गुप्त काल में -जब ब्राह्मण वाद का विखण्डन होने लगा तो परास्त ब्राह्मण वाद ने अपने प्रतिद्वन्द्वी भागवत धर्म को स्वयं में समायोजित कर लिया ।
यह भागवत धर्म अहीरों का भक्ति मूलक धर्म था ।
और ब्राह्मणों का धर्म था - वर्ण व्यवस्था मूलक व स्वर्ग एवं भोग प्राप्ति हेतु पशु बलि व यज्ञ परक कर्म काण्डों पर आधारित -
आज उस पवित्र भागवत धर्म को पुन: ब्राह्मण वाद से पृथक करने की आवश्यकता है।
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कर्म का स्वरूप और जीवन का प्रारूप :- विचारक यादव योगेश कुमार 'रोहि'
कर्म का अपरिहार्य सिद्धान्त -
श्रीमद्भगवद् गीता अध्याय 3 का श्लोक 5
भागवत धर्म के सार- गर्भित सिद्धान्त-
-जैसे कर्म सृष्टि और जीवन का मूलाधार है निम्न श्लोक देखें-
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न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठति अकर्मकृत् कार्यते हि अवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर् गुणैः।।5।। _________________________________________
अर्थात् (हि) निःसन्देह (कश्चित्) कोई भी मनुष्य (जातु) किसी भी कालमें (क्षणम्) क्षणमात्रा (अपि) भी (अकर्मकृृत्) बिना कर्म किये (न) नहीं (तिष्ठति) रहता है
(हि) क्योंकि (सर्वः) सारा मनुष्य समुदाय (प्रकृतिजैः) प्रकृति अर्थात् प्रवृत्तियों के द्वारा जनित (गुणैः) रजोगुण , सतोगुण तथा तमोगुण द्वारा (अवशः) परवश हुआ (कर्म) कर्म करनेके लिये (कार्यते) विवश किया जाता है।
क्यों कि -👇
तथा न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति।।
मनुष्य न तो कर्मों का आरम्भ किए बिना निष्कर्मता को प्राप्त हो सकता है ।
अर्थात् (जिस अवस्था को प्राप्त हुए पुरुष के कर्म अकर्म हो जाते हैं अर्थात फल उत्पन्न नहीं कर सकते, उस अवस्था का नाम 'निष्कर्मता' है )
और यह विना इच्छाओं के कर्म हैं ।
जिन्हें जन हित में कर्तव्य कह सकते हैं।
इस प्रकार का व्यक्ति योगनिष्ठा को प्राप्त होता है , और न कर्मों के केवल त्यागमात्र से सिद्धि सांख्यनिष्ठा को ही प्राप्त होता है ।
इसी का प्रमाण अध्याय 14 श्लोक 3 से 5 में भी है। तथा अन्यत्र भी कृष्ण का वचन है :-
नाहं देहो न मे देहो बोधोऽहमिति निश्चयी।
कैवल्यं इव संप्राप्तो न स्मरत्यकृतं कृतम् ।।
न मैं यह शरीर हूँ और न यह शरीर मेरा है, मैं ज्ञानस्वरुप हूँ, ऐसा निश्चित रूप से जानने वाला जीवन मुक्ति को प्राप्त करता है।
वह किये हुए (भूतकाल) और न किये हुए (भविष्य के) कर्मों का स्मरण नहीं करता है ।
और विदित हो कि
अहंत्ता (मैं पन)की निवृत्ति तत्व ज्ञान से ही सम्भव है कर्म जो करेगा फल भी उसी को ही मिलेगा ।
साम्य वाद के प्रतिपादन का उद्घोष कृष्ण ने सर्व प्रथम किया उन्होंने न किसी को उच्च कहा और ना ही निम्न ही कहा!
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयोः ।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीतः सा उच्यते ॥ _________________________________________
अर्थात् जो मान और अपमान में सम है,
मित्र और शत्रु के पक्ष में भी सम है एवं सम्पूर्ण आरम्भों में कर्तापन के अभिमान से रहित है, वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है ।
क्योंकि संसार में द्वन्द्व ही दु:ख सुख का कारण है । कृष्ण के सिद्धान्त का अनुमोदन बुद्ध ने भी मज्ज मग्ग( मध्य-मार्ग) के रूप में प्रतिपादित किया ।
महात्मा बुद्ध ई०पू० 563 के समकक्ष इसी साम्य वाद को मध्यम मार्ग के रूप में प्रतिपादन करते हैं ।
भगवान बुद्ध ने लोगों को मध्यम मार्ग का उपदेश किया।
उन्होंने दुःख, उसके कारण और निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग सुझाया।
उन्होंने अहिंसा पर बहुत जोर दिया है।
उन्होंने यज्ञ और पशु-बलि की निंदा की।
बुद्ध के उपदेशों का सार इस प्रकार है - "
महात्मा बुद्ध ने सनातन धर्म के कुछ संकल्पनाओं का प्रचार किया मध्यमार्ग का अनुसरण चार आर्य सत्य अष्टांग मार्ग--- महात्मा बुद्ध का वर्णन महाभारत क् शान्ति पर्व में तथा इन सभी पुराणों में वर्णित है ।
हरिवंश पर्व (1.41) विष्णु पुराण (3.18) भागवत पुराण (1.3.24, 2.7.37, 11.4.23)
गरुड़ पुराण (1.1, 2.30.37, 3.15.26)
अग्निपुराण (16) नारदीय पुराण (2.72)
लिंगपुराण (2.71) पद्म पुराण (3.252)
तथा वाल्मीकि-रामायण में भी अयोध्या काण्ड में बुद्ध का वर्णन है ।
वाल्मीकि-रामायण में ‘तथागत-बुद्ध’… कहाँ से आये ?
