महानुभाव !
षड्यन्त्र प्रत्यक्ष प्रशंसात्मक क्रिया है ।
जिसे जन साधारण निष्ठामूलक अनुष्ठान समझ कर भ्रमित होता रहता है ।
यही कृष्ण के साथ पुष्य-मित्र सुँग कालीन ब्राह्मणों ने किया
इसी लिए कृष्ण चरित्र को पतित करने के लिए श्रृँगार में डुबो दिया गया ।
श्रृँगार वैराग्य का सनातन प्रतिद्वन्द्वी भाव है.
इसी लिए कृष्ण जैसे आध्यात्मिकता के शिखर पर आरूढ महामानव को श्रृँगार लस में डुबाने की रूढ़िवादी पुरोहितों ने कुछ सीमा तक सफल चेष्टा की है ।
क्योंकि कृष्ण दुनियाँ के सबसे बड़े योगदृष्टा योगेश्वर और युग पुरुष और
आध्यात्मिकता की पराकाष्ठा पर प्रतिष्ठित तत्ववेत्ता थे ।
यह भी सर्वविदित है कि कृष्ण ने देवों के राजा इन्द्र से युद्ध किया और देव संस्कृति को कभी उन्नत नहीं समझा !
इसके ऋग्वेद के अष्टम मण्डल को आप देख सकते हैं ।
यहाँं तक कि पुराणों में भी वैदिक प्रतिध्वनि निनादित होती रही है ।
पुराणों का सृजन किंवदन्तियों पर हुआ है और ये अठारवीं सदी तक लिखें जाते रहे हैं।
यदि आप ब्राह्मण वाद की दासता के पैरोकार हैं ;
तो आप कृष्ण को केवल पुराणों तक ही जान पायेंगे ____________________________________________
और सत्य पूछा जाय तो कृष्ण पुराणों के पात्र नहीं हैं अपितु वेदों ,उपनिषदों और पुराणों से भी पूर्व कौषीतकी ब्राह्मण आदि के पात्र हैं । ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में एक स्थान पर स्पष्ट वासुदेव कृष्ण "शब्द के द्वारा कृष्ण का ही वर्णन है ।
परन्तु प्रक्षिप्त रूप से "वसुदेवाय कृष्व" शब्द वैदिक ऋचाओं में सम्पादित किया जाता रहा है ।
वैदों में कृष्ण इन्द्र के परम शत्रु है ।
परन्तु पुराणों में कृष्ण का चरित्र एक कामुक के रूप में हैं । और सत्य तो यही है कि पुराणों का सृजन ही कृष्ण- चरित्र का हनन करने के लिए ही उन पुरोहितों ने किया जो देव संस्कृति के अनुयायी और इन्द्र के आराधक थे ।
क्योंकि कृष्ण इन्द्र के चिर प्रति द्वन्द्वी है । वेदों से लेकर पुराणों तक में यही कृष्ण और इन्द्र की शत्रुता परिलक्षित है ।
ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96 की कुछ ऋचाओं (13,14,15,) में असुर अथवा अदेव कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसा वर्णित है । आप दुनियाँ की ऋग्वेद की किसी भी प्रति में देख सकते हैं ।
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" आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ।
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या:
न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।14।
अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण:
विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।। ______________________________________
ऋग्वेद में वर्णित है ---" कि कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको (ग्वालो)के साथ गाय चराते हुए रहता है ।
उस गाय चराते हुए को (चरन्तम्) इन्द्र ने अपने बुद्धि -बल से खोज लिया , और उसकी सम्पूर्ण सेना तथा गोओं का हरण कर लिया । इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है ।
जो यमुना के एकान्त स्थानों पर गाय चराते हुए रहता है है । वास्तव में चरन्तम् क्रिया पद विचारणीय तथ्य है ।
इस ऋचा "चरन्तम् " क्रिया पद दो बार आया है ; जो चरावाहे का वाचक है ।
फिर अब आप ही बताऐंगे !
की इन्द्र के भक्तों द्वारा इन्द्र के शत्रु कृष्ण का किस प्रकार प्रतिष्ठा स्थापन हो सकता है ।
कृष्ण के चरित्र -हनन के लिए अनेक काल्पनिक मनगढ़न्त पौराणिक कथाओं का सृजन हुआ है ।
और पुराणों का सृजन बारहवीं सदी से लेकर अठारवीं सदी तक हुआ है । यह बात इतर है कि ... भारतीय संस्कृति एक समय खण्ड में "संयम मूलक व चित्त की प्राकृतिक वृत्तियों का निरोध करने वाली रही है , यही उपनिषद काल था ।
इन्हीं सन्दर्भों में हम राधा और कृष्ण का जीवन चरित अपनी विवेचना का विषय बनाते हैं।
सर्व-प्रथम राधा जी के विषय में वेदों की मान्यता पुराणों से भिन्न है । इस पर कुछ प्रकाशन देखें । ____________________________________________
राधा वस्तुतः प्रेम अर्थात् भक्ति की अधिष्ठात्री देवी थी ।
यह शब्द वेदों में भी आया है ।
वैसे भी व्युत्पत्ति-मूलक दृष्टि से राधा शब्द - स्त्रीलिंग रूप में है जैसे- (राध्नोति साधयति सर्वाणि कार्य्याणि साधकानिति राधा कथ्यते" (राध् अच् टाप् ):- राधा ।
अर्थात् जो साथकों के समस्त कार्य सफल करती है ।
वह शक्ति राधा है । वेदों में राधा का वर्णन पवित्र भक्ति रूप में है । और कृष्ण राधा के पति हैं । ________________________________________
इदं ह्यन्वोजसा सुतं राधानां पते |
पिबा त्वस्य गिर्वण : ।।
(ऋग्वेद ३. ५ १. १ ० ) अर्थात् :- हे ! राधापति श्रीकृष्ण !
यह सोम ओज के द्वारा निष्ठ्यूत किया ( निचोड़ा )गया है ।
वेद मन्त्र भी तुम्हें जपते हैं, उनके द्वारा सोमरस पान करो। ___________________________________
विभक्तारं हवामहे वसोश्चित्रस्य राधस : सवितारं नृचक्षसं (ऋग्वेद १ . २ २. ७)
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सब के हृदय में विराजमान सर्वज्ञाता दृष्टा !
जो राधा को गोपियों मध्य में से ले गए ; वह सबको जन्म देने वाले प्रभु हमारी रक्षा करें। ______________________________________
त्वं नो अस्या उषसो व्युष्टौ त्वं सूरं उदिते बोधि गोपा: जन्मेव नित्यं तनयं जुषस्व स्तोमं मे अग्ने तन्वा सुजात।। (ऋग्वेद -१५/३/२) _______________________________________
अर्थात् :- गोपों में रहने वाले तुम इस उषा काल के पश्चात् सूर्य उदय काल में हमको जाग्रत करें ।
जन्म के समान नित्य तुम विस्तारित होकर प्रेम पूर्वक स्तुतियों का सेवन करते हो ,तुम अग्नि के समान सर्वत्र उत्पन्न हो ।
वेदों में ही अन्यत्र कृष्ण के विषय में लिखा ।
त्वं नृ चक्षा वृषभानु पूर्वी : कृष्णाषु अग्ने अरुषो विभाहि । वसो नेषि च पर्षि चात्यंह: कृधी नो राय उशिजो यविष्ठ ।। (ऋग्वेद - ३/१५/३ ) _____________________________________
अर्थात् तुम मनुष्यों को देखो वृषभानु !
पूर्व काल में कृष्ण अग्नि के सदृश् गमन करने वाले हैं ।
ये सर्वत्र दिखाई देते हैं , ये अग्नि भी हमारे लिए धन उत्पन्न करे ।
इस दोनों मन्त्रों में श्री राधा के पिता वृषभानु गोप का उल्लेख किया गया है ।
जो अन्य सभी प्रकार के सन्देह को भी निर्मूल कर देता है ,क्योंकि वृषभानु गोप ही तो राधा के पिता थे।
वेदों के अतिरिक्त उपनिषदों में राधा और कृष्ण का पवित्र वर्णन है । यस्या रेणुं पादयोर्विश्वभर्ता धरते मूर्धिन प्रेमयुक्त : -(अथर्व वेदीय राधिकोपनिषद )
राधा वह व्यक्तित्व है , जिसके कमल वत् चरणों की रज श्रीकृष्ण अपने माथे पे लगाते हैं। ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में वासुदेव कृष्ण का वर्णन:- _________________________________________
ऋग्वेद के प्रथम मण्डल अध्याय दश सूक्त चौउवन 1/54/ 6-7-8-9- वी ऋचाओं तक यदु और तुर्वशु का वर्णन है । और इसी सूक्त में राधा तथा वासुदेव कृष्ण आदि का वर्णन है । परन्तु यहाँ भी परम्परागत रूप से देव संस्कृतियों के पुरोहितों ने गलत भाष्य किया है ।
पेश है एक नमूना - 👇
त्वमाविथ नर्यं तुर्वशुं यदुं त्वं तुर्वीतिं(तूर्वति इति तुर्वी )वय्यं शतक्रतो । त्वं रथमेतशं कृत्व्ये धने त्वं पुरो नवतिं दम्भयो नव ।16।
अन्वय:- त्वं नर्यं आविथ शतक्रतो ; त्वं यदु और तुर्वशु को मारने वाले (तुर्वी )(इति :- इस प्रकार हो वय्यं (गति को) ।
त्वं रथमेतशं (तुम रथ को गति देने वाले )शम् ( कल्याण) कृत्व्ये धने त्वं पुरो नवतिं दम्भयो नव अर्थ:- हे सौ कर्म करने वाले इन्द्र ! तुम नरौं के रक्षक हो तुम तुर्वशु और यदु का तुर्वन ( दमन ) करने वाले तुर्वी इति - इस प्रकार से हो !
