ऋग्वेद में असुर का अर्थ प्रज्ञावान और बलवान भी है
ऋग्वेद में ही वरुण को महद् असुर कहा इन्द्र को भी असुर कहा है
मह् पूजायाम् धातु से महत् शब्द विकसित हुआ
वह जो पूजा के योग्य है
फारसी जो वैदिक भाषा की सहोदरा है वहाँ महत् का रूप मज्दा हो गया है
सूर्य को उसके प्रकाश और ऊर्जा के लिए वेदों में असुर कहा गया
कृष्ण भी प्रज्ञावान थे और बलवान भी और फिर इन्द्र और कृष्ण का पौराणिक सन्दर्भ भी है तो वैदिक सन्दर्भ भी है
वेदों की रचना ईसा पूर्व बारहवीं सदी से लेकर ईसा पूर्व सप्तम सदी तक होती रही है
ऋग्वेद के कुछ मण्डल प्राचीन तो कुछ अर्वाचीन भी हैं
असुर शब्द एक रूप में न होकर दो रूपों में व्युपन्न है
प्रथम व्युत्पत्ति
असुरास्तद्विपरीताः स्वेष्वेवासुषु विष्वग्विषयासु प्राणनक्रियासु रमणात् स्वाभाविक्यस्तम आत्मिका इन्द्रियवृत्तय एव” जो स्वयं के प्राणों में ही रमण करता है वह असुर है
दूसरा परवर्ती अर्थ
यद्वा न सुरः विरोधे नञ्तत्- पुरुषः । यद्वा नास्ति सुरा यस्य सः अर्थात् जो सुर के विरोध में है अथवा जिसकी सुरा नहीं है वह असुर है ।
(वाल्मीकि रामायण बाल काण्ड )
में देवों (सुरों) को सुरापायी बताया गया है
सुराप्रतिग्रहाद्देवाःसुरा इत्यभिश्रुताः ।
अप्रतिग्रहणाच्चास्या दैतेयाश्चासुराः स्मृताः
कृष्ण का समय पुरातत्व -वेत्ता और संस्कृतियों के विशेषज्ञ (अरनेस्त मैके) ने ईसा पूर्व नवम सदी निश्चित की महाभारत भी तभी हुआ महाभारत में शक हूण और यवन आदि ईरानी यूनानी जातियों का वर्णन हुआ है
वेदों के पूर्ववर्ती सन्दर्भों में असुर और देव गुण वाची शब्द थे जाति वाची कदापि नहीं इसी लिए वृत्र को ऋग्वेद में एक स्थान पर देव कहा गया है ..
परन्तु असुर संज्ञा के धारक असुर फरात नदी के दुआब में भी रहते थे
जिसे प्रचीन ईराक और ईरान में मैसोपाटामिया के नाम से जाना जाता है ..
भारतीय पुराणों में इन्हें असुर कहा गया
देव उत्तरी ध्रुव के समीपवर्ती स्वीडन के हेमरपास्त में रहते थे
समय अन्तराल से तथ्यों के अवबोधन में भेद होना स्वाभाविक है
अब ...
ऋग्वेद में के चतुर्थ मण्डल में वरुण को महद् असुर कहा है जो ईरानीयों के धर्म ग्रन्थ में अहुर मज्दा हो गया है ..
असुर का प्रारम्भिक वैदिक अर्थ प्रज्ञावान् और बलवान ही है परन्तु कालान्तरण में सुर के विपरीत व्यक्तियों के लिए भी असुर का प्रचलन हुआ अत: असुर नाम से दो शब्द थे ...
निम्न ऋचा में असुर शब्द प्राचेतस् वरुण के अर्थ में है
तद् देवस्य सवितुर्वीर्यं महद् वृणीमहे असुरस्य प्रचेतस: ।
ऋग्वेद - ४/५३/१
हम उस प्रचेतस् असुर वरुण जो सबको जन्म देने वाला है ; उसका ही वरण करते हैं ।
निम्न ऋचा में असुर का अर्थ प्रज्ञावान और बलवान् है
अनस्वन्ता सत्पतिर्मामहे मे गावा चेतिष्ठो असुरो मघोन ।
हे मनुष्यों मेंअग्र पुरुष अग्ने !
तुम सज्जनों के पालन कर्ता ज्ञानवान -बलवान तथा ऐश्वर्य वान हो ।
अब देखें महाभारत में असुरों का गुण भी प्रतिभा और बलशाली होना दर्शाया है ..👇
तथासुरा गिरिभिरदीन चेतसो मुहुर्मुह: सुरगणमादर्ययंस्तदा ।
महाबला विकसित मेघ वर्चस: सहस्राशो गगनमभिप्रपद्य ह ।।२५।
महाभारत आदि पर्व आस्तीक पर्व १८वाँ अध्याय
इसी प्रकार उदार और उत्साह भरे हृदय वाले महाबला असुर भी जल रहित बादलों के समान श्वेत रंग के दिखाई देते थे ।
उस समय हजारों 'की संख्या में-- उड़ उड़ कर देवों को पीड़ित करने लगे ।
असुर शब्द बलशाली के अर्थ में महाभारत में भी है यह आपने आस्तीक पर्व के इस श्लोक में देखा
ऋग्वेद में असुर के अर्थ ..