यह अधिक विचारणीय भी नहीं है क्यों कि वाल्मीकि रामायण ई०पू० द्वितीय सदी में पुष्य-मित्र सुंग कालीन पुरोहितों ने किंवदन्तियों तथा स्व कल्पनाओं के आधार पर लिखी।
भले ही ब्राह्मण अपने धर्म और ग्रंथों को अति प्राचीन बताकर कितना ही महिमा मण्डित करें,।
परन्तु वास्तविकता छिपाई नहीं जा सकती हैं।
‘वाल्मिकी-रामायण’, ‘बुद्ध’ के बाद लिखी गयी रचना थी और है ।
, इसका प्रमाण स्वयं वाल्मीकि-रामायण’ ही है। ‘वाल्मिकी रामायण’ मे ऐसे कईं प्रक्षिप्त श्लोक हैं,।
जो वाल्मीकि रामायण की प्राचीनता सन्दिग्ध करते हैं।
जो तथागत बुद्ध और बौद्ध धर्म के विरोधी में लिखे गये हैं ।
वाल्मीकि- रामायण के ये श्लोक, इस तथ्य की स्पष्ट पुष्टि करतें है, कि रामायण, गौतम बुद्ध और ‘बौद्ध धम्म’ के बाद लिखी गयी है।
पुष्यमित्र सुंग ई०पू०१८४ के समकालिक के अनुयायी ब्राह्मणों द्वारा बौद्ध मत को विरोधात्मक लक्ष्य कर के नये सिरे से लेखन कार्य हुआ.. यहीं नहीं अपितु रामायण की बहुत बातें तो इसके ‘सम्राट अशोक’ से भी बाद लिखे जाने की पुष्टि करती है।
जैसे पाषण्ड: बौद्धों का प्रथम सम्प्रदाय था । जिसे अशोक ने अतीव दान दिया था ..तथा संरक्षण भी .. जिसका मूल अर्थ है --वैदिक कर्म-काण्ड के नाम पर पशु- बलि अस्पृस्यता आदि रूढ़िवादी पाशों (पाष)को काटने वाला मार्ग अर्थात् -------------------------------------------------------------------
"पाषाणि बन्धनानि षण्डयति खण्डयति इति पाषण्ड: कथ्यते "
वाल्मिकी रामायण तथा मनु-स्मृति महाभारत तथा पुराणों में भी पाषण्ड शब्द बौद्ध मत के लिए आया है ।
तब तो ये सभी ग्रन्थ बौद्ध मत के बाद की लिपि- बद्ध रचनाऐं हैं ।
कथाऐं प्राचीन हो सकती हैं ।
परन्तु ये कल्पनाओं से रञ्जित अधिक हैं ।
बहुत सी बाते परस्पर विरोधी व मिथ्या हैं ।
बहुत सी बाते नैतिक रूप से भी मिथ्या हैं । __________________________________________
ऐसे ही कुछ श्लोक जो ‘आयोध्या-काण्ड’ में आये है । यहाँ पर वाल्मीकि रामायण के लेखक ने ‘बुद्ध’ और ‘बौद्ध-धम्म’ को नीचा दिखाने की नीयत से ‘तथागत-बुद्ध’ को स्पष्ट ही श्लोकबद्ध करते हुए, राम के मुँह से तथागत बुद्ध को चोर, धर्मच्युत, नास्तिक और अपमान-जनक शब्दों से संबोधित करवा दिया हैं।
यहाँ कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहैं हैं ,
जिनकी पुष्टि आप ‘वाल्मिकी रामायण से भी कर सकते हैं ।
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:- उग्र तेज वाले नृपनन्दन श्रीरामचन्द्र, जावालि ऋषि के नास्तिकता से भरे वचन सुनकर उनको सहन न कर सके और उनके वचनों की निन्दा करते हुए उनसे फिर बोले :-
“निन्दाम्यहं कर्म पितुः कृतं , तद्धस्तवामगृह्वाद्विप मस्थबुद्धिम्।
बुद्धयाऽनयैवंविधया चरन्त , सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम्।।”
– अयोध्याकाण्ड, सर्ग – 109. श्लोक : 33।। •
सरलार्थ :- हे जावालि! मैं अपने पिता (दशरथ) के इस कार्य की निन्दा करता हूँ।
कि उन्होने तुम्हारे जैसे वेदमार्ग से भ्रष्ट बुद्धि वाले धर्मच्युत नास्तिक को अपने यहाँ स्थान दिया है ।। क्योंकि ‘बुद्ध’ जैसे नास्तिक - मार्गी , जो दूसरों को उपदेश देते हुए घूमा-फिरा करते हैं , वे केवल घोर नास्तिक ही नहीं, प्रत्युत धर्ममार्ग से च्युत भी हैं । देखें राम बुद्ध के विषय में क्या कहते हैं । _____________________________________________
“यथा हि चोरः स, तथा ही बुद्धस्तथागतं।
नास्तिकमत्र विद्धि तस्माद्धियः शक्यतमः प्रजानाम् स नास्तिकेनाभिमुखो बुद्धः स्यातम् । _______________________________________________
” -(अयोध्याकांड, सर्ग -109, श्लोक: 34 / पृष्ठों संख्या गीता पेरेस गोरख पुर :1678) सरलार्थ :- जैसे चोर दंडनीय होता है, इसी प्रकार ‘तथागत बुद्ध’ और और उनके नास्तिक अनुयायी भी दंडनीय है ।
‘तथागत'(बुद्ध) और ‘नास्तिक चार्वक’ को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए।
इसलिए राजा को चाहिए कि प्रजा की भलाई के लिए ऐसें मनुष्यों को वहीं दण्ड दें, जो चोर को दिया जाता है।
परन्तु जो इनको दण्ड देने में असमर्थ या वश के बाहर हो, उन ‘नास्तिकों’ से समझदार और विद्वान ब्राह्मण कभी वार्तालाप ना करे।
इससे स्पष्ट है कि रामायण बुद्ध के बाद लिखी गयी रचना है न कि बुद्ध से 7000 साल पहले की रचना कुछ विद्वान 2000वर्ष पुरातन भी मानते हैं ।
. ये संपूर्ण श्लोक ‘वाल्मीकि -रामायण’ (मूल) से उद्घृत है। अगर किसी को कोई आपत्ति हो तो, कृपया, ‘रामायण’ को अच्छी तरह से पढ़ लेने के बाद ही शिकायत करें या प्रतिक्रिया दे अन्यथा नहीं ..
परन्तु विडम्बना देखिए की भगवान् राम को आरोपित करके शूद्रों को लक्ष्य करके योजना बद्ध तरीके से वाल्मीकि-रामायण के अयोध्या काण्ड के सर्ग १०९ के श्लोक ३४ में वर्णित ये तथ्य भगवान् राम के द्वारा कथित कदापि नहीं हैं ।
कर्म सिद्धान्त का समर्थन महात्मा बुद्ध ने किया ईश्वरीय सत्ता का भी , परन्तु तत्कालीन ब्राह्मण समाज की मान्यताओं से पृथक् ईश्वर की व्याख्या की !
दीघनिकाय, मज्झिनिकाय, विनयम पिटक आदि जो भी ग्रन्थ महात्मा बुद्ध के नाम से प्राप्त हैं उनका संकलन उनके निर्वाण की कई शताब्दियों के पश्चात् किया गया जिनमें से बहुत-सी उक्तियां किंवदन्ती के ही रूप में अवशिष्ट हैं।
ईश्वर की व्याख्या करते हुए बुद्ध ने कहा कि यह मानवीय बुद्धि का विषय नहीं है ।
और उन्होनें ईश्वर की व्याख्या नहीं की तो ब्राह्मण वाद ने उन्हें नास्तिक घोषित कर दिया ।
महात्मा बुद्ध परलोक और पुनर्जन्म को मानते थे ,
इससे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता।
परन्तु उन्होनें स्वर्ग और नरक का खण्डन किया
परन्तु कालान्तरण रूढ़िवादी पुरोहितों ने बौद्ध धर्म को भी ब्राह्मण वाद की चपेट में ले लिया।
अब
इसलिये उन्हें सिद्ध करने के लिए अनेक प्रमाण देना अनावश्यक है।
प्रथम प्रमाण के रूप में धम्मपद के जरावग्गो श्लोक (संख्या 153)
‘अनेक जाति संसारं, सन्धाविस्सं अनिन्विस।
गृहकारकं गवेस्संतो दुक्खा जाति पुनप्पुनं।।’
इसी श्लोक में महात्मा बुद्ध ने कहा है , कि अनेक जन्मों तक मैं संसार में लगातार भटकता रहा।
गृह निर्माण करनेवाले की खोज में।
बार-बार जन्म दुःखमय हुआ।
श्लोक का यह अर्थ महाबोधि सभा, सारनाथ-बनारस द्वारा प्रकाशित श्री अवध किशोर नारायण द्वारा अनुदित धम्मपद के अनुसार है।👇
दूसरा प्रमाण ब्रह्मजाल सुत्त का है ,
जहां महात्मा बुद्ध ने अपने लाखों जन्मों के चित्तसमाधि आदि के द्वारा स्मरण का वर्णन किया है।
उन्होंने कहा है–भिक्षुओं !
