ।
'परन्तु इन्द्र उपासक पुरोहितों ने इन्द्र से यदु और तुर्वशु को अपने वश में या अधीन करने लिए ही प्रार्थना की है ।
'परन्तु वह कभी उन्हें अपने वश में नही कर पाए
इतनी सामर्थ्य तो इन्द्र की भी नहीं था ।
विदित हो कि वेदों में यदु और उनके वंशज कृष्ण को दास अथवा शूद्र अथवा असुर (अदेव) इन समानार्थक विशेषणों से भी ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में सम्बोधित किया गया है ।
और यमुना की तलहटी में चरावाहे रूप में इन्द्र से कृष्ण का युद्ध भी हुआ ।
सर्व-प्रथम हम ऋग्वेद में यादवों के पूर्वज यदु का वर्णन करते हैं ।
जब यदु को ही वेदों में दास अथवा शूद्र कहा है ।
'परन्तु यह सब द्वेष की पराकाष्ठा या चरम-सीमा ही है ।
यादव उस समय सम्पूर्ण एशिया में महान जन-जाति थी ।
हम आपको बता दें दास शब्द वेदों उन अर्थों में नहीं जिन अर्थों में लौकिक या आज के साहित्य में है ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में , यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है ।
वह भी गोपों को रूप में
तो यदुवंशी कब से क्षत्रिय हो गये ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत यह विषय भी विचारणीय है 'परन्तु अपनी वीरता और पराक्रम के लिए ये किसी भी क्षत्रिय से बहुत ऊँचे हैं ।
ऋग्वेद में यदु को विषय में लिखा है कि
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" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है;
गो-पालक ही गोप होते हैं मह् धातु का क्रिया रूप आत्मने पदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप में वर्णित है।
वैदिक सन्दर्भों में मह् धातु का अधिकतर अर्थ वर्णन करना अथवा कहना ही है।
प्रशंसा करना अर्थ लौकिक संस्कृत में रूढ़ हो गया है।
क्योंकि कि देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है।
दास शब्द का यहांँ उच्चतम अर्थ दाता अथवा उदार भी है
इसी लिए प्रशंसा करने में मामहे आत्मनेपदीय क्रिया पद लट्लकार वर्तमान काल उत्तम पुरुष बहुवचन में प्रयुक्त है ।
गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला ।
अथवा गो परिणसा गायों से घिरा हुआ ।
वेदों में बहुतायत रूप में यदु और तुर्वशु को वश में करने की प्रार्थना पुरोहित इन्द्र से करते हैं ।👇
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प्रि॒यास॒ इत्ते॑ मघवन्न॒भिष्टौ॒ नरो॑ मदेम शर॒णे सखा॑यः ।
नि तु॒र्वशं॒ नि याद्वं॑ शिशीह्यतिथि॒ग्वाय॒ शंस्यं॑ करि॒ष्यन् ॥८
प्रि॒यासः॑ । इत् । ते॒ । म॒घ॒ऽव॒न् । अ॒भिष्टौ॑ । नरः॑ । म॒दे॒म॒ । श॒र॒णे । सखा॑यः ।
नि । तु॒र्वश॑म् । नि । याद्व॑म् । शि॒शी॒हि॒ । अ॒ति॒थि॒ऽग्वाय॑ । शंस्य॑म् । क॒रि॒ष्यन् ॥८
प्रियासः । इत् । ते । मघऽवन् । अभिष्टौ । नरः । मदेम । शरणे । सखायः ।
नि । तुर्वशम् । नि । यादवम् । शिशीहि । अतिथिऽग्वाय । शंस्यम् । करिष्यन् ॥८।
(ऋग्वेद ७/१९/८ )
अन्वय:–
हे "मघवन् धनवन्निन्द्र “ते तव "अभिष्टौ अभ्येषणे "नरः स्तोत्राणां नेतारो वयं "सखायः समानख्यातयः “प्रियासः प्रियाश्च सन्तः “शरणे "इत् गृह एव “मदेम मोदेम ।
किंच “अतिथिग्वाय ।( पूज्यातिथीन् वा अतिथिग्यु जन विशेष ) गच्छतीत्यतिथिग्वः ।
तस्मै सुदासे दिवोदासाय वास्मदीयाय राज्ञे “शंस्यं– (शंसनीयं सुखं "करिष्यन् कुर्वन् )"तुर्वशं राजानं "नि ("शिशीहि वशं कुरु )
"यादवं च राजानं “नि शिशीहीत्यर्थः ॥
शिशीहि वशं कुरु ) वश में करो ---
अर्थ-स्पष्ट है
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प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ
नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७)
अर्थात्:- हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान
अपने घर में प्रसन्नता से रहें;
तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !
हमारे वश में करने वाले बनो!
(ऋग्वेद ७/१९/८)
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ऋग्वेद में भी यथावत् यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो ।
और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है देखें---
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अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था।उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले !
सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया ।
यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा
जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज-असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज हैं।
निम्नलिखित ऋचा में असुर शब्द इन्द्र के लिए है जिसका वर्ण विन्यास असु-र रूप में है ।
जिसका अर्थ प्राणवन्त है ।
इन्द्राविष्णू दृंहिताः शम्बरस्य नव पुरो नवतिं च श्नथिष्टम् ।
शतं वर्चिनः सहस्रं च साकं हथो अप्रति असुरस्य वीरान् ॥५॥
स एवमुक्तो यदुना राजा कोपसमन्वित:।
उवाच वदतां श्रेष्ठो ययातिर्गर्हयन् सुतम्।२७।
•-यदु के ऐसा कहने पर ( अर्थात् यदु के द्वारा पिता को युवा अवस्था न देने पर) वक्ताओं में श्रेष्ठ राजा ययाति कुपित हो उठे और अपने उस पुत्र की निन्दा करते हुए बोले –।२७।
क आश्रयस्तवान्यो८स्ति को वा धर्मो विधीयते ।
मामनादृत्य दुर्बुद्धे तदहं तव देशिक: ।।२८।
•-दुर्बुद्धे ! मेरा अनादर करके तेरा दूसरा कौन सा आश्रय है ? अथवा तू किस धर्म का पालन कर रहा है। मैं तो तेरा गुरु हूँ ( फिर भी मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर रहा है ।२८।
एवमुक्त्वा यदुं तात शशापैनं स मन्युमान्।
अराज्या ते प्रजा मूढ भवित्रीति नराधम ।।२९।
•-तात ! अपने पुत्र यदु से ऐसा कहकर कुपित हुए राजा ययाति 'ने उसे शाप दिया– मूढ ! नराधम तेरी सन्तानें सदा राज्य से वञ्चित रहेगी ।।२९।
अधिकतर पुराणों में ययाति द्वारा यदु को दिए गये शाप का वर्णन है ।
पहले तो ययाति का यह प्रस्ताव ही अनुचित था ।
यदु में अपना यौवन देकर वृद्धाावस्था लेना इस लिए अस्वीकार किया क्योंकि मेरे यौवन से आप माता के साथ साहचर्य करोगे ।
मेरे लिए यह पाप तुल्य ही हैै ।
कालान्तरण में यदुवंशीयों 'ने राजा की व्यवस्था को बदलकर लोक तन्त्र की स्थापना की ...
