कृष्ण के चरित्र को दूषित करने के षड्यन्त्र को रचने वाले अगर पूछा जाय तो कोई और नहीं थे !
देव संस्कृति के उपासक इन्द्र के आराधक वर्ण व्यवस्था वादी कर्म काण्ड को धर्म कहने वाले व्यभिचार मूलक नियोग को ईश्वरीय विधान बताने वाले कुछ इसी प्रकार की दूषित प्रवृत्ति के लोग थे ।
यह घटना है पुष्यमित्र सुंग कालीन ईसा० पूर्व 184 की है ।
यहीं से पुरोहितों की महिमा मण्डन और यादवों के इतिहास का महिमा खण्डन का दौर प्रारम्भ होने जाता है ।
भागवत धर्म के संस्थापक महामानव महात्मा और 'कहें' तो परमात्मा स्वरूप योगीराज श्रीकृष्ण थे ।और श्रीमद्भगवदगीता उपनिषत् उनका आध्यात्मिक सिद्धान्तों का सार भूत व भागवत धर्म का प्रतिनिधि ग्रन्थ था ।
परन्तु कालान्तरण में समझौता वादी पुरोहितों'ने बौद्धों और जैनों के नीचा दिखाने के लिए भागवत धर्म को कुछ अनुकूल या कहे जोड़-तोड़ के साथ आत्मसात भी किया
और श्रीमद्भगवद् गीता पञ्चम सदी में महाभारत के भीष्म पर्व में संपृक्त की गयी यद्यपि उसका संयोजन शान्ति पर्व में होना चाहिए था ।
क्योंकि शान्ति पर्व के अन्य श्लोक श्रीमद्भगवदगीता उपनिषत् के श्लोक हैं ।
और वर्ण व्यवस्था मूलक श्लोकों का समावेश भागवत धर्म की प्रतिनिधित्व करने वाले ग्रन्थ भगवद् गीता में अधिकतर है ।
यद्यपि शान्ति का स्वदेश देने वाली श्रीमद्भगवदगीता क्रान्ति की उद्भाविका भी है ।
ब्रह्म सूत्र (वेदान्त दर्शन ) में बौद्ध सम्प्रदायों का वर्णन और श्रीमद्भगवदगीता में वेदान्त दर्शन का वर्णन होने से यह पाँचवीं सदी में कुछ जोड़-तोड़ के साथ पुनर्सम्पादित हुई ।
यह सम्पादन उन्हीं वर्ण व्यवस्था के अनुयायी पुरोहितों 'ने किया यद्यपि पुराणों में भी मिलाबट का क्रम जोड़- तोड़ के क्रम रूप में अनवरत चलता रहा 'परन्तु जब भागवत धर्म से परास्त होकर रूढ़िवादी पुरोहितों ने उसे आत्मसात किया ताकि बौद्धों और जैनों के विरोध में सफल हो सकें ।
तो भागवतपुराण में दशम स्कन्द में षड्यन्त्र पूर्वक यादवों का इतिहास दूषित करने के लिए कृष्ण को रास लीला का अधिनायक बनाकर कृष्ण के चरित्र को वासना और काम की कींचड़ से सान दिया ।
यद्यपि आभीर संस्कृति का लोक नृत्यन्त हल्लीशम था
जिसका रास लीला से मिलना कर दिया गया रास शब्द यूनानी इरॉस से नकली है ।
जिसका अर्थ सेक्स या काम देव ।
और गोप और यादव और अहीरों को अलग दर्शाने के लिए अनेक काल्पनिक विरोधाभासी श्लोकों का समावेश कर दिया ।👇
'परन्तु नाम दिया भागवत पुराण यदि भागवत पुराण और भगवत् गीता का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो दौनों' में पूर्ण रूप से विपरीतता पायी जा जाएगी ।
आज कल मोरारी बाबू जो राम की कथा कहते हैं वह केवल आयु वृद्ध व्यक्ति कृष्ण के चरित्र को क्या जानते है ? ये केवल आयु वृद्ध हैं ज्ञान वृद्ध कदापिं नहीं ...
ये कितने विद्वान हैं इनकी वाणी के भाष्य से ज्ञात हो गया है
ये लोग राम-चरित मानस के कथा-वाचक हैं
और राम चरित मानस अहीरों को पापी कहा तो कही फिर उन्हें निर्मल मन भी बता दिया अर्थात् मार के पुचकारना ... 🔥
विदित हो कि वेदों में बहुतायत रूप में यदु और तुर्वशु को वश में करने की प्रार्थना करते हुए पुरोहित इन्द्र से कहते हैं ।👇
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प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ
नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि
अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा
अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान
अपने घर में प्रसन्नता से रहें;
तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो ।
और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो। अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !
(ऋग्वेद ७/१९/८) ऋग्वेद में भी यथावत् यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो ।
और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो ।
और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है देखें---
फिर यादवों के पूर्व पुरुष के प्रति ऐसी भावना रखने वाले उनके वंशजो को सम्मान कैसे दे सकते हैं ?
यादवों के पूर्वज यदु को अपने अधीन करने के लिए पुरोहित इन्द्र से क्या क्या प्रार्थना करते हैं ?
देखें निम्नलिखित सन्दर्भों में 👇
अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२।
(ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२)
हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था;
उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो जाओ। १।
शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले !
सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया ।
यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा
जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज-असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे।
असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज हैं ।
भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया ।
क्योंकि सूर्य और चन्द्र के सन्तानें होना मूर्खों की कल्पनाऐं हैं।
यादव सेमेटिक जन-जाति से सम्बद्ध हैं ।
ये असीरियन (असुर) जन-जाति के सहवर्ती तथा उनकी शाखा के लोग हैं ।
क्योंकि असुर भी सैमेटिक जन-जाति के थे ।
अब असुरों को विषय में जो वर्णन देव संस्कृति के उपासक पुरोहितों 'ने किया वह पूर्ण रूप से विरोध के लिए विरोध के भाव से प्रेरित है ।
और अपने दुश्मनों की प्रशंसा तो कोई सामान्यत व्यक्ति करेगा नहीं
क्योंकि दुश्मनों में गुण होते हुए भी दोष ही नजर आते हैं जो पूर्व दुराग्रह पूर्ण दृष्टि कोण ही है ।
असुरों का वर्णन भारतीय पुराणों में नकारात्मक रूप में हुआ
दरअसल वहाँ अ-सुर ( जो सुर - देव 'न हो )
उच्चारण बलाघात के रूप में इस शब्द का वर्ण और स्वर विन्यास किया गया ।
जोकि पूर्व दुराग्रह पूर्ण दृष्टि कोण से वाधित है ।
जबकि उच्चारण का स्वर विन्यास होना चाहिए असु-र ( शक्तिशाली या प्राणवन्त)
यद्यपि ईरानी भाषाओं में अहु-(प्राण)और अहुर मज्दा के मूल में अहुर प्राणवान ईश्वर का वाचक है ।
और दूसरी शब्द हुर (दएव) - देव का वाचक है
ईरानी भाषाओं में देव का अर्थ दुष्ट है ।
और बात जब आर्य्य शब्द की करते हैं तो आर्य्य शब्द ईरानीयों को ही प्रथम प्रयुक्त हुआ है ।
ईरानी असुर संस्कृतियों के अनुयायी थे ।
और आभीर अबीर क्रमश संस्कृत और हिब्रूू भाषाओं के शब्द वीर शब्द के सम्प्रसारित रूप हैं।
और आर्य्य शब्द का सम्प्रसारित रूप अथवा वीर आर्य्य शब्द का ।
इस लिए ---हे यादवों ! तनम मत अब किसी से दबो और आप खुद को क्षत्रिय समझे या कृष्ण का वंशज या यह रटते रहें कि
"यदोर्वंशः नरः श्रुत्वा,सर्व पापयै प्रमुच्यते"
(यदुवंश का इतिहास सुनने स मनुष्ये सारे पापों का विनाश हो जाता है)
लेकिन आपकी मान्यता तुलसी दास के राम-चरित मानस के अनुसार ही स्वीकार की जाएगी । "आभीर,यवन,किरात,खल,स्वपचादि अति अध रूपजे"(अहीर....अत्यंत अधम/नीच है।)
के रूप में ही स्वीकृति हैं ।
फिर पाराशर स्मृति में वर्णित है कि..गोप अर्थात् अहीर शूद्र हैं ।
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वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: ।
वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।।
एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना:
एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।। ----------------------------------------------------------------- वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं ।
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।
और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।
अरे यादवो !आप चाहे जितनी तरक्की कर जांय पर जाति आपका पीछा नही छोड़ेगी तभी तो कथित त्रेता में राम ने समुद्र के यह कहने पर कि "हे राम!
हमारे बगल में स्थित जो पवित्र राज्य द्रुमकुल्य है वहीं के निवासी पापी व नीच अहीरों के स्पर्श से हमे बड़ी पीड़ा होती है,आप अपने अमोघ व अशनि वाण को उन्ही पर छोड़ दीजिए",राम ने अपना वाण उन पर छोड़कर के अहिरो को मार डाला था।
(देखें- बाल्मीकि रामायण-युद्ध कांड के 22 वें अध्याय का राम-समुद्र संवाद देखें।)
'परन्तु अहीर नहीं मरे ।
यादवो ! आप चाहें कथित त्रेता के अहीर कृष्ण को भगवान कहें,वैज्ञानिक कहें,गणतंत्र के महान रचयिता कहें लेकिन देव संस्कृति के उपासक पुरोहितों के ऋग्वेद उन्हें असुर,दानव अदेव कहता है और उनका वध इंद्र के हाथों उनकी गर्भिणी पत्नियों सहित करवा देता है।(ऋग्वेद मण्डन-1के सूक्त 101का पहला मन्त्र,मण्डन-1,सूक्त-130 का आठवां मन्त्र,मण्डन -8,सूक्त-96 के मंत्र -13,14,15,17 को देखें।)👇🌸
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 के ऋचा- (13,14,15,)पर असुर अथवा अदेव कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ; ऐसा वर्णित है।
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आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ।
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या: न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।14।
अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण: विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।।

अर्थात् कृष्ण नामक असुर अथवा अदेव जो देवों को नहीं मानता है वह अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको (ग्वालो)के साथ गायें चराते हुए रहता है ।
और इन्द्र ने उसकी सम्पूर्ण सेना तथा गोओं का हरण कर लिया ।
इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है जो यमुना के एकान्त स्थानों पर गायें चराता है ।
अब आप -विचार करो कि यह कौन सा कृष्ण है ।
क्या आपको भारतीय पुराणों में कृष्ण द्वारा देवों की पूजा बन्द कराया जाना याद है ।
इन्द्र से कृष्ण युद्ध के पौराणिक सन्दर्भ भी हैं।
वेदों का प्रणयन ई०पू० १२वीं सदी से ई०पू० अष्टम सदी तक हुआ ।
और कृष्ण का समय ईसा० पूर्व नवम सदी है ।
अब बताओ !
---हे यादवों अब मत किसी से मत दबो !