तुम वय्यं ( गति को ) भी दमन करने वाले हो ।
तुम रथ और एतश ( अश्व) को बचाने वाले हो तुम शम्बर के निन्यानवै पुरो को नष्ट करने वाले हो ।6।
स घा राजा सत्पति : शूशुवज्जनो रातहव्य: प्रति य:शासमिन्वति। उक्था वायो अभिगृणाति राधसा दानुरस्मा उपरा पिन्वते दिव: ।।7। साहसी राजा सत् का स्वामी होता है
। वह राधा मेरे उरस् (हृदय में ) ज्ञान देती हैं (अभिगृणाति- ज्ञान देती हैं । सा- वह राधा ।
(दान - उरस् -मा ) तब ऊपर प्रकाश पिनहता है ।
विशेष:- यहाँं राधस्-अन्न अर्थ न होकर राधा सा रूप है (वह राधा) असमं क्षत्रमसमा मनीषा प्र सोमपा अपसा सन्तु नेमे ।
ये त इन्द्र ददुषो वर्धयन्ति मही क्षत्रं स्थविरं वृष्ण्यं च ।8।
सोम पायी इन्द्र हमारे पास सीमा रहित -बल और बुद्धि हो हम तुम्हें नमन करते हैं ।
हे इन्द्र उषा काल में जो दान देते हैं वे बढ़ते हैं ।
उनकी पृथ्वी और शक्ति बढ़ती है।
जैसे वृद्ध वृष्णि वंशीयों की शक्ति और बल बढ़ा था ।
तुभ्येत् एते बहुला अद्रि दुग्धाश्च चमूषदश्चमसा इन्द्रपाना: व्यश्नुहि तर्पया काममेषा मथा मनो वसुदेवाय कृष्व(वासुदेवाय कृष्ण)।।8।
हे वासुदेव कृष्ण पाषाणों से कूटकर और छानकर यह पेय सोम इन्द्र के लिए था ।
परन्तु हे कृष्ण इसका भोग आप करो यह तुम्हारे ही निमित्त हैं ! अपनी इच्छा तृप्त करने के पश्चात् फिर हमको देने की बात सोचो।8।
विशेष:- एतश: (इण्--तशन् ) १ ब्राह्मण २ अश्व निरुक्त कोश । “येन वृश्चादेतशो ब्रह्मणस्पतिः” ऋ० १०, ५३, ९ ।
“यत्रैतशोऽभिधीयसे” यजु० ४, ३२ । “सजूः सूर एतशेन” १२, ७४ । एतशेनाश्वेनेति” “उभे चक्रं न वर्त्येतशस्” ऋ० ८, ६, ३८ । हिंसार्थाः तूर्वति तुतूर्व तूर्विता तुतूर्विषति तोतूर्व्यते )
पुराणों में श्री राधा जी का वर्णन कर पुराण कारों ने उसे अश्लीलताओं से पूर्ण कर अपनी काम प्रवृत्तियों का ही प्रकाशन किया है ।
श्रीमद्भागवत पुराण के रचयिता के अलावा १७ और अन्य पुराण रचने वालों ने राधा का वर्णन नहीं किया है । इनमें स केवल छ :में श्री राधा का उल्लेख है।
यथा " राधा प्रिया विष्णो : (पद्म पुराण )
राधा वामांश सम्भूता महालक्ष्मीर्प्रकीर्तिता (नारद पुराण )
तत्रापि राधिका शश्वत (आदि पुराण )
रुक्मणी द्वारवत्याम तु राधा वृन्दावन वने ।
(मत्स्य पुराण १३. ३७)
(साध्नोति साधयति सकलान् कामान् यया राधा प्रकीर्तिता: ) (देवी भागवत पुराण )
राधोपनिषद में श्री राधा जी के २८ नामों का उल्लेख है।
गोपी ,रमा तथा "श्री "राधा के लिए ही प्रयुक्त हुए हैं।
कुंचकुंकु मगंधाढयं मूर्ध्ना वोढुम गदाभृत : (श्रीमदभागवत ) हमें राधा के चरण कमलों की रज चाहिए जिसकी रोली श्रीकृष्ण के पैरों से संपृक्त है (क्योंकि राधा उनके चरण अपने ऊपर रखतीं हैं ).
यहाँ "श्री "राधा के लिए ही प्रयुक्त हुआ है ।
महालक्ष्मी के लिए नहीं। क्योंकि द्वारिका की रानियाँ तो महालक्ष्मी की ही वंशवेल हैं।
वह महालक्ष्मी के चरण रज के लिए उतावली क्यों रहेंगी ?
अत: यह भी प्रक्षिप्त अंश है । रेमे रमेशो व्रजसुन्दरीभिर्यथार्भक : स्वप्रतिबिम्ब विभाति " -(श्रीमदभागवतम १ ०. ३३.१ ६ ) कृष्ण रमा के संग रास करते हैं।
यहाँ रमा राधा के लिए ही आया है। रमा का मतलब लक्ष्मी भी होता है लेकिन यहाँ इसका रास प्रयोजन नहीं है.लक्ष्मीपति रास नहीं करते हैं। रास तो लीलापुरुष घनश्याम ही करते हैं।
आक्षिप्तचित्ता : प्रमदा रमापतेस्तास्ता विचेष्टा सहृदय तादात्म्य -(श्रीमदभागवतम १०. ३०.२ ) जब श्री कृष्ण महारास के मध्यअप्रकट(दृष्टि ओझल ,अगोचर ) हो गए गोपियाँ प्रलाप करते हुए मोहभाव को प्राप्त हुईं।
वे रमापति (रमा के पति ) के रास का अनुकरण करने लगीं।
स्वांग भरने लगीं। यहाँ भी रमा का अर्थ राधा ही है ।
लक्ष्मी नहीं हो सकता क्योंकि विष्णु रास रचाने वाले नहीं थे ।
कृष्ण जीवन को कलंकित करने वाले षड्यन्त्र कारक पक्ष- जिनका सृजन कृष्ण को चरित्र हीन बनाकर देवसंस्कृति के अनुयायी पुरोहितों ने किया ! परिचय :-- यादव योगेश कुमार 'रोहि' सम्पर्क सूत्र,8877160219,0 _____________________________________________
कृष्ण को कामी वासनामयी मलिन हृदय ब्राह्मणी संस्कृति ने हिन्दूधर्म के नाम पर अहीर अथवा गोपों को कृष्ण नामक कथित भगवान का रूप देकर भी एक कामी और भोगी पुरुष बना कर केवल समाज को व्यभिचार की प्रेरणाऐं दी है ।
और परोक्ष रूप से कृष्ण का प्रतिष्ठा को धूमिल किया गया पुराणों क ब्रह्मवैवर्तपुराण ने अश्लीलता की सारी हदे पार कर दी है पुराण कारों ने कहा है कि:- "चतुर्णमपि वेदानां पाठादपि वरम् फलम् " (कृष्णजन्म खण्ड अध्याय-133)
अर्थात- चारो वेद पठने से भी अधिक श्रेष्ठ फल इस पुराण पढ़ने से होगा। इस पुराण में अश्लीलता की सम्पूर्ण सीमा उल्लंघित होती है ।
ब्रह्मा विश्वम् विनिर्माणाय सावित्र्यां वर योषिति।
चकार वीर्यधानम् च कामुक्या कामुको यथा।।
सा दिव्यं शतवर्ष च धृत्वा गर्भं सुदुःसहम् ।।
सुप्रसूता च सुषुवे चतुर्वेदान्मनोहरात् ।।
(ब्रह्मखण्ड अध्याय-9/1-2)
अर्थात-ब्रह्मा ने विश्व का निर्माण करने के लिए सावित्री में उसी प्रकार वीर्यस्थापन किया जैसे एक कामुक पुरुष कामुक स्त्री में करता है, तब सावित्री ने दिव्य सौ वर्षो के बाद चारो वेदों को जन्म दिया !
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इस पुराण में वेद भी सावित्री के गर्भ से पैदा हुआ है !
जबकि अन्यत्र वैदों की अधिष्ठात्री गायत्री को कहा है ।
पाखण्डी पुरोहितों ने धर्म की आड़ में समाज को वासना मूलक प्रेरणात्मक दी इन मूर्खों ने पृथ्वी को भी नहीं बख्सा .. प्रकृतिखण्ड अध्याय-8/29 मे लिखा है कि विष्णु ने वाराह रूप मे पृथ्वी से सम्भोग किया और बेचारी पृथ्वी बेहोश हो गयी!
इसलिये पृथ्वी विष्णु की पत्नि कही गयी!
