शूद्र और आर्य एक विस्तृत परिचय--
13 फरवरी 2018 | Yadav Yogesh kumar -Rohi- (324 बार पढ़ा जा चुका है)
लेख शूद्र और आर्य एक विस्तृत परिचय--
शूद्र और आर्य एक विस्तृत परिचय -
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शूद्र कौन थे ? और इनका प्रादुर्भाव कहाँ से हुआ --------------------------------------------------------------
भारतीय इतिहास ही नहीं अपितु विश्व इतिहास का प्रथम अद्भुत् शोध "
यादव योगेश कुमार 'रोहि ' के द्वारा अनुसन्धानित ।
विश्व सांस्कृतिक अन्वेषणों के पश्चात् एक तथ्य पूर्णतः प्रमाणित हुआ है।
कि जिस वर्ण व्यवस्था को मनु का विधान कह कर भारतीय संस्कृति के प्राणों में प्रतिष्ठित किया गया था ;
'वह मात्र ईसा० पूर्व० सप्तम सदी की पैदाइश है ।
शूद्रों को दृष्टि गत रखते हुए वर्ण-व्यवस्था का निर्माण किया गया ।
शूद्र शब्द की व्युपत्ति भारोपीय वर्ग से सम्बद्ध है ।
वस्तुत यह एक जनजाति गत विशेषण है ।
उसकी प्राचीनता भी पूर्णतः संदिग्ध ही है , मिथ्या वादीयों ने वर्ण व्यवस्था को ईश्वरीय विधान भी घोषित भी किया ।
परन्तु यह प्राचीनता केवल कुछ हजार वर्ष ई०पू०की लगभग 2050 से ई०पू० 1500 तक के काल खण्ड की है ।
जब ईरानी और भारतीय देव-संस्कृति के अनुयायी समान रूप से एक साथ अजर-बेजान (आर्यन- आवास) में निवास कर रहे थे ।
तब वर्ग-व्यवस्था की प्रस्तावना ईरानी संस्कृति में बनी थी ।
तव वर्ग ही था न कि वर्ण व्यवस्था प्राचीन तो है ,
यह समय ईसा० पूर्व० अष्टम सदी का है ।
इसी समय यूनानी में देव संस्कृति की प्रतिष्ठा थी ।
महा विद्वान होमर इलियड और ओडेसी नामक पुराण अथवा आख्यान संहिताओं का प्रणयन कर कहे थे।
यूनानीयों की संस्कृति आर्यो की मध्य एशियायी संस्कृति का प्रारूप है ।
इस समय तक आर्य और शूद्र जैसे शब्दों का जन्म नहीं हुआ ।
जब यूनानीयों तथा तुर्की के प्राचीन निवासी ट्राय वालों मे राजनैतिक लड़ाईयाँ होती थीं ।
तब यह समय ई०पू०1200 की घटनाओं से सम्बद्ध है ।
मृतक के दाह संस्कार की पृथा तथा बारह दिनो का शोक तैरहवें दिन शान्ति अनुष्ठान ट्रॉय और यूनान वासीयों में समान रूप से होते थे ।
दौनी ही संस्कृतियों के अनुयायी देव संस्कृति के उपासक थे।
और यूनान वासीयों की सभी भाषाओं का 90% प्रतिशत शब्दावली रूप में साम्य अद्भुत है।
इससे बड़ा प्रमाण इन की एकरूता का क्या हो सकता है ।
भाषायी और देव सूची तथा सांस्कृतिक स्तर पर भी साम्य है ।
तब इस समाज में कोई वर्ण -व्यवस्था या जातिव्यवस्था नहीं थी ।
भारतीय पुराणों तथा महाभारत आदि -ग्रन्थों का प्रणयन भी होमर के काव्यों पर आधारित हैं ।
बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में--
वर्ण व्यवस्था के विषय में आज पुरोहितों द्वारा जैसा आदर्श प्रस्तुत किया जाता है।
उसमें पुरोहितों का वर्चस्व मूलक स्वार्थ सन्निहित है ।
कुछ तथाकथित रूढ़वादियों द्वारा स्थापित मान्यता ।
आदर्श और यथार्थ की सीमाओं में नहीं है ।
वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का स्वरूप स्वभाव, प्रवृत्ति और कर्म गत भले ही हो !
परन्तु कालान्तरण में यह जाति अर्थात् जन्म गत हो गया ।
शूद्र भारतीय समाज व्यवस्था में चतुर्थ वर्ण या जाति है।
उत्पत्ति शूद्र शब्द मूलत: विदेशी है
अर्थात् ये भी स्कॉटलेण्ड के निवासी तथा ड्रयूड (Druids) कबीले से सम्बद्ध है ।
जिन द्रूदों (Druids) को भारतीय पुराणों में द्रविड कहा गया ।
यद्यपि आर्य शब्द का मूल अर्थ यौद्धा अथवा वीर होता है ।
प्रारम्भिक काल में यह किसी जन-जाति का वाचक नहीं था।
परन्तु भारतीय वर्ण-व्यवस्था में यह चतुर्थ जातियों या वर्णों का वाचक हो गया ।
ये सुटॉर
शूद्र द्रविड अथवा ड्रयूडस् (Druids) शाखा के सुट्र (Souter) ही थे ।
स्कोट लेण्ड में ये सुटॉर एक व्यवसाय मूलक जातीय विशेषण है।
अब ये भारतीय धरातल पर पराजित कैसे हुए ?
यह भी एक रहस्य है।
ये लोग सीधे सरल और ईश्वरीय भक्त थे।
यद्यपि द्रविड संस्कृति और ज्ञान और शिल्प के क्षेत्र में प्राचीन विश्व में सर्वोपरि व अद्वितीय थे ।
दुनिया के सबसे पहले द्रव वेत्ता होने ही इनकी द्रविद संज्ञा हुई ।
इस बात को हम नहीं अपितु रोमन सम्राट जूलियस् सीजर कहता है ।
देव संस्कृति के उपासकों की बहुतायत शाखा जर्मन जाति से सम्बद्ध है;
जिनके पूर्व पुरुष मैनुस् हैं ।
यह तथ्य भी प्रमाणिकता के दायरे में आ गयें हैं ।
फिर भी देव और द्रविडों की पौराणिकभारतीय पात्रों की सूची समान ही थी ।
और पूर्वज भी !
टैकीटस के अनुसार मेनुस त्वष्टो ( Tuisto) का पवित्र है ।
यूनानी मनु को माइनॉस (minos) कहते ।
भारतीय पौराणिक सन्दर्भ के अनुसार वायु पुराण का कथन शूद्र शब्द की व्युपत्ति पर है कि
" शोक करके द्रवित होने वाले परिचर्यारत व्यक्ति शूद्र हैं।
और "भविष्यपुराण में " व्युपत्ति है।
श्रुति की द्रुति (अवशिष्टांश) प्राप्त करने वाले शूद्र कहलाए"
वैदिक परम्परा अथर्ववेद में कल्याणी वाक् (वेद) का श्रवण शूद्रों को विहित था।
इस प्रकार के वर्णन भी मिलते हैं
परम्परा है कि ऐतरेय ब्राह्मण का रचयिता महीदास इतरा (शूद्र) का पुत्र था।
किन्तु बाद में वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों से ले लिया गया।
ये तथ्य कहाँ तक सत्य हैं कहा नहीं जा सकता है ।
शूद्र जनजाति का उल्लेख;- विश्व इतिहास कार डायोडोरस, टॉल्मी और ह्वेन त्सांग भी करते हैं।
आर्थिक स्थिति उत्तर वैदिक काल में शूद्र की स्थिति दास की थी अथवा नहीं यह भी अतिरञ्जित है ।
और इस विषय में निश्चित नहीं कहा जा सकता।
वह कर्मकार और परिचर्या करने वाला वर्ग था।
ज़िमर और रामशरण शर्मा क्रमश: शूद्रों को मूलत: भारतवर्ष में प्रथमागत आर्य स्कन्ध, क्षत्रिय, ब्राहुई भाषी और आभीर अथवा गोपों से संबद्ध मानते हैं।
सम्भवत: इन मान्यताओं का श्रोत
यहूदीयों से सम्बद्ध ईरानी परिवार की दाहिस्तान (Dagestan) में आबाद अवर (Avars) जन जाति है ।
तथा सॉग्डियन लोग रहे हों !