कभी से वर्ण व्यवस्था आदि ब्राह्मणीय अव्यवस्थाओं को यादवों ने स्वीकार ही नहीं किया।
ये आभीर रूप में इतिहास में उदित हुए ...
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हरिवशं पुराण'हरिवंश पर्व तीसवाँ अध्याय गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण पृष्ठ संख्या १४५
प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार 'रोहि'
कालान्तरण में परिवर्तन स्वरूप भारतीय पुरोहितों की सात्विक वृत्तियों में रजो गुण का आधिक्य हो जाने तथा अनेक निम्न जीवन शैली वाली जनजातियों के ब्राह्मण बन जाने के कारण प्राचीन भारतीय मनीषा कुण्ठित भी हुई ।
पाण्डित्य क्रियाओं का सात्विक सम्पादन करने वाले लोभ से ग्रस्त और साधना विहीन होकर
पतित हो गये उनमें मिथ्या दम्भ प्रदर्शन और स्वयं को सर्वोच्च सिद्ध करने की प्रतिस्पर्धाऐं होने लगी ।
धर्म के नाम पर भी अनेक अवैज्ञानिक मूढ़ पृथाऐं अवशिष्ट रह गयीं
धर्म ग्रन्थों और पुराणों में अनेक जोड़-तोड़ किए गये ।
पण्डित कुछ जो धर्म को व्यवसाय परक मानकर जीविका उपार्जन करने लगे वे पण्डित से पण्डा और उपाध्याय से औझा तक बन गये
यद्यपि यादव जन-जाति को सम्मान और प्रतिष्ठा देने वाले भी ब्राह्मण ही थे ।
जिन का उद् घोष था ।
यदोर्वंशं नर: श्रुत्वा सर्व पापै: प्रमुच्चयते ..
'परन्तु कुछ द्वेष वादी भी थे ।
ऐसे ही कुछ पण्डे हैं जिन्होंने ये अफवाह भी प्रचारित की कि कृष्ण नामक असुर जो देवों का विरोधी और यज्ञ परक कर्म काण्डों का विरोध करता है ।
उसे इन्द्र'ने स्वयं यमुना की तलहटी में चरावाहे रूप में परास्त किया।
वेदों में इन्हें तथ्यों को वर्णित भी किया ।
और कृष्ण चरित्र को दूषित व कामुक रूप में वर्णित करने का श्रेय भी देव संस्कृति के अनुयायी इन्द्र उपासक पुरोहितों 'ने किया।
यद्यपि देव संस्कृति भी अपने अनेक रूपों में मानवीय कल्याण से ओत-प्रोत थी ।
फिर भी कहीं अपवाद स्वरूप इसमें भी विकृति आयी
इन्होंने अपने प्रतिद्वन्द्वी असुर संस्कृति के विषय में अनेक नकारात्मक ज्ञापिकाऐं की
'परन्तु हम दौनों' के प्रति तटस्थ हैं ।
ऋग्वेद में वर्णित है कि इन्द्र 'ने यमुना की तलहटी में गायें चराते हुए कृष्ण को परास्त कर दिया ।
उसके दश हजार ग्वाले सैनिकों को मार दिया।
यह वर्णन ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में है।
यद्यपि पुराणों में भी कृष्ण और इन्द्र का युद्ध सर्वविदित है ।
यद्यपि कृष्ण देव और असुर दौनों संस्कृतियों के मध्यस्त थे ।
असुरों 'ने भी यादवों को अपना सम्बन्धी माना तो देवों के कल्याण परक मार्ग को कृष्ण 'ने प्रसस्त किया ।
देव संस्कृति के अनुयायी पुरोहितों 'ने
एक कृष्ण की पृथक अभिव्यञ्जना की जो ब्राह्मणों के कृष्ण हैं जो मन्दिरों मैं प्रतिष्ठित है।
ब्राह्मण पुरोहितों के संरक्षक हैं।
वर्ण व्यवस्था और यज्ञ परक अनुष्ठानों के प्रतिपादक हैं।
'परन्तु षड्यन्त्र पूर्वक यह सब प्रचारित किया गया ।
क्योंकि कृष्ण का युद्ध असुरों और देवों इन्द्र आदि से भी हुआ।
वास्तव में कृष्ण उस देव संस्कृति के विद्रोही थे जो व्यभिचार और
सुरापान में उन्मत्त था ।
देवता सुरापान करके उन्मत्त और अय्याश हो जाते थे ।
लोक-तन्त्र-के संस्थापक और यज्ञ परक 'कर्म'काण्ड मूलक वैदिक विधानों ब्राह्मण वर्चस्व वादी दुर्व्यवस्थाओं के खण्डक थे
भी कृष्ण थे तो आध्यात्मिक योग मूलक विधियों के मण्डक भी कृष्ण थे ।
देवों की व्यभिचार परक क्रियाओं के विरोधी थे ।
जिन्होने इन्द्र से युद्ध किया।
कृष्ण ने प्राकृतिक उपासना तथा
गो वर्धन और गौ संस्कृतियों को प्रोत्साहन दिया ।
इन्द्र के प्रकोप से समस्त यादव गोपों को बचाया।
और भागवत धर्म के संस्थापक भी यही कृष्ण थे ।
ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में वर्णित यही कृष्ण हैं ।
उन्हें ही ऋग्वेद के अष्टम मण्डल में असुर या अदेव कृष्ण कहा गया है ।
'परन्तु जब कृष्ण का सर्वव्यापी वर्चस्व पुरोहितों को सहन नहीं हुआ तो दूसरे कृष्ण की कल्पना कर ली जो वर्ण व्यवस्था का संस्थापक और यज्ञ प्रसारक है ।
देव संस्कृति का मानने वाला भी है।
ऋग्वेद में कृष्ण का वर्णन निम्नलिखित ऋचाओं में है-🐧 ______
आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ।
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या: न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।14।
अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण: विशो अदेवीरभ्याचरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।।
ऋग्वेद में पुरोहित कहता है ---" कि कृष्ण नामक असुर अथवा अदेव जो देव संस्कृति का विद्रोही है ।
अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको (ग्वालों)के साथ रहता था ।
उसे अपने बुद्धि -बल से इन्द्र ने खोज लिया , और उसकी सम्पूर्ण सेना तथा गोओं का हरण कर लिया ।
इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है जो यमुना के एकान्त स्थानों पर गायें चराता है ।
उपर्युक्त ऋचाओं में प्रयुक्त वाक्यांश का अर्थ है यमुना नदी की तलहटी में गायें चराते हुए को -( चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या:) चर् धातु का मूल अर्थ वैदिक काल में गौ-चारण से ही है । ऋग्वेद में वर्णित गौचारण कृष्ण हैं यह तो चरन्तम् क्रिया पद से प्रमाणित है ।
🚰 आप सही सुन रहे हो यही हुआ कि यादवों के साथ , कि वेदों की अधिष्ठात्री देवी गायत्री आभीर कन्या थी ।
यह बात पद्म-पुराण सृष्टि-खण्ड अग्निपुराण नान्दी उपपुराण आदि में वर्णित है 'परन्तु किसी ब्राह्मण या पुरोहित कथा वाचक के मुख से यह कथा कभी नहीं सुनायी गयी ।
अभी विगत वर्षों मे यह संज्ञान में आया कि
' नवीन मुख्य मन्त्री की सलाह और सहमती पर काशी के कुछ रूढ़िवादी धूर्त पुरोहित द्वारा गायत्री मन्त्र के द्वारा मुख्य मन्त्री पदमुक्त अखिलेश यादव की कुर्सी को शुद्ध गंगा जल और गायत्री मन्त्र द्वारा शुद्धीकरण किया जाता हैं ।
सत्य तो यही है कि कृष्ण को ऋग्वेद में
असुर अर्थात् अदेव कहा है ।
--- जो यमुना की तलहटी में इन्द्र से युद्ध करते हैं ।
मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में भी सन् 1929 में हुई खोज के अनुसार पुरातत्व वेत्ता "मैके "द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला है।
जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बच्चे का चित्र बना हुआ था ।
जो भागवत आदि पुराणों के कृष्ण से सम्बद्ध थे।
पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर ले जाता है।
पुराणों का सृजन बुद्ध के परवर्ती काल में हुआ ।
और कृष्ण की कथाऐं इससे भी ---पुरानी हैं ।
इससे सिद्ध होता है कि कृष्ण 'द्रविड संस्कृति से भी सम्बद्ध थे । वैसे भी अहीरों (गोपों )में कृष्ण का जन्म हुआ ; और द्रविडों में अय्यर (अहीर) तथा द्रुज़ Druze नामक यहूदीयों में अबीर (Abeer) दौनो का समन्वय स्थापित करना युक्ति युक्त हैं।
इसके अनुसार महाभारत का युद्ध 950 ई०पूर्व तक होता रहा होगा जो पुरातात्विक सबूत की गणना में सटीक बैठता है।
द्रविड अथवा सिन्धु घाटी की संस्कृतियाँ 5000 से 950 ई०पू० समय तक निर्धारित हैं।
इससे कृष्ण जन्म का सटीक अनुमान मिलता है।
ऋग्वेद -में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9)
और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटवर्ती प्रदेश में गायें चराते हुए रहता था ।
और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था ऐसा वर्णन है ।
परन्तु इन्द्र उपासक देव संस्कृति के अनुयायी ब्राह्मणों ने इन्द्र को पराजयी कभी नहीं दिखाया है ।
विदित हो कि अंशुमान् सूर्य का वाचक है ।
और अंशुमती सूर्य पुत्री यमुना का देखें--- अंशु अस्त्यर्थे मतुप् = सूर्य्ये, अंशुशाल्यादयोप्यत्र । सूर्य्यवंश्ये असमञ्जःपुत्रे दिलीपजनके राजभेदे तत्कथा रा० आ० ४३ अ० ।
अंशुमति पदार्थमात्रे त्रि० ।
पुराणों में यमुना ओर यम को अंशुमान् के सन्तति रूप में वर्णित किया है । ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 के श्लोक- (13,14,15,)पर असुर अथवा अदेव अकृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसी वर्णित है। ____________________________________________
- कृष्ण का जन्म वैदिक तथा हिब्रू बाइबिल में वर्णित यदु के वंश में हुआ था ।
वेदों में यदु को दास अथवा असुर कहा गया है ,तो यह तथ्य रहस्य पूर्ण ही है ।
यद्यपि ऋग्वेद में असुर शब्द पूज्य व प्राण-तत्व से युक्त वरुण , अग्नि आदि का वाचक है-' असुर' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद और जिसका अक्षर या वर्ण विन्यास (असु-र) ऋग्वेद में लगभग 105 बार असु-र शब्द का प्रयोग हुआ है।
उसमें 90 स्थानों पर इसका प्रयोग 'श्रेष्ठ' अर्थ (असु-र )में किया गया है और केवल 15 स्थलों पर यह 'देवताओं के शत्रु' (अ-सुर)का वाचक है। ---जो परवर्ती रूप ही है ।
'असुर' का व्युत्पत्तिलब्ध अर्थ है- प्राणवन्त, प्राणशक्ति संपन्न ('असुरिति प्राणनामास्त: शरीरे भवति, निरुक्ति ३.८) और इस प्रकार यह वैदिक देवों के एक सामान्य विशेषण के रूप में व्यवहृत किया गया है।
असुरों को विश्व-इतिहास कारों ने असीरियन जन-जाति के रूप में वर्णित किया है।
- इरानी संस्कृति में असुर शब्द अहुर के रूप में श्रेष्ठ अर्थों को ध्वनित करता है ।
अहु का अर्थ ईरानी भाषाओं में प्राण है ।
और अहुर का अर्थ प्राणवान ।
असीरियन सेमेटिक होने से यहूदीयों के बान्धव भी हैं ।
सोम शब्द वस्तुत भारतीय पुराणों में साम वंश से विकसित हुआ । --- जो सुमेरियन पुरातन कथाओं में वर्णित साम - हाम दो पूर्व पुरुष हुए हैं ।
उन्हीं के आधार पर भारतीय पुराणों में चन्द्र वंशी और सूर्य वंशी की कल्पनाऐं की गयी है। विशेषत: वेदों में असुर शब्द इन्द्र, मित्र तथा वरुण के साथ प्रयुक्त होकर उनकी एक विशिष्ट शक्ति का द्योतक है।
इन्द्र के तो यह वैयक्तिक बल का सूचक है, परन्तु वरुण के साथ प्रयुक्त होकर यह उनके नैतिक बल अथवा शासनबल का स्पष्टत: संकेत करता है।
असुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: महत् ') के नाम से विद्यमान है।
यह शब्द उस युग की स्मृति दिलाता है।
जब वैदिक आर्यों तथा ईरानियों (पारसीकों) के पूर्वज एक ही स्थान पर निवास कर एक ही देवता की उपासना में निरत थे। यह स्थान सुमेर बैबीलॉन तथा मैसॉपोटमिया ( ईराक- ईरान के समीपवर्ती क्षेत्र थे ।
वस्तुत आर्य शब्द जन-जाति सूचक कभी नहीं रहा है आर्य शब्द का मौलिक अर्थ - यौद्धा अथवा वीर का विशेषण।
सत्य तो ये है कि असीरियन (असुर जन-जाति) का मिलन सुमेरियन संस्कृति के केन्द्र मैसॉपोटामिया की सरजमीं पर हुआ ।
यद्यपि ईरानी तथा देव संस्कृति के अनुयायी दौनों वीर जन-जातियाँ का मिलन अजरवेज़ान की समीप वर्ती क्षेत्रों में हुआ ।
ईरानी धर्म-ग्रन्थ अवेस्ता ए जैन्द में अजरवेज़ान का वर्णन आर्यन-आवास अथवा वीरों का निवास के रूप में है ।
यह स्थान वर्तमान में सॉवियत रूस का सदस्य देश है ।
जिसकी सीमाऐं दाहिस्तान Dagestan तथा तुर्की को स्पर्श करती हैं ।
ईरानी असुर संस्कृति के अनुयायी द्रविड संस्कृति से अधिक प्रभावित हैं ।
ईरानी संस्कृति में द्रुज़ Druze जन-जाति दॉरेजी अथवा दरज़ी कहलायी है । सुर जन जाति स्वीडन के अधिवासी स्वीअर( Sviar) जर्मनिक जन-जातियाें का उत्तरीय कबीला है ।
फलत: वैदिक आर्यों ने 'न सुर: असुर:' यह नवीन व्युत्पत्ति मानकर असुर का प्रयोग दैत्यों के लिए करना आरम्भ किया और उधर ईरानियों ने भी देव शब्द का प्रयोग व अर्थ ('दएव' के रूप में) अपने धर्म के विरोधीयों के लिए प्रयोग करना शुरू किया।
फलत: वैदिक 'वृत्रघ्न' (इन्द्र) अवस्ता में 'वेर्थ्रेघ्न' के रूप में एक विशिष्ट दैत्य का वाचक बन गया तथा ईरानियों का 'असुर' शब्द पिप्रु आदि देवविरोधी दानवों के लिए ऋग्वेद में प्रयुक्त हुआ ; जिन्हें इंद्र ने अपने वज्र से मार डाला था।
(ऋक्. १०।१३८।३-४) शतपथ ब्राह्मण की मान्यता है कि असुर देवदृष्टि से अपभ्रष्ट भाषा का प्रयोग करते हैं ।
(तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्त: पराबभूवु:) ये लोग पश्चिमीय एशिया के प्राचीनत्तम इतिहास में असीरियन कहलाए ।
पतञ्जलि ने अपने 'महाभाष्य' के पस्पशाह्निक में शतपथ के इस वाक्य को उधृत किया है।
शबर स्वामी ने 'पिक', 'नेम', 'तामरस' आदि शब्दों को असूरी भाषा का शब्द माना है।
आर्यों के आठ विवाहों में 'आसुर विवाह' का सम्बन्ध असुरों से माना जाता है।
पुराणों तथा अवान्तर साहित्य में 'असुर' एक स्वर से दैत्यों का ही वाचक माना गया है।
यहूदी जन-जाति और असीरियन जन-जाति समान कुल गोत्र के अर्थात् सोम या साम की सन्तानें थे ।