यहाँ ब्रह्मा और सावित्री क्रमश विलास पुरुष स्त्रीयों के रूप में वर्णित हैं।
पृथ्वी का प्रातःस्मरणीय श्लोक भी यही कहता है:- अब विष्णु हैं यद्यपि सुमेरियन पिक्स-नु देवता परन्तु इस ! सुमेरियन पुरातन कथाओं में वर्णित देव का विष्णु को यही नही छोड़ा और तुलसी (वृन्दा) से भी सहवास का दोषी बताया।
"शङ्खचूङस्य रूपेण जगाम तुलसी प्रति।
गत्वा तस्यां मायया च वीर्यधानं चकार।।"
(प्रकृतिखण्ड-20/12) अर्थात्- तुलसी भी जान गयी थी कि मेरे पति का रूपधारण करके कोई अन्य पुरुष (विष्णु) मेरे साथ सहवास कर रहा है !
शिव को भी इस पुराण ने नही छोड़ा, शिव का सती के साथ अश्लील वर्णन इस पुराण में है!
सती के मरने के बाद भी जो श्लोक लिखे गये जरा उस पर नजर डालो-
"अधरे चाधरं दत्वा वक्षो वक्षसि शङ्कर:। पुनः पुनः समाश्लिपुनर्मूछामवाप सः।।
" अर्थात्- अधरो पर अधर और वक्ष पर वक्ष मिला कर शंकर ने उस मृतक शरीर का आलिंगन किया!
अब जब ब्रह्मा,विष्णु और शिव नही बचे तो भला कृष्ण कहाँ से बचते ! इस पुराण ने कृष्ण की इज्जत उतारने मे कोई कसर नही छोड़ी। कृष्ण को पूर्ण रूपेण अश्लीलता की प्रति मूर्ति बना दिया जरा इस पुराण के प्रकृतिखण्ड के कुछ श्लोक देखिये-
"करे घृत्वा च तां कृष्णः स्थापयामास वक्षसि।
चकार शिथिल वस्त्रं चुम्बन च चतुर्विधम् ।।
बभूव रतियुद्धेन विच्छिन्नां क्षुद्रघण्टिका।
चुम्बननोष्ठेंरागश्च ह्याश्लेषेण च पत्रकम् ।।
मूर्छामवाप सा राधा बुपुधेन दिवानिषम् ।।"
अर्थात- कृष्ण ने राधा का हाथ पकड़कर वक्ष से लगा लिया,और उसके वस्त्र हटाकर चतुर्विध चुम्बन किया!
फिर जो रतियुद्ध हुआ उससे राधा की करधनी टूट गयी और चुम्बन से होठों का रंग उड़ गया, तथा इस संगम से राधा मूर्छित हो गयी और उसे रात-दिन तक होश नही आया।
ऐसा लगता है कि जब राधा और कृष्ण का यह क्रिया इन कामुक व्यभिचारी पुरोहितों ने अपनी आँखों से देखी हो अपनी कामुक प्रवृत्ति को इन पुरोहितों ने कृष्ण को आधार बनाकर पुराणों में उकेरा है । कृष्ण की इज्जत उतारने में इन व्यभिचारीयों ने कोई कस़र नहीं छोड़ी ।
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यही नही कृष्ण जन्मखण्ड (अध्याय-106/22) मे लिखा है कि- "कुब्जा मृता संभोगद्वाससा रजकोमृतः"
यहाँ रुक्मि कृष्ण से कहता है कि "तुमने कुब्जा से ऐसा सम्भोग किया कि वह बेचारी मर ही गयी" कुब्जा के साथ जन्मखण्ड (अध्याय-72) मे और भी कई अश्लील श्लोक हैं ;
जिसमें नाना प्रकार के सम्भोग का वर्णन है, जिसे शब्दों की मर्यादा में लिखना असम्भव है !
हाँ कृष्ण जन्मखण्ड अध्याय-27/83 श्लोक भी कम अश्लील नही है- "प्रजग्मुर्गोपिका नग्नाः योनिमाच्छाद्व पाणानि" भागवतपुराण के दशम स्कन्ध में भी यही वर्णन कर दिया।
यहाँ बताते हैं कि गोपिकाऐं अपनी हाथ से योनि को ढ़ककर पानी के बाहर निकली! वैसे इस अध्याय के सारे श्लोक अति अश्लील है, जिसे लिखना सम्भव नही।
अस्तु ! कृष्ण का गुणगान तो और भी है, जन्मखण्ड (अध्याय-3/59-62) मे लिखा है कि गोलोक मे कृष्ण विरजा नाम की एक महिला से सहवास कर रहे थे,
तभी राधा ने पकड़ लिया और फटकारते हुये कहा कि- "हे कृष्ण तू पराई औरत मे व्यभिचार करते हो, तुम चंचल और लम्पट हो, तुम मनुष्यो की भाँति मैथुन करते हो!
तुम मेरे सामने से चले जाओ, और तुम्हे श्राप देती हूँ कि तुम्हे मनुष्य योनि मिले" पुराणकर्ता यही नही रुके, गणपतिखण्ड (अध्याय-20/44-46)
मे इन्द्र और रम्भा के सम्भोग का ऐसा वृतान्त है कि कोई पोर्न फिल्मकार भी शर्म से लाल हो जाऐ!
ये -पुराण मुगलों के समय रीति काल में लिखे गये उसी समय वात्स्यायन ने कामशास्त्र लिखा ।
ब्रह्मखण्ड (अध्याय-10/85-87) मे विश्वकर्मा और घृताची के सम्भोग का अति अश्लील वर्णन है, आगे इसी अध्याय के श्लोक-127-128 मे एक ब्राह्मणी से अश्विनीकुमार के बालात्कार ऐसा वर्णन है कि कोई कामशास्त्र भी फीका पड़ जाऐ यह सम्पूर्ण पुराण ही अश्लीलता से परिपूर्ण है, कई प्रकरण तो ऐसे है कि लगता है कि यह पुराण न होकर वात्स्यायन का काम शास्त्र है ।
पुराणों में बड़ी कुशलता से रास लीला के नाम पर यादवों के महानायक कृष्ण की इज्जत उतारी गयी है। आगे इसी सन्दर्भों में कुछ तथ्यों का प्रकाशन करते हुए कृष्ण के वास्तविक जीवन पर भी प्रकाशन किया गया है अमरकोश में क्षत्रिय के पर्याय वाची रूप हैं
2।8।1।1।4 मूर्धाभिषिक्तो राजन्यो बाहुजः क्षत्रियो विराट्. राजा राट्पार्थिवक्ष्माभृन्नृपभूपमहीक्षितः॥
और पुष्यमित्र सुंग ई०पू० १८४ के शासन काल में जाति मूलक वर्ण -व्यवस्था को अधिक परिपुुष्ट करने हेतु अनेक ग्रन्थ वैदिक साहित्य में समायोजित किए गये जैसे पुरुष सूक्त की निम्न ऋचा है ।
ब्राह्मणोsस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत:
उरू तदस्ययद् वैश्य: पद्भ्याम् शूद्रोsजायत।।
(ऋग्वेद १०/९०/१२)
फिर प्राय : अधिकतर पुराणों में कृष्ण चरित्र को षड्यन्त्र पूर्वक भ्रष्ट करने की ही कुचेष्टा की है ।
यद्यपि हरिवंश पुराण इन सभी परम्पराओं से पृथक कृष्ण के यथार्थोन्मुख गोप चरित् की व्याख्या करता है परन्तु भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी व काल्पनिकता की मर्यादा ही भंग कर दी है । भागवतपुराणकार की बाते कहाँ तक संगत हैं -- बुद्धि जीवि पाठक स्वयं ही निर्णय कर सकता है ।
पहले तो कृष्ण को यदु वंश का होने से क्षत्रिय( राजा) के रूप में निषिद्ध घोषित करता है ।
परन्तु यदु वंश का होने पर भी उग्रसेन को राजा के रूप में मान्य किया जाता है ।
एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:।
मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२
आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि ।
ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।।
१३ श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय _________________________________________
देवकी नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार अपने माता पिता को सान्त्वना देकर अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशीयों का राजा बना दिया।१२।
और उन उग्रसेन से कहा कि महाराज हम आपकी प्रजा हैं।
आप हम लोगो पर शासन कीजिए क्योंकि राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राज सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं ।
यद्यपि उग्रसेन भी यदु वंशी थे तो फिर यह तथ्य असंगत ही है। भागवतपुराण की प्राचीनता व प्रमाणिकता भी सन्दिग्ध है कि यादव राज सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं।
कदाचित वेदों में यदु को दास कहा गया है ।
और दास का अर्थ असुर है ।
लौकिक संस्कृत में दास को शूद्र कहा गया।
एक तथ्य और किसी भी पुराण में कृष्ण को क्षत्रिय नहीं कहा गया है। क्योंकि क्षत्रिय राजा होता है ।
और स्वयं वैदिक ऋचाओं में यदु को दास अर्थात् शूद्र के रूप वर्णन ही प्रमाण है ।
और यदुवंशी अपने को क्षत्रिय घोषित करें तो वह यदुवंशी कदापि नहीं है।
और भारतीय पुराणों में प्राय: कथाओं का सृजन वेदों के अर्थ -अनुमानों से ही किया गया है ।
फिर आप अहीरों को किस रूप में मानते हो ? आप भी बताऐं ! श्री कृष्ण एक ऐतिहासिक पुरुष हुए हैं ।
जिनका सम्बन्ध असीरियन तथा द्रविड सभ्यता से भी है । द्रविड (तमिल) रूप अय्यर अहीर से विकसित रूप है।
कहीं कहीं अहीरों को ब्राह्मणों ने उनकी अालौकिकताओं से प्रभा5वित होकर ब्राह्मण भी स्वीकार कर लिया है । परन्तु द्वेष फिर भी वरकरार रहा ।
कृष्ण को इतिहास कारों ने द्रविड संस्कृति का नायक स्वीकार किया है।
कृष्ण का स्पष्ट प्रमाण हमें छान्दोग्य उपनिषद के एक श्लोक में मिलता है। छान्दोग्य उपनिषद :--(3.17.6 ) कल्पभेदादिप्रायेणैव “तद्धैतत् घोर आङ्गिरसः कृष्णाय देवकीपुत्रायोक्त्वोवाच” इत्युक्तम् । वस्तुतस्तस्य भगवदवतारात् भिन्नत्वमेव तस्य घोरा- ङ्गिरसशिष्यत्वोक्तेः _________________________________________
कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि घोर- आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी !
जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे। श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था और गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है।
परन्तु पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१४८ के अनुयायी ब्राह्मणों ने कुछ बातें जोड़ दी हैं।
यह पाँचवीं सदी में श्रीमद्भागवत् गीता में जोड़ी गयीं। जैसे "चातुर्य वर्णं मया सृष्टं गुण कर्म स्वभावत:" तथा वर्णानां ब्राह्मणोsहम" क्योंकि पुष्यमित्र सुंग के निर्देशन में ब्राह्मण वर्चस्व वर्धन को लक्ष्य करके वैदिक धर्म के कर्म-काण्ड परक रूप की स्थापना हुई।
परन्तु कृष्ण का सम्पूर्ण आध्यात्मिक दृष्टि कोण प्राचीनत्तम द्रविड संस्कृति से अनुप्राणित है ।
---जो मैसॉपोटमिया की संस्कृति में द्रुज़ (Druze) कैल्ट संस्कृति में ड्रयूड (Druids) कहे गये । द्रविड दर्शन ही कृष्ण का दर्शन है । एक साम्य दौनों का है ।
☺ कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।।
जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है,
वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |(6)
यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।।
किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |।।7।।
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।।
उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |18।
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आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं ।
जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids) कहते थे ।
जो यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ,कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे ।
पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी ... इतिहास कारों की कुछ एैसी ही मान्यताऐं हैं । ------------------------------------------------------------
Alexander Cornelius polihystor--referred to the Druids as philosopher and called their doctrine of the immortality of the Soul and reincarnation or metaphychosis "
Pythagorean " _______________________________________
The pathyagorean doctrine prevails among the goals teaching that the souls of men are immortal ,
and that After a fixed Number of years they Will enter into Another body "
ज्यूलियस सीज़र आगे लिखता है , ------------------------------------------------------------
Julius Caesar, De Bello Gllic, VI, 13.. __________________________________
कि ड्रयूड पुरोहितों के सिद्धान्तों का मुख्य बिन्दु था,
कि आत्मा मरती नहीं है ।
( Philosophyof Druids About Soul) Alexander Cornelius Polyhistor referred to the druids as philosophers and called their doctrine of the immortality of the soul and reincarnation or metempsychosis "Pythagorean":
"The Pythagorean doctrine prevails among the Gauls' teaching that the souls of men are immortal, and that after a fixed number of years they will enter into another body."
Caesar remarks:
"The principal point of their doctrine is that the soul does not die and that after death it passes from one body into another" (see metempsychosis).
Caesar wrote: With regard to their actual course of studies, the main object of all education is,
in their opinion, to imbue their scholars with a firm belief in the indestructibility of the human soul, which,
according to their belief, merely passes at death from one tenement to another; for by such doctrine alone, they say, which robs death of all its terrors, can the highest form of human courage be developed. Subsidiary to the teachings of this main principle,
they hold various lectures and discussions on astronomy, on the extent and geographical distribution of the globe, on the different branches of natural philosophy, and on many problems connected with religion. —
Julius Caesar, De Bello Gallico, VI, 13
आत्मा के बारे में द्रुडों का दर्शन) अलेक्जेंडर कर्नेलियस पॉलीफास्टर ने द्रविडों को दार्शनिकों के रूप में संदर्भित किया और आत्मा और पुनर्जन्म या (मेटाम्प्सीकोसिस )
"पायथागॉरियन" की अमरता के अपने सिद्धांत को कहा: "गौल्स (कोल)के बीच पाइथोगोरियन सिद्धान्त प्रचलित हैं ।
कि मानव की आत्माएं अमर हैं, और निश्चित अवधि के बाद वे दूसरे शरीर में प्रवेश करेंगीं।" सीज़र टिप्पणी:
"उनके सिद्धांत का मुख्य बिंदु यह है कि आत्मा मर नहीं जाती है और मृत्यु के बाद यह एक शरीर से दूसरे में गुज़रता है" अर्थात् नवीन शरीर धारण करती है ।
( मेटेमस्पर्शिसिस)। सीज़र ने लिखा: अध्ययन के अपने वास्तविक पाठ्यक्रम के संबंध में, सभी शिक्षा का मुख्य उद्देश्य उनकी राय में, मानव आत्मा की अविनाशी होने में दृढ़ विश्वास के साथ अपने विद्वानों को आत्मसात करने के लिए है, जो उनकी धारणा के अनुसार, केवल मृत्यु से गुजरता है ।
जैसे एक मकान से दूसर मकान में; केवल इस तरह के सिद्धांत द्वारा वे कहते हैं, जो अपने सभी भयों की मृत्यु को रोकता है, मानव स्वभाव के सर्वोच्च रूप को विकसित किया जा सकता है ।
इस मुख्य सिद्धान्तों की शिक्षाओं के लिए सहायक, वे विभिन्न व्याख्यान और विश्व के भौगोलिक वितरण, प्राकृतिक दर्शन की विभिन्न शाखाओं पर, और धर्म से जुड़े कई समस्याओं पर, खगोल विज्ञान पर चर्चाएं आयोजित करते हैं।
- जूलियस सीज़र, डी बेलो गैलिको, VI, 13 इतना ही नहीं पश्चिमीय एशिया में यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ एकैश्वरवादी (Monotheistic) थे ।
ये इब्राहीम परम्पराओं के अनुयायी थे ।
जिसे भारतीय संस्कृति में ब्रह्मा कहा गया है ।
परन्तु ये मुसलमान ,ईसाई और यहूदी होते हुए भी ईश्वर को एक मानते थे । तथा इनका विश्वास था कि पुनर्जन्म होता है । और आत्मा दूसरे शरीर में जाती है ।
सीरिया ,इज़राएल ,लेबनान और जॉर्डन में बहुसंख्यक रूप से ये लोग आज भी अपनी मान्यताओं का दृढता से अनुपालन कर रहे हैं । तथा इनका मानना है कि मृत्यु के पश्चात आत्मा एक दूसरे शरीर में प्रवेश करती है ,वह भी जीवन में वर्ष की निश्चित संख्या के अन्तर्गत .. कृष्ण के जन्म और बाल-जीवन का जो वर्णन हमें प्राप्त है वह मूलतः श्रीमद् भागवत आदि पुराणों का है; और वह ऐतिहासिक कम, काल्पनिक अधिक हैं; और यह बात ग्रन्थ के आध्यात्मिक स्वरूप के अनुसार ही है।
भागवत पुराण बारहवीं सदी की रचना है ।
जिसका निर्माण दक्षिणात्य के उन ब्राह्मणों ने किया जो वात्स्यायन के कामशास्त्र से अनुप्रेरित थे।
खजुराहो मध्य प्रदेश के मन्दिर काम शास्त्रीय पद्धति पर आरेखित प्रस्तुत चित्र हैं । अधिकांश पुराण इसी काल की रचनाऐं हैं ।
आइए देखें--- उनमे ध्वनित अश्लीलता भागवतपुराण को सन्दर्भित करते हुए।
दक्षिणावर्तलिंगश्च नरो वै पुत्रवान् भवेत |
वामावर्ते तथा लिंगे नर: कन्या प्रसूयते ||१||
स्थूले: शिरालेर्वीषमैर्लिंगैर्दारिद्र्यमादिशेत् |
ऋजुभिर्वर्तुलाकारे: पुरुषा: पुत्रभागिन: ||२||
- भविष्यपुराण ब्राह्म. अध्याय २५ अर्थ –जिस आदमी का लिंग दायी तरफ झुका हुआ हो वह पुत्र पैदा करने वाला होता है|
जिसका लिंग बायीं तरफ झुका हो उसके कन्या पैदा होती है ||१||
मोटे रंगोवाले ,टेढ़े रंगोवाले ,टेड़े लिंगो से दरिद्रता होती है जिन पुरुषो के लिंग सीधे ,गोल होवे ,वे पुत्रो के भागी होते है ||२||
कटुतेल भल्लातन्क बृहतीफलदाडिमम् ||१७ ||
कल्के: साधितैर्लिंप्त लिंग तेन विवर्द्धते ||१८||
-गरुडपुराण .आचार. अध्याय १७६ अर्थ –कडवा तेल ,भिलावा ,बहेड़ा तथा अनार, इसकी चटनी के लेप करने से लिंग बढ़ता है |
कर्पुर देवदारु च मधुना सह योजयेत |
लिंगलेपाच्च तेनैव वशीकुर्यात स्त्रिय किल ||२||