सॉग्डियन जाति प्राचीनत्तम ईरानी में 370–328 में प्राप्त होती है।
यहूदी जन-जाति की युद्ध कला में पारंगत अबीर (Abeer) शाखा का स्वाभाव भारतीय अहीरों से साम्य रखता है ।
जो क़जर (Khazar) अथवा अख़जई के सहवर्ती थे ।
यद्यपि दौनो जन-जातियाँ यहूदीयों से सम्बद्ध हैं ।
इन्हें गूजर और अहीर मान सकते
परन्तु जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध ब्राह्मणों से ये जन-जातियाँ भारत में पूर्वागत हैं ।
जिन्हें भारतीय पुराणों में गुर्जर और आभीर( गोप) में वर्णित किया गया है ।
वर्ण व्यवस्था, ब्राह्मण, वैश्य, क्षत्रिय, चर्मकार, मीणा, कुम्हार, दास, भील, बंजारा अन्य जानकारी पद से उत्पन्न होने के कारण पदपरिचर्या शूद्रों का विशिष्ट व्यवसाय पुरोहितों ने निर्धारित किया है।
यादवों को यद्यपि कहीं क्षत्रिय तो कहीं वैश्य तो कहीं ब्राह्मण और शूद्र वर्णित किया गया परन्तु अहीरों ने वर्ण-व्यवस्था को कभी भी स्वीकार नहीं किया ।
ये भागवत धर्म के प्रवर्तक थे जिसमें वर्ण-व्यवस्था का कोई स्थान नहीं है ।
स्मृति-ग्रन्थों तथा कहीं कहीं भारतीय पुराणों में भी गोपों अथवा अहीरों को शूद्र रूप में वर्णित किया गया है।
तथा कहीं पूज्य मनुष्यों के समुदाय रूप में -
जैसे महाभारत के खिल-भाग हरिवंश पुराण में
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"इति अम्बुपतिना प्रोक्तो वरुणेनाहमच्युत ।
गावां कारणत्वज्ञ:कश्यपे शापमुत्सृजन् ।२१
येनांशेन हृता गाव: कश्यपेन महर्षिणा ।
स तेन अंशेन जगतीं गत्वा गोपत्वमेष्यति।२२
द्या च सा सुरभिर्नाम अदितिश्च सुरारिण:
ते८प्यमे तस्य भार्ये वै तेनैव सह यास्यत:।।२३
ताभ्यां च सह गोपत्वे कश्यपो भुवि संस्यते।
स तस्य कश्यस्यांशस्तेजसा कश्यपोपम: ।२४
वसुदेव इति ख्यातो गोषु तिष्ठति भूतले ।
गिरिगोवर्धनो नाम मथुरायास्त्वदूरत: ।२५।
तत्रासौ गौषु निरत: कंसस्य कर दायक:।
तस्य भार्याद्वयं जातमदिति सुरभिश्च ते ।२६।
देवकी रोहिणी देवी चादितिर्देवकी त्यभृत् ।२७।
सतेनांशेन जगतीं गत्वा गोपत्वं एष्यति।
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---हे विष्णु ! महात्मा वरुण के ऐसे वचनों को सुनकर तथा इस सन्दर्भ में समस्त ज्ञान प्राप्त करके भगवान ब्रह्मा ने कश्यप को शाप दे दिया।
तथा कहा
।२१। कि कश्यप ने अपने जिस तेज से प्रभावित होकरउन गायों का अपहरण किया ।
उस पाप के प्रभाव-वश होकर भूमण्डल पर अहीरों (गोपों)का जन्म धारण करें ।२२।
तथा दौनों देव माता अदिति और सुरभि उनकी पत्नीयाें के रूप में पृथ्वी पर उनके साथ जन्म धारण करेंगी ।२३।
इस पृथ्वी पर अहीरों ( ग्वालों ) का जन्म धारण कर महर्षि कश्यप दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि सहित आनन्द पूर्वक जीवन यापन करते रहेंगे ।
हे राजन् वही कश्यप वर्तमान समय में कश्यप के तेज स्वरूप वसुदेव गोप के नाम से प्रसिद्ध होकर पृथ्वी पर गायों की सेवा करते हुए जीवन यापन करते हैं।
मथुरा के ही समीप गोवर्धन पर्वत है ।
उसी पर पापी कंस के अधीन होकर गोकुल पर राज्य कर रहे हैं।
कश्यप की दौनों पत्नीयाें अदिति और सुरभि ही क्रमश: देवकी और रोहिणी के नाम से अवतीर्ण हुई हैं ।२४-२७।
(उद्धृत सन्दर्भ --------)
पितामह ब्रह्मा की योजना नामक ३२वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या २३० अनुवादक -- पं० श्रीराम शर्मा आचार्य " संस्कृति- संस्थान ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)
अब कृष्ण को भी गोपों के घर में जन्म लेने वाला बताया है ।
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गोप अयनं य: कुरुते जगत: सार्वलौकिकम् ।
स कथं गां गतो देशे विष्णुर्गोपर्त्वमागत ।।९।
अर्थात्:-जो प्रभु भूतल के सब जीवों की
रक्षा करनें में समर्थ है ।
वे ही इस भूतल पर आकर गोप (आभीर) क्यों हुए ।९।
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हरिवंश पुराण "वराह ,नृसिंह आदि अवतार नामक १९ वाँ अध्याय पृष्ठ संख्या १४४ (ख्वाजा कुतुब वेद नगर बरेली संस्करण)
सम्पादक पण्डित श्री राम शर्मा आचार्य ..
अब निश्चित रूप से आभीर और गोप परस्पर पर्याय वाची रूप हैं। यह शास्त्रीय पद्धति से प्रमाणित भी है ।
अब स्मृति-ग्रन्थों में गोपों को शूद्र कह कर वर्णित किया गया है। यह भी देखें---
व्यास -स्मृति )तथा सम्वर्त -स्मृति में एक स्थान पर लिखा है
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" क्षत्रियात् शूद्र कन्यानाम् समुत्पन्नस्तु य: सुत: ।
स गोपाल इति ज्ञेयो भोज्यो विप्रैर्न संशय: -----------------------------------------------------------------
अर्थात् क्षत्रिय से शूद्र की कन्या में उत्पन्न होने वाला पुत्र गोपाल अथवा गोप होता है ।
और विप्रों के द्वारा उनके यहाँ भोजान्न होता है इसमे संशय नहीं ....
पाराशर स्मृति में वर्णित है कि..
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वर्द्धकी नापितो गोप: आशाप: कुम्भकारक: । वणिक् किरात: कायस्थ: मालाकार: कुटुम्बिन: एते चान्ये च बहव शूद्र:भिन्न स्व कर्मभि: चर्मकारो भटो भिल्लो रजक: पुष्करो नट: वरटो मेद। चाण्डालदास श्वपचकोलका: ।।११।।
एतेsन्त्यजा समाख्याता ये चान्ये च गवार्शना:
एषां सम्भाषणाद् स्नानंदर्शनादर्क वीक्षणम् ।।१२।। --------------------------------------------------------- अर्थात् वर्द्धकी (बढ़ई) , नाई , गोप , आशाप , कुम्हार ,वणिक् ,किरात , कायस्थ, माली , कुटुम्बिन, ये सब अपने कर्मों से भिन्न बहुत से शूद्र हैं ।
चमार ,भट, भील ,धोबी, पुष्कर, नट, वरट, मेद , चाण्डाल ,दाश ,श्वपच , तथा कोल (कोरिया)ये सब अन्त्यज कहे जाते हैं ।
और अन्य जो गोभक्षक हैं वे भी अन्त्यज होते हैं । इनके साथ सम्भाषण करने पर स्नान कर सूर्य दर्शन करना चाहिए तब शुद्धि होती है ।
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अभोज्यान्ना:स्युरन्नादो यस्य य: स्यात्स तत्सम: नापितान्वयपित्रार्द्ध सीरणो दास गोपका:।।४९।। शूद्राणामप्योषान्तु भुक्त्वाsन्न नैव दुष्यति ।
धर्मेणान्योन्य भोज्यान्ना द्विजास्तु विदितान्वया:।५०।। (व्यास-स्मृति)
नाई वंश परम्परा व मित्र ,अर्धसीरी ,दास ,तथा गोप ,ये सब शूद्र हैं ।
तो भी इन शूद्रों के अन्न को खाकर दूषित नहीं होते ।।
जिनके वंश का ज्ञान है ;एेसे द्विज धर्म से परस्पर में भोजन के योग्य अन्न वाले !