कथित कलियुग में आप मुलायम,लालू,शरद,अखिलेश,तेजश्वी या और भी अन्यान्य क्षेत्रो के महारथी यादवो का नाम लेकर खुद को गौरवान्वित महसूस करते रहे
पर पढ़ी लिखी, रूढ़िवादीयों से संस्कारित शोधार्थी,वैज्ञानिक,आईएएस ब्राह्मण महिला डॉ मेधा विनायक खोले की नजर में आप नीच,शूद्र, अधम और तिरस्कार योग्य ही हैं।
दक्षिण भारत मे ब्राह्मणवाद के मजबूत किले के रूप में विद्यमान पुणे की मौसम वैज्ञानिक डॉ मेधा विनायक खोले को खाना बनाने हेतु ब्राह्मण महिला कुक चाहिए थी।
निर्मला नाम की एक विधवा ने इस वैज्ञानिक ब्राह्मणी के वहां खाना बनाने हेतु सारी तहकीकात के बाद नौकरी कर लिया।
एक वर्ष बाद जब इस ब्राह्मण वैज्ञानिक को पता चला कि उसकी रसोइया निर्मला ब्राह्मण न होकर यादव है तो इस आधुनिक भारत के वैज्ञानिक मेधा की मेधा ने ब्राह्मण वाद के समक्ष घुटने टेक दिया और इस वैज्ञानिक महिला ने उस विधवा निर्मला यादव के बिरुद्ध धार्मिक भावना भड़काने सहित 419,352,504 आईपीसी के तहत सिंहगढ़ रोड पुलिस स्टेशन पुणे में मुकदमा लिखवा दिया है।
मामला बड़ा पेचीदा है।
देश का कानून अस्पृश्यता को अपराध मानता है लेकिन अहीर(यादव) अस्पृश्य नही है इसलिए अस्पृश्यता निवारण कानून अहीर से अस्पृश्यता करने पर प्रभावी नही होगा।
अहीर स्वयंभू क्षत्रिय है लेकिन कोई उसे क्षत्रिय मानता नही।
बड़ी पेशोपेश में स्थिति है क्योंकि अहीर न शूद्र/अस्पृश्य है और न क्षत्रिय,अहीर खुद को चाहे जो समझे पर उसे इस आधुनिक और तरक्की कर रहे भारत मे डॉ मेधा विनायक खोले ने खोल करके रख दिया है और इसमें थाना ने विभिन्न धाराओं में मुकदमा दर्ज कर एक नए विमर्श का दरवाजा खोल दिया है।
निश्चित तौर पर हम सवाल कर सकते हैं कि इस आधुनिक भारत मे हम किस तरह का समाज बनाने जा रहे हैं?
पढ़ने-लिखने के बावजूद हमारा दकियानूस स्वभाव क्यो हमे जातीय दम्भ से निकलने नही दे रहा है?
इस वैज्ञानिक महिला को आप किस नजरिये से देखेंगे? यादवों ! सुनिए,गुने,धुनिये और आगे का निष्कर्ष निकालते रहिए कि आप हैं क्या-85% वाले शोषित या 15% वाले शोषक?
लड़ाई श्रमजीवी और परजीवी के बीच है पर यह परजीवी है बहुत चालाक जिसे हमारे विभाजन का लाभ मिल रहा है।
यादव शक्ति के सम्पादक लिखते हैं की " यादवों का गौरवान्वयन स्वयं के मुख से ही है कोई दूसरी पुरोहित परस्त कौंम उनके सम्मान और स्वाभिमान को स्वीकार नहीं करती है ।
हिन्दू समाज में कुछ समय से " महापुरुष कृष्ण " को लेकर ब्राह्मण तथा ठाकुर समाज में भी यह भ्रान्त धारणा
रूढ़ (प्रचलित) हो गयी है ।
और इसका प्रचार-प्रसार भी हो रहा है ;
कि कृष्ण वर्ण-व्यवस्था में क्षत्रिय थे ।
कृष्ण का जन्म वसुदेव के यहाँ हुआ , और वसुदेव क्षत्रिय थे ! तथा लालन-पालन नन्द के यहाँं और नन्द गोप अर्थात् अहीर थे ।
यदु वंश को भी ये लोग ब्राह्मण वर्ण -व्यवस्था के अन्तर्गत क्षत्रिय ही कहते हैं "
जबकि यादवों के पूर्वज यदु के विषय में नहीं जानते कि पुरोहितों'ने उन्हें कितना सम्मान दिया !