नना असीरियन राजधानी थी ।
और असुर लोग स्वभाव से ही शक्ति (असु) से युक्त । वीर यौद्धा तथा कला प्रेमी तो थे ही परन्तु शत्रुओं के साथ क्रूरता पूर्ण व्यवहार करने में नहीं चूकते थे ।
यहूदीयों और असुरों तथा फॉनिशियन लोगे के देवता समान थे । जैसे- बल , मृडीक अथवा मृड मृलीक , त्वष्टा ,दनु यम आदि ... असीरियन यहू के बान्धव होने से सेमेटिक अथवा साम के कबीले के है ।
इसी लिए भारतीय पुराणों में यादवों को असुर , (असीरियन) दस्यु अथवा दास कहकर मधु असुर का वंशज भी वर्णित किया है; और सोम का अर्थ चन्द्रमा करके उन्हें चन्द्र वंशी बना दिया ।
जबकि चन्द्रमा पृथ्वी का 1/4 भाग जल तथा वायु से विहीन उप ग्रह मात्र निर्जीव पिण्ड है ।
जिस पर जीवन भी असम्भव है ; फिर यह कहना कि यादव चन्द्र वंशी हैं हास्यास्पद बातों के अतिरिक्त कुछ नहीं है ।
यादव की परम्पराओं में मधु को पुराण यदु का पुत्र रूप में वर्णन करते हैं । जिसने मधुरा (मथुरा) नगर बसाया ।
परन्तु मधु एक असीरियन यौद्धा अथवा वीर था । यद्यपि बाद में काल्पनिक रूप से यदु के पुत्र को मधु वर्णित किया परन्तु समाधान संदिग्ध रहा ।
क्योंकि (मधुपर) अथवा मथुरा मधु दैत्य के आधार पर नामित है। और यह यादवों की प्राचीनत्तम राजधानी है; इसी लिए इन्हें सेमेटिक सोम वंश का कहा जाता है पुराणों में सोम का अर्थ चन्द्रमा कर दिया।
इसी कारण ही कृष्ण को वेदों में असुर कहा जाना आश्चर्य की बात नहीं है ।
क्योंकि उनके पूर्वज यदु को सम्पूर्ण वैदिक सन्दर्भों में हेय रूप में वर्णित किया है ।
यदु से सम्बद्ध वही ऋचा भी देखें- जो यदु को दास अथवा असुर कहती है ।
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा।
यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।। (१०/६२/१०ऋग्वेद ) 😎
इन्द्र और कृष्ण का युद्ध वर्णन पुराणों में वर्णित है ।
यद्यपि पुराण बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में रचित ग्रन्थ हैं जबकि ऋग्वेद ई०पू० १५०० के समकक्ष की घटनाओं का संग्रहीत ग्रन्थ है । जब यदु को ही वेदों में दास अथवा शूद्र कहा है ।
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ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है।
वह भी गोपों को रूप में तो यदुवंशी कब से क्षत्रिय हो गये ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत ।
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०) यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है; गो-पालक ही गोप होते हैं मह् धातु का क्रिया रूप आत्मने पदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप में वर्णित है। वैदिक सन्दर्भों में मह् धातु का अधिकतर अर्थ वर्णन करना अथवा कहना ही है।
प्रशंसा करना अर्थ लौकिक संस्कृत में रूढ़ हो गया है।
क्योंकि कि देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है । ____________________________________________ प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो ! (ऋग्वेद ७/१९/८) ऋग्वेद में भी यथावत् यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो ।
और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है! देखें---अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा । अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२। (ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२) हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था। उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १। शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले ! सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया । यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज-असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज हैं भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया ।
यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है। देखें-सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७ हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ;अर्थात् उनका हनन कर डाला । अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० ।
निह्नवाकर्त्तरि । “सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।। अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/ हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो । तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो ।
तुम मुझे क्षीण न करो यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे ।
यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है । अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है ।
ईरानी असुर संस्कृति में दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।
यदु एेसे स्थान पर रहते थे;जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है ।
यह स्था (उष ष्ट्रन् किच्च ) ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )। (ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् ।
“हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति” “नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम् देखें-ऋग्वेद में शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे राधांसि यादवानाम् त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६।
उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा यादवं जनम् ।४८।
यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया ! ऋग्वेद ८/६/४६ इन वर्णों मे यदु को क्षत्रिय नहीं कहा गया तो फिर यदुवंशी कब से क्षत्रिय हो गये ।
और -जो खुद को क्षत्रिय अथवा राजपूत अथवा ठाकुर कहता है वह विदेशी अवश्य है । यदुवंशी कभी नहीं वेदों मे कभी यदु वंशीयों के आदि पुरुष यदु को दास अथवा असुर कहकर वर्णित किया है इन्द्र और कृष्ण का युद्ध वर्णन पुराणों में वर्णित है ।
यद्यपि पुराण बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में रचित ग्रन्थ हैं जबकि ऋग्वेद ई०पू० १५०० के समकक्ष की घटनाओं का संग्रहीत ग्रन्थ है ।
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यदु जब दो हैं ।
तो फिर अहीर कौन से यदु के वंशज यादव हैं ?