देवता: सविता ऋषि: वामदेवो गौतमः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः
तद्दे॒वस्य॑ सवि॒तुर्वार्यं॑ म॒हद्वृ॑णी॒महे॒ असु॑रस्य॒ प्रचे॑तसः। छ॒र्दिर्येन॑ दा॒शुषे॒ यच्छ॑ति॒ त्मना॒ तन्नो॑ म॒हाँ उद॑यान्दे॒वो अ॒क्तुभिः॑ ॥१॥
पद पाठ
तत्। दे॒वस्य॑। स॒वि॒तुः। वार्य॑म्। म॒हत्। वृ॒णी॒महे॑।
असु॑रस्य। प्रऽचे॑तसः। छ॒र्दिः। येन॑। दा॒शुषे॑। यच्छ॑ति। त्मना॑। तत्। नः॒। म॒हान्। उत्। अ॒या॒न्। दे॒वः।
अ॒क्तुऽभिः॑ ॥१॥
ऋग्वेद » मण्डल:4» सूक्त:53» ऋचा :1 |
_______________________________________
पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! हम लोग जिस (सवितुः) वृष्टि आदि की उत्पत्ति करने वाले सूर्य का (देवस्य) निरन्तर प्रकाशमान देव का (प्रचेतसः) जनानेवाले (असुरस्य) बलवान के (महत्) बड़े (वार्यम्) स्वीकार करने योग्य पदार्थों वा जलों में उत्पन्न (छर्दिः) गृह का (वृणीमहे) वरण करते हैं
(तत्) उसका (येन) जिस कारण से विद्वान् जन (त्मना) आत्मा से (दाशुषे) दाता जन के लिये स्वीकार करने योग्यों वा जलों में उत्पन्न हुए बड़े गृह को (यच्छति) देता है (तत्) उसको (महान्) बड़ा (देवः) प्रकाशमान होता हुआ (अक्तुभिः) रात्रियों से (नः) हम लोगों के लिये (उत्, अयान्) उत्कृष्टता प्रदान करे ॥१॥
असुर महद् यहाँ वरुण का विशेषण है
_______________________________________
देवता: इन्द्र: ऋषि: सव्य आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः
______________________
अर्चा॑ दि॒वे बृ॑ह॒ते शू॒ष्यं१॒॑ वचः॒ स्वक्ष॑त्रं॒ यस्य॑ धृष॒तो धृ॒षन्मनः॑। बृ॒हच्छ्र॑वा॒ असु॑रो ब॒र्हणा॑ कृ॒तः पु॒रो हरि॑भ्यां वृष॒भो रथो॒ हि षः ॥
_________________________
1-अर्च॑। दि॒वे। बृ॒ह॒ते- बड़े देव लोक में प्रतिष्ठित स्तुति करने वालों को
2- शू॒ष्य॑म्। वचः॑। वाणी उत्पन्न करता है |
3- स्वऽक्ष॑त्रम्। यस्य॑। धृ॒ष॒तः। जो क्षत्र रूप मे स्वयं ही सबको आच्छादन अथवा वरण किये हुए है
4-धृ॒षत्। मनः॑। जिसका मन सहन करने वाला है सबकुछ
5- बृ॒हत्ऽश्र॑वाः। वह वरुण बहुत सुनने वाला है
6-असु॑रः। ब॒र्हणा॑। कृ॒तः। उस प्रज्ञा और बल प्रदान करने वाले वरुण की इसी कारण असुर संज्ञा भी है उसी ने विशालता को उत्पन्न किया है
7-पु॒रः। हरि॑ऽभ्याम्। वृ॒ष॒भः। रथः॑। हि। सः -
पहले समय में घोडे़ और बैलों ने वरुण के रथ को खींचा था ॥
_________________________
ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:54» ऋचा :3 |
____________________________________
इन्द्र के लिए भी असुर शब्द का प्रयोग हुआ है
..👇
देवता: इन्द्र: ऋषि: अगस्त्यो मैत्रावरुणिः छन्द: निचृत्पङ्क्ति स्वर: पञ्चमः
______________________
त्वं राजे॑न्द्र॒ ये च॑ दे॒वा रक्षा॒ नॄन्पा॒ह्य॑सुर॒ त्वम॒स्मान्।
त्वं सत्प॑तिर्म॒घवा॑ न॒स्तरु॑त्र॒स्त्वं स॒त्यो वस॑वानः सहो॒दाः ॥
पद पाठ
त्वम्। राजा॑। इ॒न्द्र॒। ये। च॒। दे॒वाः। रक्ष॑। नॄन्। पा॒हि। अ॒सु॒र॒। त्वम्। अ॒स्मान्। त्वम्। सत्ऽप॑तिः। म॒घऽवा॑। नः॒। तरु॑त्रः। त्वम्। स॒त्यः। वस॑वानः। स॒हः॒ऽदाः ॥ १.१७४.१
ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:174» ऋचा :1 |
पदार्थान्वयभाषाः -हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त !
(त्वम्) आप (सत्पतिः) वेद वा सज्जनों को पालनेवाले (मघवा) परमप्रशंसित धनवान् (नः) हम लोगों को (तरुत्रः) दुःखरूपी समुद्र से पार उतारनेवाले हैं (त्वम्) आप (सत्यः) सज्जनों में उत्तम (वसवानः)
धन प्राप्ति कराने और (सहोदाः) बल के देनेवाले हैं तथा (त्वम्) आप (राजा) न्याय और विनय से प्रकाशमान राजा हैं इससे हे (असुर) मेघ के समान (त्वम्) आप (अस्मान्) हम (नॄन्) मनुष्यों को (पाहि) पालो
(ये, च) और जो (देवाः) श्रेष्ठा गुणोंवाले धर्मात्मा विद्वान् हैं उनकी (रक्ष) रक्षा करो ॥ १ ॥
इस उपर्युक्त ऋचा में इन्द्र को असुर कहा गया है ...