- -गरुडपुराण .आचार .अध्याय १८० अर्थ – कपूर ,देवदारु को शहद के साथ मिलाकर लिंग के लेप करे तो स्त्री वश में हो जाती है|
सैन्धव च महादेव पारावतमल मधु |
एभिर्लिंप्ते तु लिंगे वे कामिनीवशकृद भवेत ||१६||
- गरुडपुराण. आचार.अध्याय १८५ अर्थ –हे महादेव ! नमक और कबूतर की बीठ शहद में मिलाकर यदि लिंग के लेप करे तो स्त्री वश में हो जाती है |
ब्रह्मचर्येsपि वर्तनत्या: साध्व्या ह्मपि च श्रूयते |
ह्रद्ंय हि पुरुष दृष्टवा योनि: संक्लिद्यते स्त्रिया: ||२८||
- भविष्यपुराण. ब्राह्म. अ. ७३ ।
ब्रह्मचर्य में रहती साध्वी स्त्री की योनि भी सुन्दर पुरुष को देख कर टपकने लगती है |
बभूव काममत्ताया योनौ कंडूयन जलम् ||२४||
- ब्रह्मवैवर्तपुराण खण्ड ४ अध्याय २३ ।
रोमाञ्चित हुई धर्मयुक्त स्त्री के भी काम में मत्त होने पर योनि में खुजली तथा जल टपकने लगता है २४।
कर्पुरमदनफलमधुकै: पूरित: शिव |
योनि: शुभा स्याद वृध्दाया युवत्या: कि पुनर्हर||१६||
- गरुड़पुराण आचार. अ. २०२ ।
हे शिव ! यदि योनि को कपूर ,मैनफल तथा शहद से भर दिया जावे तो बूढी स्त्री की योनि भी बढिया हो जाती है जवान का तो कहना ही क्या ||
इसके अलावा बहुत से ऐसी बाते पुराणों में है|
ऐसा लगता है कि जेसे ये पुराण नही बल्कि कोई यौवनचिकित्सा शास्त्रीय या कामशास्त्रीय ग्रन्थ हों ।
ये -पुराण राजपूत- काल राजाऔं कि विलासी प्रवृत्ति के द्योदस हैं ________________________________________
भागवतपुराणकार ने भी काम (सेक्स) को केन्द्रित करके इस पुराण की रचना की है ।
वस्तुतः भागवत में सृष्टि की सम्पूर्ण विकास प्रक्रिया का और उस प्रक्रिया को गति देने वाली परमात्म शक्ति का दर्शन काल्पनिक और कामात्मक (रास लीला परक रूप )में कराया गया है।
ग्रन्थ के पूर्वार्ध (स्कन्ध 1 से 9) में सृष्टि के क्रमिक विकास (जड़-जीव-मानव निर्माण) का और उत्तरार्ध (दशम स्कन्ध) में श्रीकृष्ण की लीलाओं के द्वारा व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास का वर्णन प्रतीक शैली में किया गया है।
यद्यपि कहीं कहीं सांख्य दर्शन की गम्भीरता तो कहीं वेदान्त दर्शन के अद्वैत वाद की गरिमा भी है ।
भागवत में वर्णित श्रीकृष्ण लीला के कुछ मुख्य प्रसंगों का आध्यात्मिक संदेश पहुचानने का यहाँ प्रयास किया गया है। जो कि उस काल की प्रवृत्ति रही है ।
भारतीय पुराणों की कालगणना के अनुसार कृष्ण का जन्म आज से लगभग 5,235 ई सन् हुआ था ।
परन्तु कई वैज्ञानिक कारणों से प्रेरित कृष्ण का जन्म 950 ईसापूर्व मानना है सम्भवतः इस समय कृष्ण का वर्णन भोज पत्रों आदि पर हुआ हो ।
परन्तु कृष्ण का युद्ध आर्यों के नेता इन्द्र से हुआ ऐसा ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के ९०वें सूक्त का वर्णन कहता है ।
और महाभारत में कृष्ण के दार्शिनिक तथा राजनैतिक रूप का वर्णन है।
महाभारत का लेखन बुद्ध के बाद में हुआ है ।
क्योंकि आदि पर्व में बुद्ध का ही वर्णन हुआ है।
बुद्ध का समय ई०पू० 566के समकक्ष है ।
छान्दोग्य उपनिषद का अनुमान कृष्ण से सम्बद्ध है, जो 8 वीं और 6 वीं शताब्दी ई.पू. के बीच कुछ समय में रचित हुआ था, प्राचीन भारत में कृष्ण के बारे में अटकलों का एक और स्रोत रहा है। भागवत महापुराण के द्वादश स्कन्ध के द्वितीय अध्याय के अनुसार कलियुग के आरम्भ के सन्दर्भ में भारतीय गणना के अनुसार कलयुग का शुभारम्भ ईसा से 3102 वर्ष पूर्व 20 फ़रवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकण्ड पर हुआ था। एेसा आनुमानिक रूप से माना है।
परन्तु यह तथ्य प्रमाण रूप नहीं हैं ।
पुराणों में बताया गया है कि जब श्री कृष्ण का स्वर्गवास हुआ तब कलयुग का आगमन हुआ, इसके अनुसार कृष्ण जन्म 4,500 से 3,102 ई०पूर्व के बीच मानना ठीक रहेगा।
इस गणना को सत्यापित करने वाली खोज मोहनजोदाड़ो सभ्यता के विषय में 1929 में हुई।
पुरातत्व वेत्ता मैके द्वारा मोहनजोदाड़ो में हुए उत्खनन में एक पुरातन टैबलेट (भित्तिचित्र) मिला है , जिसमें दो वृक्षों के बीच खड़े एक बच्चे का चित्र बना हुआ था, जो भागवत आदि पुराणों के कृष्ण से सम्बद्ध थे। पुराणों में लिखे कृष्ण द्वारा यमलार्जुन के उद्धार की कथा की ओर ले जाता है। इससे सिद्ध होता है कि कृष्ण 'द्रविड संस्कृति से सम्बद्ध हैं ।
वैसे भी अहीरों (गोपों)में कृष्ण का जन्म हुआ ;
और द्रविडों में अय्यर (अहीर) तथा द्रुज़ Druze नामक यहूदीयों में अबीर (Abeer) समन्वय स्थापित करते हैं। _________________________________________
इसके अनुसार महाभारत का युद्ध 950 ई०पूर्व तक होता रहा होगा जो पुरातात्विक सबूत की गणना में सटीक बैठता है। द्रविड अथवा सिन्धु घाटी की संस्कृतियाँ 5000 से 950 ई०पू० समय तक निर्धारित हैं।
इससे कृष्ण जन्म का सटीक अनुमान मिलता है। ऋग्वेद -में कृष्ण नाम का उल्लेख दो रूपों में मिलता है—एक कृष्ण आंगिरस, जो सोमपान के लिए अश्विनी कुमारों का आवाहन करते हैं (ऋग्वेद 8।85।1-9) और दूसरे कृष्ण नाम का एक असुर, जो अपनी दस सहस्र सेनाओं के साथ अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटवर्ती प्रदेश में रहता था ।
और इन्द्र द्वारा पराभूत हुआ था ऐसा वर्णन है 🎠🎠 विदित हो कि अंशुमान् सूर्य का वाचक है देखें--- अंशु अस्त्यर्थे मतुप् । सूर्य्ये, अंशुशाल्यादयोप्यत्र ।
सूर्य्यवंश्ये असमञ्जःपुत्रे दिलीपजनके राजभेदे तत्कथा रा० आ० ४३ अ० । अंशुमति पदार्थमात्रे त्रि० ।
पुराणों में यमुना ओर यम को अंशुमान् के सन्तति रूप में वर्णित किया है । ऋग्वेद के अष्टम् मण्डल के सूक्त संख्या 96के श्लोक- (13,14,15,)पर असुर अथवा दास कृष्ण का युद्ध इन्द्र से हुआ ऐसी वर्णित है । ___________________________________________
" आवत् तमिन्द्र: शच्या धमन्तमप स्नेहितीर्नृमणा अधत्त ।
द्रप्सम पश्यं विषुणे चरन्तम् उपह्वरे नद्यो अंशुमत्या:
न भो न कृष्णं अवतस्थि वांसम् इष्यामि ।
वो वृषणो युध्य ताजौ ।14।
अध द्रप्सम अंशुमत्या उपस्थे८धारयत् तन्वं तित्विषाण:
विशो अदेवीरभ्या चरन्तीर्बृहस्पतिना युज इन्द्र: ससाहे ।।15।। ______________________________________
ऋग्वेद कहता है ---" कि कृष्ण नामक असुर अंशुमती अर्थात् यमुना नदी के तटों पर दश हजार सैनिको (ग्वालो)के साथ रहता था ।
उसे अपने बुद्धि -बल से इन्द्र ने खोज लिया , और उसकी सम्पूर्ण सेना तथा गोओं का हरण कर लिया ।
इन्द्र कहता है कि कृष्ण नामक असुर को मैंने देख लिया है जो यमुना के एकान्त स्थानों पर गाय चराते हुए रहता है ।
चरन्तम् क्रिया पद दो वार आया है ; जो चरावाहे का वाचक है ।
पुराणों में कृष्ण को प्राय: एक कामी व रसिक के रूप में ही अधिक वर्णित किया है।
"क्योंकि पुराण भी एैसे काल में रचे गये जब भारतीय समाज में राजाओं द्वारा भोग -विलास को ही जीवन का परम ध्येय माना जा रहा था ।
बुद्ध की विचार -धाराओं के वेग को मन्द करने के लिए द्रविड संस्कृति के नायक कृष्ण को विलास पुरुष बना दिया ।" _________________________________________
कृष्ण की कथाओं का सम्बन्ध अहीरों से है ।
अहीरों से ही नहीं अपितु सम्पूर्ण यदु वंश से जिनमें गुर्जर गौश्चर:(गा: चारयति येन सो गौश्चर: इतिभाषायां गुर्जर)
जाट तथा दलित और पिछड़ी जन-जातियाँ हैं।
पुष्यमित्र सुंग के अनुयायी ब्राह्मण समाज का द्रोह यदुवंशजों के विरुद्ध चलता रहा ।
सत्य पूछा जाय तो ये सम्पूर्ण विकृतिपूर्ण अभिव्यञ्जनाऐं पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के काल से प्रारम्भ होकर अठारहवीं सदी के पूर्वार्ध तक अनवरत यादव अर्थात् आभीर जन जाति को हीन दीन दर्शाने के लिए योजना बद्ध तरीके से लिपिबद्ध ग्रन्थ रूप में हुई- जो हम्हें विरासत में प्राप्त हुईं हैं ।
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इस्लाम को मानने वाले जो बहुपत्नीवाद में विश्वास करते हैं ।
सदा कृष्ण जी महाराज पर १६००० रानी रखने का आरोप लगा कर उनका माखोल करते हैं|
उनके लिए विरोध करने का यह सम्बल ही है यह रास लीला।
और ऐसे कई उदाहरण आपको कृष्ण के नाम पर मिल जाएँगे.. श्री कृष्ण जी के चरित्र के विषय में ऐसे मिथ्या आरोप का अाधार क्या हैं?
