राम और सीता के भाई-बहिन माना जाने के मूल में अर्थों का प्रासंगिक न होना ही है
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प्राचीन संस्कृत में बन्धु शब्द का अर्थ भाई और पति दौनों के लिए प्रयोग होता था।
कालिदास ने रघुवंश महाकाव्य के 14 वे सर्ग के 33 वें श्लोक में श्री राम को सीता का बन्धु कहा है:
‘वैदेहि बन्धोर्हृदयं विदद्रे’।
अर्थात् वैदेहि (विदेह राजा जनक की पुत्री ने बन्धु राम को हृदय में धारण किया "
संस्कृत भाषा में बन्धु शब्द से समान भगिनी शब्द के भी दो अर्थ हैं भगिनी शब्द के व्यापक अर्थों का प्रकाशन संस्कृत साहित्य में कालान्तरण में --दो रूपों में हुआ भगिनी = पत्नी तथा भगिनी = बहिन (सहोदरा) ।
तात्पर्य्यायः- १स्वसा २ स्त्री । इत्यमरःकोश ।२ ।६।२९ ॥
कोश कारों ने काल्पनिक व्युत्पत्ति कर डाली हैं।
भगं यत्नः पित्रादितो द्रव्यदाने विद्यतेऽस्या इति इनिप्रत्ययेन भगिनी ।
इति तट्टीकायां भरतः ॥
(भगं योनिरस्या अस्तीति । भग इनिः डीप् ) स्त्रीमात्रम् ।
यथा -“ परिगृह्या च षामाङ्गी भगिनी प्रकृतिर्नरी ॥
“ इति शब्दचन्द्रिका ॥
यहाँ भगिनी शब्द स्त्री का वाचक है ।
स्वयं ऋग्वेद के दशम् मण्डल के सूक्त तीन की ऋचा तीन में देखें सीता को
राम की स्वसार कहा है ।
( स्वसृ शब्द भारोपीय भाषा परिवार में (Sister ) के रूप में विकसित हुआ है ।
देखें---ऋग्वेद में सीता को लिए स्वसार (स्वसृ ) शब्द का प्रयोग- __________________________________________ भद्रो भद्रया सचमान आगात्स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात्।
सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रुशद्भिर्वर्णैरभि राममस्थात्॥ _________________________________________ (ऋग्वेद १०।३।३) भावार्थ: श्री रामभद्र (भद्र) सीता जी के साथ (भद्रया) [ वनवास के लिए ] तैयार होते हुए (सचमान ) दण्डकारण्य वन (स्वसारं) यहाँ पत्नी अर्थ में अथवा -बहिन ) दौनों अर्थों में ।
जब आये थे (आगात्) , तब (पश्चात ) कपट वेष में कामुक (जारो) रावण सीता जी का हरण करने के लिए आता है (अभ्येति ), उस समय अग्नि देव हीं सीता जी के साथ थे ।
( अर्थात स्वयं सीता माँ अग्नि में स्थित हो चुकी थी राम जी के कथन के अनुसार), अब रावण वध के पश्चात, देदीप्यमान तथा लोहितादी वर्णों वाली ज्वालाओं से युक्त स्वयं अग्नि देव हीं (सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रुशद्भिर्वर्णैरभि) हीं शुभ-लक्षणों से युक्त कान्तिमयी सीता जी के साथ [सीता जी का निर्दोषत्व सिद्ध करने के लिए] श्री राम के सम्मुख उपस्थित हुए (राममस्थात्) | ________________________________________
उपर्युक्त ऋचा में सीता के लिए स्वसा शब्द है;
जो राम और सीता को भाई-बहिन मानने के लिए भ्रमित करता है ।
और यह वैदिक ऋचाओं में प्राचीनत्तम हैं मिश्र की पुरातन कथाओं में रेमेशिस तथा सीतामुन शब्द राम और सीता का ही रूपान्तरण हैं ।
यद्यपि मिश्र की संस्कृति में भाई-बहिन ही पति - पत्नी के रूप में राजकीय परम्पराओं का निर्वहन करते हैं ।
कदाचित प्राचीन काल में किन्हीं और संस्कृतियों में भी ऐसी परम्पराओं का निर्वहन होता हो।
यम और यमी सूक्त पर विचार विश्लेषण करना चाहिए
कि यमी यम से भाई होने पर भी
प्रणय नवेदन करती है ।
पाली भाषा में रचित जातकट्ठवण्णना के दशरथ जातक में राम और सीता की कथा का संक्षेप में भाई-बहिन के रूप में वर्णन है।
इन कथाओं के अनुसार दशरथ वाराणसी के राजा हैं दशरथ की बड़ी रानी की तीन सन्तानें थीं ।
राम पण्डित (बुद्ध) लक्खण (लक्ष्मण ) तथा एक पुत्री सीता जिसे वाल्मीकि-रामायण में सान्ता कर दिया गया है ।
दशरथ जातक के अनुसार राम का वनवास बारह वर्ष से लिए है ।
नौवें वर्ष में जब भरत उन्हें वापस लिवाने के लिए आते हैं तो राम यह कहकर मना कर देते कि मेरे पिता ने मुझे बारह वर्ष के लिए वनवास कहा था ।
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अभी तो तीन वर्ष शेष हैं ।
तीन वर्ष व्यतीत होने पर राम पण्डित लौटकर अपना बहन सीता से विवाह कर लेते हैं ।
और सोलह हजार वर्ष ✍ तक राज्यविस्तार करने से वाद स्वर्ग चले जाते हैं ।
जिसमें वंश में महात्मा बुद्ध हुए थे; उस शाक्य (शाकोई) वंश में भाई-बहिन के परस्पर विवाह होने का उल्लेख मिलता है ।
क्योंकि मिश्र आदि हैमेटिक जन जातियाँ स्वयं को एक्कुस (इक्ष्वाकु) और मेनिस (मनु) का वंशज मानती हैं ।
इसी लिए यम और यमी के काल तक भाई-बहिन के विवाह की परम्पराओं के अवशेष मिलते हैं ।
जैन पुरा-कथाओं के अनुसार भोग-भूमियों में सहोदर भाई-बहिन के विवाह की स्थिर प्रणाली रही है ।
मिश्र में रेमेशिस तथा सीतामुन शब्द राम और सीता शब्द के अवशेष हैं ।
वैदिक ऋचाओं में यम और यमी भाई-बहिन थे और ये सूर्य की सन्तानें थे ; और यमी यम से प्रणय याचना करती है ।
ऋग्वेद के दशम मण्डल का दशम -सूक्त यम-यमी सूक्त है।
इसी सूक्त के मन्त्र कुछ वृद्धि सहित तथा कुछ परिवर्तनपरक अथर्ववेद (18/1/1-16) में दृष्टिपथ होते हैं, अब विचारणीय है कि- यम-यमी क्या है?