कोई भिक्षु संयम, वीर्य, अध्यवसाय,
अप्रमाद और स्थिर चित्त से उस प्रकार की चित्त समाधि को प्राप्त करता है ।
जिस समाधि को प्राप्त चित्त में अनेक प्रकार के जैसे कि एक सौ, हजार, लाख, अनेक लाख पूर्वजन्मों की स्मृति हो जाती है— “मै इस नाम का, इस गोत्र का, इस रंग का, इस आहार का, इस प्रकार के सुखों और दुःखों का अनुभव करनेवाला और इतनी आयु तक जीनेवाला था।
सो मैं वहां मरकर वहां उत्पन्न हुआ।
वहां भी मैं इस नाम का था।
सो मैं वहां मरकर यहां उत्पन्न हुआ“ इत्यादि
तीसरा प्रमाण धम्मपद के उपर्युक्त वर्णित श्लोक का है जिसमें गृहकारक के रूप में आत्मा का निर्देश किया गया है।
श्लोक है- ’गह कारक दिट्ठोऽसि पुन गेहं न काहसि। सब्वा ते फासुका भग्गा गहकूटं विसंखितं। विसंखारगतं चित्तं तण्हर्निं खयमज्झागा।।‘
इस श्लोक के अनुवाद में इसका अर्थ दिया गया है कि हे गृह के निर्माण करनेवाले!
मैंने तुम्हें देख लिया है, तुम फिर घर नहीं बना सकते। तुम्हारी कडि़यां सब टूट गईं, गृह का शिखर गिर गया। चित्त संस्कार रहित हो गया, तृष्णाओं का क्षय हो गया।
बुद्ध स्वयं कहते हैं—“ब्रह्मभूतो अतितुलो मारसेन प्पमद्दनो।
सब्वा मित्ते बसीकत्वा, मोदामि अकुतोभयो।।“
अर्थात् –मैं अब ब्रह्म पद को प्राप्त हुआ हूं, मेरी तुलना अब किसी से नहीं है, मैंने मार (कामदेव) की सेना को मर्दित कर दिया है।
चित्त की प्राकृतिक वृत्तियों का विरोध कर लिया है । अन्यत्र ---- भगवान बुद्ध ने धम्मपद में स्वयं कहा है–’न तेन अरियो होति, येन पाणानि हिंसति।
अहिंसा सबपाणानं, अरियोति पवुच्चति।।‘
(धम्मपद श्लोक 270, धम्मट्ठवग्गो 15) अर्थात् प्राणियों का हनन कर कोई आर्य नहीं होता, सभी प्राणियों की हिंसा न करने से उसे आर्य कहा जाता है।
(सत्नसुधा कानपुर बुद्ध जयन्ती अंक मई 1950 पृष्ठ 10-11)।
सारनाथ में महात्मा बुद्ध ने जो उपदेश दिया उसमें उन्होंने कहा—“अहं भिक्खवे!
तथागत सम्मासम्बुद्धो उदूहथ भिक्खवे। सोतं अमतं अधिगतम् अहमनुसासामि अहं धम्र्मं देसेमि।“
अर्थात् भिक्षुओं !
मैं अब बुद्ध हो गया हूं।
मैंने ‘अमृत’ की प्राप्ति कर ली है।
अब मैं धर्म का उपदेश करता हूं।
धम्मपद श्लोक 160 (अत्तवग्गो 4)
“अत्ताहि अत्तनो नथो को हि नाथो परो सिया अत्तनां व सुदन्तेन, नाथं लभति दुल्लभं।।
“ यहाँ ईश्वर की सत्ता को महात्मा बुद्ध स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हुए कहते हैं कि आत्मा ही आत्मा का नाम है और कौन उस (परमात्मा) से बड़ा नाथ व स्वामी हो सकता है।
अच्छी प्रकार मन की वृत्ति का दमन कर लेने से दुर्लभ नाथ (परमात्मा) की प्राप्ति होती है।
‘नाथं लहति दुल्ल्भं’ यह शब्द अत्यन्त स्पष्टरूप से दुर्लभ नाथ (ईश्वर ) का निर्देश करते हैं।
अत: राम बुद्ध को कभी भी चौर अथवा नास्तिक
नहीं कह सकते हैं ।
सारी हास्यास्पद बातें हैं !
यदि बुद्ध नास्तिक होते तो अनैतिकताओं के उपदेश की क्या अनिवार्यता थी ।
चित्त -वृत्ति निरोध और साधनाओं की क्या आवश्यकता थी ?
विचार करें !
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उत्तर काण्ड में तपस्या (कर्म ) शम्बूक करता है ।
और फल ('दण्ड')ब्राह्मण बालक को मिलता है ।
अर्थात् उसकी मृत्यु हो जाती है ।
निश्चित रूप से ये ये आख्यान कर्म सिद्धान्त की
धज्जियाँ उड़ाता है ।
अब आप ही बताएें कि यहाँ कर्मवाद के सिद्धान्त की अवहेलना नहीं है तो क्या है ?
अर्थात् कर्म कोई करता है और फल किसी को मिलता है ।
ये किस दर्शन का सिद्धान्त है ।
यह तो प्रकृति का सिद्धान्त भी नहीं है।
निश्चित रूप से राम-कथा पर आधारित यह उत्तर काण्ड पूर्ण रूपेण असंगत व विरोधाभासी एवम् प्रक्षिप्त (नकली) ही है ।
जिसे राम से सम्बद्ध कर सत्य और प्रमाणित करने के लिए रूढ़िवादी पुरोहितों द्वारा सम्पादित किया गया था।
देखें--- उत्तर काण्ड के वही श्लोक :- जो राम द्वारा शम्बूक वध से सम्बद्ध है ।
कितने कृत्रिम व अस्वाभाविक हैं ।
उत्तरकाण्ड सर्ग ७५.
●तस्मिन्सरसि तप्यन्तं तापसं मुमहत्तपः |
ददर्श राघवः श्रीमाँल्लम्बमानमधोमुखं ||
उत्तरकाण्ड,सर्ग ७५.१४||
▬ श्री रामचंद्रजी ने एक ऐसे तपस्वी को देखा, जो नीचे को मुख कर लटकता हुआ, तपस्या कर रहा था || उत्तरकाण्ड,सर्ग ७५.१४||
●राघवस्तमुपागम्य तप्यन्तं तप उत्तमं |
उवाच च नृपो वाक्यं धन्यस्त्वमसि सुब्रत ||
उत्तरकाण्ड,सर्ग ७५.१५||
▬ रामचंद्र उस उत्तम प्रकार से तप करने वाले के पास जा कर कहने लगे -हे सुब्रत ! धन्य है तुमको ||
उत्तरकाण्ड,सर्ग ७५.१५||
●कस्यां योन्यां तपोव्रद्ध वर्तसे दृढविक्रम | कौतुहलात्वां पृच्छामि रामो दाशरथिर्हह्रम् || उत्तरकाण्ड,सर्ग ७५.१६||
▬हे दृढविक्रमी तपोवृद्ध ! भला यह तो बतलाओ की तुम्हारी जाति कौनसी है ? तुमसे यह मैं कौतुहलवश पूछ रहा हूँ |
मैं महाराज दशरथ का पुत्र हूँ और मेरा नाम ‘राम’ है || उत्तरकाण्ड,सर्ग ७५.१६||
●कोsर्थो मनिपी तस्तुभ्यं स्वर्गलाभों परोथ वा |
वराश्रयो यदर्थ त्वं तपस्यन्यैः सुदुष्चरम् || उत्तरकाण्ड,सर्ग ७५.१७||
▬ तुम यह तप किसलिए करते हो । अथवा तुम्हारा अभीष्ट क्या है ? तुम चाहते क्या हो ? क्या तुम्हारी इच्छा स्वर्ग जाने की है ?