इन अश्लील आरोपों का आधार हैं पुराण विशेषत: भागवतपुराण -ब्रह्म वैवर्त पुराण तथा विष्णु आदि। हरिवंश पुराण ---जो महाभारत का खिल-भाग ( अवशिष्ट) है ।
उसमे कृष्ण का गोप रूप कुछ वास्तविक व उज्ज्वल रूप है।
आइये हम सप्रमाण अपने पक्ष को सिद्ध करते हैं|
पुराणों में गोपियों से कृष्ण का रमण करना । ------------------------------------------------------------------
विष्णु पुराण अंश ५ अध्याय १३ श्लोक ५९,६० में लिखा हैं :- "गोपियाँ अपने पति, पिता और भाइयों के रोकने पर भी नहीं रूकती थी रोज रात्रि को वे रति “विषय भोग” की इच्छा रखने वाली कृष्ण के साथ रमण “भोग” किया करती थी " कृष्ण भी अपनी किशोर अवस्था का मान करते हुए रात्रि के समय उनके साथ रमण किया करते थे. कृष्ण उनके साथ किस प्रकार रमण करते थे पुराणों के रचियता ने श्री कृष्ण को कलंकित करने में
कोई कसर नहीं छोड़ी हैं ।
भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय ३३ श्लोक १७ में लिखा हैं – कृष्ण कभी उनका शरीर अपने हाथों से स्पर्श करते थे, कभी प्रेम भरी तिरछी चितवन से उनकी और देखते थे, कभी मस्त हो उनसे खुलकर हास विलास ‘मजाक’ करते थे.
जिस प्रकार बालक तन्मय होकर अपनी परछाई से खेलता हैं वैसे ही मस्त होकर कृष्ण ने उन ब्रज सुंदरियों के साथ रमण, काम क्रीडा ‘विषय भोग’ किया. भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय २९ श्लोक ४५,४६ में लिखा हैं :- _________________________________________
" नद्या: पुलिनमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुकम्।
रेमे तत्तरलान्दकुमुदा मोदवायुना ।।४५।
बाहु प्रसार परिरम्भकरालकोरू- नीवीस्तनाल -
भननर्नमनखाग्रपातै: ।
क्ष्वेल्यावलोकहसितैर्व्रज सुन्दरीणा- मुत्तभयन् रतिपतिं रमयाञ्चकार।।४६ __________________________________________
कृष्णा ने जमुना के कपूर के सामान चमकीले बालू के तट पर गोपिओं के साथ प्रवेश किया.।
वह स्थान जलतरंगों से शीतल व कुमुदिनी की सुगंध से सुवासित था. वहां कृष्ण ने गोपियों के साथ रमण करने के लिए बाहें फैलाना, आलिंगन करना, गोपियों के हाथ दबाना ,
उनकी चोटी पकड़ना, जांघो पर हाथ फेरना, लहंगे का नारा खींचना, स्तन (पकड़ना) मजाक करना नाखूनों से उनके अंगों को नोच नोच कर जख्मी करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना और मुस्कराना तथा इन क्रियाओं के द्वारा नवयोवना गोपिओं को खूब जागृत यौनोत्तेजित करके उनके साथ कृष्णा ने रात में रमण (विषय सम्भोग)
किया ।
ऐसे अभद्र व अश्लीलता पूर्णविचार कृष्ण को कलंकित करने के लिए भागवत के रचियता नें स्कन्द १० के अध्याय २९,३३ में वर्णित किये हैं ।
राधा और कृष्ण का पुराणों में वर्णन राधा का नाम कृष्ण के साथ में लिया जाता हैं. महाभारत में राधा का वर्णन नहीं मिलता. राधा का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण में अत्यन्त अशोभनिय वृतान्त का वर्णन करते हुए मिलता हैं।
ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय ३ श्लोक ५९,६०,६१,६२ में लिखा हैं ।
"की गोलोक में कृष्ण की पत्नी राधा ने कृष्ण को पराई औरत के साथ पकड़ लिया तो शाप देकर कहाँ – हे कृष्ण ब्रज के प्यारे , तू मेरे सामने से चला जा तू मुझे क्यों दुःख देता हैं – हे चंचल , हे अति लम्पट कामचोर मैंने तुझे जान लिया हैं।
तू मेरे घर से चला जा. तू मनुष्यों की भांति मैथुन करने में लम्पट हैं "श्री कृष्ण जी के चरित्र के विषय में ऐसे मिथ्या आरोप का अाधार क्या हैं?
इन अश्लील आरोपों का आधार हैं पुराण विशेषत: भागवतपुराण -ब्रह्म वैवर्त पुराण तथा विष्णु आदि। हरिवंश पुराण ---जो महाभारत का खिल-भाग ( अवशिष्ट) है ।
उसमे कृष्ण का गोप रूप कुछ वास्तविक व उज्ज्वल रूप है।
आइये हम सप्रमाण अपने पक्ष को सिद्ध करते हैं|
पुराणों में गोपियों से कृष्ण का रमण करना । ------------------------------------------------------------------
विष्णु पुराण अंश ५ अध्याय १३ श्लोक ५९,६० में लिखा हैं :- "गोपियाँ अपने पति, पिता और भाइयों के रोकने पर भी नहीं रूकती थी रोज रात्रि को वे रति “विषय भोग” की इच्छा रखने वाली कृष्ण के साथ रमण “भोग” किया करती थी "
कृष्ण भी अपनी किशोर अवस्था का मान करते हुए रात्रि के समय उनके साथ रमण किया करते थे.
कृष्ण उनके साथ किस प्रकार रमण करते थे !
पुराणों के रचियता ने श्री कृष्ण को कलंकित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी हैं । भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय ३३ श्लोक १७ में लिखा हैं – कृष्ण कभी उनका शरीर अपने हाथों से स्पर्श करते थे, कभी प्रेम भरी तिरछी चितवन से उनकी और देखते थे,
कभी मस्त हो उनसे खुलकर हास विलास ‘मजाक’ करते थे.जिस प्रकार बालक तन्मय होकर अपनी परछाई से खेलता हैं वैसे ही मस्त होकर कृष्ण ने उन ब्रज सुंदरियों के साथ रमण, काम क्रीडा ‘विषय भोग’ किया. भागवत पुराण स्कन्द १० अध्याय २९ श्लोक ४५,४६ में लिखा हैं :- _________________________________________
" नद्या: पुलिनमाविश्य गोपीभिर्हिमवालुकम्।
रेमे तत्तरलान्दकुमुदा मोदवायुना ।।४५।
बाहु प्रसार परिरम्भकरालकोरू-
नीवीस्तनाल - भननर्नमनखाग्रपातै: ।
क्ष्वेल्यावलोकहसितैर्व्रज सुन्दरीणा-
मुत्तभयन् रतिपतिं रमयाञ्चकार।।४६ __________________________________________
कृष्णा ने जमुना के कपूर के सामान चमकीले बालू के तट पर गोपिओं के साथ प्रवेश किया.।
वह स्थान जलतरंगों से शीतल व कुमुदिनी की सुगंध से सुवासित था. वहां कृष्ण ने गोपियों के साथ रमण करने के लिए बाहें फैलाना, आलिंगन करना, गोपियों के हाथ दबाना ,
उनकी चोटी पकड़ना, जांघो पर हाथ फेरना, लहंगे का नारा खींचना, स्तन (पकड़ना) मजाक करना नाखूनों से उनके अंगों को नोच नोच कर जख्मी करना, विनोदपूर्ण चितवन से देखना और मुस्कराना तथा इन क्रियाओं के द्वारा नवयोवना गोपिओं को खूब जागृत यौनोत्तेजित करके उनके साथ कृष्णा ने रात में रमण (विषय सम्भोग) किया ।
ऐसे अभद्र विचार कृष्ण को कलंकित करने के लिए भागवत के रचियता नें स्कन्द १० के अध्याय २९,३३ में वर्णित किये हैं । राधा और कृष्ण का पुराणों में वर्णन राधा का नाम कृष्ण के साथ में लिया जाता हैं.