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कालान्तरण में जब पुष्यमित्र सुंग ई०पू० १८४ के अनुयायी ब्राह्मणों को लगा कि अहीर अधिक पूज्य होते जा रहे हैं । ब्राह्मण भी इनको नमन करने लगे ।
तब अहीरों अथवा गोपों को वर्णसंकर व शूद्र घोषित करने के लिए स्मृति-ग्रन्थों में मनु का विधान बनाकर वर्णित किया जाने लगा।
मनु-स्मृति में अहीरों की उत्पत्ति काल्पनिक रूप से अम्बष्ठ स्त्री और ब्राह्मण के द्वारा बतायी गयी।
और कहीं इन्हें विदेशी बताया ।
ब्राह्मण-व्यवस्था ने ये मन: कल्पित
परिभाषाऐं बनायी ,
द्विजों के साथ आसन, शयन वाक और पथ में समता की इच्छा रखने वाला शूद्र दंड्य है।
"दु: शीलोSपि द्विज पूजयेत् न जितेन्द्रीय शूद्रो८पि "
जैसे असामाजिक विधान भी बनाए गये।
शूद्र शब्द का व्युत्पत्यर्थ निकालने के जो प्रयास हुए हैं, वे अनिश्चित से लगते हैं ;
और उनसे वर्ण की समस्या को सुलझाने में शायद ही कोई सहायता मिलती है।
बादरायण का काल्पनिक आरोपण करके शूद्र शब्द की काल्पनिक व अव्याकरणिक व्युत्पत्ति- करने की असफल चेष्टा भी दर्शनीय है :-- सबसे पहले 'वेदान्त सूत्र' में बादरायण ने इस दिशा में प्रयास किया था।
जिनमें शूद्र शब्द को दो भागों मे विभक्त कर शुक् और द्र पदों से व्युत्पत्ति- दर्शायी है । अर्थात् दो धातुऐं शुच् धातु तथा द्रु धातु अर्थात् शोक करना और दौड़ना आचार्य शंकर ने अपने वेदान्त सूत्र के शारीरिक भाष्य में इस शब्द की व्युत्पत्ति- की टीका करते हुए - तीन वैकल्पिक व्याख्याऐं दी हैं ।
जो आनुमानिक ही हैं । कि
जानाश्रुति राजा शूद्र क्यों कहलाया --- १---" वह शोक के अन्तर दौड़ गया "" स: शुचमभिदुद्राव तस्मात् कारणात् शूद्र: कथ्यते " २"उस पर शोक दौड़ गया अथवा उस पर सन्ताप आच्छादित हो गया .. तेषुशुचा वा अभिद्रुवे... ३-"अपने शोक के कारण वह रैक्व में दौड़ गया । शंकराचार्य का निष्कर्ष है ।
, कि शूद्र शब्द के विभिन्न अंगों की व्याख्याऐं करने पर ही ,उसका व्युत्पत्ति- को समझा जा सकता है अन्यथा नहीं। शंकराचार्य भी शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति अर्थ की अद्वैत वाद पर आधारित व्याख्या करने का निर्देशन देते हैं।
वस्तुत: यहाँ बादरायण द्वारा शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति- तथा शंकराचार्य द्वारा उसका व्याख्याऐं दौनों ही असन्तोष जनक हैं ।
कहा जाता है कि शंकराचार्य ने जिस जानाश्रुति राजा का उल्लेख किया है ।
, वह उत्तरी पश्चिम के निवासी महावृषों पर राज करता था । अत: उसे शूद्र कह कर वर्णित करना अज्ञानता मूलक है ।
पाणिनीय व्याकरण के अनुसार उणादि सूत्र के लेखक ने शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति- तो कुछ सही की है ,परन्तु अर्थ सही नहीं किया है। क्योंकि उसने यह शब्द केवल संस्कृत भाषा की ही सीमित माना । जैसे
शुच् धातु तथा रक् प्रत्यय परक की है ।
पुराणों आदि में शूद्र शब्द की जो व्युत्पत्ति- करने की चेष्टा की है । वह सत्य भले ही न हो परन्तु शूद्रों के प्रति तत्कालीन ब्राह्मण समाज की कुत्सित मानसिकता का प्रकाशन करती है ।
बौद्ध काल में भी इसी शब्द की व्युत्पत्ति- पर कोई सत्य प्रकाश नहीं पड़ता है।
वे शूद्र को सुद्द कहते थे .. कहीं क्षुद्र शब्द से इसका तादात्म्य स्थापित करने की चेष्टा की गयी .. यह बहुत ही विस्मय पूर्ण है कि यहाँ दो धातुऐं के योग से शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति-की गयी है।
जो कि पाणिनीय व्याकरण के सिद्धान्तों के प्रतिकूल है क्योंकि कृदन्त शब्द पदों की व्युत्पत्ति- एक ही धातु से होती है , दो धातुओं से नहीं ।
संस्कृत में भी इसी शब्द का कोई व्युत्पत्ति-परक विश्लेषणके (Etymological Analization) नही है। अथवा-प्राचीन आधार नहीं है ।
वस्तुत: ब्राह्मण समाज के लेखक इस शब्द को जो अर्थ देना चाहते हैं , वह केवल वैदिक सिद्धान्त भी सृजित कर लिया गया ।
देखें -
ब्राह्मणोsस्य मुखं आसीद् ,बाहू राजन्य:कृत: ।
उरू तदस्ययद् वैश्य: पद्भ्याम् शूद्रोsजायत ।। _______________________________________
ऋग्वेद के दशम् मण्डल के ९०वें सूक्त का १२ वीं ऋचा शूद्रों की उत्पत्ति ईश्वर के पैरों से करा कर उनके लिए आजीवन ब्राह्मण के पैरों तले पड़े रहने का कर्तव्य नियत कर दिया गया ।
निश्चित रूप से इससे बड़ा संसार का कोई जघन्य पाप कर्म नहीं था मानवता के प्रति ।
शूद्रों के लिए धार्मिक मान्यताओं की मौहर लगाकर ब्राह्मणों की पद-प्रणति परक दासता पूर्ण विधान पारित किये गये थे।
कि शूद्र आजीवन ब्राह्मण तथा उनके अंग रक्षक क्षत्रियों के पैरों की सेवा करते रहें ।
... उनके पैरों के लिए जूते चप्पल बनाते रहें ... यह निश्चित रूप से ब्राह्मण की बुद्धि महत्ता नहीं था अपितु चालाकी से पूर्ण कपट और दोखा था ।
इस कृत्य के लिए ईश्वर भी क्षमा नहीं करेंगे
और कदाचित वो दिन अब आ चुके हैं ।
भारत में आगत आर्यों का प्रथम समागम द्रविड परिवार की एक शाखा कोलों से हुआ था ।
जो वस्त्रों का निर्माण कर लेते थे उन्हें ही आर्यों ने शूद्र शब्द से सम्बोधित किया था ।
👕 ईरानी आर्यों ने इन्हीं वस्त्र निर्माण कर्ता शूद्रों को वास्तर्योशान अथवा वास्त्रोपश्या के रूप में अपनी वर्ण व्यवस्था में वर्गीकृत किया था न कि हुत्ती रूप में!
फारसी धर्म की अर्वाचीन पुस्तकों में भी आर्यों के इन चार वर्णों का वर्णन कुछ नाम परिवर्तन के साथ है ---जैसे देखें नामामिहाबाद पुस्तक के अनुसार
१ ---- होरिस्तान. जिसका पहलवी रूप है अथर्वण जिसे वेदों मैं अथर्वा कहा है ..
२-----नूरिस्तान ..जिसका पहलवी रूप रथेस्तारान ...जिसका वैदिक रूप रथेष्ठा तथा
३---रोजिस्तारान् जिसका पहलवी रूप होथथायन था तथा
४---चतुर्थ वर्ण पोरिस्तारान को ही वास्तर्योशान कहा गया है !!!!