_________________________________________
देवता: इन्द्र: ऋषि: प्रजापतिः छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
आ॒तिष्ठ॑न्तं॒ परि॒ विश्वे॑ अभूष॒ञ्छ्रियो॒ वसा॑नश्चरति॒ स्वरो॑चिः। म॒हत्तद्वृष्णो॒ असु॑रस्य॒ नामा वि॒श्वरू॑पो अ॒मृता॑नि तस्थौ॥
पद पाठ
आ॒ऽतिष्ठ॑न्तम्। परि॑। विश्वे॑। अ॒भू॒ष॒न्। श्रियः॑। वसा॑नः। च॒र॒ति॒। स्वऽरो॑चिः। म॒हत्। तत्। वृष्णः॑ (कृष्ण:)।
असु॑रस्य। नाम॑। आ। वि॒श्वऽरू॑पः। अ॒मृता॑नि। त॒स्थौ॒॥
ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:38» मन्त्र:4 |
पदार्थान्वयभाषाः
-हे मनुष्यो ! (विश्वरूपः) सम्पूर्ण रूप हैं जिससे वा जो (श्रियः) धनों वा पदार्थों की शोभाओं को (वसानः)
ग्रहण करता हुआ या वसता हुआ और (स्वरोचिः) अपना प्रकाश जिसमें विद्यमान वह (कृष्णः)
(असुरस्य) असुर का
(अमृतानि) अमृतस्वरूप (नामा) नाम वाला (आ, तस्थौ) स्थित होता वा उसके समान जो (महत्) बड़ा है (तत्) उसको (चरति) प्राप्त होता है उस (आतिष्ठन्तम्) चारों ओर से स्थिर हुए को (विश्वे) सम्पूर्ण (परि) सब प्रकार (अभूषन्) शोभित करैं ॥४॥
__________________________________
ऋग्वेद की प्रचीन पाण्डु लिपियों में कृष्ण पद ही है परन्तु वर्तमान में वृष्ण पद कर दिया है !
उपर्युक्त ऋचा में कृष्ण या वृष्ण को असुर कहा गया है
क्यों कि वे सुरा पान भी नहीं करते और प्रज्ञा वान भी हैं
अत: कृष्ण के असुरत्व वको समझो
___________________________________________
देवता: इन्द्र: ऋषि: गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
इ॒मे भो॒जा अङ्गि॑रसो॒ विरू॑पा दि॒वस्पु॒त्रासो॒ असु॑रस्य वी॒राः। वि॒श्वामि॑त्राय॒ दद॑तो म॒घानि॑ सहस्रसा॒वे प्र ति॑रन्त॒ आयुः॑॥
पद पाठ
इ॒मे। भो॒जाः। अङ्गि॑रसः। विऽरू॑पाः। दि॒वः। पु॒त्रासः॑। असु॑रस्य। वी॒राः। वि॒श्वामि॑त्राय। दद॑तः। म॒घानि॑। स॒ह॒स्र॒ऽसा॒वे। प्र। ति॒र॒न्ते॒। आयुः॑॥
ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:53» ऋचा :7 |
पदार्थान्वयभाषाः -हे राजन् ! जो (इमे) ये (अङ्गिरसः) अंगिरा (भोजाः) भोग करने तथा प्रजा के पालन करनेवाले (विरूपाः) अनेक प्रकार के रूप वा विकारयुक्त रूपवाले और (दिवः) प्रकाशस्वरूप (असुरस्य) वरुण के (पुत्रासः) पुत्र के समान बलिष्ठ (वीराः) युद्धविद्या में परिपूर्ण (सहस्रसावे) संख्यारहित धन की उत्पत्ति जिसमें उस संग्राम में (विश्वामित्राय) संपूर्ण संसार मित्र है जिसका उन विश्वामित्र के लिये (मघानि) अतिश्रेष्ठ धनों को (ददतः) देते हुए जन (आयुः) जीवन का (प्र, तिरन्ते) उल्लङ्घन करते हैं वे ही लोग आपसे सत्कारपूर्वक रक्षा करने योग्य हैं ॥७|
अर्थात्
हे इन्द्र ये सुदास और ओज राजा की और से यज्ञ करते हैं यह अंगिरा मेधातिथि और विविध रूप वाले हैं ।
देवताओं में बलिष्ठ (असुर) रूद्रोत्पन्न मरुद्गण अश्व मेध यज्ञ में मुझ विश्वामित्र को महान धन दें और अन्न बढ़ावें।
____________________________________
देवता: इन्द्र: ऋषि: कुत्स आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः
प्र म॒न्दिने॑ पितु॒मद॑र्चता॒ वचो॒ यः कृ॒ष्णग॑र्भा नि॒रह॑न्नृ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवो॒ वृष॑णं॒ वज्र॑दक्षिणं म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे ॥
पद पाठ
प्र। म॒न्दिने॑। पि॒तु॒ऽमत्। अ॒र्च॒त॒। वचः॑। यः। कृ॒ष्णऽग॑र्भाः। निः॒ऽअह॑न्। ऋ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवः॑। वृष॑णम्। वज्र॑ऽदक्षिणम्। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ १.१०१.१
ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:101» ऋचा :1 |
देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
अ॒यं वां॒ कृष्णो॑ अश्विना॒ हव॑ते वाजिनीवसू । मध्व॒: सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥
पद पाठ
अ॒यम् । वा॒म् । कृष्णः॑ । अ॒श्वि॒ना॒ । हव॑ते । वा॒जि॒नी॒व॒सू॒ इति॑ वाजिनीऽवसू । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.३
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» ऋचा :3 |
देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
शृ॒णु॒तं ज॑रि॒तुर्हवं॒ कृष्ण॑स्य स्तुव॒तो न॑रा । मध्व॒: सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥
पद पाठ
शृ॒णु॒तम् । ज॒रि॒तुः । हव॑म् । कृष्ण॑स्य । स्तु॒व॒तः । न॒रा॒ । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.४
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» ऋचा:4 |
देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
शृ॒णु॒तं ज॑रि॒तुर्हवं॒ कृष्ण॑स्य स्तुव॒तो न॑रा । मध्व॒: सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥
पद पाठ
शृ॒णु॒तम् । ज॒रि॒तुः । हव॑म् । कृष्ण॑स्य । स्तु॒व॒तः । न॒रा॒ । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.४
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» ऋचा :4 |
देवता: अश्विनौ ऋषि: कृष्णः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः
शृ॒णु॒तं ज॑रि॒तुर्हवं॒ कृष्ण॑स्य स्तुव॒तो न॑रा । मध्व॒: सोम॑स्य पी॒तये॑ ॥
पद पाठ
शृ॒णु॒तम् । ज॒रि॒तुः । हव॑म् । कृष्ण॑स्य । स्तु॒व॒तः । न॒रा॒ । मध्वः॑ । सोम॑स्य । पी॒तये॑ ॥ ८.८५.४
ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:85» मन्त्र:4 |
_________________________________
देवता: इन्द्र: ऋषि: कुत्स आङ्गिरसः छन्द: निचृज्जगती स्वर: निषादः
प्र म॒न्दिने॑ पितु॒मद॑र्चता॒ वचो॒ यः कृ॒ष्णग॑र्भा नि॒रह॑न्नृ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवो॒ वृष॑णं॒ वज्र॑दक्षिणं म॒रुत्व॑न्तं स॒ख्याय॑ हवामहे ॥
पद पाठ
प्र। म॒न्दिने॑। पि॒तु॒ऽमत्। अ॒र्च॒त॒। वचः॑। यः। कृ॒ष्णऽग॑र्भाः। निः॒ऽअह॑न्। ऋ॒जिश्व॑ना। अ॒व॒स्यवः॑। वृष॑णम्। वज्र॑ऽदक्षिणम्। म॒रुत्व॑न्तम्। स॒ख्याय॑। ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ १.१०१.१
ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:101» ऋचा:1 |
________
देवता: विश्वेदेवा, उषा ऋषि: प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा छन्द: निचृत्त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
उ॒षसः॒ पूर्वा॒ अध॒ यद्व्यू॒षुर्म॒हद्वि ज॑ज्ञे अ॒क्षरं॑ प॒दे गोः। व्र॒ता दे॒वाना॒मुप॒ नु प्र॒भूष॑न्म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥
पद पाठ
उ॒षसः॑। पूर्वाः॑। अध॑। यत्। वि॒ऽऊ॒षुः। म॒हत्। वि। ज॒ज्ञे॒। अ॒क्षर॑म्। प॒दे। गोः। व्र॒ता। दे॒वाना॑म्। उप॑। नु। प्र॒ऽभूष॑न्। म॒हत्। दे॒वाना॑म्। अ॒सु॒र॒ऽत्वम्। एक॑म्॥
ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:55» ऋचा:1 |
पदार्थान्वयभाषाः -(यत्) जो (उषसः) प्रातःकाल से (पूर्वाः) प्रथम हुए (व्यूषुः) विशेष करके वसते हैं वह (महत्) बड़ा (अक्षरम्) नहीं नाश होनेवाला (महत्) बड़ा तत्त्वनामक (गोः) पृथिवी के (पदे) स्थान में (वि, जज्ञे) उत्पन्न हुआ जो (एकम्) अद्वितीय और सहायरहित (देवानाम्) पृथिवी आदिकों में बड़े (असुरत्वम्) प्राणों में रमनेवाले को (प्र, भूषन्) शोभित करता हुआ (अध) उसके अनन्तर (देवानाम्) देवों को (व्रता) नियम में (उप) समीप में (नु) शीघ्र उत्पन्न हुए, उसको आप लोग जानिये ॥१॥
देवता: विश्वेदेवा, दिशः ऋषि: प्रजापतिर्वैश्वामित्रो वाच्यो वा छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः
आ धे॒नवो॑ धुनयन्ता॒मशि॑श्वीः सब॒र्दुघाः॑ शश॒या अप्र॑दुग्धाः। नव्या॑नव्या युव॒तयो॒ भव॑न्तीर्म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥
पद पाठ