ययाति और देवयानि के पुत्र यदु जो तुर्वशु के भाई हैं ।
या इक्ष्वाकु वंशी राजा हर्यश्व और उनका पत्नी मधुमती के गर्भ से उत्पन्न यदु के वंशज यादव हैं !
हरिवंश पुराण विष्णु पर्व (संस्कृत) अध्याय 37 श्लोक 41-45 पर वर्णन है कि⬇ पुत्र की इच्छा रखने वाले उन्हीं सदाचारी एवं बुद्धिमान हर्यश्व के मधुमती के गर्भ से महायशस्वी यदु का जन्म हुआ। अर्थात् मधुमती 'ने यदु को जन्म दिया अब यहांँ यदु के हर्यश्व द्वारा गोद लेने की तो बात ही नहीं है।
फिर पहले वाले ययाति पुत्र यदु का वंश और वंशज कहाँ गये ? हरिवशं पुराण के विष्णु पर्व में मधुमती के गर्भ से यदु को उत्पन्न होना ही वर्णित है ।⬇
तत्कालीन देव 'संस्कृति'के अनुयायी इन्द्र उपासक पुरोहितों'ने ऐसा किया कि यदु वंश का इतिहास किस प्रकार नष्ट हो ... अब जो यदु भागवत पुराण में दक्षिण दिशा में निर्वासित वहाँ के अधिपति या राज्य करने वाले वर्णित हैं ।
वे हर्यश्व की पत्नी मधु असुर की
कन्या मधुमती के गर्भ से कैसे उत्पन्न हुए ?
इसे योग- बल का चमत्कार कह कर यथार्थ परक किया गया । 'परन्तु यह बात कुछ सत्य नहीं ⬇
तस्यै्व च सुवृत्तस्यं पुत्रकामस्य धीमत:।
मधुमत्यां सुतो जज्ञे यदुर्नाम महायशा:।।44।।
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हरिवंश पुराण: विष्णु पर्व: सप्तत्रिंश अध्याय: श्लोक 44-
का हिन्दी अनुवाद जिसमें जज्ञे क्रिया पद लिट् ( अनद्यतन परोक्ष भूत काल का है जो जन् धातु का लिट् लकार का अन्य पुरुष एकवचन रूप है जिसका अर्थ उसने जन्म दिया )
•-पुत्र की इच्छा रखने वाले उन्हीं सदाचारी एवं बुद्धिमान हर्यश्व के मधुमती के गर्भ से महायशस्वी यदु का जन्म हुआ। अर्थात् मधुमती 'ने यदु को जन्म दिया ।44।
सोऽवर्धत महातेजा यदुर्दुन्दुभिनि:स्वन:।
राजलक्षणसम्पतन्न: सपत्नैरर्दुरतिक्रम:।।45।।
•-महातेजस्वी यदु का स्वर दुन्दु्भि निनाद के समान गंभीर था। वे राजोचित लक्षणों से सम्पन्न होकर दिनों-दिन बढ़ने लगे।
शत्रुओं के लिये वे सवर्था दुर्जय थे।
यदुर्नामाभवत् पुत्रो राजलक्षणपूजित:।
यथास्य पूर्वजो राजा पुरु: स सुमहायशा:।।46।।
•-ठीक उसी तरह जैसे उनके पूर्वज राजा महायशस्वीय पुरु सम्मानित होते थे।
स एक एव तस्यासीत् पुत्र: परमशोभन:।
ऊर्जित: पृथिवीभर्ता हर्यश्वस्य महात्मन:।।47।।
•-महामना हर्यश्व के एक ही पुत्र यदु हुए। वे परम सुन्दर, बलवान और पृथ्वी का भरण-पोषण करने में समर्थ है ।
यदुं च तुर्वसं चैव देवयानी व्यजायत ।
द्रुह्युं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ।।३३।
अत्रि वंश के राजा नहुष के छः पुत्र थे- याति, ययाति, सयाति, अयाति, वियाति तथा कृति। याति परमज्ञानी थे तथा राज्य, लक्ष्मी आदि से विरक्त रहते थे इसलिए राजा नहुष ने अपने द्वितीय पुत्र ययाति का राज्यभिषके कर दिया।
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(उल्लेखनीय है कि यायाति नाम के एक राजा इक्ष्वाकुवंश में भी हुए हैं उनके पिता का नाम भी नहुष था।)
राजा ययाति के देवयानी से दो पुत्र यदु तथा तुवर्सु और शर्मिष्ठा से तीन पुत्र द्रुह्यु, अनु तथा पुरु हुए।
नवम स्कन्द भागवत पुराण अध्याय अठारह पृष्ठ संख्या 74 ब्राह्मणों 'ने ये पेच फाँस दिया ।
हरिवशं पुराण 'हरिवंश पर्व चौंतीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या 158
पर यदि के पाँच पुत्रों का वर्णन किया गया है।
"वैश्म्पायन उवाच "
बभूवुस्तु यदो: पुत्रा:पञ्च देवसुतोपमा:।
सहस्रद: पयोदश्च, क्रोष्टा नीलो८ञ्जिकास्तथा।।१।
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वैश्म्पायन जी कहते हैं –
जनमेजय ! यदु के पाँच देवोपम पुत्र हुए–
सहस्रद, पयोद, क्रोष्टा, नील, और अञ्जिक।१।।
सहस्रदस्य दायादास्त्रय: परमधार्मिका:।
हैहयश्च हयश्चैव राजन् वेणुहयस्तथा ।।२।
राजन् ! सहस्रद के तीन परम धर्मात्मा पुत्र हुए – हैहय , हय ,और वेणुहय।२।
'परन्तु भागवत पुराण में यदु के चार पुत्रों का वर्णन है ।
यत्रावतीर्णो भगवान् परमात्मा नराकृति:।
यदो: सहस्रजित् क्रोष्टा नलो रिपुरिति श्रुता:।।२०।
•-इसी वंश मेंं स्वयं भगवान् परमात्मा श्री कृष्ण ने मनुष्य रूप में अवतार लिया था।
यदु के चार पुत्र थे सहस्रजित् क्रोष्टा नल और रिपु
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•-चत्वार सूनवस्तत्र शतजित् प्रथमात्मज:।
महाहयो वेणुहयो हैहयश्चेति तत्सुता: ।।२१।
चारों में से सहस्रजित् प्रथम सहस्रजित् से शतजित् का जन्म हुआ शतजित् के तीन'पुत्र हुए थे – महाहय,वेणुहय और हैहय ।२१।
दौनों वर्णनों मे अन्तर है ।
यदुं च तुर्वसं चैव देवयानी व्यजायत ।
द्रुह्युं चानुं च पूरुं च शर्मिष्ठा वार्षपर्वणी ।।33।