अर्थात् यम-यमी किसको कहा । इस प्रश्न का उदय उस समय हुआ जब आचार्य सायणादि भाष्यकारों ने यम-यमी को भाई-बहन के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
इस अश्लील परक अर्थ को कोई भी सभ्य समाज का नागरिक कदापि स्वीकार नहीं कर सकता है।
परन्तु सृष्टि में सभ्यताओं का विकास तो अनैतिकताओं के धरातल से हुआ।
यम और मनु दौनों को भारतीय पुराणों में भाई भाई कहा है मनु भारतीय धरा की विरासत नहीं थे ।
और ना हि अयोध्या उनकी जन्म भूमि थी ।
वैसे भी आधुनिक थाइलेण्ड में अयोध्या है ।
और सुमेरियन बैबीलॉनियन संस्कृतियों में अयोध्या को अजेडा तथा दशरथ को तसरत राम को रॉम सीता को सिता कहा गया है ।
हम्बूरावी की विधि संहिता और गिलगमेश के महाकाव्य में ये अवशेष प्राप्त हैं ।
प्राचीन काल में एशिया - माइनर ---(छोटा एशिया), जिसका ऐतिहासिक नाम करण अनातोलयियो के रूप में भी हुआ है ।
यूनानी इतिहास कारों विशेषत: होरेडॉटस् ने अनातोलयियो के लिए एशिया माइनर शब्द का प्रयोग किया है ।
जिसे आधुनिक काल में तुर्किस्तान अथवा टर्की नाम से भी जानते हैं ।
.. यहाँ की पार्श्व -वर्ती संस्कृतियों में मनु की प्रसिद्धि उन सांस्कृतिक-अनुयायीयों ने अपने पूर्व- जनियतृ ( Pro -Genitor )के रूप में स्वीकृत की है !
मनु को पूर्व- पुरुष मानने वाली जन-जातियाँ प्राय: भारोपीय वर्ग की भाषाओं का सम्भाषण करती रहीं हैं । वस्तुत: भाषाऐं सैमेटिक वर्ग की हो अथवा हैमेटिक वर्ग की अथवा भारोपीय , सभी भाषाओं मे समानता का कहीं न कहीं सूत्र अवश्य है ।
जैसा कि मिश्र की संस्कृति में मिश्र का प्रथम पुरूष जो देवों का का भी प्रतिनिधि था , वह मेनेस् (Menes)अथवा मेनिस् "Menis" संज्ञा से अभिहित था मेनिस ई०पू० 3150 के समकक्ष मिश्र का प्रथम शासक था ।
और मेंम्फिस (Memphis) नगर में जिसका निवास था , मेंम्फिस प्राचीन मिश्र का महत्वपूर्ण नगर जो नील नदी की घाटी में आबाद है । तथा यहीं का पार्श्वर्ती देश फ्रीजिया (Phrygia)के मिथकों में मनु का वर्णन मिअॉन (Meon)के रूप में है ।
मिअॉन अथवा माइनॉस का वर्णन ग्रीक पुरातन कथाओं में क्रीट के प्रथम राजा के रूप में है , जो ज्यूस तथा यूरोपा का पुत्र है ।
और यहीं एशिया- माइनर के पश्चिमीय समीपवर्ती लीडिया( Lydia) देश वासी भी इसी मिअॉन (Meon) रूप में मनु को अपना पूर्व पुरुष मानते थे। इसी मनु के द्वारा बसाए जाने के कारण लीडिया देश का प्राचीन नाम मेअॉनिया Maionia भी था .