अथवा किसी दूसरे घर की अभिलाषा से ऐसा उत्तम तप कर रहे हो ? || उत्तरकाण्ड,सर्ग ७५.१७||
यमाश्रित्य तपस्तप्तं श्रोतुमिच्छामि तापस |
ब्राहमणों वासि भद्रं ते क्षत्रियो वासि दुर्जयः | वैश्यतृतीयो वर्णों वा शुद्रो वा सत्यवाग्भव || उत्तरकाण्ड,सर्ग ७५.१८||
▬ तुम जिस उद्देश्य से यह तप कर रहे हो, उसे मैं जानना चाहता हूँ | सच-सच बतलाओ की तुम ब्राह्मण हो, या दुर्जेय क्षत्रिय हो ? या वैश्य हो या शुद्र हो ? ||
उत्तरकाण्ड,सर्ग ७५.१८||
●इत्येवमुक्तः स नराधिपेन, अवाक्शिरा दाशरथाय तस्मै | उवाच जातिम् नृपपुन्ग्वाय, यत्कारणं चैव तपःप्रयत्नः ||
उत्तरकाण्ड,सर्ग ७५.१९||
▬ जब महाराज रामचंद्र ने इस प्रकार कहा, तब नीचे से मुख किये तपस्या करने वाले तपस्वी ने रामचंद्र से अपनी जाति और तपस्या करने का उद्देश्य बतलाया || उत्तरकाण्ड,सर्ग ७५.१९||
●शुद्रयोन्यां प्रजातोअस्मि तप उग्रं समास्थितः |
देवत्वं आर्याये राम सशरीरो महायशः || उत्तरकाण्ड,सर्ग ७६.२||
▬हे राम ! मैं शूद्र हूँ ! शूद्र कुल में मेरा जन्म हुआ है |
मैं इसी शरीर से दिव्यत्व प्राप्त करने की इच्छा से ऐसा उग्र तप कर रहा हूँ || उत्तरकाण्ड,सर्ग ७६.२||
●न मिथ्याद्म वदे राम देवलोक जिगीषया |
शूद्रं मां विद्धि काकृत्स्थ शम्भुको नाम नामतः ||
उत्तरकाण्ड,सर्ग ७६.३||
▬ हे प्रभो !
मैं देवलोक जाना चाहता हूँ |
अतः मैं झूठ नहीं बोलता |
मुझे आप शूद्र जानिए |
मेरा नाम शम्भुक है ||
उत्तरकाण्ड,सर्ग ७६.३|| ****************************************** ●भाषतस्तस्य शूद्रस्य खगं सुरुचिप्रभं |
निष्कृत्य कोशाद्विमलं शिरच्छेद्म राघवः ||
उत्तरकाण्ड,सर्ग ७६.४||
▬ उस शूद्र के मुख से यह वचन सुनते ही रामचंद्र ने चमचमाती हुई तलवार म्यान से खींच ली और उससे उस शुद्र का सिर काट डाला ||
उत्तरकाण्ड,सर्ग ७६.४||
●तस्मिंशुद्रे हते देवाः सेन्द्राः साग्निपुरोगमाः |
साधू साध्विति काकृत्स्यं ते शशम्भुर्मुहुर्मुहुः ||
उत्तरकाण्ड,सर्ग ७६.५||
▬उसका सिर कटते ही इंद्र और अग्नि सहित समस्त देवता “धन्य-धन्य” कह कर रामचंद्र की बारम्बार प्रशंसा करने लगे ||
उत्तरकाण्ड,सर्ग ७६.५||
●पुष्पवृष्टिर्महत्यासीद्द्व्यानां सुसुगंधिनाम् |
पुष्पाणाम् वायुमुक्तानां सर्वतः प्रपात ह ||
उत्तरकाण्ड,सर्ग ७६.६||
▬ उसी समय दिव्य सुगन्धित पुष्पों की वृष्टि हुई |
वायु से गिराये हुए फूल चारों और बिखर गये || उत्तरकाण्ड,सर्ग ७६.६||
●सुप्रीताश्चाब्रुवनरामं देवा सत्यपराक्रमम् |
सुरकार्यमिदम् देव सुकृतं ते महायते ||
उत्तरकाण्ड,सर्ग ७६.७||
▬ सत्यपराक्रमी रामचंद्र से प्रसन्न हो कर समस्त देवता कहने लगे – हे महामते | आपने देवताओं का यह बड़ा कार्य सिद्ध कर दिया || उत्तरकाण्ड,सर्ग ७६.७||
●गृहाणम् च वरं सौम्य यं त्वमिच्छ्स्यरिन्दम |
स्वर्गभांग नहि शुद्रोयं त्वत्कृते रघुनंदन ||
उत्तरकाण्ड,सर्ग ७६.८ ||
▬ हे शत्रुतापन सौम्य श्रीरामचन्द्रजी !
आपकी कृपा से ही यह शूद्र जाति का मनुष्य हमारे स्वर्ग में नहीं आने पाया |
हे अरिनंदन ! अतः आप जो चाहते हो सो हमसे वर माँगिए || उत्तरकाण्ड,सर्ग ७६.८||
●देवानां भाषितं श्रुत्वा रामः सत्यपराक्रमः |
उवाच प्राज्ज्वलिर्वाक्यं सहस्त्राक्षम् पुरन्दरम् ||
उत्तरकाण्ड,सर्ग ७६.९||
▬सत्यपराक्रमी श्रीरामचंद्रजी ने देवताओं का यह कथन सुनकर व हाथ जोड़कर इन्द्र से कहा ||
उत्तरकाण्ड,सर्ग ७६.९||
●यदि देवाः प्रसन्ना में द्विज्पुत्रः स जीवतु |
दिशन्तु वरमेतं मे ईप्सितं परमं मम ||
उत्तरकाण्ड,सर्ग ७६.१०||
▬यदि आप सब देवता मेरे ऊपर प्रसन्न हैं ।
तो मुझे यहीं वर दीजिये की यह ब्राहमण-बालक जी उठे | ---------------------------------------------------------------- वस्तुत: यह विक्षिप्तताऐं बुद्ध के परवर्ती काल खण्ड में शूद्रों को हेय व निम्न घोषित करने की दृष्टि से पुष्य-मित्र सुंग ई०पू०१८४ के द्वारा उसके निर्देशन में कुछ तथाकथित रूढ़िवादी ब्राह्मण समाज द्वारा राम-कथा से सम्बद्ध कर दी गयी है ।
परन्तु ध्यान रखना चाहिए कि इसके लिए सम्पूर्ण ब्राह्मण समाज दोषी नहीं है ।
क्योंकि उपनिषदों का यथार्थ तत्व ज्ञान प्रकाशित करने वाले भी ब्राह्मण ही थे !