देवयानी के दो पुत्र हुए– यदु और तुर्वसु तथा वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा के तीन'पुत्र उत्पन्न हुए–द्रुह्यु,अनु, और पुरु ।।33।
नवम स्कन्द भागवत पुराण अध्याय अठारह पृष्ठ संख्या 74 इसी नवम स्कन्द अध्याय23वें श्लोक संख्या अठारह पर वर्णन है कि
दुष्यन्त : स पुनर्भेजे स्वं वंशं राज्य कामुक: ।
ययातेर्ज्येष्ठ पुत्रस्य यदोर्वंशं नरर्षभ ।।18।
'परन्तु दुष्यन्त राज्य की कामना से अपने ही वंश में लौट गये ।
परीक्षित ! अब मैं ययाति के बड़े पुत्र यदु के वंश का वर्णन करता हूँ ।18।
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वर्णयामि महापुण्यं सर्वपाप हरं नृणाम् ।
यदोर्वंशं नर: श्रुत्वा सर्व पापै: प्रमुच्यते ।19।
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परीक्षित अब मैं यदु के वंश का वर्णन करता हूँ जो वंश परम पवित्र और मनुष्यों के समस्त पापों का नाश करने वाला है ।
मनुष्य इसका श्रवण करेगा वह समस्त पापों से मुक्त हो जाएगा ।।।19।
अहीरों आप किस यदु के वंश से हो हर्यश्व पुत्र यदु के या ययाति पुत्र यदु के वंश से ?
व अब यादव वंश को विनष्ट करने वाले पुरोहितों'ने वैदिक पात्र ययाति और यदु के समानान्तरण सूर्य वंश के नाम से भी दूसरे नहुष ययाति और यदु की कल्पना कर डाली अब ब्राह्मण जो लिख दे वही ब्रह्म -वाक्य है ।
अयोध्या के एक प्राचीन इक्ष्वाकुवंशी राजा का नाम जो अम्बरीष का पुत्र और ययाति का पिता था।
महाभारत में इन्हीं नहुष चंद्रवंशी राजाआयुस् का पुत्र माना जाता है। रामायण जिसने लिखी उसने यदु वंश से द्वेष करते हुए कहीं तो अहीरों को राम के द्वारा द्रुमकुल्य देश में समुद्र के कहने पर मरवाने की कुत्सित चेष्टा की तो कहीं।
पूरे यदु वंश को ही सूर्य वंश बना दिया कृष्ण को छोड़ कर ऐसा यादवों के इतिहास के साथ सदीयों से होता रहा ... विशेष—पुराणानुसार यह यह नहुष बडा़ प्रतापी राजा था।
जब इंद्र ने वृत्रासुर को मारा था उस समय इंद्र को ब्रह्महत्या लगी थी। उसके भय से इंद्र १००० वर्ष तक कमलनाल में छिपकर रहा था। उस समय इंद्रासन शून्य देख गुरु बृहस्पति ने इसको योग्य जान कुछ दिनों के लिये इंद्र पद दिया था।
उस अवसर पर इंद्राणी पर मोहित होकर इसने उसे अपने पास बुलाना चाहा।
तब बृहस्पति की सम्मति से इंद्राणी ने कहला दिया कि 'पालकी पर बैठकर सप्तर्षियों के कंधे पर हमारे यहाँ आओ तब हम तुम्हारे साथ चलें'।
यह सुन राजा ने तदनुसार ही किया और घबराहट में आकर सप्तर्षियों से कहा—सर्प सर्प (जल्दी चलो), इसपर अगस्त्य मुनि ने शाप दे दिया कि 'जा, सर्प हो जा'।
तब वह वहाँ से पतित होकर बहुत दिनों तक सर्प योनि में रहा। महाभारत में लिखा है कि पाँडव लोग जब द्वैतवन में रहते थे ; तब एक बार भीम शिकार खेलने गए थे।
उस समय उन्हें एक बहुत बडे़ साँप ने पक़ड लिया।
जब उनके लौटने में देर हुई तब युधिष्ठिर उन्हें ढूँढ़ने निकले।
एक स्थान पर उन्होंने देखा कि एक बडा़ साँप भीम को पकडे़ हुए हैं।
उनके पूछने पर साँप ने कहा कि मैं महाप्रतापी राजा नहुष हूँ; ब्रह्मर्षि, देवता, राक्षस और पन्नग आदि मुझे कर देते थे।
ब्रह्मर्षि लोग मेरी पालकी उठाकर चला करते थे।
एक बार अगस्त्य मुनि मेरी पालकी उठाए हुए थे, उस समय मेरा पैर उन्हें लग गया जिससे उन्होंने मुझे शाप दिया कि जाओ, तुम साँप हो जाओ।
मेरे बहुत प्रार्थना करने पर उन्होंने कहा कि इस योनि से राजा युधिष्ठिर तुम्हें मुक्त करेंगे।
इसके बाद उसने युधिष्टिर से अनेक प्रश्न भी किए थे जिनका उन्होंने यथेष्ट उत्तर दिया था।
इसके उपरांत साँप ने भीम को छोड़ दिया और दिव्य शरीर धारण करके स्वर्ग को प्रस्थान किया।
नहुष एक नाग का नाम।भी है और ऋग्वेद में नहुष एक ऋषि का ना जो मनु के पुत्र और ऋग्वेद के कुछ मंत्रों के द्रष्टा माने जाते हैं। नहुष मनुष्य।
आदमी का भी वाचक है ।
अवश्य ययाति का वर्णन भी भारतीय पुराणों में कल्पना रञ्जित ही है ।
राजा नहुष के पुत्र जो सोमवंश के पाँचवें राजा थे और जिनका विवाह शुक्रचार्य की कन्या देवयानी के साथ हुआ था।
विशेष— इनको देवयानी के गर्भ से यदु और तुर्वसु नाम के दो तथा शर्मिष्ठा के गर्भ से द्रुह्यु, अणु और पुरु नाम के तीन पुत्र हुए थे। इनमें से यदु से यादव वंश और पुरु से पौरव वंश का आरंभ हुआ। शर्मिष्ठा इन्हों विवाह के दहेज में मिली थी।
शुक्रचार्य ने इन्हें यह कह दिया था कि शर्मिष्ठा के साथ संभोग न करना।
पर जब शर्मिष्ठा ने ऋतु- मती होने पर इनसे ऋतुरक्षा की प्रार्थना की, तब इन्होंने उसके साथ संभोग किया और उसे संतान हुई।
इसपर शुक्रचार्य ने इन्हों शाप दिया कि तुम्हें शीघ्र बुढापा आ जायगा। जब इन्होने शुक्राचार्य को संभोग का कारण बतलाया, तब उन्होंने कहा कि यदि कोई तुम्हारा बुढ़ापा ले लेगा, तो तुम फिर ज्यों के त्यों हो जाओगो।