यही लोग द्रुज थे जिन्हे कालान्तरण में दर्जी भी कहा गया है । ये कैल्ट जन जाति के पुरोहितों ड्रयूडों (Druids) की ही एक शाखा थी ।
वर्तमान सीरिया , जॉर्डन पैलेस्टाइन अथवा इज़राए
ल तथा लेबनान में द्रुज लोग यहूदीयों के सहवर्ती थे ।
यहीं से ये लोग बलूचिस्तान होते हुए भारत में भी आये विदित हो कि बलूचिस्तान की ब्राहुई भाषा शूद्रों की भाषा मानी जाती है ।
अत: इतिहास कार शूद्रों को प्रथम आगत द्रविड स्कन्द आभीरों अथवा यादवों के सहवर्ती मानते हैं ये आभीर अथवा यादव इज़राएल में अबीर कहलाए जो यहूदीयों का एक यौद्धा कब़ीला है ।
शूद्रों को ही युद्ध कला में महारत हासिल थी ।
पुरानी फ्रेंच भाषा में सैनिक अथवा यौद्धा को सॉडर Souder (Soldier )कहा जाता था ।
व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से -- One tribe who serves in the Army for pay is called Souder .. वास्तव में रोमन संस्कृति में सोने के सिक्के को सॉलिडस् (Solidus) कहा जाता था । इस कारण ये सॉल्जर कह लाए .. ये लोग पिक्टस (pictis) कहलाते थे।
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Shudras only mastered martial arts.
Soldier or warrior in old French was called Soder , Souder (Soldier).
Originally-derived - One tribe who serves in the army for pay is called Souder ..
In fact, gold coins in the Roman culture were called Solidus.
Because of this, they called the Soldier.
These people were called paintings.
शूद्रों की एक शाखा को पिक्टस कहा गया।
जो ऋग्वेद में पृक्त कहे गये । जो वर्तमान पठान शब्द का पूर्व रूप है पख़्तो है ।
फ़ारसी रूप पुख़्ता ---या पख़्तून भी इसी शब्द से सम्बद्ध हैं ।
... क्योंकि अपने शरीर को सुरक्षात्मक दृष्टि से अनेक लेपो से टेटू बना कर सजाते थे । ताकि युद्ध काल में व्रण- संक्रमण (सैप्टिक )न हो सके ।
ये पूर्वोत्तरीय स्कॉटलेण्ड में रहते थे ।
ये शुट्र ही थे जो स्कॉटलेण्ड में बहुत पहले से बसे हुए थे
The pictis were a tribal Confederadration of peoples who lived in what is today Eastern and northern Scotland...
ये लोग यहाँ पर ड्रयूडों की शाखा से सम्बद्ध थे । भारतीय द्रविड अथवा इज़राएल के द्रुज़ तथा बाल्टिक सागर के तटवर्ती ड्रयूड (Druids) एक ही जन जाति के लोग थे ।
मैसॉपोटामिया की धरा पर एक संस्कृति केल्डियनों (Chaldean) सेमेटिक जन-जाति की भी है।
जो ई०पू० छठी सदी में विद्यमान रहे हैं ।
बैवीलॉनियन संस्कृतियों में इनका अतीव योगदान है । यूनानीयों ने इन्हें कालाडी (khaldaia ) कहा है।
ये सेमेटिक जन-जाति के थे ; अत: भारतीय पुराणों में इन्हें सोम वंशी कहा ।
जो कालान्तरण में चन्द्र का विशेषण बनकर चन्द्र वंशी के रूप में रूढ़ हो गया ।
पुराणों में भी प्राय: सोम शब्द ही है ।
चन्द्र शब्द नहीं ...
वस्तुत ये कैल्ट लोग ही थे ; जिससे द्रुज़ जन-जाति का विकास पैलेस्टाइन अथवा इज़राएल के क्षेत्र में हुआ ।
मैसॉपोटामिया की असीरियन अक्काडियन, हिब्रू तथा बैवीलॉनियन संस्कृतियों की श्रृंखला में केल्डिय संस्कृति भी एक कणिका थी।
इन्हीं के सानिध्य में एमॉराइट (मरुत)तथा कस्साइट्स (कश या खश) जन-जातीयाँ भारत की पश्चिमोत्तर पहाड़ी क्षेत्रों में प्रविष्ट हुईं।
महाभारत में खश जन-जातीयाँ को बड़ा क्रूर तथा साहसी बताया गया है । भारतीय आर्यों ने इन्हें किरात संज्ञा दी ..
यजुर्वेद में किरातों का उल्लेख है ।.
जाति शब्द ज्ञाति का अपभ्रंश रूप है।
ये थे तो एक ही पूर्वज की सन्तानें परन्तु इनमें परस्पर सांस्कृतिक भेद हो गये थे ।
केल्डियनों का उल्लेख ऑल्ड- टेक्ष्टामेण्ट (Old-textament) में सृष्टि-खण्ड (Genesis) 11:28 पर है ।
मैसॉपोटामिया के सुमेरियन के उर नामक नगर में जहाँ हजरत इब्राहीम अलैहि सलाम का जन्म हुआ था ।
chesed कैसेड से जो हजरत इब्राहीम अलैहि सलाम का भतीजा था ।
ये लोग आज ईसाई हैं , परन्तु यह अनुमान मात्र है ।
प्रमाणों के दायरे में नहीं है यह भेद कारक ज्ञान ही इनकी ज्ञाति थी। सम्भवत: ईरानी संस्कृति में इन्हें कुर्द़ कहा गया है।
... जो अब इस्लाम के अनुयायी हैं । .
इसी सन्दर्भ में तथ्य भी विचारणीय है कि ईरानी आर्यों का सानिध्य ईरान आने से पूर्व आर्यन -आवास अथवा (आर्याणाम् बीज). जो आजकल सॉवियत -रूस का सदस्य देश अज़र -बेजान है में था ।
एक समय यहीं पर सभी आर्यों का समागम स्थल था.......जिनमें जर्मन आर्य ,ईरानी आर्य ,तथा भारतीय आर्य भी थे ।
यह समय ई०पू० १५०० के पूर्व का है ।
उत्तरीय ध्रुव के पार्श्व -वर्ती स्वीडन जिसे प्राचीन नॉर्स भाषा में स्वरगे .(Svirge) कहा गया है ।
भारतीय आर्यों का स्वर्ग ही था।
यूरोप में जिस प्रकार जर्मन आर्यों का सांस्कृतिक युद्ध पश्चिमी यूरोप में गोल Goal ..केल्ट ,वेल्स ( सिमिरी )तथा ब्रिटॉनों से निरन्तर होता रहता था.
जिनके पुरोहित ड्रयूड Druids थे ।
जिनमें शुट्र( Souter)भी गॉलो की शाखा थी ।
..वास्तव में भारत में यही जन जातियाँ क्रमशः .कोल ,किरात तथा भिल्लस् और भरत कहलायीं ।
ये भरत जन जाति भारत के उत्तरी-पूर्व जंगलों में रहने वाली थी और ये वृत्र के अनुयायी व उपासक थे ।
जिसे केल्टिक माइथॉलॉजी मे ए-बरटा (A- barta) कहा गया है ।
भारत में भी इन जन -जातियों के पुरोहित भी द्रविड ही थे।
क्या यह एक अद्भुत संयोग है !
अथवा ऐैतिहासिक सत्य ! शूद्र शब्द का प्रथम प्रयोग कोलों के लिए हुआ था इसी सन्दर्भ में आर्यों का परिचय भी स्पष्टत हो जाय :-
वस्तुत: आर्य शब्द को देव संस्कृति के अनुयायीयों ने हाइजैक किया
अन्यथा यह ईरानी असुर संस्कृति के अनुयायीयों का वीरता सूचक विशेषण था !
जिन्होंने मनु की अपेक्षा यम को प्रतिष्ठा थी
यम ही नमान्तरण से यह्व: ऋग्वेद में है और यही सैमेटिक मिथक में यहोवा और यम दौनो रूपं में धर्म का अधिष्ठाता है .
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भारत तथा यूरोप की लगभग सभी मुख्य भाषाओं में आर्य शब्द यौद्धा अथवा वीर के अर्थ में व्यवहृत है !