ग्रीक साहित्य में विशेषत: होमर के काव्य में --- मनु को (Knossos) क्षेत्र का का राजा बताया गया है कनान देश की कैन्नानाइटी(Canaanite ) संस्कृति में बाल -मिअॉन के रूप में भारतीयों के बल और मनु (Baal- meon)और यम्म (Yamm) देव के रूप मे वैदिक देव यम से साम्य विचारणीय है-
यम: यहाँ भी भारतीय पुराणों के समान यम का उल्लेख यथाक्रम नदी ,समुद्र ,पर्वत तथा न्याय के अधिष्ठात्री देवता के रूप में हुआ है ....कनान प्रदेश से ही कालान्तरण में सैमेटिक हिब्रु परम्पराओं का विकास हुआ था ।
स्वयम् कनान शब्द भारोपीय है , केन्नाइटी भाषा में कनान शब्द का अर्थ होता है मैदान अथवा जड्.गल
परन्तु कनान एक हैमेटिक पुरुष है ।
यूरोपीय कोलों अथवा कैल्टों की भाषा पुरानी फ्रॉन्च में कनकन (Cancan)आज भी जड्.गल को कहते हैं । और संस्कृत भाषा में कानन =जंगल.. परन्तु कुछ बाइबिल की कथाओं के अनुसार कनान हेम (Ham)की परम्पराओं में एनॉस का पुत्र था ।
जब कैल्ट जन जाति का प्रव्रजन (Migration) बाल्टिक सागर से भू- मध्य रेखीय क्षेत्रों में हुआ.. तब ... मैसॉपोटामिया की संस्कृतियों में कैल्डिया के रूप में इनकी दर्शन हुआ ... तब यहाँ जीव सिद्ध ( जियोसुद्द )अथवा नूह के रूप में मनु की किश्ती और प्रलय की कथाओं की रचना हुयी ..
. .......और तो क्या ? यूरोप का प्रवेश -द्वार कहे जाने वाले ईज़िया तथा क्रीट( Crete )की संस्कृतियों में मनु आयॉनिया के आर्यों के आदि पुरुष माइनॉस् (Minos)के रूप में प्रतिष्ठित हए । भारतीय पुराणों में मनु और श्रृद्धा का सम्बन्ध वस्तुत: मन के विचार (मनु) और हृदय की आस्तिक भावना (श्रृद्धा ) का मानवीय-करण (personification) रूप है |
शतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में मनु को श्रृद्धा-देव कह कर सम्बोधित किया है ।
तथा श्रीमद्भागवत् पुराण में वैवस्वत् मनु तथा श्रृद्धा से ही मानवीय सृष्टि का प्रारम्भ माना गया है । सतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में " मनवे वै प्रात: "वाक्यांश से घटना का उल्लेख आठवें अध्याय में मिलता है ।
सतपथ ब्राह्मण ग्रन्थ में मनु को श्रृद्धा-देव कह कर सम्बोधित किया है;--श्रृद्धा देवी वै मनु (काण्ड-१--प्रदण्डिका १) श्रीमद्भागवत् पुराण में वैवस्वत् मनु और श्रृद्धा से मानवीय सृष्टि का प्रारम्भ माना गया है--
"ततो मनु: श्राद्धदेव: संज्ञायामास भारत श्रृद्धायां जनयामास दशपुत्रानुस आत्मवान" ------------------------------------------------------
(९/१/११) छन्दोग्य उपनिषद में मनु और श्रृद्धा की विचार और भावना मूलक व्याख्या भी मिलती है ।
"यदा वै श्रृद्धधाति अथ मनुते नाSश्रृद्धधन् मनुते " __________________________________________
जब मनु के साथ प्रलय की घटना घटित हुई तत्पश्चात् नवीन सृष्टि- काल में असुर पुरोहितों की प्रेरणा से ही मनु ने पशु-बलि दी ..
. " किल आत्आकुलीइति ह असुर ब्रह्मावासतु:।
तौ हो चतु: श्रृद्धादेवो वै मनु: आवं नु वेदावेति। तौ हा गत्यो चतु:मनो वाजयाव तु इति।। .
जर्मन वर्ग की प्राचीन सांस्कृतिक भाषों में क्रमशः यमॉ Yemo- (Twice) -जुँड़वा यमल तथा मेन्नुस Mannus- मनन (Munan )करने वाला अर्थात् विचार शक्ति का अधिष्ठाता .फ्राँस भाषा में यम शब्द (Jumeau )के रूप में है ।
रोमन इतिहास कारों में टेकट्टीक्स (Tacitus) जर्मन जाति से सम्बद्ध इतिहास पुस्तक "जर्मनिका " में लिखता है ।
" अपने प्राचीन गाथा - गीतों में वे ट्युष्टो अर्थात् ऐसा ईश्वर जो पृथ्वी से निकल कर आता है ।
मैनुस् उसी का पुत्र है वही जन-जातिों का पिता और संस्थापक है ।
जर्मनिक जन-जातियाँ उसके लिए उत्सव मनाती हैं । मैनुस् के तीन पुत्रों को वह नियत करते हैं । जिनके पश्चात मैन (Men)नाम से बहुत से लोगों को पुकारा जाता है |
( टेकट्टीक्स (Tacitus).. जर्मनिका अध्याय 2. 100ईसवी सन् में लिखित ग्रन्थ.... यम शब्द.... रोमन संस्कृति में यह शब्द (Gemellus )है , जो लैटिन शब्द (Jeminus) का संक्षिप्त रूप है. ....रोमन मिथकों के मूल-पाठ (Text )में मेन्नुस् (Mannus) ट्युष्टो (Tuisto )का पुत्र तथा जर्मन आर्य जातियों के पूर्व पुरुष के रूप में वर्णित है -- A. roman text(dated) ee98) tells that Mannus the Son of Tvisto Was the Ancestor of German Tribe or Germanic people ". ........
इधर जर्मन आर्यों के प्राचीन मिथकों "प्रॉज़एड्डा आदि में "में उद्धरण है ...Mannus progenitor of German tribe son of tvisto in some Reference identified as Mannus उद्धरण अंश (प्रॉज- एड्डा ).....