और वर्ण व्यवस्था के अन्तर्गत यादवों को शूद्र या वैश्य ही बनाने का षड्यन्त्र रचा ।
जबकि वस्तु-स्थिति ठीक इसके विपरीत है ।
क्यों कि यादवों ने कभी वर्ण -व्यवस्था को नहीं माना ।
और ये किसी के द्वारा परास्त नहीं हुए ।
इसलिए ब्राह्मणों ने द्वेष वश अहीरों या यादवों को शूद्र वर्ण में निर्धारित करने की असफल चेष्टा की ।
ब्राह्मण अहीरों को इसलिए शूद्र मानते हैं ।
क्योंकि उन्होंने ब्राह्मण धर्म के असमाजिक विधानों का विरोध व खण्डन किया ।
वस्तुत --जो जन-जाति वर्ण व्यवस्था को ही खारिज करती हो उसे आप नहीं तो क्षत्रिय मान सकते हैं ना ही शूद्र ।
क्योंकि पुराणों से भी प्राचीन वेद हैं ;और उनमें भी ऋग्वेद सबसे प्राचीन है ।
पुराणों का लेखन भी वेदों को उपजीवि( श्रोत) मान कर किया गया है।
और सारे पुराण परछाँईं के समान वेदों के ही अनुगामी हैं ।
---जो वेद में है ; उसी का विस्तार पुराणों में भी है।
अत: यदु तथा उनके वंशज कृष्ण का वर्णन भी ऋग्वेद में है ।
और विदित हो कि वेदों में यदु और उनके वंशज कृष्ण को दास अथवा शूद्र अथवा असुर (अदेव) इन समानार्थक विशेषणों से सम्बोधित किया गया है ।
सर्व-प्रथम हम ऋग्वेद में यादवों के पूर्वज यदु का वर्णन करते हैं ।
जब यदु को ही वेदों में दास अथवा शूद्र कहा है ।
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ६२वें सूक्त की १० वीं ऋचा में , यदु और तुर्वसु को स्पष्टत: दास के रूप में सम्बोधित किया गया है ।
वह भी गोपों को रूप में
तो यदुवंशी कब से क्षत्रिय हो गये ब्राह्मण वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत ।
ऋग्वेद में यदु को विषय में लिखा है कि
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी ।
" गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे ।।
(ऋग्वेद १०/६२/१०)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास जो गायों से घिरे हुए हैं
हम उन सौभाग्य शाली दौनों दासों की वर्णन करते हैं ।
यहाँ पर गोप शब्द स्पष्टत: है;
गो-पालक ही गोप होते हैं मह् धातु का क्रिया रूप आत्मने पदीय उत्तम पुरुष बहुवचन रूप में वर्णित है।
वैदिक सन्दर्भों में मह् धातु का अधिकतर अर्थ वर्णन करना अथवा कहना ही है।
प्रशंसा करना अर्थ लौकिक संस्कृत में रूढ़ हो गया है।
क्योंकि कि देव संस्कृति के विरोधी दास अथवा असुरों की प्रशंसा असंगत बात है ;
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में ही हुआ है।
गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा
जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला ।
अथवा गो परिणसा गायों से घिरा हुआ ।
भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी व असंगत बातें हैं । देखें--- षड्यन्त्र पूर्वक पुराणों में कृष्ण को गोपों से पृथक दर्शाने के लिए कुछ प्रक्षिप्त श्लोक समायोजित किये गये हैं ।
जैसे भागवतपुराण दशम् स्कन्ध के आठवें अध्याय में __________________________________________
यदूनामहमाचार्य: ख्यातश्च भुवि सर्वत: ।
सुतं मया मन्यते देवकी सुतम् ।।७।
अर्थात् गर्गाचार्य जी कहते हैं कि नन्द जी मैं सब जगह यादवों के आचार्य रूप में प्रसिद्ध हूँ ।
यदि मैं तुम्हारे पुत्र का संस्कार करुँगा ।
तो लोग समझेंगे कि यह तो वसुदेव का पुत्र है ।७।
दूसरा श्लोक और देखें---
________________________
"अयं हि रोहिणी पुत्रो रमयन् सुहृदो गुणै: ।
आख्यास्यते राम इति बलाधिक्याद् बलं विदु:।
यदूनाम् अपृथग्भावात् संकर्षणम् उशन्ति उत ।।१२
अर्थात् गर्गाचार्य जी ने कहा :- यह रोहिणी का पुत्र है। इस लिए इसका नाम रौहिणेय यह अपने लगे सम्बन्धियों और मित्रों को अपने गुणों से आनन्दित करेगा इस लिए इसका नाम राम होगा।
इसके बल की कोई सीमा नहीं अत: इसका एक नाम बल भी है। यह यादवों और गोपों में कोई भेद भाव नहीं करेगा इस लिए इसका नाम संकर्षणम् भी है ।१२। परन्तु भागवतपुराण में ही परस्पर विरोधाभासी श्लोक हैं देखें---
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" गोपान् गोकुलरक्षां निरूप्य मथुरां गत । नन्द: कंसस्य वार्षिक्यं करं दातुं कुरुद्वह।।१९। वसुदेव उपश्रुत्य भ्रातरं नन्दमागतम्। ज्ञात्वा दत्तकरं राज्ञे ययौ तदवमोचनम् ।२०।
अर्थात् कुछ समय के लिए गोकुल की रक्षा का भाव नन्द जी दूसरे गोपों को सौंपकर कंस का वार्षिक कर चुकाने के लिए मथुरा चले गये।१९।
जब वसुदेव को यह मालुम हुआ कि मेरे भाई नन्द मथुरा में आये हैं जानकर कि भाई कंस का कर दे चुके हैं ; तब वे नन्द ठहरे हुए थे बहाँ गये ।२०।
और ऊपर हम बता चुके हैं कि वसुदेव स्वयं गोप थे , तथा कृष्ण का जन्म गोप के घर में हुआ। महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में नन्द ही नहीं अपितु वसुदेव को भी गोप ही कहा गया है। और कृष्ण का जन्म भी गोप (आभीर)के घर में बताया है प्रथम दृष्ट्या तो ये देखें-- कि वसुदेव को गोप कहा है।
यहाँ हिन्दी अनुवाद भी प्रस्तुत किया जाता है । ____________________________________________
वसुदेवदेवक्यौ च कश्यपादिती। तौच वरुणस्य गोहरणात् ब्रह्मणः शापेन गोपालत्वमापतुः।
यथाह (हरिवंश पुराण :- ५६ अध्याय )
"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१ येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२
द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण: ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते। स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले । गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।
तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।
देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७। सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति। __________________________________________
गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण 'की कृति में श्लोक संख्या क्रमश: 32,33,34,35,36,37,तथा 38 पर देखें--- अनुवादक पं० श्री राम नारायण दत्त शास्त्री पाण्डेय "राम" "ब्रह्मा जी का वचन " नामक 55 वाँ अध्याय।
उपर्युक्त संस्कृत भाषा का अनुवादित रूप इस प्रकार है :-हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया और कहा ।२१।
कि हे कश्यप अापने अपने जिस तेज से प्रभावित होकर वरुण की उन गायों का अपहरण किया है ।
उसी पाप के प्रभाव-वश होकर तुम भूमण्डल पर तुम अहीरों (गोपों) का जन्म धारण करें ।२२।
तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि तुम्हारी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर तुम्हरे साथ
जन्म धारण करेंगी।२३।
इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।
हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं।
मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है;
उसी पर पापी कंस के अधीन होकर वसुदेव गोकुल पर राज्य कर रहे हैं। कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं २४-२७।
(उद्धृत सन्दर्भ --) यादव योगेश कुमार' रोहि' की शोध श्रृंखलाओं पर आधारित--- पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " ख्वाजा कुतुब संस्कृति संस्थान वेद नगर बरेली संस्करण) अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया गया है। ______________________________
गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत: ।।९।
अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की रक्षा करनें में समर्थ है ।
वे ही प्रभु विष्णु इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ? अर्थात् अहीरों के घर में जन्म क्यों ग्रहण किया ? ।९।
हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण) सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य . तथा गीता प्रेस गोरखपुर की हरिवंश पुराण की कृति में भी वराहोत्पत्ति वर्णन " नामक पाठ चालीसवाँ अध्याय में है ।
गोपों (अहीरों) को देवीभागवतपुराण तथा महाभारत ,
हरिवंश पुराण आदि मे देवताओं का अवतार बताया गया है । _________________________________________
" अंशेन त्वं पृथिव्या वै , प्राप्य जन्म यदो:कुले ।
भार्याभ्याँश संयुतस्तत्र , गोपालत्वं करिष्यसि ।१४।
अर्थात् अपने अंश से तुम पृथ्वी पर गोप बनकर यादव कुल में जन्म ले !और अपनी भार्या के सहित अहीरों के रूप में गोपालन करेंगे।।
कुछ पुराणों ने गोपों (यादवों ) को क्षत्रिय भी स्वीकार किया है ।
जैसे ब्रह्म पुराण में वर्णन है कि " नन्द क्षत्रियो गोपालनाद् गोप : अर्थात् नन्द क्षत्रिय गोपलन करने से ही गोप कहलाते हैं ।
( इति ब्रह्म पुराण)
और भागवतपुराण में भी यही संकेत मिलता है कि
वसुदेव उपश्रुत्वा,भ्रातरं नन्दमागतम् ।
पूज्य:सुखमाशीन: पृष्टवद् अनामयम् आदृत:।47।
भा०10/5/20/22 यहाँ स्मृतियों के विधान के अनुसार अनामयं शब्द से कुशलक्षेम क्षत्रिय जाति से पूछी जाती है ।
और नन्द से वसुदेवअनामय शब्द से कुशल-क्षेम पूछते हैं
ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत् बाहु जात: अनामयं ।
वैश्य सुख समारोग्यं , शूद्र सन्तोष नि इव च।63।
अथवा ब्राह्मण: कुशलं पृच्छेत् क्षात्र बन्धु: अनामयं । वैश्य क्षेमं समागम्यं, शूद्रम् आरोग्यम् इव च।64।
संस्कृत ग्रन्थ नन्द वंश प्रदीप में वर्णित है ;
कि नन्द का जन्म यदुवंशी देवमीढ़ के वंश में हुआ । " नन्दोत्पत्तिरस्ति तस्युत, यदुवंशी नृपवरं देवमीढ़ वंशजात्वात ।65।
भागवतपुराण के दशम् स्कन्ध अध्याय 5 में नन्द के विषय में वर्णन है ।
यदुकुलावतंस्य वरीयान् गोप: पञ्च प्राणतुल्येषु ।
पञ्चसुतेषु मुख्यमस्य नन्द राज:। 67।
प्रसिद्ध यदु वंशी पर्जन्य गोप के प्राणों के सामान -प्रिय पाँच पुत्र थे ; जिसमें नन्द राय मुख्य थे ।
अब इस प्रकार तो गोप और यादव एक हुए ।
अब ब्रह्माण्डपुराण के उत्तरखण्ड राधा हृदय अध्याय 6 में वर्णित है कि
" जज्ञिरे वृष्णि कुलस्थ, महात्मनो महोजस: नन्दाद्या वेशाद्या: श्री दामाश्च सबालक: ।68।
अर्थात् यदुवंश की वृष्णि शाखा में उत्पन्न नन्द आदि गोप तथा श्री दामा गोप आदि बालक उत्पन्न हुए थे ब्रह्म वैवर्त पुराण श्री कृष्ण जन्म खण्ड अ०13,38,39,में
सर्वेषां गोप पद्मानां गिरिभानुश्च भाष्कर:
पत्नी पद्मावते समा तस्य नाम्ना पद्मावती सती ।।
तस्या: कन्या यशोदात्वं लब्धो नन्दश्च वल्लभा: ।94।
जब गर्गाचार्य नन्द जी के घर गोकुल में राम और श्याम का नामकरण संस्कार करने गए थे ;
तब गर्ग ने कहा कि नंद जी और यशोदा तुम दोनों उत्तम कुल में उत्पन्न हुए हो;
यशोदा तुम्हारे पिता का नाम गिरिभानु गोप है और माता का नाम पद्मावती सती है तुम नन्द जी को पति रूप पाकर कृतकृत्य हो गईं हो!
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यादव योगेश कुमार 'रोहि' ग्राम-आज़ादपुर पत्रालय-पहाड़ीपुर जनपद अलीगढ़---उ०प्र० सम्पर्क 8077160219.. __________________________________________
परन्तु कालान्तरण में स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र रूप में वर्णित करना यादवों के प्रति द्वेष भाव को ही इंगित करता है ।
अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है।
यह भी देखें---
व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है ।
स्मृति-ग्रन्थों की रचना काशी में में बारहवीं शताब्दी के अन्तिम चरण में लिखीं गयी ।
जिसका हबाला हम आगे देंगे स्मृतियों की रचना काशी में हुई , वर्ण-व्यवस्था का पुन: दृढ़ता से विधान पारित करने के लिए काशी के इन ब्राह्मणों ने रूढ़ि वादी पृथाओं के पुन: संचालन हेतु स्मृति -ग्रन्थों की रचना की जो पुष्यमित्र सुंग की परम्पराओं के अनुगामी थे ।
देखें--- निम्न श्लोक दृष्टव्य है इस सन्दर्भ में..