आ। धे॒नवः॑। धु॒न॒य॒न्ता॒म्। अशि॑श्वीः। स॒बः॒ऽदुघाः॑। श॒श॒याः। अप्र॑ऽदुग्धाः। नव्याः॑ऽनव्याः। यु॒व॒तयः॑। भव॑न्तीः। म॒हत्। दे॒वाना॑म्। अ॒सु॒र॒ऽत्वम्। एक॑म्॥
ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:55» मन्त्र:16 |
पदार्थान्वयभाषाः -हे मनुष्यो ! आप लोगों के (सबदुर्घाः) सब मनोरथों को पूर्ण करनेवाली (शशयाः) शयन करती सी हुई (अप्रदुग्धाः) नहीं किसी करके भी बहुत दुही गई (धेनवः) गायें (अशिश्वीः) बालाओं से भिन्न (नव्यानव्याः) नवीननवीन (भवन्तीः) होती हुईं (युवतयः) यौवनावस्था को प्राप्त (देवानाम्) में महद् बड़े (एकम्) द्वितीयरहित (असुरत्वम्) असुरता को (आ, धुनयन्ताम्) अच्छे प्रकार अनुभव किया रोमांचित किया ॥१६॥
________________________________________
उपर्युक्त ऋचा में असुरत्व भाव वाचक शब्द है
संस्कृत कोशों में असुर के अनेक अर्थ और सन्दर्भ उपलब्ध हैं 👇
असुरः, पुल्लिंग (अस्यति देवान् क्षिपति इति ।
असं उरन् । यद्वा न सुरः विरोधे नञ्तत्- पुरुषः । यद्वा नास्ति सुरा यस्य सः ।
सूर्य्यपक्षे असति दीप्यते इति उरन् ।) सुर विरोधी । स तु कश्यपात् दितिगर्भजातः । तत्पर्य्यायः । दैत्यः २ दैत्येयः ३ दनुजः ४ इन्द्रारिः ५ दानवः ६ शुक्रशिष्यः ७ दितिसुतः ८ पूर्ब्बदेवः ९ सुरद्विट् १० देवरिपुः ११ देवारिः १२ इत्यमरः ॥ (“सुराः प्रतिग्रहाद्देवाः सुरा इत्यभिविश्रुताः । अप्रतिग्रहणात्तस्य दैतेयाश्चासुराः स्मृताः” ॥ इति रामायणे ।) सूर्य्यः । इति मेदिनी । राहुः इति ज्योतिःशास्त्रम् ॥
अमरकोशः
असुर पुं।
असुरः
समानार्थक:असुर,दैत्य,दैतेय,दनुज,इन्द्रारि,दानव,शुक्रशिष्य,दितिसुत,पूर्वदेव,सुरद्विष्
1।1।12।1।1
असुरा दैत्यदैतेयदनुजेन्द्रारिदानवाः। शुक्रशिष्या दितिसुताः पूर्वदेवाः सुरद्विषः॥
: वृत्रासुरः
पदार्थ-विभागः : , द्रव्यम्, आत्मा, देवयोनिः
वाचस्पत्यम्
'''असुर'''¦ पु॰ अस--दीप्तौ उर॰।
१ सूर्य्ये। अस्यति क्षिपतिदेवान् उर विरोधे न॰ त॰ वा। सुरविरोधिनि
२ दैत्ये।
३ रात्रौ स्त्री। असुरप्रभेदाश्च भारते आ॰ प॰ दर्शिताः
“एकएव दितेः पुत्रो हिरण्यकशिपुः” स्मृतः। नाम्नाख्यातास्तु तस्येमे पञ्च पुत्रा महात्मनः। प्रह्लादः पूर्ब्ब-[Page0556-b 38] जस्तेषां संह्लादस्तदनन्तरम्। अनुह्लादस्तृतीयोऽभूत्तस्माच्चशिविवाष्कलौ। प्रह्लादस्य त्रयः पुत्त्राः ख्याताः सर्व्वत्रभारत। विरोचनश्च कुम्भश्च निकुम्भश्चेति भारत। विरो-चनस्य पुत्त्रोऽभूद्बलिरेकः प्रतापवान्। बलेश्च प्रथितःपुत्त्रो वाणो नाम महासुरः। रुद्रस्यानुचरः श्रीमान्महा-कालेति यं विदुः। चत्वारिंशद्दनोः पुत्त्राः ख्याताः सर्व्वत्रभारत। तेषां प्रथमजो राजा विप्रचित्तिर्महायशाः। शम्बरो नमुचिश्चैव पुलोमा चेति विश्रुतः। असिलोमाच केशी च दुर्ज्जयश्चैव दानवः। अयःशिरा अश्वशिराअश्वशङ्कुश्च वीर्य्यवान्। तथा गगनमूर्द्धा च वेगवान् केतु-मांश्च सः। स्वर्भानुरश्वोऽश्वपतिर्वृषपर्व्वाजकस्तथा। अश्व-ग्रीवश्च सूक्ष्मश्च तुहुण्डश्च महाबलः। एकपादेकचक्रश्चविरुपाक्षमहोदरौ। निचन्द्रश्च निकुम्भश्च कुपटः कपट-स्तथा। शरभः शलभश्चैव सूर्य्याचन्द्रमसौ तथा। एतेख्याता दनोर्व्वंशे दानवाः परिकीर्त्तिताः। अन्यौ तु खलु-देवानां सूर्य्याचन्द्रमसौ स्मृतौ। अन्यौ दानवमुख्यानांसूर्य्याचन्द्रमसौ तथा। इमे च वंशाः प्रथिताः सत्त्ववन्तोमहाबलाः। दनुपुत्त्रा महाराज दश दानववंशजाः। एकाक्षोऽमृतपो वीरः प्रलम्बनरकावपि। वातापी शत्रु-तपनः शठश्चैव महासुरः। गविष्ठश्च वनायुश्च दीर्घजिह्वश्चदानवः। असंख्येयाः स्मृतास्तेषां पुत्त्राः पौत्त्राश्च भारत!। सिंहिका सुषुवे पुत्त्रं राहुं चन्द्रार्क्कमर्द्दनम्। सुचन्द्रं चन्द्रहन्तारं तथा चन्द्रप्रमर्द्दनम्। क्रूरस्व-भावं क्रूरायाः पुत्त्रपौत्त्रमनन्तकम्। गणः क्रोधवशोनाम क्रूरकर्म्माऽरिमर्द्दनः। दनायुषः पुनः पुत्राश्चत्वारो-ऽसुरपुङ्गवाः। विक्षरोबलवीरौ च वृत्रश्चैव महासुरः। कालायाः प्रथिताः पुत्त्राः कालकल्पाः प्रहारिणः। प्रवि-ख्याता महावीर्य्या दानवेषु परन्तपाः। विनाशनश्च क्रोधश्चक्रोधहन्ता तथैव च। क्रोधः शत्रुस्तथैवान्ये कालकेया इतिश्रुताः”। हरिवंशेतु अन्येऽपि वहवोऽसुरभेदा उक्ता यथा।