वस्तुतः ट्युष्टो ही भारतीय आर्यों का देव त्वष्टा है ,जिसे विश्व कर्मा कहा है ..जिसे मिश्र की पुरा कथाओं में तिहॉती ,जर्मन भाषा में प्रचलित डच (Dutch )का मूल त्वष्टा शब्द है ।
गॉथिक शब्द (Thiuda )के रूप में भी त्वष्टा शब्द है ।
प्राचीन उच्च जर्मन में सह शब्द (Diutisc )तथा जर्मन में (Teuton )है ... और मिश्र की संस्कृति में (tehoti) के रूप में वर्णित है. .जर्मन पुराणों में भारतीयों के समान यम और मनु सजातीय थे ।
.भारतीय संस्कृति में मनु और यम दोनों ही विवस्वान् (सूर्य) की सन्तान थे ,इसी लिए इन्हें वैवस्वत् कहा गया ...यह बात जर्मन आर्यों में भी प्रसिद्ध थी. .,The Germanic languages have lnformation About both ...Ymir (यम ) यमीर( यम)and (Mannus) मनुस् Cognate of Yemo and Manu"..
मेन्नुस् मूलक मेन Man शब्द भी डच भाषा का है जिसका रूप जर्मन तथा ऐंग्लो - सेक्शन भाषा में मान्न Mann रूप है ।
प्रारम्भ में जर्मन आर्य मनुस् का वंशज होने के कारण स्वयं को मान्न कहते थे ।
यह मान्यता भी यहीं से मिथकीय रूप में स्थापित हुई .. नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में नारके का अधिपति यमीर को बताया गया है ।
यमीर यम ही है ; हिम शब्द संस्कृत में यहीं से विकसित है यूरोपीय लैटिन आदि भाषाओं में हीम( Heim) शब्द हिम के लिए यथावत है।
नॉर्स माइथॉलॉजी प्रॉज-एड्डा में यमीर (Ymir) Ymir is a primeval being , who was born from venom that dripped from the icy - river ...... earth from his flesh and from his blood the ocean , from his bones the hills from his hair the trees from his brains the clouds from his skull the heavens from his eyebrows middle realm in which mankind lives" ________________________________________
This thesis has been explored by Yadav Yogesh kumar 'Rohi
......... (Norse mythology prose adda) अर्थात् यमीर ही सृष्टि का प्रारम्भिक रूप है।
यह हिम नद से उत्पन्न , नदी और समुद्र का अधिपति हो गया । पृथ्वी इसके माँस से उत्पन्न हुई ,इसके रक्त से समुद्र और इसकी अस्थियाँ पर्वत रूप में परिवर्तित हो गयीं इसके वाल वृक्ष रूप में परिवर्तित हो गये ,मस्तिष्क से बादल और कपाल से स्वर्ग और भ्रुकुटियों से मध्य भाग जहाँ मनुष्य रहने लगा उत्पन्न हुए ... ऐसी ही धारणाऐं कनान देश की संस्कृति में थी ।
वहाँ यम को यम रूप में ही ..नदी और समुद्र का अधिपति माना गया है।
जो हिब्रू परम्पराओं में या: वे अथवा यहोवा हो गया उत्तरी ध्रुव प्रदेशों में ... जब शीत का प्रभाव अधिक हुआ तब नीचे दक्षिण की ओर ये लोग आये जहाँ आज बाल्टिक सागर है, यहाँ भी धूमिल स्मृति उनके ज़ेहन ( ज्ञान ) में विद्यमान् थी ।
मनु का उल्लेख ऋग्वेद काल से ही मानव -सृष्टि के आदि प्रवर्तक एवम् समग्र मानव जाति के आदि- पिता के रूप में किया गया है। वैदिक सन्दर्भों मे प्रारम्भिक चरण में मनु तथा यम का अस्तित्व अभिन्न था कालान्तरण में मनु को जीवित मनुष्यों का तथा यम को मृत मनुष्यों के लोक का आदि पुरुष माना गया . जिससे यूरोपीय भाषा परिवार में मैन (Man) शब्द आया .. मैने प्रायःउन्हीं तथ्यों का पिष्ट- पेषण भी किया है .जो मेरे बलाघात का लक्ष्य है ।
और मुझे अभिप्रेय भी जर्मन माइथॉलॉजी में यह तथ्य प्रायः प्रतिध्वनित होता रहता है !