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वाराणस्यां सुखासीनं वेद व्यास तपोनिधिम् ।
पप्रच्छुमुर्नयोSभ्येत्य धर्मान् वर्णव्यवस्थितान् ।।१।।
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अर्थात् वाराणसी में सुख-पूर्वक बैठे हुए तप की खान वेद व्यास से ऋषियों ने वर्ण-व्यवस्था के धर्मों को पूछा ।
गोपों में हीन भावना भलने के लिए उन्हें शूद्र कन्या में क्षत्रिय से उत्पन्न कर दिया ।
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" क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: ।
स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय: -----------------------------------------------------------------
अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।
और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं ....
फिर पाराशर स्मृति में वर्णित है कि..गोप अर्थात् अहीर शूद्र हैं ।
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वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: ।
वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।।
एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना:
एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।। -----------------------------------------------------------------
वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं ।
चमार ,भट, भील ,धोवी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।
और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।
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अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।।
शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति ।
धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।।
(व्यास-स्मृति)
नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं ।
तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।।
जिनके वंश का ज्ञान है ;एेसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले होते हैं ।५०। __________________________________________
(व्यास- स्मृति प्रथम अध्याय श्लोक ११-१२) ------------------------------------------------------------------
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निश्चित रूप इन विरोधाभासी तथ्यों से ब्राह्मणों के विद्वत्व की पोल खुल गयी है ।
जिन्होंने योजना बद्ध विधि से समाज में ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित कर के लिए सारे -ग्रन्थों पर व्यास की मौहर लगाकर अपना ही स्वार्थ सिद्ध किया है ।
परन्तु स्वयं वही संस्कृत -ग्रन्थों में गोपों को परम यौद्धा अथवा वीर के रूप में वर्णन किया है ।
गोप शूद्र नहीं अपितु स्वयं में क्षत्रिय ही हैं । जैसा की संस्कृति साहित्य का इतिहास 368 पर गर्गसंहिता के हबाले से लिखा है कि 👇 __________________________________________ अस्त्र हस्ताश़्च धन्वान: संग्रामे सर्वसम्मुखे ।
प्रारम्भे विजिता येन स: गोप क्षत्रिय उच्यते ।।
यादव: श्रृणोति चरितं वै गोलोकारोहणं हरे :
मुक्ति यदूनां गोपानं सर्व पापै: प्रमुच्यते ।102। _______________________________________
अर्थात् जिसके हाथों में अस्त्र एवम् धनुष वाण हैं ---जो युद्ध को प्रारम्भिक काल में ही विजित कर लेते हैं वह गोप क्षत्रिय ही कहे जाते हैं ।
जो मनुष्य गोप अर्थात् आभीर (यादवों )के चरित्रों का श्रवण करता है ।
वह समग्र पाप -तापों से मुक्त हो जाता है ।।102।
फिर यह कहना पागलपन है कि कृष्ण यादव थे नन्द गोप थे । भागवतपुराण में वर्णित यह विरोधाभासी बकवास स्वयं ही खण्डित हो जाती है ।
भागवतपुराण बारहवीं सदी की पुनर्सम्पादित रचना है ।
और इसे लिखने वाले कामी व भोग विलास -प्रिय ब्राह्मण थे । पुष्यमित्र सुंग के विधानों का प्रकाशन करने वाला है।
अब कोई बताएे कि गोप ही गोपिकाओं को लूटने वाले कैसे हो सकते हैं ? यदु की गोप वृत्ति को प्रमाणित करने के लिए ऋग्वेद की ये ऋचा सम्यक् रूप से प्रमाण है ।
ऋग्वेद भारतीय संस्कृति में ही नहीं अपितु विश्व- संस्कृतियों में प्राचीनत्तम है । __________________________________________
" उत् दासा परिविषे स्मद्दिष्टी गोपरीणसा यदुस्तुर्वश्च च मामहे । (ऋ०10/62/10)
अर्थात् यदु और तुर्वसु नामक दौनों दास गायों से घिरे हुए हैं ; गो-पालन शक्ति के द्वारा सौभाग्य शाली हैं हम उनका वर्णन या प्रशंसा करते हैं । (ऋ०10/62/10/)
विशेष:- व्याकरणीय विश्लेषण - उपर्युक्त ऋचा में दासा शब्द प्रथमा विभक्ति के अन्य पुरुष का द्विवचन रूप है ।
क्योंकि वैदिक भाषा ( छान्दस् ) में प्राप्त दासा द्विवचन का रूप पाणिनीय द्वारा संस्कारित भाषा लौकिक संस्कृत में दासौ रूप में है । परिविषे:-परित: चारौ तरफ से व्याप्त ( घिरे हुए) स्मद्दिष्टी स्मत् दिष्टी सौभाग्य शाली अथवा अच्छे समय वाले द्विवचन रूप ।
गोपर् ईनसा सन्धि संक्रमण रूप गोपरीणसा :- गो पालन की शक्ति के द्वारा ।
गोप: ईनसा का सन्धि संक्रमण रूप हुआ गोपरीणसा जिसका अर्थ है शक्ति को द्वारा गायों का पालन करने वाला । अथवा गो परिणसा गायों से घिरा हुआ यदु: तुर्वसु: च :- यदु और तुर्वसु दौनो द्वन्द्व सामासिक रूप मामहे :- मह् धातु का उत्तम पुरुष आत्मने पदीय बहुवचन रूप अर्थात् हम सब वर्णन करते हैं ।
ऋग्वेद के प्राय: ऋचाओं में यदु और तुर्वसु का वर्णन नकारात्मक रूप में हुआ है ।
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प्रियास इत् ते मघवन् अभीष्टौ नरो मदेम शरणे सखाय:।
नि तुर्वशं नि यादवं शिशीहि अतिथिग्वाय शंस्यं करिष्यन् ।।
(ऋग्वेद ७/१९/८ ) में भी यही ऋचा अथर्ववेद में भी (काण्ड २० /अध्याय ५/ सूक्त ३७/ ऋचा ७) ________________________________________
हे इन्द्र ! हम तुम्हारे मित्र रूप यजमान अपने घर में प्रसन्नता से रहें; तथा तुम अतिथिगु को सुख प्रदान करो और तुम तुर्वसु और यादवों को क्षीण करने वाले बनो।
अर्थात् उन्हें परास्त करने वाले बनो !