पारसीयों के पवित्र धर्म ग्रन्थ अवेस्ता में अनेक स्थलों पर आर्य शब्द आया है ।
जैसे –सिरोज़ह प्रथम- के यश्त ९ पर, तथा सिरोज़ह प्रथम के यश्त तथा सिरोज़ह प्रथम के यश्त २५ पर …अवेस्ता में आर्य शब्द का अर्थ है —€ …तीव्र वाण (Arrow ) चलाने वाला यौद्धा —यश्त ८. स्वयं ईरान शब्द आर्यन् शब्द का तद्भव रूप है।
.. परन्तु भारतीय आर्यों के ये चिर सांस्कृतिक प्रतिद्वन्द्वी अवश्य थे !! ये असुर संस्कृति के उपासक आर्य थे. देव ('दएव'के रूप में) शब्द का अर्थ इनकी भाषाओं में निम्न व दुष्ट अर्थों में है ।
…परन्तु अग्नि के अखण्ड उपासक आर्य थे ये लोग… स्वयं ऋग्वेद में असुर शब्द उच्च और पूज्य अर्थों में है —-जैसे वृहद् श्रुभा असुरो वर्हणा कृतः ऋग्वेद १/५४/३. तथा और भी महान देवता वरुण के रूप में …त्वम् राजेन्द्र ये च देवा रक्षा नृन पाहि .असुर त्वं अस्मान् —ऋ० १/१/७४ तथा प्रसाक्षितः असुर यामहि –ऋ० १/१५/४.
ऋग्वेद में और भी बहुत से स्थल हैं जहाँ पर असुर शब्द सर्वोपरि शक्तिवान् ईश्वर का वाचक है ।
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.. पारसीयों ने असुर शब्द का उच्चारण अहुर ….के रूप में किया है….अतः आर्य विशेषण.. असुर और देव दौनो ही संस्कृतियों के उपासकों का था ।
….और उधर यूरोप में द्वित्तीय महा -युद्ध का महानायक ऐडोल्फ हिटलर (Adolf-Hitler )स्वयं को शुद्ध नारादिक (nordic )आर्य कहता था |
और स्वास्तिक का चिन्ह अपनी युद्ध ध्वजा पर अंकित करता था ।
विदित हो कि जर्मन भाषा में स्वास्तिक को हैकैन- क्रूज. Haken- cruez कहते थे ।
…जर्मन वर्ग की भाषाओं में आर्य शब्द के बहुत से रूप हैं।ऐरे Ehere जो कि जर्मन लोगों की एक सम्माननीय उपाधि है ..जर्मन भाषाओं में ऐह्रे Ahere तथा Herr शब्द स्वामी अथवा उच्च व्यक्तिों के वाचक थे ।
अहीर शब्द भी हिब्रू बाइबिल में अबीर है जिसका जन्म हिब्रू क्रिया बीर अथवा बर से हुआ जिसका अर्थ शक्ति है .
…और इसी हर्र Herr शब्द से यूरोपीय भाषाओं में प्रचलित सर ….Sir …..शब्द का विकास हुआ।
और आरिश Arisch शब्द तथा आरिर् Arier स्वीडिश डच आदि जर्मन भाषाओं में श्रेष्ठ और वीरों का विशेषण है!
इधर एशिया माइनर के पार्श्व वर्ती यूरोप के प्रवेश -द्वार ग्रीक अथवा आयोनियन भाषाओं में भी आर्य शब्द. …आर्च Arch तथा आर्क Arck के रूप मे है ।
जो आका यद्यपि आग़ा तुर्की मे बडे़ भाई को कहते हैं ।…ग्रीक मूल का शब्द हीरों Hero भी वेरोस् अथवा वीरः शब्द का ही विकसित रूप है ।
और वीरः शब्द स्वयं आर्य शब्द का प्रतिरूप है जर्मन वर्ग की भाषा ऐंग्लो -सेक्शन में वीर शब्द वर( Wer )के रूप में है ।
..तथा रोम की सांस्कृतिक भाषा लैटिन में यह वीर शब्द Vir के रूप में है।
ईरानी आर्यों की संस्कृति में भी वीर शब्द आर्य शब्द का विशेषण है ; यूरोपीय भाषाओं में भी आर्य और वीर शब्द समानार्थक रहे हैं !….हम यह स्पष्ट कर दें कि आर्य शब्द किन किन संस्कृतियों में प्रचीन काल से आज तक विद्यमान है।
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. लैटिन वर्ग की भाषा आधुनिक फ्राञ्च में…Arien तथा Aryen दौनों रूपों में।
…इधर दक्षिणी अमेरिक की ओर पुर्तगाली तथा स्पेन भाषाओं में यह शब्द आरियो Ario के रूप में है। पुर्तगाली में इसका एक रूप ऐरिऐनॉ Ariano भी है और फिन्नो-उग्रियन शाखा की फिनिश भाषा में Arialainen ऐरियल-ऐनन के रूप में है।
रूस की उप शाखा पॉलिस भाषा में Aryika के रूप में है।
. कैटालन भाषा में Ari तथा Arica दौनों रूपों में है। स्वयं रूसी भाषा में आरिजक Arijec अथवा आर्यक के रूप में है।
इधर पश्चिमीय एशिया की सेमेटिक शाखा आरमेनियन तथा हिब्रू और अरबी भाषा में क्रमशः Ariacoi तथा Ari तथा अरबी भाषा मे हिब्रू प्रभाव से म-अारि. M(ariyy तथा अरि दौनो रूपों में।
. तथा ताज़िक भाषा में ऑरियॉयी Oriyoyi रूप. …इधर बॉल्गा नदी मुहाने वुल्गारियन संस्कृति में आर्य शब्द ऐराइस् Arice के रूप में है।
.वेलारूस की भाषा में Aryeic तथा Aryika दौनों रूप में;
पूरबी एशिया की जापानी कॉरीयन और चीनी भाषाओं में बौद्ध धर्म के प्रभाव से आर्य शब्द .Aria–iin..के रूप में है ।
आर्य शब्द के विषय में इतने तथ्य अब तक हमने दूसरी संस्कृतियों से उद्धृत किए हैं।
…. परन्तु जिस भारतीय संस्कृति का प्रादुर्भाव देव संस्कृति के उपासक आर्यों की संस्कृति से हुआ ।
उनका वास्तविक चित्रण होमर ने ई०पू० 800 के समकक्ष इलियड और ऑडेसी महाकाव्यों में किया है ट्रॉय युद्ध के सन्दर्भों में---
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ग्राम संस्कृति के जनक देव संस्कृति के अनुयायी यूरेशियन लोग थे।
तथा नगर संस्कृति के जनक द्रविड अथवा ड्रयूड Druids लोग ।
उस के विषय में हम कुछ कहते हैं ।
….विदित हो कि यह समग्र तथ्य यादव योगेश कुमार 'रोहि' के शोधों पर आधारित हैं।
⚡⚡⚡
भारोपीय आर्यों के सभी सांस्कृतिक शब्द समान ही हैं स्वयं आर्य शब्द का धात्विक-अर्थ Rootnal-Mean ..आरम् धारण करने वाला वीर …..संस्कृत तथा यूरोपीय भाषाओं में आरम् Arrown =अस्त्र तथा शस्त्र धारण करने वाला यौद्धा ….अथवा वीरः |आर्य शब्द की व्युत्पत्ति( Etymology )संस्कृत की अर् (ऋृ) धातु मूलक है—
अर् धातु के तीन अर्थ सर्व मान्य है ।
१–गमन करना To go
२– मारना to kill
३– हल (अरम्) चलाना …. Harrow मध्य इंग्लिश—रूप Harwe कृषि कार्य करना ।
..प्राचीन विश्व में सुसंगठित रूप से कृषि कार्य करने वाले प्रथम मानव आर्य ही थे ।
…..ये आर्य चरावाहे और गोपालक
कृषि संस्कति के जनक थे .
इस तथ्य के प्रबल प्रमाण भी हमारे पास हैं !