" जावा द्वीप में प्रचलित राम कथा के सन्दर्भों में कहा जाय तो जाना के रामकेलि , मलय के सेरीराम तथा हिकायत महाराज रावण नामक ग्रन्थ में वर्णित है ; कि सीता दशरथ की पुत्री थी ।
पाली भाषा में "जातकट्ठ वण्णना" के दशरथ जातक में राम कथा के अन्तर्गत सीता राम की -बहिन हैं ।
प्रो. मैक्समूलर के मत में यम-यमी कोई मानवीय सृष्टि के पुरुष न थे किन्तु दिन का नाम यम और रात्री का नाम यमी है इन्हीं दोनों से विवाह विषयक वार्तालाप है। इस कल्पना में दोष यह है कि जब यम और यमी दोनों दिन और रात हुए तो दोनों ही भिन्न-भिन्न कालों में होते हैं।
इससे यहाँ इनको रात्री तथा दिन रूप देना सर्वथा विरुद्ध है।
अनेक भारतीय लेखकों ने भी इन मन्त्रों के व्याख्यान को अलंकार बनाकर यम-यमी को दिन-रात सिद्ध किया है, इनके मत में भी कथा सर्वथा निरर्थक ही प्रतीत होती है, क्योंकि न कभी दिन-रात को विवाह की इच्छा हुई और न कोई इनके विवाह के निषेध से अपूर्वभाव ही उत्पन्न होता है।
आचार्य यास्क जी ने ‘यमी’ का निर्वचन लिंभेद मात्र से ‘यम’ से माना है।
‘यमो यच्छतीत सतः’ अर्थात् यम को यम इसलिए कहा जाता है, क्योंकि यह प्राणियों को नियन्त्रित करता है। (निरुक्त चन्द्रमणिभाष्य-10/12) निरुक्त भाष्यकर्ता स्कन्दस्वामी जी ने यम-यमी को आदित्य और रात्रि मानकर (10/10/8) मन्त्र की व्याख्या की है।
स्वामी ब्रह्ममुनि यम-यमी को पति-पत्नी, दिन-रात्री और वायु-विद्युत् का बोधक मानते हैं।
चन्द्रमणि विद्यालप्रार जी ने अपने निरुक्त परिशिष्ट में सम्पूर्ण यम-यमी सूक्त की व्याख्या की है, जो भाई-बहन परक है, किन्तु सहोदर भाई बहन न दिखा कर सगोत्र दिखाने का प्रयास किया है।
‘‘ अब हम व्याकरण कि दृष्टि से यम-यमी शब्द को जानने का यत्न करते हैं।
महर्षि पाणिनि के व्याकरण के अनुसार ‘पुंयोगादाख्याम्’(अष्टा.-4/1/48) इस सूक्त से यमी शब्द में ङीष् प्रत्यय हुआ है।
इससे ही पत्नी का भाव द्योतित होता है।
यदि यम-यमी का अर्थ भाई-बहन लिया जाता तब यम-यमा ऐसा प्रयोग होना चाहिए था, जबकि ऐसा प्रयोग नहीं है।
जैसे हम लोकव्यवहार में देखते हैं कि आचार्य की स्त्री आचार्याणी, इन्द्र की स्त्री इन्द्राणी आदि प्रसिध्द है न कि आचार्याणी से आचार्य की बहन अथवा इन्द्राणी से इन्द्र की बहन स्वीकार की जाती है।
ऐसे ही यमी शब्द से पत्नी और यम शब्द से पति स्वीकार करना चाहिए।
अर्थात् यम की स्त्री यमी ही होगी।
सायण के यम-यमी सम्वाद भाई-बहन का सम्वाद कदापि नहीं हो सकता।
ये तो सायण ने अपनी पूर्व वर्ती संस्कृतियों से अनुप्रेरित होकर भाई-बहिन अर्थ को जन्म दे दिया है।
जब मनुष्यों में नैतिक रूप का सर्वथा अभाव था । तब यम और यमी के काल तक भाई -बहिन का सम्बन्ध पूर्व संस्कृतियों में पति पत्नी के रूप में भी विद्यमान थी परन्तु स्वसा शब्द भारोपीय मूल का है ।
संस्कृत भाषा में इसका व्युत्पत्ति- मूल इस प्रकार दर्शायी है ।
संस्कृत भाषा कोश कारों ने स्वसार (स्वसृ) शब्द की आनुमानिक व्युत्पत्ति- करने की चेष्टा की है । (सुष्ठु अस्यते क्षिप्यते इति । सु अस् “ सुञ्यसेरृन् । “ उणा० २ । ९७ । इति ऋन् यणादेशश्च । भगिनी । इत्यमरःकोश । २। ६।२९ ॥ (यथा मनुः । २ । ५० । यूरोपीय भाषा परिवार में मे स्वसृ किं
Etymology व्युत्पत्ति :---- From Middle English sister, suster, partly from Old Norse systir (“sister”) and partly from Old English swustor, sweoster, sweostor (“sister, nun”); both from Proto-Germanic *swestēr (“sister”), from Proto-Indo-European (भारत - यूरोपीय ) swésōr (“sister”). Cognate with Scots sister, syster (“sister”), West Frisian sus, suster (“sister”), Dutch zuster (“sister”), German Schwester (“sister”), Norwegian Bokmål søster (“sister”), Norwegian Nynorsk and Swedish syster (“sister”), Icelandic स्वीडन के भाषा परिवार से सम्बद्ध -systir (“sister”), Gothic आद्य जर्मनिक -(swistar, “sister”), Latin soror (“sister”), Russian сестра́ - सेष्ट्रा (sestrá, “sister”), Lithuanian sesuo -सेसॉ (“sister”), Albanian (अलबेनियन रूसी परिवार की भाषा ) vajzë वाजे भगिनी तथा हिब्रू तथा अरब़ी भाषा में व़ाजी -बहिन । (“girl, maiden”), Sanskrit -स्वसृ (svásṛ, “sister”), Persian अवेस्ता ए झन्द में خواهر (xâhar, -ज़हरा “ “ मातरं वा स्वसारं वा मातुलां भगिनीं निजाम् ।