(ऋग्वेद ७/१९/८) ऋग्वेद में भी यथावत यही ऋचा है ; इसका अर्थ भी देखें :- हे ! इन्द्र तुम अतिथि की सेवा करने वाले सुदास को सुखी करो । और तुर्वसु और यदु को हमारे अधीन करो । _______________________________________
और भी देखें यदु और तुर्वसु के प्रति पुरोहितों की दुर्भावना अर्वाचीन नहीं अपितु प्राचीनत्तम भी है ।...
देखें---
अया वीति परिस्रव यस्त इन्दो मदेष्वा ।
अवाहन् नवतीर्नव ।१।
पुर: सद्य इत्थाधिये दिवोदासाय , शम्बरं अध त्यं तुर्वशुं यदुम् ।२। (ऋग्वेद ७/९/६१/ की ऋचा १-२) हे सोम ! तुम्हारे किस रस ने दासों के निन्यानवे पुरों अर्थात् नगरों) को तोड़ा था ।
उसी रस से युक्त होकर तुम इन्द्र के पीने के लिए प्रवाहित हो ओ। १। शम्बर के नगरों को तोड़ने वाले !
सोम रस ने ही तुर्वसु की सन्तान तुर्को तथा यदु की सन्तान यादवों (यहूदीयों ) को शासन (वश) में किया ।
यदु को ही ईरानी पुरातन कथाओं में यहुदह् कहा जो ईरानी तथा बैबीलॉनियन संस्कृतियों से सम्बद्ध साम के वंशज- असीरियन जन-जाति के सहवर्ती यहूदी थे। असुर तथा यहूदी दौनो साम के वंशज- हैं भारतीय पुराणों में साम के स्थान पर सोम हो गया । यादवों से घृणा चिर-प्रचीन है देखें--और भी ____________________________________
सत्यं तत् तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम् ।
व्यानट् तुर्वशे शमि । (ऋग्वेद ८/४६/२७) _______________________________________
हे इन्द्र! तुमने यादवों के प्रचण्ड कर्मों को सत्य (अस्तित्व) में मान कर संग्राम में अह्नवाय्यम् को प्राप्त कर डाला ।
अर्थात् उनका हनन कर डाला । अह्नवाय्य :- ह्नु--बा० आय्य न० त० । निह्नवाकर्त्तरि । “सत्यं तत्तुर्वशे यदौ विदानो अह्नवाय्यम्” ऋ० ८, ४५, २७ अथर्ववेद तथा ऋग्वेद में यही ऋचांश बहुतायत से है । ________________________________________
किम् अंगत्वा मघवन् भोजं आहु: शिशीहि मा शिशयं त्वां श्रृणोमि ।। अथर्ववेद का० २०/७/ ८९/३/ हे इन्द्र तुम भोग करने वाले हो । तुम शत्रु को क्षीण करने वाले हो । तुम मुझे क्षीण न करो । ________________________________________
यदु को दास अथवा असुर कहना सिद्ध करता है कि ये असीरियन जन-जाति से सम्बद्ध सेमेटिक यहूदी यों के पूर्वज यहुदह् ही थे ।
यद्यपि यदु और यहुदह् शब्द की व्युत्पत्तियाँ समान है । अर्थात् यज्ञ अथवा स्तुति से सम्बद्ध व्यक्ति ।
यहूदीयों का सम्बन्ध ईरान तथा बेबीलोन से भी रहा है
ईरानी असुर संस्कृति में दाहे शब्द दाहिस्तान के सेमेटिक मूल के व्यक्तियों का वाचक है।
यदु एेसे स्थान पर रहते थे।जहाँ ऊँटो का बाहुल्य था ऊँट उष्ण स्थान पर रहने वाला पशु है ।
यह स्था (उष ष्ट्रन् किच्च ) ऊषरे तिष्ठति इति उष्ट्र (ऊषर अर्थात् मरुस्थल मे रहने से ऊँट संज्ञा )। (ऊँट) प्रसिद्धे पशुभेदे स्त्रियां जातित्त्वात् ङीष् ।
“हस्तिगोऽश्वोष्ट्रदमकोनक्षत्रैर्यश्च जीवति” “नाधीयीताश्वमारूढ़ो न रथं न च हस्तिनम्
देखें-ऋग्वेद में
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शतमहं तिरिन्दरे सहस्रं वर्शावा ददे ।
राधांसि यादवानाम् त्रीणि शतान्यर्वतां सहस्रा दश गोनाम् ददुष्पज्राय साम्ने ४६।
उदानट् ककुहो दिवम् उष्ट्रञ्चतुर्युजो ददत् ।
श्रवसा याद्वं जनम् ।४८।१७।
यदु वंशीयों में परशु के पुत्र तिरिन्दर से सहस्र संख्यक धन मैने प्राप्त किया ! ऋग्वेद ८/६/४६
अब हम इस तथ्य की विस्तृत व्याख्या करते हैं ।
यहाँ एक तथ्य विचारणीय है कि असुर शब्द का पर्याय वैदिक सन्दर्भों में दास शब्द है ।
दास शब्द देव संस्कृति के विरुद्ध रहने वाले दाहिस्तान Dagestan को निवासीयों का विशेषण है ।
---जो ईरानी असुर संस्कृति के अनुयायी तथा अहुर-मज्दा (असुर महत्) में आस्था रखने वाले हैं ।
पुराणों में भी कहीं गोपों को क्षत्रिय कहा गया है; तो स्मृति-ग्रन्थों में उन्हीं गोपो को शूद्र रूप में वर्णित कर दिया है ।
भारतीय पुराणों में द्रविडों को शूद्र रूप में परिगणित किया है। और कृष्ण को भी क्षत्रिय घोषित नहीं किया ।