पाणिनि तथा इनसे भी पूर्व ..कार्तसन धातु पाठ में …ऋृ (अर्) धातु कृषिकर्मे गतौ हिंसायाम् च.. के रूप में परस्मैपदीय रूप —-ऋणोति अरोति वा .अन्यत्र ऋृ गतौ धातु पाठ .३/१६ प० इयर्ति -जाता है ।
वास्तव में संस्कृत की अर् धातु का तादात्म्य. identity. यूरोप की सांस्कृतिक भाषा लैटिन की क्रिया -रूप इर्रेयर Errare =to go से प्रस्तावित है ।
जर्मन भाषा में यह शब्द आइरे irre =to go के रूप में है पुरानी अंग्रेजी में जिसका प्रचलित रूप एर (Err) है …….इसी अर् धातु से विकसित शब्द लैटिन तथा ग्रीक भाषाओं में क्रमशःAraval तथा Aravalis हैं ।
अर्थात् कृषि कार्य.भी ड्रयूडों की वन मूलक संस्कृति से अनुप्रेरित है । देव संस्कृति के उपासक आर्यों की संस्कृति ग्रामीण जीवन मूलक है और कृषि विद्या के जनक आर्य ही थे ।
यह बात आंशिक सत्य है क्योंकि बाल्टिक सागर के तटवर्ती ड्रयूडों Druids की वन मूलक संस्कृति से जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध इस देव संस्कृति के उपासक आर्यों ने यह प्रेरणा ग्रहण की।
…सर्व-प्रथम अपने द्वित्तीय पढ़ाव में मध्य -एशिया में ही कृषि कार्य आरम्भ कर दिया था।
…
देव संस्कृति के उपासक आर्य स्वभाव से ही युद्ध-प्रिय व घुमक्कड़ थे । घोड़े रथ इनके -प्रिय वाहन थे ।
ये कुशल चरावाहों के रूप में यूरोप तथा सम्पूर्ण एशिया की धरा पर अपनी महान सम्पत्ति गौओं के साथ कबीलों के रूप में यायावर जीवन व्यतीत करते थे ….यहीं से इनकी ग्राम - सभ्यता का विकास हुआ था ।
इतिहासकारों की वर्तमान आर्य थ्यौरी गलत है .
…
अपनी गौओं के साथ साथ विचरण करते हुए .जहाँ जहाँ भी ये विशाल ग्रास-मेदिनी (घास के मैदान )देखते उसी स्थान पर अपना पढ़ाव डाल देते थे ।
संस्कृत भाषा में ग्राम शब्द की व्युत्पत्ति इसी व्यवहार मूलक प्रेरणा से हुई।
…क्यों कि अब भी . संस्कृत तथा यूरोप की सभी भाषाओं में…. ग्राम शब्द का मूल अर्थ ग्रास-भूमि तथा घास है ।
इसी सन्दर्भ में यह तथ्य भी प्रमाणित है कि देव संस्कृति के उपासक आर्य ही ज्ञान और लेखन क्रिया के विश्व में द्रविडों के बाद द्वित्तीय प्रकासक थे ।
…ग्राम शब्द संस्कृत की ग्रस् …धातु मूलक है..—–(ग्रस् मन् )प्रत्यय..आदन्तादेश..ग्रस् धातु का ही अपर रूप ग्रह् भी है ।
जिससे ग्रह शब्द का निर्माण हुआ है अर्थात् जहाँ खाने के लिए मिले वह घर है ।
इसी ग्रस् धातु का वैदिक रूप… गृभ् …है ; गृह ही ग्राम की इकाई रूप है ..जहाँ ग्रसन भोजन की सम्पूर्ण व्यवस्थाऐं होती हैं
सर्व प्रथम आर्यों ने घास केे पत्तों पर लेखन क्रिया की थी.. क्यों कि वेदों में गृभ धातु का प्रयोग गृह वेदे हस्य भः ।
गृहे “न्यु भ्रियन्ते यशसो गृभादा” ऋ० ७ । २२ । २ गृभात् गृहात्”
..लेखन उत्कीर्णन तथा ग्रसन (काटने खुरचने )केेे अर्थ में भी प्रयुक्त है। गृ ज्ञानेे से गुरू जैसे शब्द विकसित हुए।
… यूरोप की भाषाओं में देखें–जैसे ग्रीक भाषा में ग्राफेन Graphein तथा graphion = to write वैदिक रूप .गृभण..इसी से अंग्रेजी मेंGrapht और graph जैसे शब्दों का विकास हुआ है पुरानी फ्रेन्च मेंGraffe लैटिन मेंgraphiumअर्थात् लिखना .ग्रीक भाषा में (gramma)शब्द का अर्थ वर्ण letter रूढ़ हो गया ।
जिससे कालान्तरण में ग्रामर शब्द का विकास हुआ.. आर्यों ने अपनी बुद्धिमता से कृषि पद्धति का विकास किया अनेक ध्वनि संकेतों काआविष्कार कर कर अनेक लिपियों को जन्म दिया ।
…अन्न और भोजन के अर्थ में भी ग्रास शब्द यूरोप की भाषाओं में है पुरानी नॉर्स ,जर्मन ,डच, तथा गॉथिक भाषाओं में Gras .पुरानी अंग्रेजी में gaers .,green ग्रहण तथा grow, grasp लैटिनgranum- grain स्पेनिस् grab= to seize …
यहाँ तक की ज्ञान का प्रकाशन करने वाला गुरू शब्द भारोपीय मूल से है ।
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It is the hypothetical source of/evidence for its existence is provided by: Sanskrit grnati "sings, praises, announces;" Avestan gar- "to praise;" Lithuanian giriu, girti "to praise, celebrate;" Old Celtic bardos "poet, singer."
अनुवादित रूप---
यह अपने अस्तित्व के लिए / सबूत के अवधारणात्मक स्रोत है, द्वारा प्रदान की जाती है:
संस्कृत गुरु " = भारी, भारोत्तोलक, आदरणीय;
" ग्रीक बैरो "वजन," बैरी "भार में भारी," अक्सर "ताकत, बल;" की धारणा के साथ; लैटिन ग्रेविज़, "भारी, क्रूर, बोझ, भारित; गर्भवती;" पुरानी अंग्रेज़ी सीवेर्न "क्वर्न;" गॉथिक (कुरास) "भारी;" लेट्टिश ग्रुट "भारी।"
gwere- (2)
gwerə-, प्रोटो-इंडो-यूरोपियन रूट जिसका अर्थ है "पक्ष के लिए।"
यह सभी या उसके हिस्से हैं: सहमत हैं; बार्ड संज्ञा; बधाई देता हूं; बधाई; अपमान; कृपा; विनीत; आभारी; कृतार्थ; मुक्त; प्रति आभार; नि: शुल्क; ग्रेच्युटी; gratulation; कृतघ्न; ingratiate।
यह उसके अस्तित्व के लिए / साक्ष्यों का अवधारणात्मक स्रोत है: संस्कृत grnati ग्रणाति "गाती है, प्रशंसा करती है, की घोषणा करता है;" अवेस्टेन गर "स्तुति करने के लिए;" लिथुआनियाई गिरीउ, गर्टि "स्तुति करने के लिए, जश्न मनाते हैं;"
ओल्ड केल्टिक बर्दोस "कवि, गायक।"
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.यहाँ एक तथ्य और स्पष्ट कर दें कि इतिहास वस्तुतः एकदेशीय अथवा एक खण्ड के रूप में नहीं होता , बल्कि अखण्ड और सार -भौमिक होता है ।
छोटी-मोटी घटनाऐं इतिहास नहीं,
..तथ्य- परक विश्लेषण इतिहास कार की आत्मिक प्रवृति है ;
और निश्पक्षता उस तथ्य परक पद्धति का कवच है
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सत्य के अन्वेषण में प्रमाण ही ढ़ाल हैं ,जो वितण्डावाद के वाग्युद्ध हमारी रक्षा करता है ।
अथवा हम कहें कि विवादों के भ्रमर में प्रमाण पतवार हैं
अथवा पाँडित्यवाद के संग्राम में सटीक तर्क रोहि किसी अस्त्र से कम नहीं हैं।
मैं दृढ़ता से अब भी कहुँगा सांस्कृतिक और ऐतिहासिक ,गतिविधियाँ कभी भी एक-भौमिक नहीं, अपितु
अपितु विश्व-व्यापी होती है !