भिक्षेत भिक्षां प्रथमं या चैनं नावमानयेत् ॥ )
भगं यत्नः पित्रादीनां द्रव्यादानेऽस्त्यस्याः इनि ङीप् । १ सोदरायाम् स्वसरि अमरः ।
“भगिनीशुल्कं सोदर्य्याणाम्” दायभागः । २स्त्रीमात्रे च शब्दच० ३ भाग्यात्वितस्वीमात्रेऽपि तेन सर्वस्त्रीणां तत्पदेन सम्बोधन विहितम् ।
“परपत्नी च या स्त्री स्यादसम्बन्धाश्च योनितः । तां ब्रूयाद्भवतीत्येवं सुभगे भगिनीति च” मनुः स्मृति ।
अब बन्धु शब्द पर विचार करें :-- (बन्ध बन्धने “ शॄस्वृस्निहित्रपीति । “उणा० १ । ११ । इति उः प्रत्यय । ) स्नेहेन मनो बध्नाति यः बन्धु: तत्पर्य्यायः । १ सगोत्रः २ बान्धवः ३ ज्ञातिः ४ स्वः ५ स्वजनः इत्यमरःकोश । २ । ६ । ३४ ॥ दायादः ७ गोत्रः ८ । इति शब्दरत्नावली ॥
बन्धवश्च त्रिविधा ।
आत्मबन्धवःपितृबन्धवो मातृबन्धवश्चति ।
यथोक्तम् ।
“ आत्मपितृष्वसुः पुत्त्रा आत्ममातृष्वसुः सुताः । आत्ममातुलपुत्त्राश्च विज्ञेया ह्यात्मबान्धवाः ॥
पितुः पितृष्वसुः पुत्त्राः पितुर्मातृष्वसुः सुताः । पितुर्मातुलपुत्त्राश्च विज्ञेयाः पितृबान्धवाः ॥ मातुःपितृष्वसुः पुत्त्रा मातुर्मातृष्वसुः सुताः , मातुर्मातुलपुत्त्राश्च विज्ञेया मातृबान्धवाः ॥ तत्रचान्तरङ्गत्वात् प्रथममात्मबन्धवो धनभाजस्तदभावे पितृबन्धवस्तदभावे मातृबन्धव इति क्रमो वेदितव्यः । बन्धूनामभावे आचार्य्यः । इति मिताक्षरा । (यथा मनुः । २ । १३६ । “ वित्तं बन्धुर्वयः कर्म्म विद्या भवति पञ्चमी । एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम् ॥ बन्धुः पितृव्यादिः । “ इति तट्टीकायां कुल्लूकभट्टः ॥ ) बन्धूकः । (यथा अशोकवधे । २९ । “ अभ्यर्च्य बन्धुपुष्पमालयेति ) मित्रम् । (यथा मेघदूते । ३४ । “ बन्धुप्रीत्या भवनशिखिभिर्दत्तनृत्योपहारः ॥) भ्राता । इति मेदिनी रघुवंश महाकाव्य में बन्धु शब्द भाई का भी वाचक है । ॥ (यथा रघुवंशम् । १२ । १२ । “ अथानाथाः प्रकृतयो मातृबन्धुनिवासिनम् । मौलैरानाययामासुर्भरतं स्तम्भिताश्रुभिः ॥
“ प्राचीनत्तम मिश्र में रेमेशिस तथा सीतामुन के रूप में दाम्पत्य जीवन का निर्वहन करने वाले भाई -बहिन ही राज्य शासन परम्पराओं का निर्वहन करते थे । बौद्ध-ग्रन्थों विशेषत: दशरथ जातक में राम और सीता को भाई-बहिन के रूप में वर्णित किया गया है ।
कलीदास ने राम को सीता का बन्धु कहा है ।
और बन्धु का अर्थ भाई के रूप में वर्णित है ।
वेदों में सीता को स्वसार अर्थात् -बहिन रूप में वर्णन विचारणीय है । ______________________________________
भद्रो भद्रया सचमान आगात् स्वसारं जारो अभ्येति पश्चात्। सुप्रकेतैर्द्युभिरग्निर्वितिष्ठन्रुशद्भिर्वर्णैरभि राममस्थात्॥
बौद्ध-ग्रन्थों में भी राम की कथाओं का समायोजन है । यहाँ राम और सीता पति और पत्नी न होकर भाई -बहिन को रूप में वर्णित हैं ।
दशरथ जातक- बौद्ध रामायण कथा में स्वयं भगवान बुद्ध द्वारा जेतवन विहार में एक जमींदार की कथा बताई गयी थी , जिसके पिता की मृत्यु हो गयी थी , वह जमींदार ने अपने पिता की मृत्यु पर इतना दुखी हुआ की सारे काम छोड़ दिए और दुःख में डूब गया , तब उस सन्दर्भ में तथागत ने उसे यह कथा बताई थी , वैसे इतिहासकारो का मानना है की रामायण को मौर्या काल और गुप्त काल के समय लिखा गया था ।
जो बुद्ध के बाद का है और इस में करीब 900 वर्ष का समयान्तराल है । -------------------------------------------------------------------
जातक कथाओं का बौद्ध धम्म में बहुत महत्वपूर्ण स्थान है , यह ईसवी सन् से 300 वर्ष पूर्व की घटना है।
इन कथाओं मे मनोरंजन के माध्यम से नीति और धर्म को समझाने का प्रयास किया गया है।