प्रत्येक समाज में कुछ व्यक्ति दोषी हो सकते हैं।
परन्तु हम सम्पूर्ण समाज को दोष नहीं दे सकते हैं ।
🛃.⚜⚜ ⚜⚜
भागवत धर्म एवं उसके सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाला एक मात्र ग्रन्थ श्रीमद्भगवद् गीता थी ।
--जो उपनिषद् रूप है ।
परन्तु पाँचवी शताब्दी के बाद से
अनेक ब्राह्मण वादी रूपों को समायोजित कर चुका है --जो वस्तुत भागवत धर्म के पूर्ण रूपेण विरुद्ध व असंगत हैं ।
--जो अब अधिकांशत: प्रक्षिप्त रूप में महाभारत के भीष्म पर्व में सम्पादित है।
यद्यपि इसे महाभारत के शान्ति पर्व में समायोजित किया जाना चाहिए था।
क्यों कि वर्तमान श्रीमद्भगवद् गीता पाँचवीं सदी के वाद की रचना है ।👇
अधेष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो: श्रीमद्भगवद् गीता 18/70 अर्थात् --जो हम दौनों के इस धर्म-संवाद को पढ़ेगा यहाँं यदि कृष्ण अर्जुुन को उपदेश देते ;
तो इस प्रकार श्लोकाँश होता -- श्रोष्यति च य इमं धर्म्यं संवादमावयो: जो हमारे इस संवाद को सुनेगा !
यदि आप मानते हो कि गीता उपदेशात्मक है तो इसमें सुनने की बात होती परन्तु इसमें तो पढने की बात है
सीधी सी बात है ये ब्राह्मण वाद की क्षत्र-छाया में बाद में लिखी गयी है
दूसरा प्रमाण कि श्रीमद्भगवद् गीता में -ब्रह्म-सूत्रपदों का वर्णन है ।
जिसमें बौद्ध दर्शन के चार सम्प्रदायों :-
१-वैभाषिक
२- सौत्रान्तिक
३-योगाचार
४- माध्यमिक का खण्डन है ।
क्यों कि बुद्ध ने ब्राह्मण वाद पर आघात किया तो ब्राह्मणों ने भी बुद्ध के सिद्धान्तों का विरोध करना प्रारम्भ कर दिया
योगाचार और माध्यमिक इन बौद्ध बौद्ध सम्प्रदायों का विकास 350 ईस्वी सन् के समकक्ष "असंग " और वसुबन्धु नामक बौद्ध भाईयों ने किया ।
और -ब्रह्म-सूत्रपदों की रचना बुद्ध के बाद पाँचवीं सदी में हुई ।
अत: मूल श्रीमद्भगवद् गीता के कुछ आध्यात्मिक श्लोकों के रूप ही कृष्ण के सिद्धान्तों का सीर हैं ।
बाद बाकी तो अलग से समायोजित है ।
यद्यपि कालान्तरण में वर्ण- व्यवस्था वादी ब्राह्मणों ने इसमें वर्ण-व्यवस्था के अनुमोदन हेतु कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों का समायोजन भी कर दिया है ; जो कि स्पष्ट रूप से चिन्हित हैं ।👇
यज्ञ भी भागवत धर्म का अंग नहीं हैं क्यों यज्ञ केवल ब्राका कर्म--काण्डों मूलक पैतृिक परम्परा गत धर्म के नाम पर व्यवसाय मात्र है ।
क्यों कि ईश्वर कर्म काण्ड या यज्ञ से प्रेरित नहीं होता
'वह केवल भाव शुद्धि से प्राप्ति होता है ।
श्रीमद्भगवत् गीता केवल
आध्यात्मिक साधना-पद्धति मूलक ग्रन्थ है ।
कर्म काण्ड आध्यात्मिक साधना-पद्धति के अंग नहीं हैं
श्रीमद्भगवत् गीता कर्म का ही प्रादुर्भाव
इस प्रकार से निरूपिय करता है 👇
अहं कर्म रूपी वृक्ष का आधार स्थल है ।
क्यों कि अहंकार से संकल्प उत्पन्न होता है ।
स्व का भाव ही वास्तविक आत्मा का सनातन रूप जिसे स्वरूप कह सकते हैं ।
और अहं ही जीवन की पृथक सत्ता का द्योतक रूप है ।
जैसे- संकल्प ज्ञान पूर्वक लिया गया निर्णीत बौद्धिक दृढ़ता और हठ अज्ञानता पूर्वक लिया गया मानसिक दृढ़ता है ।
परन्तु संकल्प अज्ञानता के कारण ही हठ में परिवर्तित हो जाता है ।
और इसी संकल्प का प्रवाह रूप इच्छा में रूपान्तरित हो जाती है ।
और यह इच्छा ही प्रेरक शक्ति है कर्म की
कर्म इस जीवन और संसार का सृष्टा है।
महापुरुष बोले कि ये इच्छा क्यों उत्पन्न होती है ।
जब हमने थोड़ा से मनन किया तो हम्हें लगा कि इच्छा
संसार का सार है संसार में मुझे द्वन्द्व ( दो परस्पर विपरीत किन्तु समान अनुपाती स्थितियाँ अनुभव हुईं
मुझे लगा कि "समासिकस्य द्वन्द्व च"
ये श्रीमद्भगवत् गीता का यह श्लोकाँश पेश कर दो इन विद्वानों के समक्ष
मैंने कह दिया कि जैसे- नीला और पीला रंग मिलकर हरा रंग बनता है ।
उसी प्रकार ऋणात्मक और धनात्मक आवेश
ऊर्जा उत्पन्न करते हैं ।
मुझे लगा कि अब हम सत्य के समीप आचुके हैं
मैने फिर कह दिया की काम कामना का रूपान्तरण है
पुरुष को स्त्रीयों की कोमलता में सौन्दर्य अनुभूति होती तो उनके हृदय में काम जाग्रत होता है ।
और स्त्रीयों को पुरुषों की कठोरता में सौन्दर्य अनुभूति होती है।
क्यों कि कोमलता का अभाव पुरुष में होने से 'वह कोमलता को सुन्दर मानते हैं ।
और स्त्रीयों में कठोरता का अभाव होने से ही वे मजबूत व कठोर लोगो को सुन्दर मानते हैं ।
और केवल जिस वस्तु की हम्हें जितनी जरूरत होती है ;
वही वस्तु हमारे लिए उतनी ही ख़ूबसूरत है।
वस्तुत : यहाँं भी द्वन्द्व से काम या कामना का जन्म हुआ है ।
और कामनाओं से प्रेरित होकर मनुष्य कर्म करता है ।
👑👑👑
मनुष्यों के ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जीवों के अस्तित्व का कारक ही कर्म है ।
स्वयं महात्मा कृष्ण ने श्रीमद्भगवद् गीता में कहा :-
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठति अकर्मकृत् कार्यते हि अवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर् गुणैः।।5।। ____________________________________
अर्थात् कोई भी प्राणी विना कर्म किए अपने जीवन का निर्वहन नहीं कर सकता है ।
वस्तुत हृदय का स्पन्दन तथा प्राणी समुदाय का श्वाँस-प्रवाह कर्म का ही परिवर्तन रूप है।
" दार्शिनिक दृष्टि से समय का गुण परिवर्तन है ,और कर्म भी परिवर्तन का मूर्त( साकार ) रूप इसके लिए यह उपमा सार्थक है।💥