पुराणों का कथ्य है कि यदु दास अथवा असुर होने से शूद्र हुए अत: वे राज सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं। राजा और क्षत्रिय परस्पर पर्याय वाची रूप हैं।
अमरकोश में क्षत्रिय के पर्याय वाची रूप हैं 2।8।1।1।4 मूर्धाभिषिक्तो राजन्यो बाहुजः क्षत्रियो विराट्. राजा राट्पार्थिवक्ष्माभृन्नृपभूपमहीक्षितः॥
मूर्धाभिषिक्त, राजन्य, बाहुज,क्षत्रिय,विराट,राजा,राट् , पार्थिव, क्ष्माभृत् , नृप, भूप , तथा महिक्षित।
वेद में राजन्य शब्द क्षत्रिय का वाचक है देखें--- ब्राह्मणोsस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: उरू तदस्ययद् वैश्य: पद्भ्याम् शूद्रोsजायत।। (ऋग्वेद १०/९०/१२) परन्तु
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भागवतपुराणकार की बातें इस आधार पर भी संगत नहीं हैं ।
यहाँ देखिए --
"एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:।
मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२।
आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि ।
ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।१३।
श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय
अनुवाद:-- देवकी नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार अपने माता पिता को सान्त्वना देकर; अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशीयों का राजा बना दिया।१२।
और उन उग्रसेन से कहा कि महाराज हम आपकी प्रजा हैं; आप हम लोगो पर शासन कीजिए !
"क्योंकि राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं ।
अब ---मैं पूछना चाहुँगा कि उग्रसेन यदुवंशी नहीं थे क्या ?
यद्यपि उग्रसेन भी यदु वंशी ही थे तो फिर यह तथ्य असंगत ही है। कि यादव राज-सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं।
भागवतपुराण लिखने वाला यहाँ सबको भ्रमित कर रहा है वह कहता है कि " ययाति का शाप होने से यदुवंशी राजसिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं। तो फिर उग्र सेन यदुवंशी नहीं थे क्या ?
---जो राजसिंहासन पर बैठने के लिए उनसे श्रीकृष्ण कहते हैं।
हरिवंश पुराण तथा अन्य सभी पुराणों में उग्रसेन यादव अथवा यदुवंशी हैं ।
ययाति का शाप उन पर लागू क्यों नहीं हुआ ?
देखें--- हरिवंश पुराण में कि उग्रसेन यादव हैं कि नहीं!👇
यदुवंश्ये त्रय नृपभेदे च ।
“अन्धकञ्च महाबाहुं वृष्णिञ्च यदुनन्दनम्” इत्युपक्रम्य “अन्धकात् काश्यदुहिता चतुरोऽलभ- तात्मजान् ।
कुकुरं भजमानञ्च शमं कम्बलबर्हिषम् ।
कुकुरस्य सुतोधृष्णुर्धृष्णोसु तनयस्तथा ।
कपोतरोमा तस्याथ तैत्तिरिस्तनयोऽभवत् ।
जज्ञे पुनर्वसुस्तस्मादभिजिच्च पुनर्वसोः ।
तथा वै पुत्रमिथुनं बभूवाभिजितः किल ।
आहुकश्चाहुकी चैव ख्यातौ ख्यातिमतां वरौ”
इत्याहुकोत्- पत्तिमभिधाय
“आहुकस्य तु काश्यायां द्वौ पुत्रौ संबमूवतुः
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देवकश्चोग्रसेनश्च देवगर्भसमावुभौ ।
नवोग्रसे- नस्य सुताः तेषां कंसस्तु पूर्व्वजः”
(हरिवंश ३८ अध्याय
और भागवतपुराण में भी वर्णित है कि
(उग्रा सेना यस्य ) मथुरादेशस्य राजविशेषः ।
स च आहुकपुत्त्रः । कंसराजपिता च इति श्रीभागवतम पुराणम् --
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कदाचित वेदों में यदु को दास कहा गया है ।
और दास का अर्थ असुर है ।
और फिर लौकिक संस्कृत में दास को शूद्र कहा गया। एक तथ्य विचारणीय है कि किसी भी पुराण में कृष्ण को क्षत्रिय रूप में सम्बोधित नहीं किया गया है।
क्योंकि क्षत्रिय राजा होता है ।
और आज ---जो यदुवंशी कहकर अपने को क्षत्रिय अथवा राज पुत्र ( राजपूत) घोषित करें तो वह यदुवंशी कदापि नहीं है।
अब निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं।
यह शास्त्रीय पद्धति से प्रमाणित भी है __________________________________________
प्रस्तुति कर्ता -यादव योगेश कुमार 'रोहि
साभार ---