जातक खुद्दक निकाय का दसवाँ प्रसिद्ध ग्रन्थ है। बौद्ध जातक कथाओ में करीब 500 कथाये हैं इन कथाओ में एक कथा है " दशरथ जातक" - जिस में रामायण के सभी पात्र है , लेकिन इस बौद्ध कथा में दशरथ आयोध्या का राजा न हो कर वाराणसी का राजा हैं , और सीता राम की पत्नी न हो कर बहन है , इस के आलावा राम का वनवास 14 साल न हो कर 12 साल का है , परन्तु वाल्मीकि-रामायण के समान रावण और हनुमान का कोई स्थान नहीं है इस बौद्ध जातक में , न सीता का अपरहण है ना ही युद्ध का वर्णन । -------------------------------------------------------------------
वाराणसी के महाराजा दशरथ की सोलह हजार रानीयाँ थी ।
बड़ी पटरानी ने दो पुत्र और एक पुत्री को जन्म दिया । पहले पुत्र का नाम राम-पण्डित ,दूसरे का नाम लक्खन कुमार तथा पुत्री का नाम सीता देवी रखा गया । आगे चलकर पटरानी का देहान्त हो गया । अमात्यों के द्वारा दूसरी पटरानी बनाई गयी। उसने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम भरत कुमार रखा गया ।
राजा ने पुत्र-स्नेह से रानी से कहा --"भद्रे ! हम तुझे एक वर देता हैं मांगो ! " रानी ने वर मांग कर रख लिया और जब कुमार बड़ा हुआ तो राजा के पास पहुंचकर बोली "देव ! तुमने मेरे पुत्र को वर दिया था ।
अब मैं मांगती हूँ मेरे पुत्र को राज्य दो ।
" राजा को अच्छा नही लगा । उसने उसे डराते हुए कहा --"चण्डालिनी! तेरा नाश हो । मेरे दोनों पुत्र राम पण्डित और लक्खन कुमार गुण सम्पन्न हैं ।
उन्हें मरवाकर अपने पुत्र को राज्य देना चाहती है।" वह डर कर अपने शयनागार में चली गयी और बार-बार राजा से राज्य की याचना करती रही ।
राजा सोंचने लगा --" स्त्रियां मित्रद्रोही होती हैं ।
कहीं झूठी राजाज्ञा या झूठी राज-मोहर के द्वारा मेरे दोनों पुत्रों को मरवा न दे " उसने राम पण्डित और लक्खन कुमार को चुपचाप बुलाया और कहा --"तात !
यहाँ तुम्हारे जीवन को खतरा है तुम किसी जंगल में जाकर रहो और मेरी मृत्यु के बाद अपने वंश के राज्य पर अधिकार कर लेना ।" फिर उसने राज-ज्योतिषी से अपनी आयु की सीमा पूँछी ।
उन्होंने बारह वर्ष बताई । तब वह उनसे बोला --"तात! अब से बारह वर्ष बाद छत्र धारण करना ।" यह सुनकर दोनों ने पिता को प्रणाम किया और महल से बाहर निकले ।
सीता देवी बोली-" मैं भी भाइयों के साथ जाउँगी ।
" उसने भी पिता को प्रणाम किया ।
इस प्रकार तीनों दुखी मन से नगर से बाहर निकले ।
राज्य की जनता भी उसी के पीछे-पीछे चल दी ।
राम पण्डित ने उन्हें समझाकर वापस लौटाया ।
इस प्रकार वे तीनों हिमालय में ऐसी जगह पहुँचे जहाँ पानी और फल सुलभ हों । वहाँ आश्रम बनाकर वे जीवन निर्वाह करने लगे ।लक्खन कुमार और सीता देवी ने राम पण्डित से प्रार्थना की कि तुम हमारे अग्रज हो , पिता-तुल्य हो , तुम आश्रम में रहो ।
हम दोनों भाई-बहन जंगल से फल-फूल लाकर तुम्हारा पोषण करेंगे । तब से राम पण्डित आश्रम में ही रहे और वे उनकी सेवा करने लगे । इस प्रकार नौ वर्ष बीत गए ।
उधर राजा दशरथ मर गए ।
उसके बाद रानी ने अपने पुत्र भरत कुमार से कहा - "छत्र धारण कर राज्य संभालो ।" लेकिन अमात्यों को यह अच्छा न लगा । उन्होंने बाधा डाली और कहा -- "छत्र के असली स्वामी तो जंगल में रहते है । भरत कुमार ने सोंचा ,मैं अपने बड़े भाई राम पण्डित को जंगल से लाकर छत्र धारण कराऊंगा ।
वह अपनी चतुरंगिनी सेना लेकर राम पण्डित के आश्रम पर पहुंचा और थोड़ी दूर पर छावनी डाल दी ।
इस समय लक्खन कुमार और सीता देवी जंगल में फल-फूल लेने गए थे । राम पण्डित अकेले में ध्यान भावना में सुखपूर्वक बैठे हुए थे ।
भरत कुमार ने उन्हें प्रणाम किया और पिता की मृत्यु का समाचार कह अमात्यों सहित उनके पैरों पर गिर कर रोने लगे ।
राम पण्डित न चिंतित हुआ और न रोया ।
उसकी आकृति में विकृति नही आई ।
इसी समय लक्खन कुमार और सीता देवी आश्रम में आयीं । पिता की मृत्यु का समाचार सुन वे दोनों बेहोश हो गए ।होश आने पर विलाप करते रहे ।
भरत कुमार ने सोंचा--"मेरा भाई लक्खन कुमार और सीता देवी पिता के मरने की खबर सुनकर शोक सहन न कर सके ,किन्तु राम पण्डित न सोंच करता है ,न रोता है । उसके पास शोक-रहित रहने का क्या कारण है ?
मैं उससे पूछूँगा ।
केन रामप्पभावेन ,सोचितब्बम् न सोचसि।
पितरं कालकतं सुत्वा,न तं पसहते दुखं।।
अर्थ : हे राम ! तू किस प्रभाव के कारण सोचनीय के लिये चिन्ता नही करता ?