_____________________________________________
यदि संसार वृक्ष के समान है, तो जीवन एक फल है ।
तथा इस वृक्ष का फूल (पुष्प ) मनुष्य की आयु जीवन और आयु का सम्बन्ध भी है
जैसे पुष्प में गन्ध और पराग सम्पूरक रूप में समायोजित हैं ।
उसी प्रकार समय और परिवर्तन हैं ।
क्योंकि परिवर्तन का कारण समय तत्व है ।
और पुष्प-रस ( मकरन्द) ही कर्म रूप है ।
मनुष्यों का समुदाय कर्म कामनाओं से प्रेरित होकर करता है ।
और यही कामनाऐं ( इच्छाऐं ) मनुष्यों के पुनर्जन्म का अपरिहार्य कारण हैं ।
कामनाओं के मूल में भी संकल्प है , और संकल्प के मूल में अहं वृत्ति -- अहंकार में जब अज्ञानता का प्राधान्य होता है ।
तब मनुष्य वासनाओं ( बुरी इच्छाओं) का दास वन जाता है ।
परन्तु स्वत्व की वृत्ति अहंवृत्ति नहीं है ।
केवल अपने अस्तित्व की बोधक है ।
कर्म की गति गहन है कर्म को भारतीय मनीषा तीन रूपों में विभाजित करती है । _________________________________________
मनुष्यों के ही नहीं अपितु सम्पूर्ण जीवों के अस्तित्व का कारक ही कर्म है ।
स्वयं महात्मा कृष्ण ने श्रीमद्भगवद् गीता में कहा :-
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठति अकर्मकृत् कार्यते हि अवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर् गुणैः।।5।। ___________________________________________
अर्थात् कोई भी प्राणी विना कर्म किए अपने जीवन का निर्वहन नहीं कर सकता है ।
वस्तुत हृदय का स्पन्दन तथा प्राणी समुदाय का श्वाँस-प्रवाह कर्म का ही परिवर्तन रूप है।
" दार्शिनिक दृष्टि से समय का गुण परिवर्तन है ,और कर्म भी परिवर्तन का मूर्त( साकार ) रूप इसके लिए यह उपमा सार्थक है।💥
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यदि संसार वृक्ष के समान है, तो जीवन एक फल है ।
तथा इस वृक्ष का फूल (पुष्प ) मनुष्य की आयु जीवन और आयु का सम्बन्ध भी है ।
जैसे पुष्प में गन्ध और पराग सम्पूरक रूप में समायोजित हैं ।
उसी प्रकार समय और परिवर्तन हैं ।
क्योंकि परिवर्तन का कारण समय तत्व है ।
और पुष्प-रस ( मकरन्द) ही कर्म रूप है ।
मनुष्यों का समुदाय कर्म कामनाओं से प्रेरित होकर करता है ।
और यही कामनाऐं ( इच्छाऐं ) मनुष्यों के पुनर्जन्म का अपरिहार्य कारण हैं ।
कामनाओं के मूल में भी संकल्प है , और संकल्प के मूल में अहं वृत्ति -- अहंकार में जब अज्ञानता का प्राधान्य होता है ।
तब मनुष्य वासनाओं ( बुरी इच्छाओं) का दास वन जाता है ।
परन्तु स्वत्व की वृत्ति अहंवृत्ति नहीं है । केवल अपने अस्तित्व की बोधक है ।
कर्म की गति गहन है कर्म को भारतीय मनीषा तीन रूपों में विभाजित करती है । _________________________________________
१-संचित कर्म है।
इसका अनुभव प्राप्त करना और एक ही जीवन में सभी कर्मों का फल भोगना असम्भव है।
सञ्चित कर्म के इस भण्डार से पूरे एक जीवन के लिए मुट्ठी भर निकाल लिया जाता है ।
और यह मुट्ठी भर कर्म, जो कि फल को भोगना शुरू कर देता है ।
और उसका फल भोग लेने के बाद वह समाप्त हो जाता है ,
और दूसरे प्रकार से नहीं रहता है, यह प्रारब्ध कर्म के रूप में जाना जाता है।
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प्रारब्ध शब्द का अर्थ है :- प्रारम्भिक रूप में जो प्राप्त हुआ है।
(प्रकृष्टमारब्धं स्वकार्य्यजननायेति )
प्रालब्धम् ।
शरीरारम्भकादृष्टविशेषः अर्थात् जीवन कार्य हेतु प्रारम्भिक रूप" यथा --
प्रारब्धकर्म्मणां भोगादेव क्षयः ॥
“ इति स्मृतिः ।
“ प्रारब्धमश्नन्नभिमानशून्यः ।
“ इति श्रीभागवतम् ॥
“ प्रारब्धकर्म्मविक्षेपाद्बासना तु न नश्यति ॥
“ इति भगवद्गीतायां मधुसूदनसरस्वती च ॥
(प्र आ रभ् कर्म्मणि क्तः ।
कृतारम्भे त्रि । यथा :- रघौ । १४ । ७ ।
“ अथाभिषेकं रघुवंशकेतोः प्रारब्धमानन्दजलैर्जनन्योः । निर्वर्त्तयामासुरमात्यवृद्धास्तीर्थाहृतैः
काञ्चनकुम्भतोयैः “ )
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प्रारब्ध फल-वहन करनेवाला कर्म सञ्चित कर्म का ही भाग होता है ।
जो पक जाते ही वर्तमान जीवन में विशेष घटना के रूप में प्रकट होता है।
क्रियमाण वह सबकुछ है जो हम वर्तमान जीवन में करते हैं।
किया जाता हुआ कर्म क्रियमाण है !
सभी क्रियमाण कर्म संचित कर्म में प्रवाहित होते है !और फलस्वरुप हमारे भविष्य का आकार ग्रहण करते है।
केवल मानव जीवन में ही हम अपने भावी भाग्य को बदल सकते हैं।
अन्य योनियाँ ( शरीर )तो भोग योनियाँ हैं। मृत्यु के बाद हमारी क्रिया शक्ति (काम करने की क्षमता) समाप्त हो जाती है ।
और तब तक कार्य (क्रियमाण) करते हैं जब तक कि पुन: मानव देह में जन्म नहीं होता ।
सचेत होकर किए गए कार्य कहीं अधिक गम्भीर होते हैं, बजाए बिना सोचे-समझे किए गए कर्मों के उदाहरण- " यदि कोई व्यक्ति मार्ग में चलता है , और चलते हुए अचानक कोई चींटी अथवा प्राणी पैर से कुचल कर मर जाता है ।
तो निश्चित रूप से इसमें मार्ग में चलने वाले का कोई पाप नहीं , यह तो काल से प्रेरित होकर प्राणी चींटी आदि उसके पैर के नीचे दब - कुचल कर मर जाता है । अर्थात् काल को भाग्य प्रेरित करता है ।
विष वाला उदाहरण- यहाँ असंगत व अमान्य है ।
यदि कोई अनजाने में भी विष खाले तो उसकी मृत्यु होगा ही और जान कर खाए तब भी , यहाँ विष और कर्म का मेल असंगत है क्योंकि कर्म का मूल मन है नकि तन तन तो मन का ही आदेश पावन करता है ।अत: दूत का दोष नहीं !