“दित्याः पुत्त्रद्वयं यज्ञे कश्यपादिति नः श्रुतम्। हिरण्य-कशिपुश्चैव हिरण्याक्षश्च वीर्य्यवान्। सिंहिका चाभवत्कन्याविप्रचित्तेः परिग्रहः। सैंहिकेया इति ख्याता यस्याःपुत्रा महाबलाः। गणैश्च सह राजेन्द्र! दशसाहस्र-मुच्यते। तेषां पुत्त्राश्च पौत्त्राश्च शतशोऽथ सहस्रशः। असंख्याता महाबाहो हिरण्यकशिपोः शृणु। हिरण्य-कशिपोः पुत्त्राश्चत्वारः प्रथितौजसः। अनुह्रादश्च ह्रादश्चप्रह्रादश्चैव वीर्य्यवान्। संह्रादश्च चतुर्थोऽभूत् ह्रादपुत्रो[Page0557-a 38] ह्रदस्तथा। संह्रादपुत्रः सुन्दश्च निसुन्दश्चैव तावुभौ। ह्रदस्य पुत्रो ह्यायुर्व्वै शिविः कालस्तथैव च। विरोचनश्चप्राह्रादिर्बलिजज्ञे विरोचनात्। बलेः पुत्रशतन्त्वा-सीद्वाणज्येष्ठं नराधिप। धृतराष्ट्रश्च सूर्य्यश्च चन्द्रमाश्चेन्द्र-तापनः। कुम्भनाभो गर्द्दभाक्षः कुक्षिरित्येवमादयः। वाणस्तेषामतिबलो ज्येष्ठःपशुपतिप्रियः। पुराकल्पे हिवाणेन{??}साद्योमापतिं प्रभुम्। पार्श्वतो विहरिष्यामिइत्येवं याचितो वरः। वाणस्य चेन्द्रदमनो लोहित्या-मुदपद्यत। गणास्तथा सुरा राजन् शतसाहस्रसम्मिताः। हिरण्याक्षसुताः पञ्च विद्वांसः सुमहाबलाः। झर्झरःशकुनिश्चैव भूतसन्तापनस्तथा। महानाभश्च विक्रान्तःकालनाभस्तथैव च। अभबन्। दनुपुत्राश्च शतं तीव्र-पराक्रमाः। तपस्विनो महावीर्य्याः प्राधान्येन निबोधतान्। द्विमूर्द्धा शकुनिश्चैव तथा शङ्कुशिराः प्रभुः। शङ्कु-कर्णो विराधश्च गवेष्ठी दुन्दुभिस्तथा। अयोमुखः शम्ब-रश्च कपिलो वामनस्तथा। मरीचिर्म्मघवांश्चैव इरा गर्ग-शिरा वृकः। विक्षोभणश्च केतुश्च केतुवीर्य्यशतह्रदौ। इन्द्रजित्सर्व्वजिच्चैव वज्रनाभस्तथैव च। महानाभश्चविक्रान्तः कालनाभस्तथैव च। एकचक्रो महाबाहुस्तारकश्चमहाबलः। वैश्वानरः पुलोमा च विद्रावणमहाशिराः। स्वर्भानुर्वृषपर्व्वा च तुहुण्डश्च महासुरः। सूक्ष्मश्चैव निच-न्द्रश्च ऊर्णनाभो महागिरिः। असिलोमा च केशी चशठश्च बलको मदः। तथा गगनमूर्द्धा च कुम्भनाभोमहासुरः। प्रमदो मयश्च कुपथो हयग्रीवश्च वीर्य्यवान्। वैरूपः स विरूपाक्षः सुपथोऽथ हराहरौ। हिरण्य-कशिपोश्चैव शतमायश्च शम्बरः। शरभः शलभश्चैव विप्र-चित्तिश्च वीर्य्यवान्। एते सर्व्वे दनोः पुत्राः कश्यपादभि-जज्ञिरे। विप्रचित्तिप्रधानास्ते दानवाः सुमहाबलाः। एतेषां यदपत्यन्तु न तच्छक्यं नराधिपः। प्रसंख्यातुंमहीपाल! पुत्रपौत्रमनन्तकम्। स्वर्भानोस्तु प्रभा कन्यापुलोम्नस्तु सुतात्रयम्। उपदानवी हयशिराः शर्म्मिष्ठावार्षपर्व्वणी। पुलोमा कालका चैव वैश्वानरसुते उभे। बह्वपत्ये महावीर्य्ये मारीचेस्तु परिग्रहः। तयोः पुत्र-सहस्राणि षष्टिं दानवनन्दनान्। चतुर्द्दश शतानन्यान्हिरण्यपुरवासिनः। मारीचिर्ज्जनयामास महतातपसाऽन्वितः। पौलोमाः कालकेयाश्च दानवास्तेमहाबलाः। अबध्या देवतानाञ्च हिरण्यपुरवासिनः। कृताः पितामहेनाजौ निहताः सव्यसाचिना। [Page0557-b 38] प्रभाया नहुषः पुत्त्रः सृञ्जयश्च शचीसुतः। पूरुंजज्ञे-ऽथ शर्म्मिष्ठा दुष्मन्तमुपदानवी। ततोऽपरे महावीर्य्यादानवास्त्वतिदारुणाः। सिंहिकायामथोत्पन्ना विप्रचित्तेःसुतास्तथा। दैत्यदानवसंयोगाज्जातास्तीव्रपराक्रमाः। सहिकेया इति ख्यातास्त्रयोदश महाबलाः। वंशःशल्यश्च बलिनौ नभश्चैव महाबलः। वातापिर्नमुचिश्चैवइल्वलः खसृमस्तथा। आञ्जिको नरकश्चैव कालनाभ-स्तथैव च। राहुर्ज्येष्ठस्तु तेषां वै सूर्य्यचन्द्रप्रमर्द्दनः। शुकः पोतरणश्चैव वज्रनाभश्च वीर्य्यवान्। मूकश्चैव तुहु-ण्डश्च ह्रादपुत्त्रौ बभूवतुः। मारीचः सुन्दपुत्त्रश्च ताड-कायां व्यजायत। एते वै दानवाः श्रेष्ठा दनुवंशविव-र्द्धनाः। तेषां पुत्त्राश्च पौत्त्राश्च शतशोऽथ सहस्रशः। संह्रादस्य तु दैत्यस्य निवातकवचाः कुले। समुत्पन्नाः सुम-हता तपसा भावितात्मनः। तिस्रः कोट्यः सुतास्तेषां मणि-मत्यां निवासिनाम्। तेऽप्यबध्याश्च देवानामर्ज्जुनेन निपा-तिताः। षट्सुताः सुमहासत्त्वास्ताम्रायाः परिकीर्त्तिताः”।