पिता के मर जाने का समाचार सुन कर तुझे दुःख नही होता ।
दहरा च हि बुद्धा च, ये बाला ये च पण्डिता। अद्दा चेव दलिद्दा च, सब्बे मच्चुपरायणा।। अर्थ: तरुण,बुद्ध,मुर्ख,पण्डित,धनी तथा दरिद्र --सभी मरणशील है ।
इस प्रकार संसार में सभी नाशवान है,। अनित्य है ।
जैसे आदमी बहुत विलाप करके भी जीवित नही रह सकता ,उसके लिये कोई बुद्धिमान मेधावी अपने आप को कष्ट क्यों दे ।
इसलिए रोने-पीटने से मृत आदमी का पोषण नही होता ,रोना-पीटना निर्रथक है ।
जो धीर है ,बहुश्रुत है, इस लोक और परलोक को देखता है ,उसके हृदय और मन को बड़े भारी शोक भी कष्ट नही देते हैं । राम पण्डित के इस धर्मोपदेश को सुनकर सभी शोक रहित हो गए । तब भरत कुमार ने राम पण्डित को प्रणाम करके प्रार्थना की --"वाराणसी चलकर अपना राज्य संभालें ।" "तात! लक्खन कुमार और सीता देवी को ले जा कर राज्य का अनुशासन करो ।
और देव ! तुम ?" " तात !मुझे पिता ने कहा था कि बारह वर्ष के बाद आकर राज्य करना । मैं अभी गया तो उनकी आज्ञा का पालन न होगा ।अभी तीन वर्ष शेष है ।
बीतने पर आऊंगा ।" "इतनी देर तक कौन राज्य "तुम करो " "हम नही चलाएंगे " "तो जब तक मैं नही आता ये पादुका राज्य संभालेगी।" तीनो जने राम पण्डित की पादुका ले , प्रणाम कर वाराणसी लौट आये । तीन वर्ष पादुकाओं ने राज्य किया । राम पण्डित तीन वर्ष बाद जंगल से निकलकर वाराणसी नगर पहुंचा ,राजोद्यान में प्रवेश किया । अमात्यों ने राम पण्डित को राजमहल में ला राज्याभिषेक किया ।
दस वस्सहस्सानि,सट्ठि वस्सतानि च।
कम्बुगीवो महाबाहु ,रामो रज्जमकारयीति ।।
अर्थ: स्वर्ण-ग्रीवा महान बाहु राम ने दस हजार और छः हजार (अर्थात सोलह हजार )वर्ष तक राज्य किया । राम का जन्म अयोध्या में हुआ था ; परन्तु अयोध्या भारत में कहीं नहीं है । आज जिसे अयोध्या माना जाता है । वह फैजाबाद पहले साकेत रहा है ।
अयोध्या अथवा अवध थाई लेण्ड का प्राचीन राजधानी है ।
जिसका भौगोलिक विवरण निम्न है । __________________________________________ राजधानी :अयोथया क्षेत्रफल :२,५५७ किमी² जनसंख्या(२०१४): • घनत्व :८,०३,५९९ ३१४/किमी² उपविभागों के नाम:अम्फोए (ज़िले) उपविभागों की संख्या:१६ मुख्य भाषा(एँ):थाई फ्र नखोन सी अयुथया थाईलैण्ड का एक प्रान्त है। यह मध्य थाईलैण्ड क्षेत्र में स्थित है।
नामोत्पत्ति--- " अयुथया " शब्द रामायण की अयोध्या नगरी का थाई रूप है ;
और "सी" शब्द श्री का रूप है।
इसी प्रकार "नखोन" संस्कृत के "नगर " अपभ्रंश नगुल ( नगला ) का रूप है।
"फ्र" शब्द थाई में संस्कृत के "देव " (प्रिय ) शब्द का रूप है। अर्थात "फ्र नखोन सी अयुथया" का अर्थ " देव नगरी श्री अयोध्या " है। थाईलैण्ड के प्रान्त मध्य थाईलैण्ड ("फ्र नखोन सी अयुथया") राम कथा के सन्दर्भों में दूसरा पहलू राष्ट्रकवि का विरुद (यश) पाये दिनकरजी का यह गद्यांश हमने उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय` से लिया है। दिनकरजी न केवल कवि थे, बल्कि एक गंभीर संस्कृति-चिंतक भी थे। राम कथा पर उनका यह लेख कई जरूरी पहलुओं को सामने लाता है। रामधारीसिंह दिनकर की राम-कथा का मूल स्रोत क्या है ? तथा यह कथा कितनी पुरानी है, इस प्रश्न का सम्यक् समाधान अभी नहीं हो पाया है।
इतना सत्य है कि बुद्ध और महावीर के समय जनता में राम के प्रति अत्यन्त आदर का भाव था, जिसका प्रमाण यह है कि जातकों के अनुसार, बुद्ध अपने पूर्व जन्म में एक बार राम होकर भी जनमे थे और जैन-ग्रन्थों में तिरसठ महापुरुषों में राम और लक्ष्मण की भी गिनती की जाती थी। इससे यह अनुमान भी निकलता है कि राम, बुद्ध और महावीर, दोनों के बहुत पहले से ही समाज में आदृत रहे होंगे।
विचित्रता की बात यह है कि वेद में राम-कथा के अनेक पात्रों का उल्लेख है।
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यादव योगेश कुमार "रोहि "