महाभारत में राधा का वर्णन नहीं मिलता. राधा का वर्णन ब्रह्मवैवर्त पुराण में अत्यन्त अशोभनिय वृतान्त का वर्णन करते हुए मिलता हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय ३ श्लोक ५९,६०,६१,६२ में लिखा हैं ।
"की गोलोक में कृष्ण की पत्नी राधा ने कृष्ण को पराई औरत के साथ पकड़ लिया तो शाप देकर कहाँ – हे कृष्ण ब्रज के प्यारे , तू मेरे सामने से चला जा तू मुझे क्यों दुःख देता हैं – हे चंचल , हे अति लम्पट कामचोर मैंने तुझे जान लिया हैं।
तू मेरे घर से चला जा. तू मनुष्यों की भांति मैथुन करने में लम्पट हैं, तुझे मनुष्यों की योनि मिले, तू गौलोक से भारत में चला जा. हे सुशीले, हे शाशिकले, हे पद्मावते, !
यह कृष्ण धूर्त हैं इसे निकाल कर बहार करो, इसका यहाँ कोई काम नहीं. ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय १५ में राधा का कृष्ण से रमण का अत्यन्त अश्लील वर्णन लिखा हैं जिसका सामाजिक मर्यादा का पालन करते हुए हम यहाँ और विस्तार से वर्णन नहीं कर सकते हैं ।
ब्रह्मवैवर्त पुराण कृष्ण जन्म खंड अध्याय ७२ में कुब्जा का कृष्ण के साथ सम्भोग भी अत्यन्त अश्लील रूप में वर्णित हैं ।
राधा का कृष्ण के साथ सम्बन्ध भी भ्रामक हैं ।
राधा कृष्ण के वामांग से पैदा होने के कारण कृष्ण की पुत्री थी । समान वृषभानु गोप की कन्या थी ।
राधा का रायण से विवाह होने से कृष्ण की पुत्रवधु थी। चूँकि गोलोक में रायण कृष्ण के अंश से पैदा हुआ था; इसलिए कृष्ण का पुत्र हुआ जबकि पृथ्वी पर रायण कृष्ण की माता यशोदा का भाई था । इसलिए कृष्ण का मामा हुआ जिससे राधा कृष्ण की मामी हुई| यद्यपि राधा गायत्री के समान वृषभानु गोप की कन्या रूप में वर्णित है। कृष्ण की गोपिओं कौन थी?
पदम् पुराण उत्तर खंड अध्याय २४५ कलकत्ता से प्रकाशित में लिखा हैं :- की रामचंद्र जी दंडक -अरण्य वन में जब पहुचें तो उनके सुंदर स्वरुप को देखकर वहां के निवासी सारे ऋषि मुनि उनसे भोग करने की इच्छा करने लगे ।
उन सारे ऋषिओं ने द्वापर के अन्त में गोपियों के रूप में जन्म लिया और राम ,
कृष्ण बने तब उन गोपियों के साथ कृष्ण ने सम्भोग किया । रास यूनानी शब्द है।
क्योंकि रास, रति तथा काम जैसे श्रृंगारिक शब्द ग्रीक भाषा के हैं। अर्थात् एरॉस( Eros) एरेटॉ erotes god of love, from Greek eros (plural erotes), "god or personification of love," literally "love," ___________________________________
प्रस्तुति करण यादव योगेश कुमार "रोहि"आप ब्राह्मण वाद की दासता के पैरोकार हैं ;
आपने कृष्ण को केवल पुराणों तक ही जान पाये और सत्य पूछा जाय तो कृष्ण पुराणों का पात्र नहीं अपितु वेदों उपनिषदों और पुराणों से पूर्व कौषीतकी ब्राह्मण में भी कृष्ण का वर्णन है ।
पुराणों का सृजन ही कृष्ण चरित्र का हनन करने के लिए उन पुरोहितों ने किया जो देव संस्कृति के अनुयायी और इन्द्र के आराधक थे ।
कृष्ण जबकि भारतीय संस्कृति एक समय खण्ड में संयम मूलक व चित्त की प्राकृतिक वृत्तियों का विरोध करने वाली रही है , यही उपनिषद काल था ।
इन्हीं सन्दर्भों में राधा और कृष्ण का जीवन चरित हमारी विवेचना का विषय है । सर्व-प्रथम राधा जी के विषय में - ____________________________________________
कामी वासनामयी मलिन हृदय ब्राह्मणी संस्कृति ने हिन्दूधर्म के नाम पर अहीर अथवा गोपों को कृष्ण नामक कथित भगवान का रूप देकर भी एक कामी और भोगी पुरुष बना कर केवल समाज को व्यभिचार की प्रेरणाऐं दी है । और परोक्ष रूप से कृष्ण का प्रतिष्ठा को धूमिल किया गया
🍉..... ब्रह्मवैवर्तपुराण ने अश्लीलता की सारी हदे पार कर दी है पुराण कारों ने कहा है कि:- "चतुर्णमपि वेदानां पाठादपि वरम् फलम् " (कृष्णजन्म खण्ड अध्याय-133) अर्थात- चारो वेद पठने से भी अधिक श्रेष्ठ फल इस पुराण पढ़ने से होगा।
इस पुराण में अश्लीलता की सम्पूर्ण सीमा उल्लंघित होती है ।
ब्रह्मा विश्वम् विनिर्माणाय सावित्र्यां वर योषिति।
चकार वीर्यधानम् च कामुक्या कामुको यथा।।
सा दिव्यं शतवर्ष च धृत्वा गर्भं सुदुःसहम् ।।
सुप्रसूता च सुषुवे चतुर्वेदान्मनोहरात् ।।
(ब्रह्मखण्ड अध्याय-9/1-2) अर्थात-ब्रह्मा ने विश्व का निर्माण करने के लिए सावित्री में उसी प्रकार वीर्यस्थापन किया जैसे एक कामुक पुरुष कामुक स्त्री में करता है, तब सावित्री ने दिव्य सौ वर्षो के बाद चारो वेदों को जन्म दिया !
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इस पुराण में वेद भी सावित्री के गर्भ से पैदा हुआ है !
जबकि अन्यत्र वैदों की अधिष्ठात्री गायत्री है ।
पाखण्डी पुरोहितों ने धर्म की आड़ में समाज को वासना मूलक प्रेरणात्मक दी इन मूर्खों ने पृथ्वी को भी नहीं बख्सा .. प्रकृतिखण्ड अध्याय-8/29 मे लिखा है कि विष्णु ने वाराह रूप मे पृथ्वी से सम्भोग किया और बेचारी पृथ्वी बेहोश हो गयी!
इसलिये पृथ्वी विष्णु की पत्नि कही गयी!
यहाँ ब्रह्मा और सावित्री विलास पुरुष स्त्रीयों के रूप में वर्णित हैं। पृथ्वी का प्रातःस्मरणीय श्लोक भी यही कहता है:- अब विष्णु हैं यद्यपि सुमेरियन पिक्स-नु देवता परन्तु इस सुमेरियन पुरातन कथाओं में वर्णित देव का विष्णु को यही नही छोड़ा और तुलसी (वृन्दा) से भी सहवास का दोषी बताया।
"शङ्खचूङस्य रूपेण जगाम तुलसी प्रति।
गत्वा तस्यां मायया च वीर्यधानं चकार।।"
(प्रकृतिखण्ड-20/12) अर्थात्- तुलसी भी जान गयी थी कि मेरे पति का रूपधारण करके कोई अन्य पुरुष (विष्णु) मेरे साथ सहवास कर रहा है !
शिव को भी इस पुराण ने नही छोड़ा, शिव का सती के साथ अश्लील वर्णन इस पुराण में है! सती के मरने के बाद भी जो श्लोक लिखे गये जरा उस पर नजर डालो-
"अधरे चाधरं दत्वा वक्षो वक्षसि शङ्कर:। पुनः पुनः समाश्लिपुनर्मूछामवाप सः।।"
अर्थात्- अधरो पर अधर और वक्ष पर वक्ष मिला कर शंकर ने उस मृतक शरीर का आलिंगन किया!
अब जब ब्रह्मा,विष्णु और शिव नही बचे तो भला कृष्ण कहाँ से बचते !