इन्होंने एक एक करके अपने चारों पुत्रों से कहा कि तुम हमारा बुढ़ापा लेकर अपना यौवन हमें दे दो पर किसी ने स्वीकार नही किया। अंत में पुरु ने इनका बुढ़ापा आप ले लिया और अपनी जवानी इन्हें दे दी।
पुनः यौवन प्राप्त करके इन्होंने एक सहस्र वर्ष तक विषयसुख भोग। अंत में पुरु को अपना राज्य देकर आप वन में जाकर तपस्या करने लगे और अंत में स्वर्ग चले गए।
स्वर्ग पहुँचने पर भी एक बार यह इंद्र के शाप से वहाँ से च्युत हुए थे; क्योंकि इन्होंने इंद्र से कहा था कि जैसी तपस्या मैंने की है, वैसी और किसी ने नहीं की।
जब ये स्वर्ग से च्युत हो रहे थे, तब मार्ग में इन्हें अष्टक ऋषियों ने रोककर फिर से स्वर्ग भेजा था।
ब्राह्मणों'ने इतिहास के कल्पनाओं के सागर में डुबो दिया इनकी कथाऐं केवल अन्धभक्तों के लिए ही हैं ।
यद्यपि यदु वंश के पूर्वज ऋग्वेद तथा सुमेरियन बैबीलॉनियन और अक्काड के मिथकों में भी कुछ अन्तर से प्राप्त हैं।
शुक्राचार्य की पुत्री जो राजा ययाति को ब्याही थी उसका नाम देवयानी था। पुराणों में उसकी कथा भी इस प्रकार है ।
विशेष—बृहस्पति का पुत्र कच मृतसंजीवनी विद्या सीखने के लिये दैत्यगुरु शुक्राचार्य का शिष्य हुआ ।
शुक्राचार्य की कन्या देवयानी उसपर अनुरक्त हुई ।
असुरों को जब यह विदित हुआ कि कच मृतसंजीवनी विद्या लेने के लिये आया है तब उन्होंने उसको मार डाला ।
इसपर देवयानी बहुत विलाप करने लगी ।
तब शुक्राचार्य ने अपनी मृत- संजीवनी विद्या के बल से उसे जिला दिया ।
इसी प्रकार कई बार असुरों ने कच का विनाश करना चाहा पर शुक्राचार्य उसे बचाते गए ।
एक दिन असुरों ने कच को पीसकर शुक्राचार्य के पीने की सुरा में मिला दिया ।
शुक्राचार्य कच को सुरा के साथ पी गए ।
जब कच कहीं नहीं मिला तब देवयानी बहुत विलाप करने लगी और शुक्राचार्य भी बहुत धबराए ।
कच में शुक्राचार्य के पेठ में से ही सब व्यवस्था कह सुनाई । शुक्राचार्य ने देवयानी से कहा कि 'कच तो मेरे पेट में है, आब बिना मेरे मरे उसकी रक्षा नहीं सकती ।
' पर देवयानी को इन दोनों में से एक बात भी नहीं मंजूर थी । अंत में शुक्राचार्य ने कच से कहा कि य़दि तुम कच रूपी इंद्र नहीं हो तो मृत- संजीवनी विद्या ग्रहण करो और
उसके प्रभाव से बाहर निकज आओ ।
कच ने मृतसंजीवनी विद्या पाई और
वह पेट से बाहर निकल आया ।
तब देवयानी ने उससे प्रेमप्रस्ताव किया और विवाह के लिये वह उससे कहने लगी ।
कच गुरु की कन्या से विवाह करने पर किसी तरह राजी न हुए । इसपर देवयानी ने शाप दिया कि तुम्हारी सीखी हुई विद्या फलवती न होगी ।
कच ने कहा कि यह विद्या अमोघ है ।
यदि मेरे हाथ से फलवती न होगी तो जिसे मैं सिखाऊँगा उसके हाथ से होगी । पर तुमने मुझे व्य़र्थ शाप दिया ।
इससे मैं भी शाप देता हूँ कि तुम्हारा विवाह ब्राह्मण से नहीं होगा ।
दैत्यों के राजा वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा और देवयानी में परस्पर सखी भाव था ।
एक बार दोनों किनारे पर कपड़े रख जलाशय में जलविहार के लिये घुसीं ।
इंद्र ने वायु का रूप धरकर दोनों के वस्त्र एक स्थान पर कर दिए । शर्मिष्ठा ने जल्दी में देखा नहीं और निकलकर देवयानी के कपड़े पहन लिए ।
इसपर दोनों में झगड़ा हुआ और शर्मिष्ठा में देवयानी को कुएँ में ढ़केल दिया ।
शर्मिष्ठा यह समझकर कि देव- यानी मर गई अपने घर चली आई । इसी बीच नहुष राजा का पुत्र ययति शिकार खेलने आया था ।
उसने देवयानी को कुएँ से निकाला और उससे दो चार बातें करकें वह अपने नगर की और चला गया ।
इधर देवयानी ने एक दासी से अपना सब वृत्तांत शुक्राचार्य के पास कहला भेजा ।
शुक्राचार्य ने आकर अपनी कन्या को घर चलनै के लिये बहुत कहापर उसने एक भी न सुनी ।
वह शुक्राचार्य से कहने लगी कि 'शर्मिष्ठा तुम्हारा तिरस्कार करती थी, अतः मैं अब दैत्यों की राजधानी में कदापि न जाऊँगी' ।
यह सब सुनकर शुक्राचार्य भी दैत्यों की राजधानी छोड़ अन्यत्र जाने को तैयार हुए ।
यह खबर राजा वृषपर्वा को लगी और वह आकर शुक्राचार्य से बडी़ विनती करने लगा ।
शुक्राचार्य ने कहा ' देवयानी को प्रसन्न करो' ।
वृषपर्वा देवयानी को प्रसन्न करने की चेष्टा करने लगा । देवयानी ने कहा, 'मेरी इच्छा है कि शर्मिष्ठा सहस्त्र और कन्याओं सहित मेरी दासी हो ।
जहाँ मेरा पिता मुझे दान करे वहाँ वह मेरी दासी होकर जाय' । बृषपर्वा इस पर सम्मत हुआ और अपनी कन्या शर्मिष्ठा को देवयानी की दासी बनाकर शुक्राचार्य के घर भेज दिया ।
एक दिन देवयानी अपनी नई दासियों के सहित कहीं क्रीड़ा कर रही थी कि राजा ययाति वहाँ आ पहुँचे ।