केवल मनुष्य ही उचित अनुचित का भेद करते हुए (क्रियमाण) कर्म कर सकता है।
पशु पक्षी कीड़े - मकोड़े और छोटे बच्चे नए कर्म की रचना नहीं करते हैं ।
(इसीलिए अपने भावी नियति को प्रभावित नहीं कर सकते हैं) कर्म चेतना के संयोजन एवं मन की अहंत्ता पूर्ण वृत्ति से ही मान्य है ।
क्योंकि तब हम सही और गलत का अन्तर करने में अक्षम होते हैं।
यद्यपि , सभी संवेदनशील जीव कर्म के प्रभाव को समझ सकते हैं ।
क्योंकि संवेदना चेतनाओं के आनुषंगिक है ।
आनंद और पीड़ा में जिसका अनुभव किया जाता है। संचित कर्म का भंडार जब तक चलता रहता है, तब तक प्रारब्ध कर्म के रूप में इसके एक भाग के सुख का एक जीवन में लिया जाना जारी रहता है, जो जन्म एवं मृत्यु के चक्र की ओर ले जाता है।
एक जीव को जन्म और मृत्यु के चक्र से (मुक्ति) तब तक प्राप्त नहीं हो सकती, जब तक कि संचित कर्म पूरी तरह से समाप्त न हो जाएँ कर्म का आधार मनुष्यों की इच्छाऐं ही हैं ।
अत: कृष्ण ने श्रीमद्भगवद् गीता में कहा _________________________________________________
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्
मा कर्म फल हेतुर् भूमा संगोSस्त्व कर्मणि ।।
अर्थात् कर्म करने में ही अधिकार है ।
कर्म फल की इच्छा मत कर , क्योंकि इच्छाऐं मनुष्यों के पुनर्जन्म का अपरिहार्य कारण हैं ।
पृथ्वी पर जन्म और मृत्यु का चक्र असंख्य योनियों में चलता रहता है , अनादि काल तक , और उनमें से केवल एक मनुष्य योनि है।
केवल मनुष्य के रूप में, उचित समय पर उचित कर्म कर हम अपनी नियति (भाग्य) के बारे में कुछ करने की स्थिति में होते हैं। सकारात्मक कर्मों, शुद्ध विचारों, प्रार्थना, मन्त्र और ध्यान के माध्यम से, हम वर्तमान जीवन में कर्म के प्रभाव को सुलझाने और भाग्य को उन्नत बनाने के लिए उसे बदल सकते हैं।
आस्तिकवाद मत के अनुयायी सृष्टि के चक्रों में विश्वास करते हैं।
जहां आत्मा एक अबौद्धिक वस्तु के रूप में केवल भगवान की इच्छा पर निर्भर होकर कर्म के आधार पर शरीर विशेष की ओर आकर्षित होती है।
उदाहरण के लिए, कौशितकी उपनिषद 1.2 कहता है:- कि कृमि, कीड़े-मकौड़े, मछली, पंक्षी, सिंह, सुअर, सांप या मानव जैसे जीवन का विभिन्न अवस्था में जन्म लेना व्यक्ति द्वारा किए गए कार्यों और ज्ञान द्वारा निर्धारित होता है।
चंडोज्ञ उपनिषद (5.10.7 )ने अच्छे जन्म, जैसे कि आध्यात्मिक परिवार में जन्म, अर्थात अर्थात् ब्रह्म को जानने वाले मनीषियों के घर में जन्म अथवा बुरा जन्म, जैसे कि कुत्ता या सुअर के रूप में जन्म लेने के बीच के अन्तर को बताता है।
इस प्रकार, विभिन्न तरह के जीवन क्यों दिखाई पड़ते हैं, मन की संस्कार भिन्न होने से ही प्राणी की अनेक रूपताऐं हैं ।
विभिन्न प्रजातियों के पेड़-पौधों से लेकर अलग-अलग तरह के पशुओं जैसे जैविक विकास के अलग-अलग स्तरों के विशाल क्षेत्र का चरित्र-चित्रण करने के लिए कर्म का सिद्धांत आता है ।
क्योंकि मनुष्यों की चेतना का स्तर तत्व ज्ञान के अानुपातिक रूप में विकसित होता है ।
मनुष्यों की साधनाओं की श्रृँखला अनेक जन्मों तक अनवरत चलती रहती है ।
और उन्नत चेतना ही किसी की श्रेष्ठता का आधार बनती है नकि जन्म मात्र ।
जन्म का सिद्धान्त जब उन्नत चेतना से अनुप्राणित होता है तब ही मान्य है अन्यथा नहीं । और मानव जैसे एक ही तरह की प्रजाति के विभिन्न सदस्यों के अन्तर को भी यह स्पष्ट करता है। जैसे सभी स्त्रीयाँ एक ही वृत्ति वाली होती हैं ।
कोमलता , भावनात्मकता , आदि जबकि पुरुषों की वृत्ति कठोरता , तथा वैचारिकताआदि है ।
परन्तु स्वभाव सभी स्त्रीयों और पुरुषों के उनके कर्म और संस्कारों का प्रकाशन हैं ।
वृत्तियों का निर्माण प्राणी के योनि गत अथवा शरीर गत रूप से होता है ।
जैसे सभी पक्षी स्वत: ही उड़ने लगते हैं ।
कुत्ते सभी टाँग उठाकर ही लघु- शंका करते हैं ।
कुत्ते की वृत्तियाँ तो समान होती हैं
स्व भाव भिन्न होते हैं ।
इसी प्रकार, अनेक उपनिषदों का कहना है ,
कि कर्म के आधार पर जाति विशेष में जन्म होता है, कहा जाता है जिसने अच्छे कर्म किए हैं उनका जन्म धर्मपरायण परिवार में होता है, ।
जिसे ब्राह्मण कह सकते हैं ।
💥ब्राह्मण शब्द का अर्थ "ब्रह्म जानाति इति ब्राह्मण: कथ्यते" अर्थात् जो ब्रह्म को जानने वाला है ।
यद्यपि ब्राह्मण का मौलिक अर्थ मन्त्र 'पाठ करने वाला है ।
परन्तु परवर्ती काल खण्ड में ब्रह्म से सम्बद्ध कर दिया गया।
ब्रह्म उस अनन्त अखण्ड सत्ता का वाचक है ,
जो सर्वत्र व्याप्त है , समान रूप से ।
जन्म से कोई ब्राह्मण नहीं हो सकता है ।
केवल ज्ञान और कर्म की उच्चता ही उसे ब्राह्मण बना सकती है ।
अच्छे कर्मों करनेवालों का जन्म धर्मपरायण परिवार में होता हैं, जहां उसके भविष्य की नियति ( निश्चितता )वर्तमान जीवन में उसके आचरण और किए गए कार्यों द्वारा निर्धारित होगा।
श्रीमद्भगवद् गीता में कृष्ण ने कहा कि ब्राह्मण के अभिलक्षण उसके आचरण द्वारा निर्धारित होते हैं, न कि जन्म द्वारा ।
महात्मा बुद्ध भी यही प्रतिपादित करते हैं ।