इस पुराण ने कृष्ण की इज्जत उतारने मे कोई कसर नही छोड़ी। कृष्ण को पूर्ण रूपेण अश्लीलता की प्रति मूर्ति बना दिया जरा इस पुराण के प्रकृतिखण्ड के कुछ श्लोक देखिये-
"करे घृत्वा च तां कृष्णः स्थापयामास वक्षसि।
चकार शिथिल वस्त्रं चुम्बन च चतुर्विधम् ।।
बभूव रतियुद्धेन विच्छिन्नां क्षुद्रघण्टिका।
चुम्बननोष्ठेंरागश्च ह्याश्लेषेण च पत्रकम् ।।
मूर्छामवाप सा राधा बुपुधेन दिवानिषम् ।।"
अर्थात- कृष्ण ने राधा का हाथ पकड़कर वक्ष से लगा लिया,और उसके वस्त्र हटाकर चतुर्विध चुम्बन किया!
फिर जो रतियुद्ध हुआ उससे राधा की करधनी टूट गयी और चुम्बन से होठों का रंग उड़ गया, तथा इस संगम से राधा मूर्छित हो गयी और उसे रात-दिन तक होश नही आया।
ऐसा लगता है कि जब राधा और कृष्ण का यह क्रिया इन कामुक व्यभिचारी पुरोहितों ने अपनी आँखों से देखी हो अपनी कामुक प्रवृत्ति को इन पुरोहितों ने कृष्ण को आधार बनाकर पुराणों में उकेरा है ।
कृष्ण की इज्जत उतारने में इन व्यभिचारीयों ने कोई कस़र नहीं छोड़ी ।
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और पुष्यमित्र सुंग ई०पू० १८४ के शासन काल में जाति मूलक वर्ण -व्यवस्था को अधिक परिपुुष्ट करने हेतु अनेक ग्रन्थ वैदिक साहित्य में समायोजित किए गये जैसे पुरुष सूक्त की निम्न ऋचा ब्राह्मणोsस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यकृत: उरू तदस्ययद् वैश्य: पद्भ्याम् शूद्रोsजायत।।
(ऋग्वेद १०/९०/१२) फिर प्राय : अधिकतर पुराणों में कृष्ण चरित्र को षड्यन्त्र पूर्वक भ्रष्ट करने की ही कुचेष्टा की है । यद्यपि हरिवंश पुराण इन सभी परम्पराओं से पृथक कृष्ण के यथार्थोन्मुख गोप चरित् की व्याख्या करता है परन्तु भागवतपुराण में परस्पर विरोधाभासी व काल्पनिकता की मर्यादा ही भंग कर दी है । भागवतपुराणकार की बाते कहाँ तक संगत हैं -- बुद्धि जीवि पाठक स्वयं ही निर्णय कर सकता है ।
पहले तो कृष्ण को यदु वंश का होने से क्षत्रिय( राजा) के रूप में निषिद्ध घोषित करता है । परन्तु यदु वंश का होने पर भी उग्रसेन को राजा के रूप में मान्य किया जाता है ।
एवमाश्वास्य पितरौ भगवान् देवकी सुत:। मातामहं तु उग्रसेनयदूनाम् अकरोतन्नृपम्।१२ आह चास्मान् महाराज प्रज्ञाश्चाज्ञप्तुमर्हसि ।
ययाति शापाद् यदुभिर्नासितव्यं नृपासने ।।१३ श्रीमद्भागवत पुराण दशम् स्कन्ध ४५ वाँ अध्याय _________________________________________
देवकी नन्दन भगवान श्री कृष्ण ने इस प्रकार अपने माता पिता को सान्त्वना देकर अपने नाना उग्रसेन को यदुवंशीयों का राजा बना दिया।१२।
और उन उग्रसेन से कहा कि महाराज हम आपकी प्रजा हैं। आप हम लोगो पर शासन कीजिए क्योंकि राजा ययाति का शाप होने के कारण यदुवंशी राज सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं ।
यद्यपि उग्रसेन भी यदु वंशी थे तो फिर यह तथ्य असंगत ही है। भागवतपुराण की प्राचीनता व प्रमाणिकता भी सन्दिग्ध है ।
कि यादव राज सिंहासन पर नहीं बैठ सकते हैं।
कदाचित वेदों में यदु को दास कहा गया है ।
और दास का अर्थ असुर है । लौकिक संस्कृत में दास को शूद्र कहा गया। एक तथ्य और किसी भी पुराण में कृष्ण को क्षत्रिय नहीं कहा गया है। क्योंकि क्षत्रिय राजा होता है ।
और स्वयं वैदिक ऋचाओं में यदु को दास अर्थात् शूद्र के रूप वर्णन ही प्रमाण है और यदुवंशी अपने को क्षत्रिय घोषित करें तो वह यदुवंशी कदापि नहीं है।
और भारतीय पुराणों में प्राय: कथाओं का सृजन वेदों के अर्थ -अनुमानों से ही किया गया है ।
मान लें कि ब्राह्मणों ने कृष्ण का गुण गान किया तो फिर उनके दोषों तो क्यों वर्णित किया ।
कृष्ण योगी और आध्यात्मिकता के शिखर पर आरूढ थे तो उन्हें श्रृँगार की कींचड़ में क्यों गिराया ।
क्या यही कृष्ण का गुण गान था ।
ऐसा गुण गान तो चालाक शत्रु भी अपने नासमझ प्रतिद्वन्द्वी की करते हैं ।
कृष्ण के योग सिद्धान्तों और आध्यात्मिक उपलब्धियों को क्यों नहीं
जन साधारण में प्राप्त किया गया ?
पुराणों में कृष्ण का आध्यात्मिक स्वरूप न के बरावर है अपितु उन्हें श्रृँगार पुरुष और रति पण्डा बनाया गया है ।
इससे ज्यादा बुरी उन्हें क्या गाली दी जा सकती है ?
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उपनिषदों में विशेषत: छान्दोग्य-उपनिषद में कहा गया है कि देवकी पुत्र श्रीकृष्ण को महर्षि घोर- आंगिरस् ने निष्काम कर्म रूप यज्ञ उपासना की शिक्षा दी थी ! जिसे ग्रहण कर श्रीकृष्ण 'तृप्त' अर्थात पूर्ण पुरुष हो गए थे।
श्रीकृष्ण का जीवन, जैसा कि महाभारत में वर्णित है, इसी शिक्षा से अनुप्राणित था और गीता में उसी शिक्षा का प्रतिपादन उनके ही माध्यम से किया गया है। परन्तु पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१४८ के अनुयायी ब्राह्मणों ने कुछ बातें जोड़ दी हैं।
यह पाँचवीं सदी में श्रीमद्भागवत् गीता में जोड़ी गयीं।
जैसे "चातुर्य वर्णं मया सृष्टं गुण कर्म स्वभावत:" तथा वर्णानां ब्राह्मणोsहम" क्योंकि पुष्यमित्र सुंग के निर्देशन में ब्राह्मण वर्चस्व वर्धन को लक्ष्य करके वैदिक धर्म के कर्म-काण्ड परक रूप की स्थापना हुई।
परन्तु कृष्ण का सम्पूर्ण आध्यात्मिक दृष्टि कोण प्राचीनत्तम द्रविड संस्कृति से अनुप्राणित है ।
---जो मैसॉपोटमिया की संस्कृति में द्रुज़ (Druze) कैल्ट संस्कृति में ड्रयूड (Druids) कहे गये । द्रविड दर्शन ही कृष्ण का दर्शन है । एक साम्य दौनों का कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते।।6।।
जो मूढबुद्धि मनुष्य समस्त इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात् दम्भी कहा जाता है |(6)
यस्त्विन्द्रियाणी मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन। कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते।।7।।
किन्तु हे अर्जुन ! जो पुरुष मन से इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है |।।7।।
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन। न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः।।18।।
उस महापुरुष का इस विश्व में न तो कर्म करने से कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मों के न करने से ही कोई प्रयोजन रहता है तथा सम्पूर्ण प्राणियों में भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थ का सम्बन्ध नहीं रहता |18।
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आत्मा के विषय में यथावत इसी प्रकार की मान्यता प्राचीन वेल्स तथा कैल्ट संस्कृति में उनके पुरोहितों की थीं ।
जिन लोगों को वेल्स लोग डरविड तथा रोमन ड्रयूड (Druids) कहते थे ।
जो यहूदीयों के सहवर्ती द्रुज़ तथा भारतीय द्रविड ही थे यूनानी तथा रोमन इतिहास कार लिखते हैं ,कि ड्रयूड पुरोहित ही आत्मा की अमरता तथा पुनर्जन्म के प्रतिपादक थे ।
पश्चिमीय एशिया में तथा यूरोप में भी ... इतिहास कारों की कुछ एैसी ही मान्यताऐं हैं । ------------------------------------------------------------
Alexander Cornelius polihystor--referred to the Druids as philosopher and called their doctrine of the immortality of the Soul and reincarnation or metaphychosis l
यह शोध मूलक सन्देश यादव योगेश कुमार रोहि के द्वारा अन्वेषण किया गया है ।
This research-oriented message" has been explored by Yadav Yogesh Kumar "Rohi" .
Rohi has risen above Puranas and researched Krishna character in Vedas and Upanishads.