“वासेन यस्य जनिताऽसुरभीरणश्रीः” नैष॰।
“समत्सरेणा-सुर इत्युपेयुषा” माघः।
“ततः कानीयसा एव देवा ज्यायसाअसुराः, य एषु लोकेष्वस्पर्द्धन्त ते ह देवा ऊचुर्हन्तासुरान्यज्ञ उद्गीथेनात्ययामिति” छा॰ उ॰
“असुषु विष्वग्विष-यासु प्राणनक्रियासु रमन्ते रम्--डु।
४ स्वाभाविक्यां तमआत्मिकायामिन्द्रियवृत्तौ।
“देवासुरा वै यत्र संयेतिरे” वृ॰ उ॰। देवाश्चासुराश्च देवादीव्यतेर्द्योतनार्थस्य रूपंशास्त्रोद्भासिता इन्द्रियवृत्तयः। असुरास्तद्विपरीताः स्वेष्वेवा-सुषु विष्वग्विषयासु प्राणनक्रियासु रमणात् स्वाभाविक्यस्तमआत्मिका इन्द्रियवृत्तय एव” भा॰। स्वार्थे प्रज्ञा॰ अण् आसुरःतत्रार्थे। तस्येदम् अण् आसुरः तत्सम्बन्धिनि त्रि॰ स्त्रियांङीप्
“आसुरीरात्रिरन्यत्र तस्मात्ताः परिवर्ज्जयेत्” स्मृतिः
“आसुरीं योनिमापन्नाः” गीता। हितार्थे यत्। असुर्य्यः।
“असुर्य्यानाम ते लोका अन्धेन तमसा वृताः” कठ॰ उ॰सुरा सुधा ग्रहीतृत्वेनास्त्यस्य अर्श॰ अच् न॰ त॰।
“सुराप्रतिग्रहाद्देवाःसुरा इत्यभिश्रुताः। अप्रतिग्रहणा-च्चास्या दैतेयाश्चासुराः स्मृताः इत्युक्तनिर्व्वचनादपितेषामसुरत्वम्। जातौ ङीप् असुरी
“असुरी जिह्वीदेवानां प्रातः सवनसत्रालेट्” अथ॰।
४ कांस्ये तस्यासु-राह्वयत्वात्तथात्वम्। मेघे पु॰ निरु॰।
शब्दसागरः
असुर¦ mf. (-रः-रा) An Asura or demon: the Asuras are children of DITI by KASYAPA; they are demons of the first order, and in perpetual hostility with the gods. m. (-रः) The sun. f. (-रा)
1. Night.
2. A zodiacal sign.
3. A prostitude. f. (-री)
1. Black mustard, (Sinapis ramosa.)
2. The wife of an Asura. E. अ neg. and मुर a deity; or अस् to send, to cast, &c. and उरन् Una4di affix, टाप् and ङीप् for the fem. or अ neg. and सुरा spirituous liquor, personified as a dam- sel produced at the churning of the ocean, who was rejected by the demons and received by the gods.
Apte
असुर [asura], a. [असु-र Uṇ1.42]
Living, alive, spiritual.
An epithet of the Supreme Spirit or Varuṇa.
Incorporeal, super-human, divine. -रः [According to Nir. अ सुरताः स्थानेषु न सुष्टु रताः स्थानेषु चपला इत्यर्थः; or अस्ताः प्रच्याविता देवैः स्थानेम्यः or from असु; असुः प्राणः तेन तद्वन्तो भवन्ति रो मत्वर्थ; or सोर्देवानसृजत तत्सुराणां सुरत्वम्, असोः असुरानसृजत तदसुराणामसुरत्वम्; सोः = प्रशस्तादात्मनः प्रदेशात्]
An evil spirit, a demon; the chief of the evil spirits; वृकद्वरसो असुरस्य वीरान् Rv.2.3.4. the Rām. thus accounts for the name: सुराप्रतिग्रहाद्देवाः सुरा इत्य- भिविश्रुताः । अप्रतिग्रहणात्तस्या दैतेयाश्चासुरास्तथा ॥ [In the oldest parts of the Ṛigveda the term Asura is used for the Supreme Spirit and in the sense of 'god', 'divine'; it was applied to several of the chief deities such as Indra, Agni, and especially Varuṇa. It afterwards acquired an entirely opposite meaning, and came to signify a demon or an enemy of the gods. The Brāhmaṇas state that Prajāpati createdAsuras with the breath (Asu); particularly from the lower breath. The Vāyu P. says that Asuras were first produced as sons from Prajāpati's groin; cf. also Nir. above].