देवयानी नें ययाति से विवाह करने की इच्छा प्रकट की ।
राजा ययति नें स्वीकार कर लिया और शुक्राचार्य ने कन्यादान कर दिया ।
कुछ दिन पीछे ययाति से शर्मिष्ठा को एक पुत्र उत्पन्न हुआ ।
जब देवयानी नें पूछा तब शर्मिष्ठा ने कह दिया कि यह लड़का मुझे एक तेजस्वी ब्राह्मण से उत्पन्न हुआ है ।
इसके उपरांत देवयानी के गर्भ से यदु और तुुर्वसु नाम के दो पुत्र और शर्मिष्ठा के गर्भ से द्रुह्य, अणु और पुरु ये तीन पुत्र हुए ।
ययाति से शर्मिष्ठा को तीन पुत्र हुए, यह जानकर देवयानी अत्यंत कुपित हुई और अपने पिता के पास इसका समाचार भेजा ।
शुक्राचार्य ने क्रोध में आकर ययाति को शाप दिया कि 'तुमने अधर्म किया है इसलिये तुम्हें बहुत शीघ्र बुढ़ा़पा घेरेगा' ।
ययाति में शुक्राचार्य से विनयपूर्वक कहा—'महाराज मैंने कामवश होकर ऐसा नहीं' किया, शर्मिष्ठा ने ऋतृमती होने पर ऋतुरक्षा के लिये प्रार्थना की । उसकी प्रार्थना को अस्वीकार करना मैंने पाप समझा ।
मेरा कुछ दोष नहीं' ।
शुक्राचार्य ने कहा' अब तो मेरा कहा हुआ निष्फल नहीं हो सकता ।
पर यदि कोई तुम्हारा बुढ़ा़पा ले लेगा तो तुम फिर ज्यों के त्यों जवान हो जाओगे ।
भागवत पुराण में पुराण कार कृष्ण के मुखार बिन्दु से कहलाता है कि हम यदु वंशी ययाति के शाप मिलने से राजगद्दी पर नहीं बैठ सकते 'परन्तु यदुकुल मे जन्मे नाना उग्रसेन कैसे बेठ जाते हैं राजगद्दी पर
और हैहयवंश के यादव कृतवीर्य का पुत्र अर्जुन जिसे सहस्रबाहु भी कहा गया 👇
पञ्चशीति सहस्राणि वर्षाणां वै नराधिप:।
स सर्वरत्न भाक् सम्राट् चक्रवर्ती बभूव ह ।23।।
वह हरिवशं पुराण के अनुसार पचासी हजार वर्ष तक सब प्रकार के रत्नों से सम्पन्न चक्रवर्ती सम्राट रहा ।23।।
हरिवशं पुराण 'हरिवंश पर्व तैतीसवाँ अध्याय पृष्ठ संख्या 159
(गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
' ये कथाऐं भारतीय पुरोहितों ने सुमेरियन बैबीलॉनियन मिथकों से ग्रहण की कुछ अन्तर के साथ .... पाठक जी अपनी प्रतिक्रियाऐं अवश्य दें ...
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प्रस्तुति-करण यादव योगेश कुमार 'रोहि'अलीगढ़
__________ ' 8077160219
आओ सुनाए गोपों' की कथा जिन्हें समानान्तरण
एक बार जब कृष्ण हिमालय पर्वत के कैलास शिखर पर तप करने तथा भूत और पिशाच जनजातियों के नायक शिव से मिलने गये तब वहाँ पैशाची प्राकृत बोलने वाले दो पिशाच जन-जाति के लोगों से परिचय हुआ यद्यपि उन्होने भी कृष्ण की ख्याति सुन ली थी।
वर्तमान में भूटान (भूतस्थान) ही भूत या भूटिया जन-जाति का निवास था ।
ये 'लोग' कच्चे ही माँस का भक्षण करते और गन्दे सन्दे रहते थे ।
'परन्तु वहाँ भी दो पिशाच जो कृष्ण के वर्चस्व से प्रभावित कृष्ण के भक्त बन गये थे ।
उन्होंने जब साक्षात् रूप में उपस्थित कृष्ण का परिचय पूछा
तो उन्होंने अपना परिचय शत्रुओं का क्षरण या क्षति करके पीडित का त्राण करने वाला क्षत्रिय बताया ।
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ब्रूहि मर्त्य यथातत्त्वं ज्ञातुमिच्छामि मानद ।
एवं पृष्टः पिशाचाभ्यामाह विष्णुरुरुक्रमः ।।3/80/ 9 ।।
•–दूसरों को मान देने वाले मानव आप ठीक ठीक बताइए मैं पिशाच यथार्थ रूप से आपका परिचय जानना चाहता हूँ ।
उन दौनों पिशाचों के इस प्रकार पूछने पर महान डग वाले भगवान विष्णु के रूप में कृष्ण बोले !
क्षत्रियोऽस्मीति मामाहुर्मानुष्याः प्रकृतिस्थिताः ।
यदुवंशे समुत्पन्नः क्षात्रं वृत्तमनुष्ठितः ।। 3/80/10 ।।
•-मैं क्षत्रिय हूँ प्राकृत मनुष्य मुझे एसा ही कहते हैं ; और जानते हैं
यदुकुल में उत्पन्न हुआ हूँ ।इस लिए क्षत्रियोचित कर्म का अनुष्ठान करता हूँ। 10।।
लोकानामथ पातास्मि शास्ता दुष्टस्य सर्वदा ।
कैलासं गन्तुकामोऽस्मि द्रष्टुं देवमुमापतिम् ।। 3/80/11 ।।
•-मैं तीनों लोगों का पालक
तथा सदी ही दुष्टों पर शासन करने वाला हूँ।
इस समय उमापति भगवान् शंकर का दर्शन करने कैलास पर्वत पर जाना चाहता हूँ 3/80/11
इसी पुराण में एक स्थान कृष्ण 'ने स्वयं उद्घोषणा की कि मैं गोप हमेशा सब प्रकार से प्राणियों की रक्षा करने वाला हूँ।
गोपोऽहं सर्वदा राजन् प्राणिनां प्राणद: सदा ।
गोप्ता सर्वेषु लोकेषु शास्ता दुष्टस्य सर्वदा।।४१।
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•– राजन् ! मैं गोप हूँ , और प्राणियों का सब ओर से प्राण दान करने वाला हूँ। सम्पूर्ण लोकों का रक्षक और सब ओर से दुष्टों का शासन करने वाला हूँ ।
हरिवशं पुराण भविष्य पर्व सौंवें अध्याय का इकतालीस वाँ श्लोक
(पृष्ठ संख्या 1298 गीताप्रेस गोरखपुर संस्करण)
अतएव गोप ही यादव और यादव अपनी वीरता प्रवृत्ति से आभीर थे
और क्षत्रिय वीर ही हो सकता है ।