कर्म और उसके फल का अनिवार्य संबंध है। व्यक्ति अच्छे और बुरे जो भी कर्म करता है उसके अनुरूप भविष्य में उसे सुख अथवा दु:ख की प्राप्ति होती है। इसी को कर्मसिद्धांत अथवा कर्मवाद कहते हैं। चार्वाक के अतिरिक्त अन्य सभी भारतीय दर्शन कर्मवाद का एक स्वर से प्रतिपादन करते हैं और इसको जीवन के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। __________________________________________
कर्मवाद और नैतिक सम्पूरकत्व --- कर्म का शाश्वत् तथा सार्वभौमिक नियम जगत् की नैतिक व्यवस्था का आधार है।
इसका और अधिक स्पष्ट रूप में प्रतिपादन उपनिषदों में किया गया है।
बृहदारण्यक के अनुसार मनुष्य का कर्म ही उसके साथ जाता है।
मन का जैसा चरित्र एवं व्यवहार होता है वह वैसा ही हो जाता है।
छान्दोग्य उपनिषद के अनुसार सुन्दर चरित्रवाले व्यक्ति अच्छी योनि( शरीर) प्राप्त करते हैं,
जैसे ब्रह्म- वेत्ता, आदि और निंद्य चरित्रवाले व्यक्ति नीच योनियों में जन्म लेते हैं, जैसे कुत्ते, सुअर, आदि।
कौषीतकी उपनिषद् में कर्मनियम का स्पष्ट उल्लेख है । कि जीव अपने कर्म और ज्ञान के अनुसार कीड़े, पतंगे, मछली, पक्षी, सिंह, सर्प और मनुष्य आदि योनियों में जन्म लेते हैं।
इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि जीवन में अव्यवस्था तथा संयोग के लिए कोई स्थान नहीं है।
प्राणियों का जन्म, उनका विकास, उनके सुख दु:ख आदि की अनुभूति कर्म के द्वारा नियंत्रित होती रहती है। उन्हें उनके कर्मानुसार फल की प्राप्ति अवश्य होती है। कर्म -नियम के जीवन की नैतिक व्यवस्था का आधार होने के कारण उससे अनेक समस्याओं का हल भी प्राप्त हो जाता है।
जीवन दु:खमय है।
वह अनेक प्रकार की बुराइयों तथा विषमताओं से भरा हुआ है इसी प्रकार अन्य भारतीय दर्शन भी दु:ख, असमानता, पुनर्जन्म आदि समस्याओं का समाधान कर्मसिद्धांत के द्वारा करते हैं। __________________________________________
(१-कर्मवाद और २-अदृष्ट, ३-अपूर्व, ४-आश्रव तथा ५-अविज्ञप्ति ) ________________________________________
कर्म और उसके फल का अनिवार्य सम्बन्ध मानने में एक तार्किक कठिनाई उपस्थित होती है।
वह यह है कि कर्म और उसके फल में बहुधा अधिक समय का अन्तर देखा जाता है।
यह भी संभव है कि वर्तमान जीवन में किए हुए कर्मों का फल मनुष्य को दूसरे जन्म में भोगना पड़े।
इस प्रकार समय का इतना अधिक अन्तर होने के कारण कर्म और फल का संबंध कैसे संभव है?।
परन्तु सभी फसलें निश्चित समय पर नहीं पकती हैं जल खाद आदि की आपूर्ति के अभाव में कुछ दिनों का अन्तर देखा जाता है ।
🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌱🌿🌿🌿🌿🌾..... भारतीय दर्शन अदृष्ट, अपूर्व, आश्रव तथा अविज्ञप्ति रूप आदि सिद्धांतों के द्वारा इस समस्या का हल प्रस्तुत करने का प्रयत्न करते हैं। _______________________________________________
न्यायदर्शन के अनुसार, व्यक्ति द्वारा किए हुए कर्मों से उत्पन्न पुण्य और पाप के समूह को अदृष्ट कहते हैं।
यह अदृष्ट आत्मा के साथ संयुक्त रहता है औरअवसर आने पर सुख दु:ख आदि फलों को उत्पन्न करता है।
जैन दर्शन में कर्म और फल के संबंध की व्याख्या जीव में पुद्गल कर्मों अथवा कर्म पुद्गल के आश्रव के सिद्धांत के द्वारा की गई है।
इसी प्रकार बौद्ध दर्शन के अनुसार प्राणियों के अंदर एक अत्यंत सूक्ष्म और अदृश्य शक्ति कार्य करती रहती है जिसे अविज्ञप्ति रूप कहते हैं ।
मनुष्य की उन्नति और अवनति के मूल में उसके कर्म की ही प्रधानता है।
जैसे-जैसे हम कर्म करते जाते हैं अभ्यास बढ़ता जाता है, वैसे ही वैसे हमारे मन पर हमारे द्वारा किए गए शुभ और अशुभ कर्मों की रेखाएँ अंकित होती जाती हैं।
उन्हीं के अनुरूप रुझान पैदा होता जाता है। फिर हम उसी रास्ते पर चल पड़ते हैं। वैसे ही कर्मों में हमारी रुचि बढ़ती जाती है।
संगी-साथी, सहयोगी भी हमें ऐसे ही विचार वाले मिलते हैं।
संस्कृत में एक श्लोक है ।
🐄🐄🐆
मृगा: मृगै: सङ्गमनुव्रजन्ति
गावश्च गोभिस्तुरगास्तुरङ्गैः |
मूर्खाश्च मूर्खैः सुधिय: सुधीभि:
समानशीलव्यसनेषु सख्यम् || ----------------------------------------------------------------
अर्थात् मृग मृगों के साथ चलता है ,गाय गायों के साथ मूर्खों के साथ मूर्ख विद्वान् विद्वान् के साथ ।
अर्थात् जिनकी प्रवृत्तियों और स्वभाव आदतें समान होती हैं वे ही मित्र होते हैं ।
मरते समय भी ऐसे ही विचार सूक्ष्म शरीर (अन्त: करण चतुष्टय) से समन्वित होकर निकल जाते हैं ।
यहाँ यह भी समझना उचित होगा कि मृत्यु के उपरान्त केवल हाड़-मांस का शरीर ही भस्मीभूत होता है ।
उसमें से मन और आत्मा अपने संस्कारों को साथ लेकर पहले ही विदा हो चुके होते हैं।
जब पुनर्जन्म होता है तो पिछले संस्कार के साथ होता है।
महात्मा कृष्ण का वचन है ।
कि :-
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वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि ग्रहणाति नरोSपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि
अन्यानि संयाति नवानि देही ।।
अर्थात् जैसे मनुष्य पुराने फटे हुए वस्त्रों को त्याग कर , नये वस्त्रों को धारण करते हैं ।
ठीक उसी प्रकार कर्म और चेतना के अनुरूप प्राणी (अात्मा)अन्य शरीर धारण करती है पुराने शरीर को त्याग कर । ________________________________________
(विचार-विश्लेषण - यादव योगेश कुमार 'रोहि')
सम्पर्क सूत्र 8077160219../