A general name for the enemies of gods, Daityas and Dānavas, distinguished from Rākṣasas descended from Pulastya; कानीयसा एव देवा ज्यायसा असुराः Bṛi. Up.1.3. Bg.11.22.
A ghost or spectre.
The sun (said to be from अस् to shine).
An elephant.
An epithet of Rāhu.
A cloud.
N. of a warrior tribe.
रा Night.
A zodiacal sign.
A prostitute.
री A female demon, wife of an Asura.
N. of the plant Sinapis Racemosa Roxb. (Mar. काळी मोहरी).-Comp. -अधिपः,
इन्द्रः, राज्, जः the lord of the Asuras.
an epithet of Bali, grandson of Prahlāda; यज्ञं चकार सुमहानसुरेन्द्रो महाबलः Rām.1.29.6.
आचार्यः, गुरुः N. of the preceptor of the Asuras, Sukrāchārya.
the planet Venus. -आह्वम् bell-metal. -क्षयण, -क्षिति a. destroying the Asuras; असुरक्षयणं वधं त्रिषन्धिं दिव्याश्रयन् Av.11.1.1; यमबध्नाद् बृहस्पतिर्देवेभ्यो असुरक्षितिम् Av.1.6.22.
गुरुः The planet Venus (शुक्र).
Śukrāchārya. -द्रुह् 'Enemy of the Asuras', a god; पुरः क्लिश्नाति सोमं हि सैंहिके- यो$सुरद्रुहाम् Śi.2.35. -द्विष् m. an enemy of the Asuras,i. e. a god. -माया demoniacal magic; येना श्रवस्यवश्चरथ देवा इवासुरमायया Av.3.9.4. -रक्षस् n. (pl.) the Asuras and Rākṣasas. (-सम्) a demoniacal being partaking of the qualities of both the classes. -रिपुः, -सूदनः 'destroyer of Asuras', an epithet of Viṣṇu; भ्राता भव यवीयांस्त्वं शक्रस्यासुरसूदन Rām.1.29.17. -हन्m.
One who destroys the Asuras, an epithet of Agni, Indra &c.
N. of Viṣṇu.
Monier-Williams
असुर mfn. (2. अस्Un2. ), spiritual , incorporeal , divine RV. AV. VS.
असुर m. a spirit , good spirit , supreme spirit (said of वरुण) RV. VS.
असुर m. the chief of the evil spirits RV. ii , 30 , 4 and vii , 99 , 5
असुर m. an evil spirit , demon , ghost , opponent of the gods RV. viii , 96 , 9
असुर m. x AV. etc. [these असुरs are often regarded as the children of दितिby कश्यपSee. दैत्य; as such they are demons of the first order in perpetual hostility with the gods , and must not be confounded with the राक्षसs or imps who animate dead bodies and disturb sacrifices]
असुर m. a N. of राहुVarBr2S. etc.
असुर m. the sun L.
असुर m. a cloud Naigh. (See. RV. v , 83 , 6 )
असुर m. pl. N. of a warrior-tribe , ( g. पर्श्व्-आदि, See. )
असुर m. of a Vedic school
असुर m. a zodiacal sign L.
असुर m. the plant Sinapis Ramosa Roxb. L. ([In later Sanskrit सुरhas been formed from असुर, as सितfrom असितSee. ])
असुर See. असु.
Purana index
--a deity personified; to be worshipped in house- buildings. M. २५३. २६; २६८. १६. [page१-138 ४४]
Purana Encyclopedia
ASURA : Those born to Kaśyapa of his wife Danu are called Dānavas and those born of his wife Diti are call- ed Daityas. They belong to the demonaic dynasty (Re- fer under ‘Asuravaṁśa’ in the genealogy chart). Re- nowned among the asuras were the following:
Prahlāda, Saṁhlāda, Anuhlāda, Śibi, Bāṣkala, Virocana, Kumbha, Nikumbha, Bali, Bāṇa, Mahākāla, Vipracitti, Śambara, Namuci, Pulomā, Viśruta, Asilomā, Keśī, Durjaya, Ayaśśiras, Aśvaśśiras, Aśva, Śaṅku, Mahābala, Garga, Mūrdhā, Vegavān, Ketumān, Svarbhānu, Aśva- pati, Vṛṣaparvā, Ajaka, Aśvagrīva, Sūkṣma, Tuhūṇḍa, Ekapād, Ekacakra, Virūpākṣa, Harāhara, Candra, Kupaṭa, Kapaṭa, Para, Śarabha, Śalabha, Sūrya and Candramas.
_______________________________
*1st word in left half of page 67 ( offset) in original book.
जो प्रतिभा प्रज्ञा और बलको सूचित करता है
श्रृद्धेय गुरू जी सुमन्त कुमार यादव के ज्ञान प्रसाद से समन्वित ये तथ्य हैं
प्रस्तुति करण:- यादव योगेश कुमार रोहि
सम्पर्क सूत्र 8077160219