क्यों कि इतिहास अन्तर्निष्ठ प्रतिक्रिया नहीं है. इतिहास एक वैज्ञानिक व गहन विश्लेषणात्मक तथ्यों का निश्पक्ष विवरण है ।
"" विद्वान् इस तथ्य पर अपनी प्रतिक्रियाऐं अवश्य दें ... ---------------------------------------------------------------
यह एक शोध - लिपि है जिसके समग्र प्रमाण ।
यादव योगेश कुमार 'रोहि' के द्वारा अनुसन्धानित
है ।
अत: कोई जिज्ञासु इस विषय में इन से विचार- विश्लेषण कर सकता है ।
सम्पर्क - सूत्र ----8077160219....
हमने अपना भटका हुआ भाई समझकर आपको ये ज्ञान की रोशनी बख्सी है ।
बहुत प्रयास करके ।
क्या धन्यवाद भी नहीं दोगे
अगर श्रृद्धा हो तो धन बाद में दे देना ।
परन्तु पहले धन्यवाद !
कल्याण अस्तु!
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अगला लेख: आत्मा के साथ कर्म और प्रारब्ध करते हैं जीवन की व्याख्या--__________________________________________
Yadav Yogesh kumar -Rohi-
यादव योगेश कुमार 'रोहि'
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पूनम शर्मा
14 फरवरी 2018
योगेश जी बहुत ही गहरे अध्यन के बाद अपने जानकारी दी है . इतना नहीं मालूम था ... धन्यवाद तो बनता ही है
1 पसंद पसंद कीजिये उत्तर
Yogesh kumar Rohi
08 मार्च 2018
पूनम ददीदी सत्य कटु औषधि है
शब्दनगरी पर हो रही अन्य चर्चायें
मंगलवार, 28 जुलाई 2020
ऐसे याद तुम्हारी आए
शूद्र शब्द की व्युत्पत्ति पर एक प्रासंगिक विश्लेषण- -------------------------------------------------------------- भारतीय इतिहास ही नहीं अपितु विश्व इतिहास का प्रथम अद्भुत शोध " यादव योगेश कुमार 'रोहि ' के द्वारा अनुसन्धानित .भारत में वर्ण व्यवस्था के नियामक शूद्रजातीया शब्द और इस नाम से सूचित जनजाति का वह इतिवृत्त जो इतिहास के पन्नों से भी छूटागया है । विश्व-सांस्कृतिक अन्वेषणों के पश्चात् जो एक तथ्य पूर्णतः प्रमाणित हुआ है।
कि जिस वर्ण व्यवस्था को मनु का विधान कह कर रूढ़िवादी पुरोहितों द्वारा भारतीय संस्कृति के प्राणों में प्रतिष्ठित किया गया था ; और जिसके आधार शूद्र जनजाति के लिए दमन कारी विधान बनाकर उसे धार्मिक और ईश्वरीय परिधानों का रूप देकर भारतीय समाज पर आरोपित भी किया गया ।
वर्ण व्यवस्था केवल भारतीय पुरोहितों का आविष्कार है जिसका प्रादुर्भाव ईसा० पूर्व० सप्तम सगी में हुआ ।
और इस वर्ण व्यवस्था का आधार भी ईरानी समाज की वर्ग व्यवस्था है । वर्ण और वर्ग में अन्तर रेखाऐं सुदीर्घ है ।
जहाँ वर्ग व्यवस्था केवल व्यक्ति के व्यवसाय पर अवलम्बित है अर्थात् व्यक्ति अपनी रुचि और योग्यता के अनुरूप व्यवसाय या कर्म या कैरियर के अनुरूप कर्मक्षेत्र में व्यवसाय कर करता है ।
वहीं वर्ण व्यवस्था को केवल जन्म और जाति या पुश्तैनी मान्यता किया गया । वर्ण-व्यवस्था ईश्वरीय विधान नहीं है ।
उसकी प्राचीनता भी पूर्णतः संदिग्ध ही है , प्राचीनता केवल कुछ हजार वर्ष अर्थात् ई०पू० सप्तम सदी के समकक्ष की क्यों कि भारतीय पुरोहितों के यजमान देव-संस्कृति के अनुयायीयों का आगमन सुमेरियन, बैबीलॉनियन संस्कृतियों को आत्म सात करते हुए ईरानी के रास्ते भारत में हुआ । ईरानी असुर संस्कृतियों के अनुयायीयों थे ।
उन्होंने कभी भी देव-संस्कृति को सम्मान नहीं दिया । असुर महत् ( अहुर मज्दा) उनका परम आराध्य था ।
अवेस्ता ए जैन्द में में देव शब्द "दएव" के रूप में दुष्ट ,विधर्मी और अधम व्यक्ति का वाचक है ।
लगभग 2050 से ई०पू० 1500 तक के काल खण्ड में देव संस्कृति के अनुयायी बाल्टिक सागर के तटवर्ती क्षेत्रों में बस हुए थे । यही क्षेत्र स्कैनण्डिनैविया है ।
बाल्टिक वस्तुत उत्तरीय यूरोप का ही एक सागर है ; जो लगभग सभी ओर से जमीन से घिरा है। इसके उत्तर में स्कैडिनेवी प्रायद्वीप (स्वीडन), उत्तर-पूर्व में फ़िनलैंड, पूर्व में इस्टोनिया, लिथुआनिया, लाटविया, दक्षिण में पोलैंड तथा दक्षिण-पश्चिम में जर्मनी है। पश्चिम में डेनमार्क तथा छोटे द्वीप हैं जो इसे उत्तरी सागर तथा अटलांटिक महासागर से अलग करते हैं।
जर्मानी भाषाओं, जैसे डच, डेनिश, फ़िन्नी में इसको पूर्वी सागर (Ostsee) के नाम से जाना जाता है।
इसमें गौरतलब है कि यह फ़िनलैंड के पश्चिम में बसा हुआ है।
बाल्टिक राज्य (जिसे बाल्टिक्स, बाल्टिक देश या बाल्टिक प्रदेश भी कहा जाता है) उन बाल्टिक क्षेत्रों को कहते हैं, जिन्हें रूसई साम्राज्य से प्रथम विश्व युद्ध के समय स्वतंत्रता मिली थी।
इनमें मुख्यतः एस्तोनिया, लात्विया तथा लिथुआनिया आते हैं, तथा मूल रूप से स्वतंत्रता पाने के बाद १९२० से फ़िनलैंड भी इनमें ही गिना जाता है।
स्कैनण्डिनैविया अब उत्तरी यूरोप महाद्वीप का एक प्रायद्वीप है, जिसमें मुख्यतः स्वीडन अथवा स्वर्की की मुख्यभूमि, नॉर्वे की मुख्यभूमि (रूस के सीमावर्ती कुछ तटीय क्षेत्रों को छोड़कर) एवं फिनलैंड का उत्तर-पश्चिमी भाग आते हैं।
इनके साथ साथ ही रूस के पेचेंग्स्की जिले के पश्चिम का एक संकर भाग भी इस में माना जाता है। इनके अलावा फिनलैंड, आइसलैंड एवं फैरो द्वीपसमूह के संग ये देश नॉर्डिक देश भी कहलाते हैं इस प्रायद्वीप का नाम स्कैंडिनेविया, डेनमार्क, स्वीडन एवं नॉर्वे के सांस्कृतिक क्षेत्र से व्युत्पन्न किया गया है।
इस नाम का मूल प्रायद्वीप के दक्षिणतम भाग स्कैनिया से आया है जो एक लम्बे अन्तराल से डेनमार्क के अधिकार में रहा है, किन्तु वर्तमान में स्वीडन अधिकृत क्षेत्र है ।
यहाँ के लोग मूल रूप से उत्तर जर्मनिक भाषाएं बोलते हैं जिनमें से प्रमुख भाषाएं हैं:
डेनिश भाषा, नॉर्वेजियाई भाषा एवं स्वीडिश भाषा आदि वैसे इनके अतिरिक्त फ़ारोईज़ एवं आइसलैण्डिक भाषा भी इसी समूह के अधीन आती है, किन्तु उनके बोले जाने वाले क्षेत्र को स्कैंडिनेविया में नहीं गिना जाता है। स्कैण्डिनेवियाई प्रायद्वीप यूरोप महाद्वीप का सबसे बड़ा प्रायद्वीप है एवं यह बल्कान प्रायद्वीप, आईबेरियाई प्रायद्वीप एवं इतालवी प्रायद्वीपों से भी बड़ा है।
हिम युग के समय अंध महासागर का जलस्तर इतना गिर गया कि बाल्टिक सागर एवं फिनलैंड की खाड़ी गायब ही हो गये थे एवं उन्हें घेरे हुए वर्तमान देशों जैसे, जर्मनी, पोलैंड एवं अन्य बाल्टिक देश तथा स्कैंडिनेविया की सीमाएं सीधे-सीधे एक दूसरे से मिल गयी थीं। ईजियन द्वीप में ई०पू० बाहरवीं सदी में देव संस्कृति के अनुयायी लोगों ने आयोनिया को अपना आवास बनाया ।
क्रीत या क्रीट (यूनानी: Κρήτη, क्रीति; अंग्रेज़ी: Crete, क्रीट) जिसका संस्कृत रूप है श्रृद्धा या श्रृद् ।
यूनान के द्वीपों में सब से बड़ा द्वीप है और भूमध्य सागर का पाँचवा सबसे बड़ा द्वीप है।
यह यूनान की आर्थिक व्यवस्था और यूनानी संस्कृति का बहुत महत्वपूर्ण अंग मन जाता है लेकिन इस द्वीप की अपनी एक अलग सांस्कृतिक पहचान भी है।
आज से पाँच हज़ार साल पूर्व क्रीत "मिनोआई सभ्यता" नामक संस्कृति का केंद्र भी थी जो 2700 से 1420 ईसापूर्व के काल में फली-फूली और यूरोप की एक प्राचीनतम सभ्यता मानी जाती है। श्रृद्धा और मनु ही इनके पूर्वज हैं ।
ऐसी यहाँ के लोगों की मान्यताऐं है ।
जब ईरानी और भारतीय आर्य समान रूप से एक साथ अजर-बेजान (आर्यन- आवास) में निवास कर रहे थे ।
तब वर्ग- व्यवस्था की प्रस्तावना ईरानी लोगों ने बनायी जो यम को महत्ता देते थे न कि मनु को !
मनु शब्द तो अवेस्ता ए जैन्द में एक दो बार ही है ।
इस लिए दौनों संस्कृतियों के अनुयायी धुर विरोधी थे ।
तब समाज में स्वेच्छापूर्वक चयनित व्यवसाय मूलक वर्ग थे ।
न कि जाति मूलक वर्ण - ।
वर्ण व्यवस्था अर्वाचीन है और वर्ग या व्यवसाय व्यवस्था प्राचीनत्तम। मैं यादव योगेश कुमार 'रोहि' वर्ण - व्यवस्था के विषय में केवल वही तथ्य उद्गृत करुँगा ..जो सर्वथा नवीन हैं ,... वर्ण व्यवस्था के विषय में आज जैसा आदर्श पुरोहितों द्वारा प्रस्तुत किया जाता है।
वह यथार्थ मूलक नहीं और ये लोगों तो आदर्श प्रस्तुत करेंगे ही क्यों कि वर्ण व्यवस्था का विधायक ही ब्राह्मण या पुरोहित हैं । वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मणों को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है ।
कुछ तथाकथित रूढ़वादियों द्वारा वह आदर्श यथार्थ की सीमाओं में नहीं है ... वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था का स्वरूप स्वभाव प्रवृत्ति और कर्म गत भले ही हो !
परन्तु कालान्तरण में यह व्यवस्था जाति अर्थात् जन्म गत हो गयी शूद्र भारतीय समाज व्यवस्था में चतुर्थ वर्ण या जाति के रूप में मान्यता किये गये ।
आश्चर्य की बात तो यह है कि संस्कृत भाषा के वैय्याकरणों नेभी शूद्र शब्द की सम्यक् व्युपत्ति नहीं कर पायी. क्यों कि यह शब्द भारतीय की अपेक्षा यूरोपीय अधिक है ।
इस शब्द की उत्पत्ति मूलत: विदेशी है अर्थात् ये भी स्कॉटलेण्ड के निवासी तथा ड्रयूड (Druids) कबीले से सम्बद्ध है । जिन्हें भारतीय पुराणों में द्रविड कहा गया ।
और संभवत: एक पराजित जन जाति का मूल नाम था।
अब पराजित कैसे हुए यह भी एक रहस्य है ।
किसी को हराने के लिए या परास्त करने के लिए छल बल और अक्ल में से किसी का भी सहारा लिया जा सकता है ।
क्यों जिनके पास बल और अक्ल न हो तो प्रकृति ने उन्हें छल शक्ति तो दी है ।
और चालाकी को आप बुद्धिमानी तो यह नहीं सकते ! और इसी चालाकी और चालाकी फरेब के बल पर शूद्र जन जाति को परास्त किया गया ।
यद्यपि ज्ञान के क्षेत्र में प्राचीन विश्व में द्रविड संस्कृति सर्वोपरि व अद्वितीय थी।
आर्यों देव संस्कृतियों के अनुयायी जिन्हें अनावश्यक रूप से आर्य बनाने की षड्यन्त्र कारी योजना बनायी गयी ।
ये देव या सुर जनजाति बहुतायत में शाखा जर्मन जाति से सम्बद्ध है; यह तथ्य भी प्रमाणिकता के दायरे में आ गयें हैं ।
क्यों कि स्वीडन अथवा स्वर्की का प्राचीनत्तम जनजाति स्वीयर थी जिसे भारतीय पुरोहितों ने सुर कहा ।
परन्तु देव संस्कृतियों के अनुयायी और द्रविडों की देव सूची समान ही थी । यही धार आगे चलकरलसुर असुर में परिणति हुई । और इनके पूर्वज भी एक ही थे !
अब शूद्र शब्द का पौराणिक व्युपत्ति पर बात करते हैं । भारतीय पौराणिक सन्दर्भ के अनुसार शूद्र शब्द का व्युपत्ति पर वायु पुराण का कथन है कि " शोक करके द्रवित होने वाले परिचर्यारत व्यक्ति को शूद्र कहते हैं ।
"भविष्यपुराण में कहा गया कि " श्रुति की द्रुति (अवशिष्टांश) प्राप्त करने वाले शूद्र कहलाए" तो वैदिक परम्परा अथर्ववेद में कल्याणी वाक (वेद) का श्रवण शूद्रों को विहित था।
इस प्रकार के वर्णन भी मिलते हैं । एक परम्परा है कि ऐतरेय ब्राह्मण का रचयिता महीदास इतरा (शूद्र) का पुत्र था।
किन्तु बाद में वेदाध्ययन का अधिकार शूद्रों से ले लिया गया। ये तथ्य कहाँ तक सत्य हैं कहा नहीं जा सकता है । ये केवल काल्पनिक पुट हैं ।
शूद्र जनजाति का उल्लेख;- विश्व इतिहास कार डायोडोरस, टॉल्मी और ह्वेन त्सांग भी करते हैं।
आर्थिक स्थिति के आधार पर आकलन करें तो। उत्तर वैदिक काल में शूद्र की स्थिति दास की थी अथवा नहीं ।
इस विषय में निश्चित नहीं कहा जा सकता।
यद्यपि वर्ण-व्यवस्था में यह कर्मकार और परिचर्या करने वाला वर्ग था। ज़िमर और रामशरण शर्मा क्रमश: शूद्रों को मूलत: भारतवर्ष में प्रथमागत आर्यस्कंध, क्षत्रिय, ब्राहुई भाषी और आभीर संबद्ध मानते हैं। सम्भवत: इन मान्यताओं का श्रोत यहूदीयों से सम्बद्ध ईरानी परिवार की दाहिस्तान (Dagestan) में आबाद अवर (Avars) जन जाति रही हो ।
जो अबर लोग क़जर (Khazar) अथवा अख़जई के सहवर्ती है । यद्यपि दौनो जन-जातियाँ यहूदीयों से सम्बद्ध हैं । भारत में जिन्हें क्रमश: आभीर और गुर्जर के रूप सहवर्ती माना । परन्तु जर्मनिक जन-जातियाँ से सम्बद्ध ब्राह्मणों से ये जन-जातियाँ भारत में पूर्वागत हैं । जिन्हें भारतीय पुराणों में गुर्जर और आभीर( गोप) में वर्णित किया गया है ।
कालान्तरण में गुर्जर एक संघ बन गया कई जातियों का ... भारतीय वर्ण-व्यवस्था में ब्राह्मणों द्वारा एक आख्यान निर्मित किया गया ।
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